भरण पोषण क्यों है प्रक्रिया विधि का हिस्सा? जानिए सीआरपीसी की धारा 125 से संबंधित मुख्य बातें
Shadab Salim
27 Feb 2020 9:15 AM IST
भारतीय विधि ने व्यक्ति पर अपनी पत्नी, संतान और वृद्ध माता-पिता के भरण-पोषण का दायित्व सौंपा है। भरण-पोषण के संबंध में अदालतों के कई ऐसे निर्णय हैं, जिनमें किसी व्यक्ति को अपने आश्रितों के भरण पोषण को सामाजिक दायित्व कहा है।
जागीर कौन बनाम जसवंत कौर AIR 1963 सुप्रीम कोर्ट 1521 के मामले में यह कहा गया है कि यह केवल व्यक्ति का ही दायित्व नहीं अपितु सामाजिक दायित्व भी है।
किसी सामाजिक उद्देश्य की पूर्ति हेतु दंड प्रक्रिया संहिता में पत्नी संतान एवं वृद्ध माता-पिता के भरण पोषण संबंधी वैधानिक प्रावधान रखे गए हैं।
प्रश्न यह है कि इस तरह के भरण-पोषण को प्रक्रिया विधि में क्यों रखा गया है?
दंड प्रक्रिया संहिता के अध्याय 9 की धारा 125 से लेकर 128 तक के प्रायोजन का उद्देश्य व्यक्ति को दंडित करना कभी नहीं रहा है और न ही यह उपबंध दांडिक प्रावधान की श्रेणी में आते हैं।
कनियापन बनाम अकिलन्दामा AIR 1954 मद्रास 427 के मामले में न्यायालय ने कह है कि भरण पोषण कोई धार्मिक विधि नहीं है। इस विधि का मुख्य उद्देश्य व्यक्ति को स्वयं के परिवार के प्रति दायित्व का बोध कराना है और एक ऐसे समाज की स्थापना करना है, जहां व्यक्ति अपने आश्रित लोगों का भरण पोषण देने में चूक नहीं करे।
उल्लेखनीय है कि हिंदू दत्तक ग्रहण एवं भरण पोषण अधिनियम 1956 की धारा 18 से 20 में भी पत्नी संतान तथा वृद्ध माता-पिता के भरण पोषण संबंधी प्रावधान दिए गए हैं।
दंड प्रकिया संहिता की धारा 125 के अंतर्गत इन आश्रितों के बारे में उपबंध समाविष्ट किए जाने का उद्देश्य यह है कि दंड प्रक्रिया संहिता के अधीन परित्यक्त पत्नी या अवयस्क संतान या वृद्ध माता-पिता को मजिस्ट्रेट के न्यायालय द्वारा तुरंत उपचार मिल सके और पति, पिता,पुत्र यथास्थिति हिंदू विधि के अधीन सिविल मुकदमाबाजी के नाजायज लाभ लेते हुए अपने भरण-पोषण के दायित्व से बचने में सफल न हो सके।
व्यक्ति पर अपने परिवार के आश्रित लोगों को भरण-पोषण दिए जाने का दायित्व प्रक्रिया विधि की इस धारा 125 के अंतर्गत सौंपा गया है।
भरण पोषण पाने के हकदार कौन लोग होंगे
दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 125 के अंतर्गत निम्न लोग भरण पोषण पाने के पात्र होते हैं।
पत्नी जो अपना भरण-पोषण कर पाने में असमर्थ है।
अवयस्क संतान जो भरण पोषण कर पाने में असमर्थ है, भले यह संतान धर्मज हो या अधर्मज हो या फिर विवाहित हो या अविवाहित हो।
यदि कोई संतान किसी शारीरिक या मानसिक अक्षमता के कारण या क्षति के कारण अपना भरण-पोषण करने में असमर्थ है।
व्यक्ति के माता-पिता जो अपना भरण-पोषण पर पाने में असमर्थ हैं।
असमर्थता
दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 125 के अंतर्गत एक शब्द असमर्थ बारंबार प्रयोग किया गया है, वह है असमर्थ। इस शब्द का अर्थ यह है कि कोई भी व्यक्ति जो अपना भरण-पोषण करने में असमर्थ है, केवल वही आश्रित, उस व्यक्ति से जिस पर वह आश्रित है, भरण पोषण मांग सकता है।
असमर्थ होना भरण पोषण का उत्तराधिकारी होने का सबसे महत्वपूर्ण पहलू होता है। यदि कोई व्यक्ति असमर्थ है तो ही भरण पोषण का आदेश न्यायालय द्वारा दिया जाएगा।
वयस्क और अपना जीवन खुद चला पाने में समर्थ भरण पोषण पाने का हकदार नहीं होता है। प्रकिया विधि में इस धारा को डालने का उद्देश्य केवल यह है कि यदि कोई व्यक्ति पूरी तरह से पर्याप्त साधन लिए हैं और ऐसे व्यक्ति के आश्रित लोग जीवन की कठिनाइयों से गुजर रहे हैं, परंतु साधन रखने वाला व्यक्ति इन आश्रित लोगों पर ध्यान नहीं देता है और इन्हें दीन हीन परिस्थितियों में छोड़ देता है तो इस विकट स्थिति से निपटने के लिए ही दंड प्रक्रिया संहिता धारा 125 के प्रावधान रखे गए हैं।
जीवन जी पाने में असमर्थ लोगों के लिए राज्य की भी जिम्मेदारी बनती है कि वह उन्हें भरण पोषण दे परंतु राज्य से पहले याद यह दायित्व उस व्यक्ति का बनता है जिस व्यक्ति के अंतर्गत ऐसे लोग आश्रित है।
भारतीय समाज में विवाहित महिलाओं को कामकाजी नहीं होने दिया जाता है तथा महिलाओं का संसार बहुत संकुचित होता है। उन्हें घर बार तक सीमित रखा जाता है जिससे उनके जीवन में कोई वित्तीय महत्व और वित्तीय स्रोत नहीं रहता है।
धन के मामले में वह अत्यंत पंगु होती है लगभग पूरी तरह पति पर आश्रित। उसकी यह स्थिति होती है कि यदि जिस भी व्यक्ति पर आश्रित है वह व्यक्ति उसका साथ छोड़ दे तो वहां महिला रोटी कपड़ा मकान तक से वंचित हो जाएगी। समाज में महिलाओं की स्थिति को इस तरह से कर दिया गया है कि वह स्वयं अपनी बुनियादी आवश्यकताओं को भी पूरा नहीं कर पाती हैं।
धारा 125 का उपयोग सर्वाधिक भारतीय विवाहित स्त्रियों द्वारा ही किया जाता है। पुरुष विवाह के उपरांत स्त्रियों का परित्याग कर देते हैं और किन्हीं अन्य स्त्रियों के संपर्क में लग जाते हैं, ऐसी परिस्थिति में उस पुरुष पर आश्रित पूर्व स्त्री दीन हीन हो जाती है। इस भांति परित्याग की गई या तलाक दी गई स्त्रियों के लिए दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 125 ब्रह्मास्त्र का काम करता है।
आशीष बनाम डीसी तिवारी के मामले में कहा गया है कि-
दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 125 के उपबंध संविधान के अनुच्छेद 15(3) तथा 39 में वर्णित सामाजिक सुरक्षा संबंधी प्रावधानों के अनुरूप है।
हिंदू पारिवारिक व्यवस्था में परिवार के मुखिया का यह नैतिक एवं धार्मिक कर्तव्य है कि वह अपनी पत्नी अपनी संतान तथा अपने माता-पिता के भरण-पोषण का दायित्व का निर्वहन करे। इस व्यवस्था को समाप्त कर दिया जाए तो समाज में पारिवारिक मजबूती समाप्त हो जाएगी तथा परित्यक्त पत्नी बच्चे और वृद्ध माता-पिता निराश्रित होकर समाज के लिए गंभीर समस्या उत्पन्न कर देंगे।
यही कारण है कि प्राचीन हिंदू विधि के मर्मज्ञ स्मृतिकार मनु ने प्रत्येक हिंदू व्यक्ति पर निरूपित किया था कि वह आबद्ध होकर अपने वृद्ध माता-पिता साध्वी पत्नी तथा संतानों का भरण पोषण करे।
धारा 125 पूर्ण रूप से धर्मनिरपेक्ष धारा
इस धारा के संबंध में समय-समय पर यह विवाद रहा है कि यह धारा एक धर्मनिरपेक्ष धारा नहीं है तथा इस प्रकार से परिवार का ढांचा हिंदू धर्म के अनुसार तो ठीक है परंतु अन्य धर्मों के हिसाब से यह ठीक नहीं है तथा इस प्रकार के नियम को अन्य धर्मों पर थोंपा जाने का प्रयास किया गया है। इस तरह के विचार धारा 125 के संबंध में आते रहे।
इंदौर का एक मशहूर मामला मोहम्मद अहमद खान बनाम शाहबानो बेगम का रहा है। यह मुकदमा उच्चतम न्यायालय तक गया है तथा धारा 125 की धर्मनिरपेक्षता पर बहस भी हुई।देशभर में हंगामे भी हुए है तथा भारत की संसद में 'मुस्लिम स्त्री विवाह विच्छेद पर अधिकारों का संरक्षणअधिनियम 1986' पारित किया गया था।
बाद के मुकदमों में उच्चतम न्यायालय ने समय-समय पर यह अभिनिर्धारित कर दिया है कि दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 125 पूर्ण रूप से धर्मनिरपेक्ष धारा है तथा इस धारा का संबंध किसी धर्म विशेष से नहीं है और इसके प्रावधान यदि किसी धर्म विशेष से मिलते हैं तो यह एक संयोग मात्र है क्योंकि इसके प्रावधान तो समाज और व्यक्तियों की वर्तमान व्यवस्था को देखकर बिल्कुल ठीक प्रतीत होते हैं।
इस तरह के प्रावधान महिलाओं बच्चों और वृद्ध के पक्ष में है तथा इस्लाम धर्म में भी महिलाओं बच्चों और वृध्दों को विशेष संरक्षण दिए जाने पर बल दिया गया है, यह प्रावधान उसी विशेष संरक्षण की तरह है।
चांद बेगम बनाम हैदरबेग के मामले में यह कहा गया है कि धारा 125 के अंतर्गत विचारण में पति पत्नी के दांपत्य के अधिकारों पर विचार नहीं किया जाता है। क्योंकि धारा 125 का उद्देश्य केवल भरण पोषण का अधिकार दिलाने तक ही सीमित है। इस धारा के अधीन मामले का निपटारा संक्षिप्त प्रक्रिया द्वारा होता है जिससे न्याय यथासंभव शीघ्र प्राप्त होता है।
हिंदुओं के लिए भरण पोषण के नियम हिंदू दत्तक ग्रहण भरण पोषण अधिनियम 1956 के प्रावधानों के अंतर्गत आते हैं। यह कोडिफाई लॉ एक धार्मिक विधि है, जिसे भारत की संसद द्वारा एक धर्म विशेष के लोगों के लिए तैयार किया गया है। परंतु दंड प्रक्रिया संहिता तो समस्त भारतवर्ष के नागरिकों के लिए एक धर्मनिरपेक्ष विधि है जो समान रूप से सभी पर लागू होती है इसलिए धारा 125 के प्रावधान पूर्ण रूप से धर्मनिरपेक्ष है।
पत्नी निम्न स्थिति में भरण पोषण की उत्तराधिकारी नहीं होती
यदि पत्नी पर-पुरुषगामी है।
यदि वह बिना किसी उचित कारण के अपने पति के साथ रहने से इंकार करती है।
यदि पति पत्नी दोनों आपसी सहमति से अलग रह रहे है।
विवाहिता पुत्री की दशा में मजिस्ट्रेट द्वारा भरण पोषण का आदेश केवल उस अवधि के लिए दिया जा सकेगा जब तक पुत्री वयस्कता प्राप्त नहीं कर लेती है या उसके पति के पास भरण पोषण के लिए समुचित साधन उपलब्ध नहीं है।
इस धारा के अधीन भरण पोषण की मांग करने हेतु कोई परिसीमा अवधि निर्धारित नहीं की गई है, अतः एक लंबे समय तक भरण पोषण की मांग नहीं की जाने को पत्नी द्वारा इस अधिकार का त्यजन नहीं माना जा सकता।