संविदा विधि (Contract Law) भाग 6 : स्वतंत्र सहमति (Free Consent) क्या होती है?

Shadab Salim

19 Oct 2020 1:58 PM GMT

  • संविदा विधि (Contract Law) भाग 6 : स्वतंत्र सहमति (Free Consent) क्या होती है?

    संविदा विधि के पिछले आलेखों में अब तक हमने जाना है कि किसी भी करार के लिए प्रस्थापना और प्रस्थापना का प्रतिग्रहीत होना आवश्यक होता है तथा जब प्रस्थापना प्रतिग्रहीत हो जाती है तो वह करार बन जाती है। भाग पांच के अंतर्गत हमने जाना है कि कोई करार वैध संविदा कब बनता है तथा किसी भी करार को वैध संविदा होने हेतु सक्षम पक्षकार तथा स्वतंत्र सहमति का होना नितांत आवश्यक होता है

    पिछले आलेख में यह भी अध्ययन किया जा चुका है कि कोई करार के सक्षम पक्षकार क्या होते है, सक्षम पक्षकार होने के लिए वयस्कता, स्वस्थ चित्त, और विधि द्वारा निर्योग्य नहीं होना महत्वपूर्ण शर्त है। इस आलेख में हम स्वतंत्र सहमति (Free Consent) के संदर्भ में अध्ययन कर रहे है।

    भारतीय संविदा अधिनियम 1872 के अंतर्गत संविदा को समझते हुए धारा 10 का अध्ययन करने के पश्चात यह निष्कर्ष निकलता है कि किसी भी वैध संविदा के लिए सक्षम पक्षकार स्वतंत्र सहमति और विधिपूर्ण उद्देश्य और प्रतिफल आवश्यक होता है। स्वतंत्र सहमति थोड़ा विषाद विषय है इसलिए भाग- 7 का आलेख भी स्वतंत्र सहमति से संबंधित होगा।

    वैध संविदा के लिए स्वतंत्र सहमति आवश्यक गुण है। स्वतंत्र सहमति की परिभाषा भारतीय संविदा अधिनियम के अंतर्गत धारा 14 में प्रस्तुत की गई है। धारा 14 के अंतर्गत स्वतंत्र सहमति के गुणों का उल्लेख किया गया है। किसी भी वैध संविदा के लिए स्वतंत्र सहमति आवश्यक है। वह स्वतंत्र सहमति तब होती है जब उनमें इन पांच बातों में से कोई भी बात न हो।

    1)- प्रपीड़न

    2)- असम्यक असर

    3)- कपट

    4)- दुर्व्यपदेशन

    5)- भूल-

    सम्मति का तात्पर्य वास्तविक सम्मति से है। इसे शुद्ध सहमति भी कहते हैं। यदि यह स्वतंत्र या शुद्ध नहीं है तो यह संविदा को प्रतिकूल रूप में प्रभावित कर सकती है। इस प्रकार जब भी विधिमान्य संविदा का सृजन किया जाना तात्पर्य हो तो ऐसी स्थिति में पक्षकारों की स्वतंत्र सम्मति आवश्यक है। इस प्रकार धारा 14 के अंतर्गत स्वतंत्र सम्मति के अर्थ को भली प्रकार स्पष्ट करने का प्रयास किया गया है। यदि पक्षकार भी कोई अधिकार विषय वस्तु के संदर्भ में आयोजित करता है तो यह तब तक मानना होगा जब तक कि इसी दरमियान संविदा अपास्त न कर दी जाए।

    इस आलेख में प्रपीड़न और असम्यक असर के संबंध में चर्चा की जा रही है-

    प्रपीड़न- (coercion)

    प्रपीड़न किसी भी स्वतंत्र सहमति के लिए घातक होता है। कोई भी सहमति स्वतंत्र नहीं होती है यदि उसमें प्रपीड़न का समावेश होता है। भारतीय संविदा अधिनियम की धारा 15 के अंतर्गत प्रपीड़न की परिभाषा दी गई है। इस परिभाषा के अनुसार किसी व्यक्ति की सम्मति प्रपीड़न द्वारा तब अभिप्राप्त की गई कहीं जाती है जब वह कोई कार्य करें अथवा उक्त कार्य को करने की धमकी दे जो भारतीय दंड संहिता द्वारा निषिद्ध हो या किसी व्यक्ति पर कोई प्रतिकूल प्रभाव डालने के लिए किसी सम्मति का विधि विरुद्ध विरोध करना विरोध करने की धमकी देना भी इसके अंतर्गत आता है।

    सरल शब्दों में यह समझा जा सकता है कि अपराध की धमकी देकर किसी व्यक्ति से सहमति प्राप्त करना प्रपीड़न होता है। अज़हर मिर्जा बनाम बीवी जय किशोर 1912 के प्रकरण में यह कहा गया है कि धारा 15 अत्यंत व्यापक है क्योंकि इस पर सम्मति का विधि विरुद्ध रूप में निरुद्ध किया जाना भी तात्पर्य है। पत्नी और पुत्र के मध्य आत्महत्या संबंधी कोई करार इसी प्रकार संविदा को दूषित कर देते हैं।

    अम्मीराजू बनाम सेशम्मा के प्रकरण में एक व्यक्ति ने अपनी पत्नी और लड़के को यह धमकी दी कि वह आत्महत्या कर लेगा यदि उन्होंने कुछ संपत्ति के बारे में निर्मुक्त बॉन्ड उस के पक्ष में नहीं लिखा। यह संपत्ति ऐसी थी जिसे पत्नी तथा पुत्र अपना कहते थे।

    न्यायालय ने इस मामले में निर्णय दिया कि निर्मुक्त विलेख अवैध था क्योंकि इसे प्रपीड़न द्वारा प्राप्त किया गया था। न्यायालय ने कहा कि आत्महत्या की धमकी देने को निषिद्ध माना जाना चाहिए क्योंकि भारतीय दंड संहिता की धारा 30 के अनुसार आत्महत्या का प्रयास करना दंडनीय है।

    इस निर्णय के विपरीत न्यायधीश ओल्डफील्ड ने अपने निर्णय में कथन किया था कि भारतीय संविदा अधिनियम की धारा 15 का निर्वाचन कठोरता से किया जाना चाहिए। कोई भी कार्य भारतीय दंड संहिता द्वारा अभिनिश्चित तब ही कहा जा सकता है जबकि वह इसके अंतर्गत दंडनीय है। आत्महत्या की धमकी देना दंडनीय नहीं है। भारतीय दंड संहिता के अधीन निश्चित नहीं कहा जा सकता। इस विषय पर विधि कमीशन ने अपनी रिपोर्ट में यह कहा कि भारतीय दंड संहिता का कार्य केवल अपराध को निषिद्ध करना है अपराध उत्पन्न करना नहीं है। दंड संहिता केवल उन्हीं अपराधों को निषिद्ध करती है जिने वह दंडनीय घोषित करती है।

    आंध्र शुगर लिमिटेड बनाम स्टेट ऑफ आंध्र प्रदेश एआईआर 1968 एसी 599 के प्रकरण में उच्चतम न्यायालय को आंध्र शुगर विक्रय प्रदान अधिनियम के उन उपबंधों की वैधता पर निर्णय देना था कि जिनके अनुसार चीनी मिल फैक्ट्री के क्षेत्र के अंतर्गत गन्ना उत्पादक द्वारा प्रस्तावित गन्ने को स्वीकार करने को बाध्य है जबकि उक्त क्षेत्र के अंतर्गत गन्ना उत्पादक अपने गन्ने फैक्ट्री को देने को बाद नहीं है।

    इस प्रकरण में उच्चतम न्यायालय ने निर्णय दिया कि धारा 14 के अंतर्गत विधि द्वारा दबाव धारा 15 में वर्जित उत्पीड़न नहीं है अतः उक्त करार को उत्पीड़न द्वारा अवैध नहीं कहा जा सकता।

    इन मुकदमों से यह स्पष्ट होता है कि कोई भी ऐसा कार्य जो किसी ऐसे अपराध को कारित करने की धमकी देखकर सहमति हासिल करने हेतु किया जाता है जो भारतीय दंड संहिता के अंतर्गत दंडनीय हैं तो यहां पर यह कहा जा सकता है कि सहमति पर प्रपीड़न के माध्यम से प्राप्त की गई है तथा वह स्वतंत्र सहमति नहीं है।

    एक प्रकरण में जहां वादी जो कि राष्ट्रीय राजमार्ग वाहक था प्रतिवादी से उसकी एक संविदा हुई कि प्रतिवादी के माल का परिवहन करेगा। उसे एक सुनिश्चित धनराशि प्रत्येक चक्कर में प्राप्त होगी। व धनराशि सुधारित की गई किंतु बाद में वादी ने ऐसा करने से इंकार कर दिया और कहा कि प्रति लोड जब तक उसे प्रतिवादी 440 पौंड देना स्वीकार नहीं कर लेता तब तक वादी उसके माल का वाहन नहीं करेगा क्योंकि प्रतिवादी वादी की सेवा पर पूरी तरह से आश्रित था उसने उसकी बात को उस समय स्वीकार कर लिया क्योंकि उसके पास उसको अस्वीकार करने का कोई विकल्प नहीं था किंतु भाड़े का संदाय न किया तो वादी ने उसे वसूलने हेतु वाद संस्थित किया। न्यायालय ने निर्धारित किया कि उक्त मामला आर्थिक प्रपीड़न की कोटि में आने वाला था क्योंकि सहमति प्रपीड़न के द्वारा प्राप्त की गई है। यह इंग्लैंड का प्रकरण है।

    प्रपीड़न के संबंध में सबूत जहां किसी मामले में प्रपीड़न के बारे में कोई अभिकथन प्रस्तुत किया गया हो वहां इस संदर्भ में पूर्ण विवरण मामले को साबित किए जाने हेतु प्रस्तुत किया जाना चाहिए और पक्षकारों का यह कर्तव्य है कि वे मामले से संबंधित प्रमुख तत्वों का वर्णन करें। यह कहा जा सकता है कि प्रपीड़न का भी कथन प्रस्तुत करने वाला व्यक्ति प्रपीड़न के अस्तित्व को साबित करें।

    असम्यक असर (Undue influence)

    सम्यक असर शब्द थोड़ा कठिन शब्द है परंतु किसी भी स्वतंत्र सहमति के लिए असम्यक असर घातक होता है। कोई भी सहमति स्वतंत्र नहीं होती है यदि उसमें असम्यक असर का समावेश होता है। असम्यक असर को अंग्रेजी में undue influence कहते हैं। भारतीय संविदा अधिनियम की धारा 16 के अंतर्गत असम्यक असर को परिभाषित किया गया है।

    यदि संविदा असम्यक असर से पीड़ित है तो पीड़ित पक्षकार के विकल्प पर शून्यकरणीय होगी। असम्यक असर की अवधारणा प्रस्तुत करने वाले व्यक्ति को कुछ बातें साबित करना होती।

    सुभाष चंद्र दास मोशीबी बनाम गंगा प्रसाद दास मोशीबी एआईआर 1967 एसी 878 के वाद में उच्चतम न्यायालय ने अभिनिर्धारित किया कि न्यायालय को अभिवचन की जांच करके यह पता लगाना चाहिए कि क्या असम्यक असर का अभिवचन किया गया था तथा क्या यह देखने के पूर्व की क्या असम्यक असर का प्रयोग किया गया है।

    अफसर शेख बनाम सोलैमन शेख एआईआर 1976 एसी 163 के वाद में न्यायालय ने विधि को स्पष्ट करते हुए कहा था कि किसी व्यक्ति द्वारा अनुतोष प्राप्त करने के लिए यह सिद्ध करना काफी नहीं है कि पक्षकारों के संबंध ऐसे थे कि एक पक्षकार दूसरे पक्षकार की सलाह पर भरोसा करता था तथा दूसरा पहले वाले की इच्छा को अधिशासित करने की स्थिति में था। प्रभाव से अधिक यह सिद्ध करना आवश्यक है जिसे की विधि की भाषा में असम्यक कहा जा सकता है। यह निर्धारित करने के पश्चात द्वितीय चरण में एक तीसरी बात उठती है या उत्पन्न होती है जो सिद्ध करने का भार कहलाती है यदि संव्यवहार अंतः करण के विरुद्ध लगता है तो यह सिद्ध करने का भार कि करार असम्यक असर से प्रेरित नहीं है उस व्यक्ति पर होगा जो दूसरे की इच्छा को अधिशासित करने की स्थिति में था।

    श्रीमती निको देवी बनाम कृपा एआईआर 1990 हिमाचल प्रदेश 51 के एक प्रमुख प्रकरण में असम्यक असर को लेकर प्रश्न थे। इस प्रकरण में वादी ने कुछ भूमि एक मकान आदि का कब्जा प्राप्त करने के लिए वाद किया था। उसके अनुसार उक्त संपत्ति पर स्वामित्व कब्ज़ा उसके पिता का था तब वह केवल 5 वर्ष की लड़की थी। उसके पिता की मृत्यु हो गई उसके बाद संपत्ति उसकी मां की हो गई। जब वह 10 वर्ष की लड़की थी उसकी मां की भी मृत्यु हो गई।

    प्रतिवादी उसके पिता के बड़े भाई का लड़का था। वह वादी के साथ रहने लगा तथा संपत्ति और उसकी देखभाल करने लगा। वादी के अनुसार उसके पास चल संपत्ति भी थी। जिसमें घर के सामान, सोने और चांदी के गहने के अतिरिक्त 80 भेड़ तथा बकरियां भी सम्मिलित थी। 1967 में प्रतिवादी ने वादी का विवाह करा दिया परंतु 2 वर्ष तक उसे शुभ मुहूर्त न होने के बहाने करके ससुराल नहीं भेजा। इस बीच उसने वादी पर दबाव डाला कि वह उसके पक्ष में संपत्ति लिख दे।

    ससुराल भेजने के पूर्व अपने नाम संपत्ति की देखभाल का मुख्तारनामा लिखाने के बहाने उसने संपत्ति अपने पक्ष में दान विलेख लिखवा लिया। हिमाचल प्रदेश उच्च न्यायालय ने निर्णय दिया कि दान विलेख असम्यक असर द्वारा प्राप्त किया गया था यह सिद्ध करने का भार कि वह असम्यक असर द्वारा प्राप्त नहीं की गई थी प्रतिवादी पर था तथा वह सिद्ध करने के अधीन था।

    इस बात को सिद्ध करने में वह सफल रहा अतः वादी दान विलेख संव्यवहार को बचाने या समाप्त करने की अधिकारी थी।

    संविदा के पक्षकारों की स्थिति आपसी संबंध के संदर्भ में इस प्रकार की है कि एक व्यक्ति दूसरे व्यक्ति की मानसिक इच्छा को अधिसूचित करने की स्थिति में है उदाहरण के लिए यदि कोई मरीज किसी डॉक्टर से अपना इलाज करवा रहा है डॉक्टर की उसकी मानसिक इच्छा इस कारण अधिशासित कर रहा है कि वह उनका चिकित्सक होने के कारण उस पर प्रभाव रख रहा।

    असम्यक असर के परिणामस्वरूप ऐसी स्थिति प्रकाश में आती हो कि एक पक्षकार दूसरे पक्षकार से कोई अनुचित लाभ प्राप्त किया हो असम्यक असर का साधारण सा अर्थ यह है कि कोई भी ऐसा असर जो किसी आपसी संबंधों के आधार पर उत्पन्न होता है कोई संविदा उस स्थिति में असम्यक असर से प्रेरित कही जा सकती है जबकि पक्षकारों के आपसी संबंध इस प्रकार हो कि उनमें एक पक्षकार दूसरे पक्षकार की इच्छा को अधिशासी करने की स्थिति में हो और उसके परिणामस्वरूप अनुचित लाभ प्राप्त करता हो।

    जो पक्षकार असम्यक असर के आधार पर संविदा को अविधिमान्य घोषित करना चाहता है उससे न्यायालय यह अपेक्षा करेगी कि वह निम्न दो बातों को भली प्रकार से साबित करें।

    क्या पक्षकारों के मध्य विधमान संबंध इस प्रकार के थे कि एक पक्षकार ने दूसरे पक्षकार की मानसिक इच्छा को अधिशासित किया था?

    जो पक्षकार दूसरे पक्ष कार की इच्छा को अधिशासित करने की स्थिति में है क्या उसने कोई अनुचित लाभ प्राप्त किया है?

    जब तक उपरोक्त दोनों शर्ते साबित नहीं हो जाती तब तक असम्यक असर के आधार पर कोई संविदा निरस्त नहीं कराई जा सकती है।

    श्रीमथि बनाम सुधाकर मरुकर ए आई आर 1998 बॉम्बे 122 के प्रकरण में कहा है कि जहां पक्षकार ने अपनी इच्छा स्वतंत्र रूप से संविदा की बाबत प्रस्तुत की है तो वहां असम्यक अस्त का मामला न होगा।

    यह कहा जाता है कि स्वतंत्र सहमति संविदा की रीढ़ है। सम्मति असम्यक असर से प्रेरित है तो ऐसी स्थिति में अविधिमान्य हो जाएगी। निम्न संबंधों के मध्य ऐसा अनुचित लाभ प्राप्त कर लिया जाता है तो असम्यक असर माना जाता है-

    माता पिता और बच्चा

    संरक्षक एवं प्रतिपाल्य के लिए

    अधिवक्ता एवं मुवक्किल

    न्यास एवं लाभग्रहिता

    आध्यात्मिक गुरु और शिष्य

    डॉक्टर और मरीज

    पति और पत्नी

    लेनदार और ऋणी

    समाज के इन सभी संबंध में असम्यक असर हो सकता है क्योंकि यह निकट के संबंध हैं। इन संबंध में अधिकांश असम्यक असर देखा जाता है। माता-पिता और बच्चों के बीच होने वाली संविदा में भी असम्यक असर होता है। पति पत्नी के बीच होने वाली संविदा में भी असम्यक असर होता है। कभी-कभी आध्यात्मिक गुरु और शिष्य के बीच होने वाली संविदाओं में भी असम्यक असर होता है। वकील और मुवक्किल के बीच भी होने वाली संविदाओं में असम्यक असर हो सकता है। यह प्रमुख संबंधों का उल्लेख इसलिए किया गया है क्योंकि अमूमन इन्हीं संबंधों के मध्य में असम्यक असर जैसे प्रकरणों का विस्तार देखने को मिलता है।

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