संविदा विधि ( Law of Contract) भाग 2 : संविदा अधिनियम के अंतर्गत परिभाषाएं (धारा- 2)

Shadab Salim

7 Oct 2020 11:33 AM IST

  • संविदा विधि ( Law of Contract) भाग 2 : संविदा अधिनियम के अंतर्गत परिभाषाएं (धारा- 2)

    किसी भी अधिनियम की उद्देशिका उसकी परिभाषा वाली धारा होती है। भारतीय संविदा अधिनियम 1872 के अंतर्गत भी परिभाषाओं के संबंध में (धारा-2) दी गई है। इस धारा के अंतर्गत इस अधिनियम से संबंधित संपूर्ण महत्वपूर्ण परिभाषाओं का समावेश कर दिया गया है। यदि इन परिभाषाओं को जिज्ञासा पूर्वक समझ लिया जाए तो भारतीय संविदा अधिनियम 1872 सरलतापूर्वक समझा जा सकता है। इस आलेख में भारतीय संविदा अधिनियम, 1872 की धारा-2 के अंतर्गत जो 10 परिभाषाएं प्रस्तुत की गई है उनमे महत्वपूर्ण परिभाषाओं पर टीका टिप्पणी सहित सारगर्भित उल्लेख किया जा रहा है।

    1)- प्रस्थापना (Proposal) धारा-2 (क)

    भारतीय संविदा अधिनियम 1872 की धारा 2 के अंतर्गत निर्वचन खंड या परिभाषा खंड दिया गया है। इस धारा के अंतर्गत सर्वप्रथम (क) खंड के अंतर्गत प्रस्थापना अर्थात प्रपोजल की परिभाषा दी गई है।

    इस परिभाषा के अनुसार- जबकि एक व्यक्ति किसी बात को करने या करने से प्रविरत रहने की अपनी रजामंदी किसी अन्य को इस दृष्टि से संज्ञापित करता है कि ऐसे कार्य या प्रविरति के प्रति उस अन्य की अनुमति अभिप्राप्त करें तब वह प्रस्थापना करता है यह कहा जाता है।

    यह परिभाषा प्रस्थापना को बहुत गहरे तक परिभाषित कर रही है। प्रस्थापना करने वाले व्यक्ति को वचनदाता कहां जाता है प्रस्थापना को प्रतिगृहित करने वाले व्यक्ति को वचनग्रहिता कहा जाता है।

    प्रस्ताव का तात्पर्य विधिक संबंध सृजित करने का होना चाहिए। यदि पक्षकारों की इच्छा विधिक संबंध सृजित करने की न हो तो ऐसी स्थिति में एक प्रवर्तनीय संविदा प्रकाश में नहीं आती है। पक्षकारों का आशय सदैव विधिक संबंध की स्थापना से संबंधित होना चाहिए किंतु जहां पक्षकारों का आशय विधिक संबंध सृजित करने का नहीं होता है वहां विधिमान्य संविदा अस्तित्ववान नहीं मानी जाती है। पक्षकारों का आशय विधिमान्य संविदा की ओर रहता है तो ऐसी स्थिति में या कहा जा सकता है उन्होंने एक विधिपूर्ण उद्देश्य के लिए प्रस्थापना की है।

    आशय का बहुत महत्व है, विधिक संबंध सृजित करने का आशय होना चाहिए। कोई भी ऐसी संविदा न हो जिसमें किसी विधिक संबंध को जन्म देने का आशय न हो। जैसे कि यदि कोई पति अपनी पत्नी को सोने के आभूषण दिलाने का वचन देता है परंतु वह उन आभूषणों को पत्नी को नहीं दिलवाता है। ऐसी परिस्थिति में यहां कोई विधिपूर्ण संविदा नहीं होगी क्योंकि पति की ओर से किसी विधिक सृजन के लिए प्रस्थापना नहीं की गई थी।

    जब भी कोई व्यक्ति प्रस्थापना करता है तो ऐसी परिस्थिति में उसके द्वारा की गई प्रस्थापना की सूचना प्रस्थापना को प्रतिगृहित करने वाले व्यक्ति को प्राप्त होना चाहिए। अधिसूचना प्राप्त नहीं हुई है ऐसी परिस्थिति में प्रस्थापना नहीं मानी जाती है क्योंकि धारा में यह स्पष्ट कहा गया है कि जनसूचना संज्ञापित होना चाहिए।

    हेंडरसन बनाम स्टीवेंसन 875 एल आर 2 एच एस एस सी 470 के पुराने प्रकरण में टिकट के पीछे लिखा था कि कंपनी यात्रियों के सामान के लिए उत्तरदायी नहीं होगी परंतु टिकट के मुख्य पर कोई संकेत नहीं था की शर्तों से शब्दों के लिए पीछे देखिए।

    वादी ने टिकट के पीछे नहीं देखा और न ही उक्त प्रकार की शब्दों से अवगत हुआ। वादी के सामान को कंपनी के कर्मचारियों की लापरवाही के कारण नुकसान हुआ। उक्त यात्री ने वाद प्रस्तुत किया। प्रस्तुत मामले में न्यायालय ने निर्णय दिया कि उपरोक्त सत्य की युक्तियुक्त सूचना वादी को नहीं दी गई थी और इस कारण वह संविदा बंधनकारी नहीं होगी और कंपनी को यात्री के सामान की ओर से जो हानि हुई इसके लिए उत्तरदायी ठहराया गया।

    2)- वचन (Promise) धारा-2 (ख)

    भारतीय संविदा अधिनियम 1872 की धारा 2 के अंतर्गत वचन की परिभाषा प्रस्तुत की गई है। इस परिभाषा के अनुसार-

    'जबकि वह व्यक्ति जिससे प्रस्थापना की जाती है उसके प्रति अपनी अनुमति संज्ञापित करता है तब वह प्रस्थापना प्रतिगृहीत हुई कही जाती है। प्रस्थापना प्रतिगृहीत हो जाने पर वचन हो जाती।

    अधिनियम की धारा प्रस्थापना के प्रतिगृहित हो जाने का ढंग प्रस्तुत कर रही है। इसी के साथ या इस बात का उल्लेख भी कर रही है कि प्रस्तावना वचन कब बनती है। जब वह व्यक्ति जिसके लिए प्रस्तावना या प्रस्ताव किया गया है उस प्रस्थापना को स्वीकार कर लेता है ऐसी स्थिति में प्रतिज्ञा उदभूत होती है। शब्द प्रतिज्ञा का प्रयोग विधिक अर्थों में लिया जाता है। यूनियन आफ इंडिया बनाम मेसर्स गंगाधर नीमराज एआईआर 1962 पटना 372 के प्रकरण में कहा गया है कि जब संदाय संबंधी कोई प्रस्ताव किसी शर्त के अधीन है तो संविदा युक्त शब्द के अधीन होगी, उक्त शब्द की उपेक्षा करके उस प्रस्ताव की स्वीकृत किया जाना अनुज्ञात नहीं है।

    जब प्रस्थापना प्रतिगृहित हो जाती है तो वह प्रतिज्ञा अथवा वचन का रूप धारण कर लेती है। प्रस्थापना करने वाले व्यक्ति को वचनदाता प्रस्थापना स्वीकार करने वाले व्यक्ति को वचनग्रहिता कहते हैं। संविदा के निर्माण में महत्वपूर्ण योगदान इन दोनों पक्षकारों का होता है। किसी भी प्रस्ताव को स्वीकार करने पर जो प्रतिग्रहण होता है उसके लिए कुछ बातों का होना आवश्यक होता है-

    प्रतिग्रहण की सूचना-

    प्रतिग्रहण का ढंग-

    प्रतिग्रहण का पूर्व शर्त रहित होना-

    प्रस्थापना का प्रतिग्रहण उसकी समाप्ति के पहले हो-

    संविदा के निर्माण में प्रतिग्रहण की सूचना का महत्वपूर्ण स्थान है। प्रतिग्रहण की सूचना प्रस्थापनाकृता को दी जाना आवश्यक होता है। यदि प्रतिग्रहण की सूचना प्रस्ताव देने वाले को नहीं दी जाती है तो यह विधिमान्य संविदा का सृजन नहीं होता है। भारतीय संविदा अधिनियम की धारा 2 (ख) अंतर्गत जो प्रावधान दिए गए हैं उनके अनुसार किसी भी प्रस्ताव को जब स्वीकार कर लिया जाता है तो इसकी सूचना प्रस्ताव देने वाले व्यक्ति को प्राप्त होनी चाहिए।

    पावेल बनामली 1908 एलटी 284 का एक प्रमुख प्रकरण है। इस वाद में पावेल नामक व्यक्ति स्कूल के प्रधानाध्यापक पद के लिए आवेदक था। स्कूल की प्रबंध समिति ने पावेल को उक्त पद के लिए चयनित किया था परंतु प्रबंध समिति द्वारा उसे उसकी सूचना नहीं दी गई थी। अपितु समिति के एक सदस्य ने अपनी व्यक्तिगत हैसियत से उक्त सूचना पावेल को दी। उक्त प्रबंध समिति ने पावेल की नियुक्ति को रद्द कर दिया।

    पावेल ने संविदा भंग के लिए वाद प्रस्तुत किया। पावेल ने तर्क प्रस्तुत किया कि उसके द्वारा उक्त पद के लिए किया जाने वाला आवेदन प्रस्ताव था और उक्त प्रबंध समिति का उसको उक्त पद के लिए चुनने का निर्णय प्रस्ताव का प्रतिग्रहण था। पावेल एवं प्रबंध समिति के मध्य विधिमान्य संविदा सर्जित हो चुकी है।

    न्यायालय ने पावेल के तर्कों को अस्वीकृत करते हुए कहा कि प्रतिग्रहण की सूचना स्वयं प्रतिगृहित या उसके द्वारा प्राधिकृत अभिकर्ता द्वारा दी जाना चाहिए क्योंकि जिस सदस्य ने पावेल को सूचना दी थी वह उक्त सूचना देने के लिए अधिकृत नहीं था।

    स्वीकृति की सूचना का भी एक ढंग निर्धारित होता है। प्रस्ताव जिस ढंग से किया गया युक्तियुक्त प्रकार से स्वीकृति भी उसी ढंग से होना चाहिए। स्वीकृति की सूचना उसी ढंग से दी जाना चाहिए जिस ढंग से प्रस्ताव आया है।

    जैसे कि किसी व्यक्ति ने एक दूसरे शहर में रहने वाले व्यक्ति को एक ईमेल के जरिए यह सूचना दी के वह अपना मकान उसे ₹1000000 में बेचना चाहता है यदि वह खरीदना चाहता है तो इस ईमेल का जवाब दे।

    अब खरीदने वाले ने प्रस्ताव करने वाले को 1000000 रुपए में मकान खरीदने के लिए अपनी स्वीकृति डाक के द्वारा दे दी। ऐसी परिस्थिति में ग्रहण की सूचना को संसूचित नहीं माना जाएगा क्योंकि प्रस्थापना करने वाले व्यक्ति ने कहा था कि यही ईमेल पर मुझे जवाब दे दे परंतु उसने जवाब डाक के माध्यम से दिया।

    3)- प्रतिफल (consideration) धारा- 2(घ)

    जबकि वचनदाता की वांछा पर वचनगृहीता या कोई अन्य व्यक्ति कुछ कर चुका है या करने से विरत रहा है या करता है या करने से प्रविरत रहता है या करने का या करने से प्रविरत रहने का वचन देता है तब ऐसा कार्य या प्रविरती या वचन उस वचन के लिए प्रतिफल कहलाता है।

    भारतीय संविदा अधिनियम, 1872 की धारा 2 के खंड (घ) के अंतर्गत यह प्रतिफल की परिभाषा प्रस्तुत की गई है।

    प्रतिफल का सामान्य सा अर्थ यह है कि संविदा का मूल विषय क्या है जैसे कि किसी व्यक्ति ने ₹100000 में किसी को घर बेचने का प्रस्ताव किया यह प्रस्ताव स्वीकृत हो गया और वचन बन गया। अभी प्रस्ताव में घर और ₹100000 एक दूसरे के लिए प्रतिफल है।

    विद्यमान संविदा के निर्माण के लिए प्रतिफल का होना नितांत आवश्यक है। वह प्रतिफल वैध होना चाहिए क्योंकि प्रतिफल के बिना किया गया है करार शून्य होता है। प्रतिफल का सिद्धांत अंग्रेजी विधि में 12 वीं शताब्दी से 16 शताब्दी के मध्य विकसित हुआ है। अंग्रेजी विधि में पहले संविदा औपचारिक रूप से हुआ करती थी। यह मोहरबंद अभिसमय के रूप में हुआ करती थी। यह संविदा लिखित होती थी और हस्ताक्षरित होती थी अर्थात संविदा से संबंधित दस्तावेज पर दोनों पक्षकारों के हस्ताक्षर होते थे। एक अन्य प्रकार की संविदा भी प्रचलन में थी जिसे वास्तविक संविदा के रूप में जाना जाता था जो किंतु जैसे जैसे सभ्यता का विकास हुआ प्रतिफल को अनौपचारिक रूप से विधिमान्य आवश्यक प्रतीत हुआ। प्रतिफल को एक प्रवर्तनीय औपचारिक प्रतिज्ञा के परीक्षण के रूप में स्वीकृत किया गया। वह धीरे-धीरे प्रतिफल को संविदा में आवश्यक भाग के रूप में मान्यता मिली है।

    भारतीय विधि में कोई औपचारिक संविदा नहीं है। संविदा का प्रतिफल द्वारा समर्थित होना नितांत आवश्यक है। इसका अपवाद केवल यहीं तक है कि जहां नजदीकी संबंध अस्तित्व में है अथवा जहां नैसर्गिक प्रेम और स्नेह के कारण संविदा में प्रतिफल का होना अपेक्षित न हो।

    रामजी लाल तिवारी बनाम विजय कुमार 1970 एम् पी एल जे 50 जबलपुर के प्रकरण में यह बात कही गई है- संविदा के सृजन के लिए प्रतिफल आवश्यक है क्योंकि प्रतिफल के बिना किया गया करार शून्य होता है, अतः कहा जा सकता है कि संविदा के लिए प्रतिफल आवश्यक होता है।

    कुछ महत्वपूर्ण तत्व होते हैं जैसे कि कोई प्रतिफल वैध होना चाहिए। प्रतिफल एक प्रकार की क्षतिपूर्ति है जो वचनदाता को उसके वचन के बदले में दूसरे व्यक्ति द्वारा दी जाती है। मूल्य का प्रतिफल विधि के अभिप्राय में वह है जिससे एक पक्षकार को कुछ अधिकार हित या लाभ प्राप्त होता है अथवा जिससे दूसरा पक्षकार कुछ दायित्व उठाने का वचन देता है। सारगर्भित अर्थों में यह कहा जा सकता है कि प्रतिफल वचन का मूल्य है।

    कोई भी प्रतिफल भूतकालिक, वर्तमान और भावी किसी भी प्रकार का हो सकता है। किसी कार्य को करने या करने से रोकने के लिए हो सकता है, किसी कार्य को करना ही आवश्यक नहीं है किसी कार्य को न करके भी प्रतिफल हो जाता है।

    केदारनाथ बनाम मोहम्मद गौरी एआईआर 1914 इलाहाबाद के प्रकरण में मोहम्मद गौरी नाम के एक व्यक्ति ने हावड़ा में टाउन हाल बनाए जाने की बाबत ₹100 चंदा देने का वचन दिया परंतु बाद में उक्त चंदा देने से इनकार कर दिया। न्यायालय ने मोहम्मद गौरी को चंदा देने के लिए बाध्य किया क्योंकि उसके वचन के कारण ठेकेदार द्वारा काम प्रारंभ कर दिया गया था यह माना गया कि चंदा इसमें वैध प्रतिफल है।

    प्रतिफल के लिए आवश्यक शर्त है प्रतिफल वचनदाता की भाषा पर होना चाहिए जो व्यक्ति वचन दे रहा है प्रतिफल उसकी मंशा पर होता है। यदि वचनदाता की मंशा पर प्रतिफल नहीं किया गया तो ऐसा प्रतिफल विधिमान्य नहीं होगा अर्थात जो व्यक्ति प्रपोजल दे रहा है प्रतिफल उसकी ही मंशा पर होगा न की किसी अन्य व्यक्ति की मंशा पर होगा।

    4)- करार (Agreement) धारा-2 (E)

    भारतीय संविदा अधिनियम 1872 की धारा- 2 (ई) के अंतर्गत करार की परिभाषा दी गई है। करार को अंग्रेजी में एग्रीमेंट कहा जाता है। एग्रीमेंट बहुत साधारण शब्द प्रतीत होता है परंतु भारतीय संविदा अधिनियम, 1872 के अंतर्गत इस शब्द के भिन्न अर्थ है।

    'धारा के अंतर्गत हर एक वचन और ऐसे वचनों का हर एक संवर्ग जो एक दूसरे के लिए प्रतिफल हो करार है'

    धारा 50 के अंतर्गत भी करार के संबंध में उल्लेख किया गया है जिसके अनुसार ऐसे वचन या वचनों के समूह से है जो एक दूसरे के प्रतिफल है। करार के संबंध में कोई लोकहित, कोई रूढ़ि कोई प्रथा या विधि द्वारा प्रवर्तनीय होने का कोई प्रश्न नहीं होता है। एक ओर से स्थापना की जाती है जिसे वचनदाता कहा जाता है दूसरी ओर से उस प्रस्थापना को स्वीकृत किया जाता है जिसे वचनग्रहिता कहा जाता है और कोई प्रतिफल तय किया जाता है तो वह करार बन जाता है। किसी भी करार के होने के लिए उसका विधि द्वारा प्रवर्तनीय होना आवश्यक नहीं है जैसे कि एक व्यक्ति किसी दूसरे व्यक्ति की हत्या करने के लिए कहता है प्रतिफल के रूप में उसे कुछ रुपया देने के लिए कहता है यह करार है अब भले ही यह विधि द्वारा प्रवर्तनीय नहीं है परंतु यह करार है।

    5)- शून्य करार (void agreement) धारा- 2 (छ)

    संविदा अधिनियम के अंतर्गत शून्य करार की परिभाषा धारा 10 के अंतर्गत दी गई है परंतु इसके पहले परिभाषा खंड अर्थात धारा 2 में भी शून्य करार की परिभाषा प्रस्तुत की गई है। वह करार जो विधिताः प्रवर्तनीय न हो शून्य कहलाता है।

    अधिनियम किस धारा के अंतर्गत कोई भी करार यदि विधि द्वारा प्रवर्तनीय नहीं होता है अर्थात न्यायालय में जाकर उस करार को इंफोर्स नहीं करवाया जा सकता तब ऐसी स्थिति में वह शून्य करार होता है। इसके संदर्भ में अधिक जानकारियों के साथ उल्लेख शून्य करार पर लिखे जाने वाले आलेख में किया जाएगा।

    संविदा (contract) धारा-2 (ज)

    संविदा शब्द जिसके आधार पर यह पूरा अधिनियम बनाया गया है उसकी परिभाषा इस अधिनियम की धारा-2 (ज)के अंतर्गत दी गई है। इस परिभाषा के अंतर्गत किया गया है की- जो करार विधिताः प्रवर्तनीय हो संविदा है।

    बहुत छोटे अर्थों में संविदा की यहां पर परिभाषा प्रस्तुत कर दी गई है जहां स्पष्ट यह कह दिया गया है कोई भी करार जो विधि द्वारा प्रवर्तनीय हो अर्थात जिसे न्यायालय में जाकर इंफोर्स कराया जा सकता हो ऐसा करार संविदा होता है। कोई करार संविदा होने के लिए विधि का बल रखना चाहिए कभी-कभी यह देखा गया है कि कोई संविदा प्रवर्तनीय नहीं हो सकती यदि वह मर्यादा विधि द्वारा बाधित है तो उसे अप्रवर्तनीय संविदा कहते हैं।

    यह मामले से संबंधित विशिष्ट परिस्थितियों और तथ्यों पर आधारित होता है। कोई भी ऐसा नियम जिसके कारण संविदा को न्यायालय में परिवर्तित नहीं कराया जा सकता ऐसी परिस्थिति में करार संविदा नहीं हो पाता है। जब करार वैध होता है और विधि द्वारा उसे प्रवर्तनीय कराया जा सकता हो तो वह संविदा बनता है जैसे कि किसी व्यक्ति ने किसी अन्य व्यक्ति से घर बेचने का करार किया अब यदि ऐसा घर बेच पाना विधि द्वारा प्रवर्तनीय हैं तो यह करार संविदा हो जाएगा। इस अधिनियम के अंतर्गत करार की परिभाषा भले ही छोटी है परंतु यह परिभाषा बहुत गहरे अर्थ लिए हुई है।

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