SC/ST Act में धमकी से संबंधित क्राइम

Shadab Salim

7 May 2025 9:27 AM IST

  • SC/ST Act में धमकी से संबंधित क्राइम

    निरसित हो चुकी भारतीय दण्ड संहिता की धारा 504 के अधीन आरोप का सम्बन्ध था, पीड़िता को इस आशय/जानकारी के साथ प्रकोपित करना, जिससे कि वह शान्ति भंग कर सके अथवा भारतीय दण्ड संहिता की धारा 504 में यथा इंगित कोई अन्य अपराध कारित कर सके, का साक्ष्य में अभाव है। जहाँ तक भारतीय दण्ड संहिता की धारा 506 के अधीन आरोप का सम्बन्ध है, कोर्ट ने भारतीय दण्ड संहिता की धारा 506 के भाग 1 और भाग 2 के बीच अन्तर को विस्तारपूर्वक स्पष्ट किया है।

    संक्षिप्त रूप में कथित भारतीय दण्ड संहिता की धारा 506 के अधीन अपराध बनाने के लिए धारा 503 के आवश्यक तत्वों को साबित किया जाना चाहिए। अभियुक्त का किसी व्यक्ति को यह चेतावनी देने का कृत्य कि उस व्यक्ति को ऐसा कृत्य करना है, जिसे करने के लिए वह विधितः बाध्य न हो अथवा उसे ऐसे कृत्य को, जिसे करने के लिए वह विधितः बाध्य हो, लोप करने के लिए विवश करना उस धमकी के निष्पादन को उपेक्षित करने के रूप में विद्यमान होना दर्शाया जाना चाहिए।

    प्रावधान के पहले भाग में दण्ड जुर्माना सहित अथवा रहित 2 वर्ष तक का हो सकता है। दूसरे भाग में, धमकी की गम्भीरता पर निर्भर रहते हुए दण्ड 7 वर्ष तक का हो सकता है और यदि महिला का सतीत्व भंग किया गया हो, तब यह जुर्माना सहित अथवा रहित 7 वर्ष तक का भी हो सकता है। इसलिए, उपयुक्त साक्ष्य मामले को या तो भारतीय दण्ड संहिता की धारा 506 के पहले भाग या दूसरे भाग में आने के रूप में वर्गीकृत करेगा।

    गुजरात राज्य बनाम नानिया उर्फ राजेन्द्र कुमार गुणवन्तराय राजगोड़, 2018 क्रि० लॉ ज० 4963 : 2019 (1) क्रि० सी० सी० 389 (गुज०) के मामले में कहा गया है जहाँ तक भारतीय दण्ड संहिता की धारा 354 के अधीन आरोप का सम्बन्ध है, साक्षी ने संगत रूप में और बिना किसी लोप, सुधार और अतिशयोक्ति के अभिसाक्ष्य दिया था और इस बात का सामना किया था कि पीड़िता अरुणा तथा धनीबेन के साथ छेड़छाड़ की गयी थी। इसलिए, भारतीय दण्ड संहिता की धारा 354 के अधीन अपराध बनाता है। संक्षिप्त में अभियुक्त नानियो और भोलियो एक दूसरे की सहायता से अपराध संयुक्त रूप में कारित किए थे, जैसा कि ज्यीरवार साक्ष्य दर्शाता है। इसलिए भारतीय दण्ड संहिता की धारा 114 भी अपराध बनता है।

    अरोमा एम० फिलेमन बनाम स्टेट आफ राजस्थान, 2013, क्रि० लॉ ज० 1933 (राज०) के मामले में जाति की स्थिति के आधार पर अपमान यह अभिकथित किया गया कि उस विद्यार्थी, जिसे डांटा गया था, की आत्महत्या के लिए स्कूल का प्रधानाचार्य उत्तरदायी था और उसे अपने दुराचरण के लिए विद्यार्थियों की सभा के सामने क्षमायाचना के लिए कहा गया था।

    परिवाद में विद्यार्थी के पिता तथा अन्य परिवार के सदस्यों ने बार-बार अभिकथन किया कि विद्यार्थी को बार-बार अपमानित किया गया था तथा उसे उसके जातिसूचक शब्दों के द्वारा सम्बोधित करते हुए सभा के सामने सार्वजनिक रूप से अपमानित किया गया था। प्रथम सूचना रिपोर्ट में अधिनियम की धारा 3 के अधीन अपराध के आवश्यक तत्व प्रथम दृष्टया विद्यमान थे और उसे अभिखण्डित नहीं किया जा सकता है।

    अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति के सदस्यों का अपमान दोनों उपधाराओं का संयुक्त वाचन यह दर्शाता है कि उपधारा (ii) के अधीन अनुसूचित जाति अथवा अनुसूचित जनजाति के सदस्य का अपमान उसके परिसर अथवा पड़ोस में उत्सर्जी पदार्थ, कूड़ा-करकट, लाश अथवा कोई अन्य हानिकारक पदार्थ फेंक करके किया जा सकता है, उत्सर्जी पदार्थ, आदि को फेंकना आवश्यक रूप से अपमानित किये जाने वाले व्यक्ति की उपस्थिति में किया जाना आवश्यक नहीं है, जबकि उपधारा (x) के अधीन अपमान केवल तब कारित किया जा सकता है, यदि वह अभिव्यक्ति "जनता को दृष्टिगोचर किसी स्थान में" को दृष्टि में उपस्थित हो।

    चन्द्र पुजारी बनाम स्टेट आफ कर्नाटक के मामले में कहा गया है कि अपमान का आशय का सबूत स्वीकृत रूप से, याची उस पद से अवगत नहीं था। परिवादी के चैम्बर से संलग्न चपरासी के कथन से यह स्पष्ट है कि उसे उस विशेष दिन पहली बार देखा गया है। यह सत्य है कि याची चार्टर्ड एकाउण्टेण्ट के रूप में व्यवसाय कर रहा है और अपने मुवक्किलों के लेखाओं को प्रस्तुत करने के लिए चैम्बर गया हुआ था।

    जब तक यह साबित नहीं किया जाता है कि याची इस तथ्य से अवगत था कि परिवादी उस जाति से सम्बन्धित था और उसे अपमानित करने के आशय से उसने ऐसे शब्द का प्रयोग किया था, यह नहीं कहा जा सकता है कि याची की ओर से उस नाम से बुला करके उसे अपमानित करने का आशय था। इसलिए इस वाद में अधिनियम की धारा 3 (1) (x) की कोई अपेक्षा संतुष्ट नहीं होती है।

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