उपभोक्ता संरक्षण अधिनियम, 2019 भाग:9 जिला आयोग के आदेश के विरुद्ध अपील
Shadab Salim
18 Dec 2021 10:00 AM IST
उपभोक्ता संरक्षण अधिनियम, 2019 (The Consumer Protection Act, 2019) की धारा 41 के अंतर्गत अपील का अधिकार दिया गया है। किसी भी कानूनी प्रक्रिया के लिए केवल एक अदालत के निर्णय से संतुष्ट नहीं हुआ जा सकता है अपितु उस निर्णय का उससे वरिष्ठ अदालत अवलोकन करती है।
उपभोक्ता संरक्षण अधिनियम के अंतर्गत भी कुछ इसी प्रकार से अपील के प्रावधान दिए गए हैं। इस आलेख के अंतर्गत अधिनियम की धारा 41 जो जिला आयोग के आदेश के विरुद्ध अपील का प्रावधान करती है से संबंधित न्याय निर्णय और मूल विधि पर टिप्पणी प्रस्तुत की जा रही है।
यह अधिनियम में प्रस्तुत की गई धारा का मूल स्वरूप है:-
धारा-41
जिला आयोग के आदेश के विरुद्ध अपील-
जिला आयोग द्वारा किए गए किसी आदेश से व्यथित कोई व्यक्ति ऐसे आदेश की तारीख से 45 दिन की अवधि के भीतर ऐसे प्ररूप और रीति में जो विहित किया जाए, तथ्यों या विधि के आधारों पर राज्य आयोग को ऐसे आदेश के विरुद्ध अपील कर सकेगा। परंतु राज्य आयोग पैंतालीस दिन की उक्त अवधि की समाप्ति के पश्चात् अपील ग्रहण कर सकेगा यदि उसका यह समाधान हो जाता है कि उक्त अवधि के भीतर अपील फाइल न करने के लिए पर्याप्त हेतुक था।
परंतु यह और कि किसी ऐसे व्यक्ति द्वारा, जिससे जिला आयोग के आदेश के निबंधानुसार किसी रकम का संदाय करने की अपेक्षा की जाती है, कोई अपील राज्य आयोग द्वारा तब तक ग्रहण नहीं की जाएगी जब तक कि अपीलार्थी ने ऐसी रीति में जो विहित की जाए उस रकम का पचास प्रतिशत जमा नहीं कर दिया हो:
परंतु यह भी कि धारा 80 के अधीन मध्यस्थता द्वारा समझौता के अनुसरण में जिला आयोग द्वारा धारा 81 की उपधारा (1) के अधीन किसी आदेश से कोई अपील नहीं की जाएगी।
राजकुमार बनाम कला बिहार को आप जी० एच० सोसाइटी के मामले में कहा गया है कि जहाँ परिवादी को किसी व्यक्ति की दुःखद मृत्यु की अंत्येष्टि कियाओं में हाजिर होना था, वहाँ उसकी ओर से अधिवक्ता, हड़ताल होने की वजह से हाजिर नहीं हो सका और इसलिए इस व्यक्तिक्रम में परिवाद को खारिज कर दिया गया।
ऐसी दशा में अपीलीय राज्य आयोग ने यह अभिनिर्धारित किया कि यदि परिवादी को उसके अधिवक्ता के द्वारा व्यतिक्रम किये जाने के कारण कष्ट नहीं प्रदान किया जाना चाहिए; तो उसे पर्याप्त कारणों के द्वारा ही फोरम के समक्ष नियत तिथि पर हाजिर होने से रोका गया था।
जब जिला फोरम के आदेश की वैधता को अपीलीय राज्य आयोग के समक्ष चुनौती दी गयी; तब राज्य आयोग इस बारे में सकारण आदेश पारित किया कि अत्याधिक विलम्ब होने के लिए अपीलार्थी द्वारा प्रस्तुत किये गये स्पष्टीकरण को स्वीकृत करना सम्भव नहीं पाया गया।
ऐसी दशा में, जहाँ इस राज्य आयोग के निर्णयादेश के विरुद्ध पुनरीक्षण दायर की गयी; वहाँ राज्य आयोग को प्रश्नगत् या संदिग्धार्थी आदेश पारित करने में इसकी अधिकारिता के प्रयोग में किसी तात्विकता अनियमितता के साथ या अधिकारिता के बिना कारित करने वाला नहीं माना जा सकता था।
जब तक न्यायालय के समक्ष एक मामले को दाखिल करने में हुई विलम्ब के लिए तर्कपूर्ण एवं विश्वास करने योग्य स्पष्टीकरण नहीं दिया जाता तब तक विलम्ब का दोष मार्जन नहीं किया जाता।
एक मामले में आदेश नोटिस की तामील के बगैर जिला फोरम द्वारा पारित किया गया था। इसलिए राज्य आयोग के समय पुनरीक्षण याचिका को दाखिल किये जाने में हुए 265 दिनों के विलम्ब को दोष मार्जित कर दिया जाना चाहिए। अंततोगत्वा अपेक्षित आदेश को अपास्त कर दिया गया तथा मामले को जिला फोरम को प्रतिप्रेषित कर दिया गया।
एक प्रकरण में परिवादी ने यह अभिकथन करते हुए परिवाद संस्थित किया कि विरोधी पक्षकार ने 29.2 किमी के लिए प्रत्येक यात्री से 6.50 रुपये को अधिरोपित किया और जबकि लगभग 30 किमी की दूरी की यात्रा करने के लिए प्रत्येक यात्री से 5.50 रुपये को बी बतौर किराया प्राप्त किया जाना चाहिए था।
उसे यह निर्देश किया गया कि प्रत्येक यात्री से कथित किराये को 5.50 रुपये की सीमा तक प्राप्त किये जाने वास्ते समय नियत करे। ऐसी परिस्थितियों में जब जिला फोरम ने यह अभिनिर्धारित किया कि विरोधी पक्षकार ने कथित यात्रियों पर 6.50 रुपये अधिरोपित करके उनके प्रीत सेवा में कमी कारित किया और इसलिए उन्हें प्रति यात्री से 5.50 रुपये की नियत दर से ही किराया वसूलने का निर्देश दिया, तब इस निष्कर्ष के विरुद्ध अपील दायर की गयी और यह अभिनिर्धारित किया गया कि उपभोक्ता फोरम के पास; राज्य परिवहन प्राधिकारी की किराये को संशोधित करने तथा नियत की कोई अधिकारिता नहीं होती और इसलिए जिला फोरम के आदेश को त्रुटिपूर्ण एवम् असंधारणीय माना गया।
हालांकि परिवादी ने विरोधी पक्षकार के विरुद्ध प्रतिकर के लिए एक परिवाद संस्थित किया; लेकिन जिला फोरम ने इसे व्यतिक्रम मे खारिज किया। आगे जब प्रत्यावर्तन आवेदन पत्र प्रस्तुत किया गया कि व्यतिक्रम में खारिज किये गये मामले के प्रत्यावर्तन के लिए अधिनियम के अधीन कोई प्रावधान नहीं किया गया है; तब इस निष्कर्ष के विरुद्ध अपील दायर की गयी और जिसके परिणाम यह निर्णीत किया गया कि जिला फोरम के पास अर्धन्यायिक शक्ति होती है और वह सिविल न्यायालय की भी कुछ शक्तियाँ रखता है।
यही नहीं बल्कि जिला फोरम, के पास में खारिजी के आदेश को प्रत्यावर्तित करने की उसमें अन्तर्निहित शक्ति होती है यदि उसके हाजिर न होने के लिए पर्याप्त कारण को प्रदर्शित कर दिया जाए। अतएव, जिला फोरम के आदेश को अपास्त कर दिया गया और परिवादी के प्रत्यावर्तन के लिए आवेदन पत्र पर पुनः विचार करने का निर्देश दिया गया।
जिला मंच के आदेश की तारीख से 4 माह का बिलंब देरी की माफी- प्रफुल्ल कुमार जैन बनाम डॉ० आलोक कुमार सिंह अपीलार्थी का यह तर्क था कि राज्य के अराजपत्रित कर्मचारियों की हड़ताल के उस दौरान वह क्या आदेश हुआ था न जान सका।
यह नहीं पाया गया कि तर्क प्रस्तुत कर रही पार्टी को आदेश की कापी भेजी गयी जैसा कि बिहार उपभोक्ता संरक्षण नियम के नियम 4 (1) में विधि है जो प्रस्तुत की गयी वह जिलामंच के अध्यक्ष द्वारा प्रमाणित थी। यह अभिनिर्धारित किया गया कि वांछित समय के अंदर प्रस्तुत न किये जाने का पर्याप्त कारण था।
जहां जिला फोरम के विनिश्चय के विरुद्ध अपील दायर की गयी और यह प्रतिवाद किया गया कि परिवाद अपरिपक्व था। वहां कथित प्रतिवाद को उचित माना गया और मामले को प्रतिप्रेषित कर दिया गया।
जहां विरोधी पक्षकार 7 को अभिनिर्धारित करने वाले जिला फोरम के आदेश के विरुद दायर की गयी जबकि विरोधी पक्षकार-7 विरोधी पक्षकार 1 बैंक का एक भागीदार था। इसके अलावा जहां परिवादी न तो विरोधी पक्षकार-1 के एक भागीदार के रूप में विरोधी पक्षकार 7 के रूप में अभिकथन कर रहा था और विरोधी पक्षकार -1 के साथ संव्यवहार में ऋण जिनकी शिकायत की गयी, में विरोधी पक्षकार 7 के किसी भी संगत को उपदर्शित करने वाली सामगरी अभिलेख पर थी। वहां विबन्ध द्वरा कथित भागीदार की वही स्थिति होगी जो विरोधी पक्षकार -4 की होगी।
जहां ब्याज सहित पट्टा धन का भुगतान करने के लिए जिला फोरम के निर्देश के विरुद्ध अपील दायर की गयी और बकाया पट्टे सम्बन्धी धन का संदाय क्रेता द्वारा नहीं किया गया वहा जब वर्धित ब्याज की मांग की गयी; तब ब्याज की दर 1.6.1992 से भुगतान किया जाने तक घटाकर 9% कर दिया गया।
जीवन बीमा योजना प्रस्तावकर्ता की मृत्यु के पहले नामित व्यक्ति द्वारा प्रस्ताव इन्कार:-
सीनियर डिवीजनल मैनेजर एल आई सी तंजोर बनाम श्रीमती जय लक्ष्मी अम्मत, 1994 का एक मामला था। यह मामला केवल प्रिमियम प्राप्त करने का न था। यह मामला था प्रिमियम को स्वीकार करने का तथा बीमा संविदा का अस्तित्व में आने का। इसमें वाद लाने का अधिकार वाद फार्म की तिथि से नहीं उठता है बल्कि उस दिन जिस दिन दावा इंकार कर दिया जाता है। यह पता न चल सका कि किस दिन दावा निरस्त किया गया और ऐसा प्रतीत होता है कि जब परिवाद प्रस्तुत किया गया दावा अस्वीकार नहीं किया गया। अतः समय सीमा का कोई प्रश्न ही नहीं उठता है।
जिलामंच ने विपक्षी को यह निर्देश दिया कि वह बीमा राशि 50000/- मय 24% मय ब्याज के साथ अदा करे और यह अभिनिर्धारित किया जिलामंच के आदेश का संशोधन इस हक तक किया जाता है कि ब्याज दर 24% वार्षिक से घटाकर 15% सालाना किया जाता है सूचना के दिन से भुगतान तक। और बाकी आदेश जिलामंच का ज्यों का त्यों बरकरार रहेगा।
जीवन बीमा निगम द्वारा दावा इस आधार पर अस्वीकार कर दिया गया कि मृतक द्वारा बीमा की बात पालिसी लेने के समय छिपाई गयी थी। बीमा के पहले बीमा निगम के डाक्टर द्वारा मृतक की जांच की गयी थी। मृतक को पीलिया रोग था। पीलिया रोग छिपा नहीं रह सकता। निर्णीत कि बीमा कम्पनी प्रतिकर भुगतान हेतु बाध्य है।
क्षतिपूर्ति का एवार्ड:-
रोसम्मा यामत बनाम बी० भास्करन नैप्पर, 1997 के मामले में जिला फोरम ने यह अभिनिर्धारित किया कि सेकेण्ड्स के बाबत केता को भत्ता देने के लिए इसलिए निर्देश दिया गया क्योंकि उच्च गुणात्मकता के लिए निर्धारित मूल्य का संग्रह करने के विरोधी पक्षकार के आचरण को अनुचित व्यवसाय वृत्ति का अभिप्राय रखने वाला माना जाना उचित है।
इसके अलावा जिला फोरम ने 1,000 रुपये का प्रतिकर का भी संदाय करने के लिए विरोधी पक्षकार को निर्देश दिया। इस निर्णय के विरुद्ध जब अपील दायर की गयी, तब यह अभिनिर्धारित किया गया कि सेकेन्ड्स का अभिप्राय, प्रथम वर्ग की गुणवत्ता रखने वाली वस्तुओं से निम्न कोटि का होता है।
चूंकि विरोधी पक्षकार ने उच्चकोटि के मूल्य पर सेकेण्डम के रूप में वर्णित कपड़े का विक्रय करने में अनुचित व्यवसाय वृत्ति का अनुसरण कर गलती किया और यह गलती उसने भत्ते को स्वीकृति न प्रदान करके भी किया कि उसका संदाय ग्राहक को प्रदान किया जाना था; इसलिए अपील को बलहीन मानकर खारिज कर दिया गया।
एक मामले में परिवादी ने विरोधी पक्षकार के 200 शेयरों को खरीदा था और उसने दो अंतरण विलेखों के साथ-साथ आवेदन पत्र प्रेषित किया। अंतरण एक सन्दर्भ में प्रभावित भी हुआ। जहाँ बैंक ने सम्यक रूप से धारणाधिकार को लगाकर दूसरे शेयर प्रमाणपत्र को वापस कर दिया।
इसके बाबत जब एक परिवाद संस्थित किया गया, तब विरोधी पक्षकार ने यह प्रकथन किये कि ऐसे मामले का निस्तारण कम्पनी कानून बोर्ड द्वारा किया जाना होता है और बैंक को संघ के अनु 41 में अन्तर्विष्ट किये गये प्रावधानों की दृष्टिकोण से शेयरों पर धरणाधिकार रखने का हकदार होने का अभिवचन किया गया और जिला फोरम ने यह अभिनिर्धारित किया कि अनु 41 पर बैंककारी विनियमन अधिनियम की धारा 20 के खण्ड (क) के प्रावधानों द्वारा प्रहार नहीं किया जा सकता, क्योंकि बैंक उसके विक्रय के अंश का स्वामी बन गया था और तदोपरान्त इसका विक्रय उस समय किया जाना था जब शेयर प्रमाण-पत्र यह प्रदर्शित करते थे कि विरोधी पक्षकार ने उस पर धारणाधिकार अंकित कर दिया था जिसके परिणामस्वरूप जिला फोरम परिवादी के पक्ष में प्रतिकर का अधिनिर्णय कर दिया।
इस जिला फोरम के निर्णयादेश के विरुद्ध राज्य आयोग में अपील दायर की गयी। राज्य आयोग ने यह निष्कर्ष लेखबद्ध किया कि बैंककारी विनियमन की 20 (1) (क) के प्रावधान अनु 41 के अधिकारातीत होते हैं और इसलिए प्रश्नगत् आदेश में कोई वैधता नहीं पायी जाती है।
इसके अतिरिक्त, यह भी अभिनिर्धारित किया गया कि धारणाधिकार के किसी भी पहलू की उपेक्षा नहीं की जानी चाहिए और जिला फोरम द्वारा अधिनिर्णीत की गयी प्रतिकर की देय रकम अधिक थी क्योंकि ऋण के सन्दर्भ में समय के किसी वाद विन्दु पर शेयर को प्रतिभूति में परिवर्तित नहीं किया जा सकता था। अतएव जिला फोरम के निर्णयादेश को अपास्त कर दिया गया।
इण्डियन आयल कारपोरेशन लिमिटेड बनाम जीवनलाल एस कलाल एवम् अन्य, 1997 (1) सीपीआर 496 (राज्य आयोग) के एक मामले में परिवादी में गैस कनेक्शन प्राप्त करने के लिए आवेदन पत्र प्रस्तुत किया। लेकिन उसे यह कनेक्शन दिया नहीं जा सका। जब इस प्रकार की गैस कनेक्शन प्रदान की जाती है, तब आवेदकों को इसके वितरित किये जाने के पश्चात् अपने को रजिस्ट्रीकृत कराना होता है।
जिला फोरम विरोधी पक्षकारों को परिवादी को गैग बनेक्शन प्रदान करने तथा उसके पास 1,000 रुपये जुर्माने का संदाय का आदेश पारित किया। इसके विरुद्ध दायर की गयी अपील में अपीलकर्ता ने यह प्रतिवाद किया गया कि परिवादी को गैस कनेक्शन के बारे में, सूचना दी गयी जहां वह गैस कनेक्शन के लिए 90 दिनों के अन्दर पहुँच पाने में असफल हो गया; वहाँ ऐसे मुद्दे पर तब तक विचार नहीं किया जा सकता है, जब तक गैस का कनेक्शन नहीं प्रदान कर दिया जाता है।
यदि परिवादी ने अपीलकर्ता या प्रतिपत के लिए मूल विरोधी पक्षकार क्रमांक 2 की सेवा को परिवादी द्वारा किराये पर नहीं किया गया, तो यहाँ इस प्रकार का कोई भी प्रश्न नहीं उठ सकता है कि सेवा की कमी का अभिकथन करने वाले पक्षकार को जिता फोरम में आवेदन पत्र प्रस्तुत करना चाहिए।
इन सभी बातों के साथ-साथ कारण कि गैस कनेक्शन की परिवादी द्वारा सेवा विरोधी पक्षकार से सेवा सन् 1986 में प्राप्त किया गया, इसलिए जब सन् 1992 में एक परिवाद दायर किया, तब वह परिसीमा अधिनियम के प्रावधानों द्वारा वर्जित था और इसलिए नगर फोरम द्वारा पारित किये गये निर्णय को संधूत नहीं किया जा सरता था।
जहाँ सर्वेक्षक ने परिवादी की हुई हानि के बारे में पहले से ही एक रिपोर्ट प्रस्तुत कर चुका था, वहाँ अभिलेख पर विद्यमान साक्ष्यों को दृष्टिगत रखते हुए राज्य आयोग ने सर्वेक्षक द्वारा प्रस्तुत की गयी उस रिपोर्ट को स्वीकृत करने योग्य माना जिसके माध्यम से यह दर्शाया गया कि परिवादी की कुल 63,935 रुपये की हानि हुई थी।
अतएव, यह अभिनिधारित किया गया कि वर्णित रकम पर परिवाद के फाइल किये जाने की तिथि में भुगतान किये जाने की तिथि तक 18% वार्षिक दर से व्याज भी परिवादी को देय होगा। इसके अलावा, अपीलकर्ता को 2,000 रुपये का प्रतिकर तथा 5,000 रुपये का जुर्माना प्राप्त करने का भी हवदार माना गया।
परिवादियों ने तीन सीटें बुक करायी थी और दूसरे आठ परिवादियों ने भी आठ सीटें दी जाने और वहाँ से वापस आने के लिए बुक करायी थी। वीडियो-कोट में 2" 2 पुश बैक की व्यवस्था करने के बजाय विरोधी पक्षकार ने साधारण बस की व्यवस्था कर दी। ऐसा होने से, परिवादीगण न तो सो सकते थे और न ही गाड़ी एवम् शटर के नीचे से शोर आने के कारण उनकी यात्रा ही अरामजनक साबित हो पायी।
अतएव, जब एकमात्र किराया वापसी एवम् प्रतिकर के लिए परिवाद दावा दायर किया गया गया और विरोधी पक्षकार अनुपस्थिति पाया गया, तब जिला फोरम ने यह निष्कर्ष लेखबद्ध किया कि चूंकि वीडियो कोच नहीं बल्कि साधारण कोष की उनकी यात्रा व्यवस्था कराई गयी, इसलिए विरोधी पक्षकार की सेवा में कमी पायी जाती है।
जिला फोरम में एक साथ उन सभी को ले जाने के लिए जुर्माने के रूप में 1000.00 रुपये का संदाय करने तथा हर एक परिवादी यात्री का किराया 215 रुपये लेने के कारण या परिवादियों को किराये की संदाय की गयी रकम को वापस करने का निर्देश विरोधी पक्षकार को दिया गया।
अपीलीय राज्य आयोग ने यह अभिनिर्धारित किया कि यही आदेश पारित करना न्यायसंगत माना जायेगा कि विरोधी पक्षकार प्रत्येक परिवादी को 215 रुपये के बजाय 100 रुपये का दान करने का निर्देश दिया जाय। इसके अतिरिक्त जिला फोरम द्वारा पारित किये गये जुमन का संदाय करने सम्बन्धी आदेश की सम्पुष्टि कर दी गयी।
बी पी पाठक बनाम एस एम के वाद में परिवादी ने विरोधी पक्षकार से सीमेण्ट खरीदा और इसी सीमेण्ट का प्रयोग द्वारा अपनी छत के डालने या निर्माण किया जाने में किया गया। किन्तु छत पड़ने के पश्चात् कुछ समय बाद वह गिर गयी। ऐसी दशा में जब परिवादी ने विरोधी पक्षकार के विरूद्ध एक परिवाद संस्थित किया, तब उसमें यह अभिकथन किया कि प्रश्नगत् सीमेण्ट निम्न कोटि की थी।
जहाँ जिना फोरम ने प्रतिवादी के विरुद्ध परिवादी के पक्ष में बतौर प्रतिकर 1,50,000 रुपये का अधिनिमंद किया, वहीं इसके विरुद्ध अपील दायर किये जाने पर, अपीलीय राज्य आयोग ने भी अधिनिय की संपुष्टि कर दिया। इसके अलावा, प्रतिकर की रकम की मात्रा के सन्दर्भ में भी सहमति व्यकि की गयी।
इस बात में कोई सन्देह की गुजाइंश नहीं पायी गयी कि परिवादी, अपीलकर्ता द्वारा स्वामी की तैयार की गयी मूर्ति से संतुष्ट नहीं था और इससे जिस सीमा तक उसकी हानि हुई उस से सीमा तक उसको प्रतिकर को संदाय करने की मंजूरी प्रदान की जानी चाहिए थी। यह परिवाद किसी भी व्यक्ति अर्थात् विरोधी पक्षकार को अवैधानिक ढंग से और धनी होने से रोकने के बाबत संस्थित किया गया था।
अतएव, प्रतिकर को न्यायसंगत निर्णीत करने यही आवश्यक माना गया कि प्रतिकर में से लैंप के साथ मूर्ति के मूल्य को प्रतिदाय किया जाना चाहिए तथा अपीलार्थी को 18% वार्षिक ब्याज की दर से ब्याज सहित 6,000 रुपये प्रतिकर का संदाय करने का निर्देश दिया गया। इस प्रकार से अपील आंशिक रूप से स्वीकृत कर दी गयी।
डॉ० जी० एस० आनन्दन बनाम पी एस के वाद में परिवादी ने हेयर टानिक की मूल्य की ओर से समाचार पत्र में विज्ञापन के अनुसरण में विरोधी पक्षकार के पास मनीआर्डर द्वारा 100 रुपये भेजा। यद्यपि भेजी गयी रकम प्रतिवादी द्वारा प्राप्त कर ली गयी; किन्तु उसने हेयर टानिक को नहीं भेजा। इसी वजह से परिवादी ने विरोधी पक्षकार के विरुद्ध एक परिवाद संस्थित किया विरोधी पक्षकार ने यह प्रकथन किया कि जिला फोरम के पास परिवाद की सुनवाई करने की अधिकारिता नहीं थी।
तदुपरान्त हेयर आयत दिनांक 14.7.1995 को परिवादी के पास भेज दिया गया। इस मामले में विलम्ब औषधि-सम्बन्धी जड़ी-बूटी की कमी होने के कारण कारित हुई। जिला फोरम ने परिवाद को स्वीकृत कर विरोधी पक्षकार को ब्याज सहित 100 रुपये का प्रतिदाय करने का निर्देश दिया और परिवादी के पक्ष में 1,000 रुपये प्रतिकर का भी अधिनिर्णय किया विरोधी पक्षकार ने प्रश्नगत् आदेश के विरुद्ध अपील दायर किया जहाँ प्रदर्शित करने के लिए कोई साध्य विरोधी पक्षकार द्वारा नहीं प्रस्तुत किया गया था कि जड़ी बूटी से टानिक का निर्माण करने के लिए हिमालय पर्वत से एकत्र किया गया और धन की प्राप्ति के अनेक महीने बाद हेयर आयल भेजा गया। इसके अलावा, जहाँ परिवादी के द्वारा भेजे गये पत्रों का भी जवाब नहीं दिया गया था।
वहाँ यह अनुचित व्यापार वृत्ति का अभिप्राय रखता था। अतएव, जिला फोरम के इस निष्कर्ष को दोषपूर्ण नहीं माना गया। लेकिन उसके द्वारा अधिनिर्णीत की गयी प्रतिकर की रकम को अधिक माना गया और इसलिए उसे घटाकर 300 रुपये कर दिया गया तथा आगे यह भी राज्य आयोग ने अधिनिर्णीत किया कि परिवादी जुर्माने के अलावा, ब्याज सहित 100 रुपये की एक रकम को विरोधी पक्षकार से वापस पाने का हकदार है।
एक वाद में परिवादी ने यह अभिकथन किया कि ट्रैक्टर का परिदान ग्रहण करने के पश्चात् उसका इंजन कार्य करना बन्द कर दिया और इस प्रकार से 7 दिनों तक उसके द्वारा कोई कार्य नहीं किया जा सका। शिकायत किये जाने पर विरोधी पक्षकार ने उसके दोषों को दूर करने के लिए ट्रैक्टर स्वामी अर्थात् परिवादी से कहा और उसकी अस्थायी तौर पर मरम्मत की गयी। इसके बाबत, उद्योग मन्त्री एवम् कम्पनी को अभ्यावेदन दिया गया।
ट्रैक्टर की मरम्मत के लिए 10,000 रुपये की एक मुफ्त रकम का संदाय व्यापारी को किया गया लेकिन उसने उचित ढंग कार्य करना प्रारम्भ नहीं किया। जब विरोधी पक्षकार के विरुद्ध एक परिवाद दायर किया गया तब कम्पनी ने ये प्रकथन किये कि ट्रैक्टर में कोई संरचनात्मक दोष नहीं था और परिवादियों द्वारा 12,000 रुपये के निक्षेप की भी अपेक्षा नहीं की जाती थी और कम्पनी की ओर से उसे इस बात की जानकारी होने से भी इंकार किया गया कि परिवादियों द्वारा 10,000 रुपये जमा किये गये थे। आगे परिवाद को परिसीमा द्वारा वर्जित होने के सन्दर्भ में भी प्रतिवाद किया गया।
इसके अलावा, विरोधी पक्षकार ने यह भी तर्क किया कि जो कुछ थोड़ा बहुत उस ट्रैक्टर में दोष थे, उन्हें दूर कर दिया गया था। व्यापारी ने यह प्रतिवाद किया कि ट्रैक्टर के क्रय की तिथि से 7 वर्षों की कालावधि की समाप्ति के पश्चात् परिवाद की दायर किये जाने के कारण; वह परिसीमा द्वारा वर्जित था। जहाँ, जिला फोरम ने अभिनिर्धारित किया कि परिवादी-गण, ट्रैक्टर के इंजन में दोष होने के बाबत विरोधी पक्षकारों के साथ नियमित रूप से पत्र व्यवहार करते रहें, वहाँ विरोधी पक्षकार द्वारा 25.7.1991 को इंजन के रिक्त उपकरणों को स्थानान्तरित भी किया गया।
जिला फोरम ने, अभिनिर्धारण में, इस परिवाद को परिसीमा द्वारा वर्जित नहीं माना और उसे विचारणार्थ स्वीकृत कर परिवादीगण के पक्ष में 10,000 रुपये का प्रतिकर तथा 500 रुपये का जुर्माना अधिनिर्णीत कर दिया। आगे, जब इस निर्णयादेश के विरुद्ध अपील दायर की गयी।
अपील:-
न्यु इण्डिया इंश्योरेंश कम्पनी लिमिटेड बनाम सुखदेव चन्द मेहता के मामले में जीवन बीमा योजना परिवादी ने अपने आयल-टैंक का विरोधी पक्षकार के माध्यम से बीमा कराया। लेकिन इसी आयल-टैंकर की दिनांक 28.10.1991 को चोरी हो गयी। जबकि इसके बाबत दावे की धनराशि का भुगतान सितम्बर सन् 1994 में किया गया। जब प्रतिकर के संदाय विलम्ब से किये जाने के सन्दर्भ में प्रतिकर का दावा संस्थित किया गया; तब परिवादी ने इसका प्रतिवाद किया।
इसके अलावा; जहाँ जिला-फोरम ने कारण का उल्लेख किये बिना ही 2,50,000/- रुपये के प्रतिकर का आदेश पारित किया; वहाँ अपीलीय राज्य आयोग ने यह अभिनिर्धारित किया कि किसी विशिष्ट हानि के होने के बाबत किसी विशिष्ट अभिकथनों या सबूत को अभाव में बीमाकृत रकम सहित उस पर 18% वार्षिक दर से ब्याज की मंजूरी, एक युक्तियुक्त पूर्ण प्रतिकर का आदेश होगा।
नेशनल इंश्योरेंस कम्पनी लिमिटेड बनाम उदयपुर सहकारी उपभोक्ता चोक भण्डार लिमिटेड, 1997 के वाद में परिवादी ने फीडल्टी गारंटी पालिसी करायी कर्मचारी ने रकम का दुर्विनियोग किया। दावा दर्ज किया गया, किन्तु इसका निराकरण कर दिया गया। परिवादी द्वारा जिलाफोरम के समक्ष परिवाद दायर किये जाने पर यह निर्णीत किया गया कि विरोधी पक्षकार परिवादी को 1,000 रुपये बतौर प्रतिकर संदाय करने के लिए उत्तरदायी है।
लेकिन, कथित निष्कर्ष के विरुद्ध अपील दायर किये जाने पर अपीलीय न्यायालय ने पूर्वोत्तर संबंधित कर्मचारी की एक दूसरी गलती यह करने का दोषी माना कि उसने महत्वपूर्ण सूचना छिपायी थी।
अतएव, जहां परिवादी ने विरोधी पक्षकार की जानकारी के बिना ही तथा उसी कर्मचारी को लगातार उसकी अनुमति प्राप्त किये बिना ही धन का संदाय करता रहा, वहां इसे स्पष्टरूपेण कथित पालिसी की शर्तों का उल्लंघन माना जायेगा और इस तरह से परिवादी के दावे का निराकरण किया जाना भी न्यायसंगत निर्णीत करने योग्य था।
न्यू इण्डिया इंश्योरेंस कम्पनी लिमिटेड बनाम कैप्टन जगदीश कुमार, 1997 के मामले में परिवादी ने अपनी जिस ट्रक का बीमा विरोधी पक्षकार द्वारा कराया, वह ट्रक दुर्घटनाग्रस्त हो गयी। इस दुर्घटना में हुई परिवादी के क्षति या हानि का निर्धारण करने के लिए सर्वेक्षक की नियुक्ति की गयी। परिवादी ने अपनी दुर्घटनाग्रस्त ट्रक की मरम्मत करायी और उसकी क्षतिपूर्ति करने के लिए दावा किया तो इसका विरोधी पक्षकार द्वारा निराकरण कर दिया गया।
परिणामतः जब परिवादी द्वारा परिवाद संस्थित किया गया, तब विरोधी पक्षकार की ओर से यह प्रकथन किया गया कि वाहन चालक के पास वाहन चालन लाइसेंस नहीं था और इस वाहन का प्रयोग वाणिज्य सम्बन्धी प्रयोजनों में किया जा रहा था, जिसके फलस्वरूप परिवादी को एक उपभोक्ता नहीं माना जा सकता।
ऐसी स्थिति में, जिला फोरम ने यह अभिनिर्धारित किया कि वाहन चालक का वाहन चालन लाइसेंस वास्तविक था, और न कि जाली और इसलिए विरोधी पक्षकार द्वारा प्रस्तुत किये गये इस तर्क को अस्वीकृत कर दिया जाता है कि परिवादी एक उपभोक्ता नहीं था। जहां जिला फोरम द्वारा विरोधी पक्षकार को, परिवादी के पक्ष में 1,69,663 रुपये का संदाय करने का निर्देश दिया गया, वहां व्यक्ति पक्षकार द्वारा इस निर्णयादेश के विरुद्ध अपील दायर की गयी।
अपीलीय न्यायालय द्वारा इस निष्कर्ष को लेखबद्ध किया गया कि चूंकि रजिस्ट्रीकरण एवं लाइसेंस प्रदान करने वाले प्राधिकारी द्वारा पत्रों को जारी नहीं किया गया, इसलिए उस पर विश्वास नहीं किया जा सकता था और चूंकि परिवादी ने संविदा की शर्तों के अनुपालन में प्रतिफल के लिए विरोधी पक्षकारों की सेवा किराये पर प्राप्त की थी, इसलिए वह प्रत्येक दृष्टिकोण से धारा 2 (1) (घ) (झझ) के अधीन आता था और इस प्रकार से अंततोगत्वा अपील को बलहीन घोषित कर अपास्त कर दिया गया तथा जिला आयोग के निर्णय की संपुष्टि कर दी गयी।
पूनाइटेड इण्डिया इंश्योरेंस कम्पनी लिमिटेड व अन्य बनाम (मे०) प्रोनोट लिमिटेड एवं अन्य 1997 के वाद में परिवादी ने अपनी फैक्टरी अर्थात् कारखाने एवं मशीनों का आग एवं पानी या बाढ़ से जमीन के कट जाने के विरुद्ध बीमा कराया था। जोरदार वारिस हो जाने के कारण कारखाने की दीवारे टूटकर गिर गयी।
इसके लिए दावा किया गया सर्वेक्षक की नियुक्ति की गयी जिसने 22,345 रुपये की हानि होने का निर्धारण करने वाली रिपोर्ट प्रस्तुत की। जब बीमा कम्पनी ने दावे का निराकरण किया, तब उसके विरुद्ध एक परिवाद संस्थित किया गया और जिसके परिणामस्वरूप जिला फोरम ने सर्वेक्षक द्वारा प्रस्तुत की गयी रिपोर्ट के आधार पर प्रतिकर का अधिनिर्णय किया।
जिला फोरम के निर्णयादेश के विरुद्ध अपील दायर की गयी और अपीलकर्ता ने यह निवेदन किया कि बीमा कम्पनी बाढ़ से उत्पन्न होने वाली खतरे को आच्छादित नहीं करती थी। प्रीमियम की अपर्याप्तता की गणना की गयी, जहां प्रीमियम की बकाया रकम का संदाय, बाढ़ की घटना हो जाने के पश्चात ही कर दिया गया था, वहाँ मात्र इस कारणवश कि, बीमाकर्ता ने एक दोषपूर्ण पालिसी जारी किया था तथा समुचित प्रीमियम का प्रभार आरोपित नहीं किया।
प्रतिवादी के दावे का निराकरण करने के लिए उन्हें अधिकार नहीं प्रदान कर देता। इन सभी परिस्थितियों के अधीन जहां बकाया प्रीमियम धनराशि का निक्षेप किया गया और उसे स्वीकार भी कर लिया गया, वहां अपने दायित्व का प्रत्याख्यान करने से विबन्धित नहीं हो जाता है और इसलिए अपीलीय राज्य आयोग द्वारा जिला फोरम द्वारा पारित किये गये निर्णयादेश की संपुष्टि कर दी गयी।