क्या है विचारण के जारी रहते हुए न्यायालय की नए अभियुक्तों को जोड़ने की शक्ति
Shadab Salim
13 July 2020 5:58 AM GMT
दंड प्रक्रिया संहिता के अंतर्गत प्रकरण में विचारण की कार्यवाही की जाती है तथा किसी न्यायाधीश या मजिस्ट्रेट द्वारा विचारण किया जाता है।
कभी-कभी परिस्थितियां ऐसी होती है, जिनके अनुसार कुछ साक्ष्य ऐसे होते जिन का अवलोकन करने से विचारण के जारी रहते हुए न्यायाधीश को यह लगता है कि मामले में और अन्य अभियुक्त हो सकते हैं तथा वह मामले में नए अभियुक्तों को जोड़ देता है।
इस शक्ति का अर्थ यह है कि न्यायालय मामले में अभियुक्तों को जोड़ देने की शक्ति रखता है। निजी परिवाद पर या पुलिस द्वारा किए गए अन्वेषण के आधार पर विचारण की कार्यवाही की जाती है, परंतु यहां पर यह विशेष शक्ति न्यायालय को भी प्राप्त है कि यदि अन्वेषण के दौरान जांच एजेंसी या पुलिस में अभियुक्तों को बचाने का प्रयास किया है व प्रकरण में ऐसी परिस्थितियों का जन्म होता है जिनसे न्यायधीश को आभास हो कि मामले में और अभियुक्त हो सकते हैं तथा किन्हीं अभियुक्तों को बचाया जा रहा है तो वह स्वयंमेव (Suo moto) के आधार पर स्वयं भी संज्ञान ले या फिर अभियोजन पक्ष द्वारा अभियुक्तों को जोड़े जाने का निवेदन भी किया जाता है।
न्यायधीश और मजिस्ट्रेट को यह शक्ति स्वविवेक के आधार पर ही प्राप्त है। मजिस्ट्रेट या न्यायाधीश की इस शक्ति पर ज़ोर देकर अधिकारपूर्वक नहीं बनाया जा सकता है कि किन्ही नए अभियुक्तों को विचारण में जोड़ा ही जाए और पुराने अभियुक्तों के साथ नए अभियुक्तों का भी विचारण किया जाए।
दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 319
दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 319 के अंतर्गत किसी अपराध की जांच या विचारण के दौरान साक्ष्य से यह प्रतीत है कि किसी व्यक्ति ने जो अभियुक्त नहीं है कोई ऐसा अपराध किया है जिसके लिए ऐसे व्यक्ति का अभियुक्त के साथ विचार किया जा सकता है तो ऐसी परिस्थिति में न्यायालय उस व्यक्ति के विरुद्ध अपराध के लिए जिसका उसके द्वारा किया जाना प्रतीत होता है कार्यवाही कर सकता है।
यदि ऐसा व्यक्ति न्यायालय में हाजिर नहीं है तो उसे हाजिर करवाने के लिए अपेक्षा के अनुसार गिरफ्तारी या फिर समन जारी कर सकता है। यदि न्यायालय में हाजिर है तो उसे निरुद्ध किया जा सकता है।
इस संबंध में भारत के न्यायालयों में कुछ मामले आए हैं, जिनमें अधिकांश मामले उच्चतम न्यायालय पहुंचे हैं उनको लेकर कुछ विशेष मुकदमे है जिनमें से कुछ निम्न हैं-
रंजीत सिंह बनाम पंजाब राज्य एआईआर 1998 उच्चतम न्यायालय 3148 के मामले में उच्चतम न्यायालय ने यह भी निर्धारित किया कि जब एक बार मामला सत्र न्यायालय को सुपुर्द करने के आदेश अनुसार में अपराध का संज्ञान लेता है तब सहिंता की धारा 319 के अधीन शक्तियों का प्रयोग करते हुए साक्ष्य के चरण पर पहुंचने के पश्चात ही किसी अन्य व्यक्ति को अभियुक्त की सूची में जोड़ने के लिए सशक्त है।
रंजीत सिंह के इस मामले में उच्चतम न्यायालय ने स्पष्ट किया है कि न्यायालय जब साक्ष्य के चरण को पा जाता है अर्थात आरोपी विरचित कर देने के बाद की अवस्था, जब ऐसा प्रतीत होता है कि अब कोई अभियुक्त जोड़ा जा सकता है तो उसे यह शक्ति मिली हुई है कि वह अभियुक्तों को जोड़ सकता है।
मोहम्मद शफी बनाम मोहम्मद रफीक तथा अन्य एआरआई 2007 सुप्रीम कोर्ट 1901 में उच्चतम न्यायालय ने धारा 319 के अंतर्गत अतिरिक्त अभियुक्तों को समन जारी कर के परीक्षण हेतु बुलाए जाने के बारे में अभिकथन किया की न्यायालय को अनुमति तभी देनी चाहिए जब वह साक्ष्य से संतुष्ट हो जाए कि इस प्रकार बुलाए गए अतिरिक्त अभियुक्तों के दोषी पाए जाने की पूरी संभावना है। साक्ष्य परीक्षण के आधार पर कर सकता है अभियुक्तों को शामिल करने का निर्णय लिया जाना चाहिए।
मोहम्मद शफी के इस मामले में सत्र न्यायालय ने साक्ष्य के परीक्षण के दौरान उसके द्वारा बताए गए व्यक्ति के अतिरिक्त अभियुक्त के रूप में जोड़ने से इनकार कर दिया।
उस व्यक्ति की घटना स्थल पर उपस्थिति मात्र से अभियुक्त बनाए जाने के लिए पर्याप्त कारण नहीं था जिसे अभियुक्त बनाए जाने का निर्णय किया गया था।
इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने धारा 482 के अधीन अपनी अंतर्निहित शक्तियों का प्रयोग करते हुए अपीलार्थी को अतिरिक्त अभियुक्त के रूप में आयोजित किए जाने की अनुमति दे दी इसके विरुद्ध अपील में उच्चतम न्यायालय ने उच्च न्यायालय के निर्णय को अपास्त करते हुए अभिकथन किया कि इस प्रकरण में उच्च न्यायालय द्वारा धारा 482 के अंतर्निहित शक्तियों का प्रयोग किया जाना न्यायोचित नहीं था। अपील स्वीकार करते हुए निर्णय दिया कि अभियुक्त के रूप में शामिल किया जाना नहीं था।
माइकल मैकाडो बनाम सीबीआई 2000 उच्चतम न्यायालय (1127 ) के अभी हाल ही के मामले में उच्चतम न्यायालय ने अभिनिर्धारित किया है कि अन्य व्यक्ति के विरुद्ध जो अपराध का दोषी प्रतीत हो उसके विरुद्ध कार्यवाही किए जाने के लिए धारा 319 के अधीन शक्ति का प्रयोग करने के लिए पहले से ही एकत्र किए गए साक्ष्य से दो पहलुओं के संबंध में न्यायालय को युक्तियुक्त संतुष्टि होना चाहिए।
1) उस अन्य व्यक्ति ने अपराध किया है।
2) ऐसे अपराध के लिए उस अन्य व्यक्ति का विचारण पहले से ही दोष रोपित अभियुक्तों के साथ किया जा सकता था।
न्यायालय को जो शक्ति प्रदान की गयी है वह केवल विवेकाधिकार है। जैसा की धारा 319 में प्रयुक्त शब्द 'न्यायालय ऐसे व्यक्ति के विरुद्ध कार्यवाही कर सकता है' का प्रयोग केवल आपराधिक न्याय की परिपूर्णता हेतु किया जाना चाहिए। जब विचारण में जोड़े गए व्यक्तियों के विरुद्ध कार्यवाही की जाने का न्यायालय द्वारा निर्णय लिया जाता है तब विचारण पुनः नए सिरे से प्रारंभ करना होता है।
उच्चतम न्यायालय ने अभिनिर्धारित किया कि जब प्रकरण में चार अभियुक्तों के विरुद्ध विचारण अंतिम प्रक्रम पर पहुंच चुका हो तथा 54 साक्षियों की परीक्षा हो चुकी हो तब ऐसे विलंबित प्रक्रम पर धारा 319 के अधीन दो नए व्यक्तियों को से अभियुक्त के रूप में जोड़ा जाना नए सिरे से विचारण की कीमत पर नहीं होगा। उच्चतम न्यायालय ने कहा कि इस बात को याद रखना चाहिए कि अन्य व्यक्तियों के विरुद्ध कार्यवाही करना न्यायालय का कर्तव्य नहीं है।
राजेंद्र सिंह बनाम उत्तर प्रदेश राज्य अन्य के प्रकरण में उच्चतम न्यायालय ने अभिकथन किया की धारा 319 दंड प्रक्रिया संहिता के अंतर्गत न्यायालय को अतिरिक्त अभियुक्तों को शामिल करने की व्यापक शक्ति प्राप्त है। जिसका प्रयोग वह अपने विवेक अनुसार कर सकेगा। न्यायालय इस शक्ति का प्रयोग उस स्थिति में भी कर सकता है जब से अभियुक्त का विचारण पूर्ण हो चुका है। अतः न्यायालय की शक्ति का विरोध केवल इस आधार पर नहीं किया जा सकेगा उसे या शक्ति केवल अपवादात्मक प्रकरण हो या अति विशिष्ट मामलों में ही प्राप्त है। इस शक्ति का प्रयोग पूर्णता न्यायालय के विवेक पर निर्भर करेगा।
एसएस खन्ना बनाम मुख्य सचिव का वाद उल्लेखनीय है इस वाद में उच्चतम न्यायालय ने अभिनिर्धारित किया की धारा 202 के अधीन की गयी जांच समाप्त हो जाने के बाद तथा धारा 203 के अधीन परिवाद खारिज किए जाने के बाद भी किसी व्यक्ति के विरुद्ध धारा 319 के अधीन कार्यवाही प्रारंभ की जा सकती है। इस धारा के प्रयोजन के लिए पूर्णदोषसिद्धि या पूर्णदोषमुक्ति का सिद्धांत लागू नहीं होगा।
कृष्णप्पा बनाम कर्नाटक राज्य के मुकदमे में 1993 में घटित अपराध से संबंधित था। जिसमें कुछ 17 साक्षियों के परीक्षण के पश्चात धारा 313 के अधीन अभियुक्त के बयान अभिलिखित किए जा चुके थे।
तत्पश्चात धारा 319 के अधीन प्रत्यर्थीयों ने अपीलार्थी जो कि मामले के अन्वेषण से संबंध था का नाम अपराधियों की सूची में जोड़े जाने हेतु मजिस्ट्रेट को आवेदन दिया जिसे मजिस्ट्रेट ने अस्वीकार कर दिया।
इस आवेदन को खारिज करने का कारण यह था कि जिसका नाम अभियुक्तों के साथ जोड़े जाने का आवेदन था उसके खिलाफ सन 1995 कार्यवाही उच्च न्यायालय द्वारा अपास्त कर दी गयी थी।
उच्चतम न्यायालय विनिश्चय किया कि मजिस्ट्रेट द्वारा धारा 319 के अधीन अपीलार्थी का नाम अपराधियों के साथ जोड़े जाने से इनकार किया जाना उसे समन जारी न करना न्यायोचित था तथा उसने अपने विवेकाधिकार का दुरुपयोग नहीं किया था।
सुमन बनाम राजस्थान राज्य के वाद में उच्चतम न्यायालय ने अभिकथन किया है कि धारा 319 यह अनुज्ञा देती है कि किसी ऐसे नए व्यक्ति का नाम अभियुक्त के रूप में जोड़ा जा सकता है जिसके नाम का उल्लेख प्रथम इत्तला रिपोर्ट में था लेकिन पुलिस ने उसे अभियुक्त के रूप में आरोप पत्र में शामिल नहीं किया था। यदि मजिस्ट्रेट या न्यायालय जांच या विचारण के दौरान यह पाता है कि किसी नए व्यक्ति को अभियुक्त के रूप में बुलाकर उसका परीक्षण करने हेतु पर्याप्त कारण है तो धारा 319 के अंतर्गत ऐसे व्यक्ति को अभियुक्त के रूप में शामिल करके अभियुक्तों के साथ उसका विचारण कर सकेगा।