उपभोक्ता संरक्षण अधिनियम, 2019 भाग:5 अधिनियम के अंतर्गत जिला आयोग की अधिकारिकता क्या है

Shadab Salim

13 Dec 2021 1:30 PM GMT

  • उपभोक्ता संरक्षण अधिनियम, 2019 भाग:5 अधिनियम के अंतर्गत जिला आयोग की अधिकारिकता क्या है

    उपभोक्ता संरक्षण अधिनियम, 2019 (The Consumer Protection Act, 2019) की धारा 34 जिला आयोग की अधिकारिकता के संबंध में प्रावधानों को उल्लेखित करती है। इस धारा में जिला आयोग को किन मामलों में अधिकारिता होगी तथा किस प्रकार से होगी इस संबंध में संपूर्ण उल्लेख किया गया है।

    यह इस अधिनियम की महत्वपूर्ण धाराओं में से एक का धारा है, जैसा कि यह विदित है इस अधिनियम के अंतर्गत जिला आयोग राज्य आयोग तथा राष्ट्र आयोग तक तीन आयोग बनाए गए हैं और तीनों ही आयोग को भिन्न-भिन्न अधिकारिता दी गई। इस आलेख के अंतर्गत जिला आयोग की अधिकारिता से संबंधित प्रावधानों पर चर्चा की जा रही है।

    यह अधिनियम में प्रस्तुत मूल धारा है-

    जिला आयोग की अधिकारिता:-

    (1) इस अधिनियम अन्य उपबंधों के अधीन रहते हुए जिला आयोग को वहां परिवादों को स्वीकार करने की अधिकारिता होगी जहां वस्तुओं या सेवाओं के प्रतिफल के रूप में संदत्त मूल्य का (एक करोड़) से अधिक नहीं होता है :

    परंतु जहां केन्द्रीय सरकार ऐसा करना आवश्यक समझती है, तो वह ऐसा अन्य विहित कर सकेगी, जो वह ठीक समझे।

    (2) किसी जिला आयोग की स्थानीय सीमाओं में कोई परिवाद संस्थित किया जाएगा, जिसकी अधिकारिता में,-

    (क) परिवाद आरंभ करने के समय विरोधी पक्षकार या प्रत्येक विरोधी पक्षकार, जहां एक से अधिक है, साधारणतया निवास करता है या कारबार करता है या उसका शाखा कार्यालय है या अभिलाभ के लिए व्यक्तिगत रूप से कार्य करता है, या

    (ख) परंतु यह कि परिवाद आरंभ करने के समय कोई विरोधी पक्षकार या प्रत्येक विरोधी पक्षकार, जहां एक से अधिक है, वास्तव में और स्वैच्छिक रूप से निवास करते हैं या अपना कारबार करते हैं या उनका कोई शाखा कार्यालय है या लाभ के लिए व्यक्तिगत रूप से कार्य करते हैं, इस द दशा में कि जिला आयोग की अनुज्ञा दी गई है; या

    (ग) वाद हेतुक पूर्णतया या भागतः उद्भूत होता है; या

    (घ) परिवादी निवास करता है या लाभ के लिए व्यक्तिगत रूप से कार्य करता है।

    (3) जिला आयोग साधारणतया जिला मुख्यालय में कार्य करेगा और जिले में ऐसे अन्य स्थानों पर कार्य करेगा, जैसा राज्य सरकार राज्य आयोग के परामर्श से समय-समय पर राजपत्र में अधिसूचित करे।

    (1) धन संबंधी अधिकारिता जिला फोरम को ऐसे विवादों को ग्रहण करने की अधिकत होगी जहाँ माल या सेवा और दावाकृत प्रतिकर का मूल्य एक करोड़ रुपये से कम है।

    (2) स्थानीय परिसीमा संबंधी अधिकारिता-

    (1) परिवाद संस्थित किये जाने के समय प्रतिवादी अथवा प्रतिवादीगण जिला मंत्र से स्थानीय परिसीमा के भीतर स्वेच्छापूर्वक रहता हो, वहाँ कारबार चलाता अथवा व्यक्तिगत लाभ प्राप्त करने के लिए वहाँ कार्य करता हो, या

    (2) जहाँ परिवाद संस्थित किये जाने के समय प्रतिवादी अथवा प्रतिवादी स्वेच्छापूर्वक निवास करते हो, कारवार करते हो अथवा निजी लाभ प्राप्त करने के लिए वहाँ कार्य करते हो, परन्तु यह तब जबकि जिला फोरम ने इजाजत दी है या जो प्रतिवादी उपलिखित रूप में निवास नहीं करते या कारवार करते या अभिलाभ के लिए स्वयं कार्य नहीं करते, वे ऐसे संस्थित किये जाते है लिए सहमत हो गये हैं, या

    (3) वाद हेतुक पूर्णतः अथवा भागतः पैदा होता है।

    परिसीमा प्रस्तुत वाद में यह धारण किया गया कि यदि आयोग की परिसीमा संदर्भ क्षेत्राधिकार के बारे में कोई आपत्ति है तो इस आपत्ति को प्रारम्भ से ही उठाना चाहिए बाद में क्षेत्राधिकार वाद हेतुक उत्पन्न होने के आधार पर निर्धारित किया गया।

    क्षेत्राधिकार:-

    उपभोक्ता संरक्षण अधिनियम के अन्तर्गत उस मामले की जांच नहीं की जा सकती है, जिस परिवाद में कपट का मामला अन्तर्वलित है। ऐसे परिवाद उपभोक्ता संरक्षण अधिनियम के क्षेत्र से बाहर है।

    कलकत्ता महानगर विकास प्राधिकरण बनाम भारत संघ, 1993 के मामले में मुख्य प्रश्न यह है कि क्या क्षतिपूर्ति की धनराशि निश्चित करते समय सामूहिक रूप से दिये गये क्षतिपूर्ति की सम्पूर्ण धनराशि को न्यायालय के क्षेत्राधिकार से जोड़ना चाहिए या प्रत्येक व्यक्ति को दिये गये अलग-अलग क्षतिपूर्ति की धनराशि से प्रत्यर्थीगण द्वारा यह कहा जाना गलत है कि सम्पूर्ण धनराशि को न्यायालय के क्षेत्राधिकार से जोड़ना चाहिए। धारा 11 में यह अभिनिर्धारित किया गया है कि जिलाधिकरण को 1 लाख रुपये तक का क्षेत्राधिकार है।

    प्रस्तुत बाद में जिलाधिकरण की यह राय की उसे मात्र एक ही लाख रुपये तक का क्षेत्राधिकार है, इसलिये 20,000/- रुपये कई लोगों को देने के बाद कुल मूल्यांकन लगभग 4 लाख 60 हजार रुपये का होगा, वह क्षेत्राधिकार नहीं रखती एवं विनिर्णीत नहीं कर सकता राज्य आयोग द्वारा रद्द कर दिया गया। विनिर्णीत किया गया कि जिलाधिकरण को प्रत्येक व्यक्ति को एक लाख से अधिक की राशि क्षतिपूर्ति में देने का अधिकार है। प्रत्येक व्यक्ति की सम्मिलित राशि क्षेत्राधिकार निर्धारित नहीं करती।

    एक अन्य वाद परिवादी ने 329.95 पैसे में बाटा के जूते खरीदे जूते दोषपूर्ण थे। अतएव परिवादी ने साढ़े तीन लाख का दावा किया। न्यायालय ने धारण किया कि यह दावा परिवाद जिला मंच में संस्थित किया जाना चाहिए।

    जहाँ पर यह दलील पेश की गयी कि उपभोक्ता संरक्षण अधिनियम के परिप्रेक्ष्य में क्षेत्राधिकार वाले न्यायालयों को जिला मंच एवं राज्य आयोग में लम्बित मुकदमों से संबंधित सुनने का अधिकार नहीं है।

    इस तरह की दलील की विधि तथा उसका स्पष्टीकरण इस बात पर आधारित था, कि यह अधिनियम पर्याप्त बैंक लिपिक उपचार प्रदाय करता है इसी कारण रिट दाखिल नहीं की जा सकती है। यह अभिनिर्धारित किया गया कि उच्चतम न्यायालय के तमाम निर्णयों को पर्यात वैकल्पिक उपचार होने के कारण अनुच्छेद 226 के अन्तर्गत उपचार प्राप्त करने में बाधा न डालेंगे, को ध्यान में रखते हुए यह विचार स्वीकार्य नहीं है। अतः उच्च न्यायालय उत्प्रेषण याचिका की प्रार्थना पर विचार करते समय क्षेत्राधिकार की कमी के प्रश्न पर विचार करने को सक्षम है।

    अतः रिट याचिका है, उच्च न्यायालय द्वारा विचारणीय है, यह निर्णय करने में उस न्यायालय सक्षम है कि क्या जिला मंच को परिवादी की ओर से प्रस्तुत प्रार्थनापत्र को सुनने का क्षेत्राधिकार है।

    उपभोक्ता संरक्षण अधिनियम एक उत्तारोत्तर संस्था की स्थापना की व्यवस्था करती है जिसे हर चरण पर अपील सुनने का अधिकार है विधानमण्डल का यह इरादा प्रतीत होता है कि जिला मंच, राज्य आयोग अथवा राष्ट्रीय आयोग को बिना किसी व्यवधान के तुरन्त मामले के निपटारा करने हेतु अपने कर्त्तव्यों को निर्वहन करने की छूट प्रदान की जानी चाहिए।

    जिला आयोग की अध्यक्षता कार्यवाहक जिला जज अथवा अवकाश प्राप्त जिला जज करते हैं। राज्य आयोगों की अध्यक्षता या तो उच्च न्यायालय का न्यायाधीश या अवकाश प्राप्त उच्च न्यायालय के न्यायाधीश द्वारा की जाती है।

    वादकारियों को इस बात को कहने की आज्ञा नहीं दी जानी चाहिए कि जिला जज को जिला मंच स्तर पर तथा कार्यवाहक या अवकाश प्राप्त उच्च न्यायालय के न्यायाधीश को राज्य आयोग स्तर पर सुनवाई करने का क्षेत्राधिकार नहीं है। इन संस्थाओं/मंचों के नियत अधिकारीगण जो लम्बे अरसे तक या तो बतौर जिला जज के या उच्च न्यायालय के जज के रूप में कार्य कर चुके हैं।

    पूर्ण अनुभवी है तथा उन्हें क्षेत्राधिकार संबंधी प्रश्न भले ही वे पेचीदे हो निर्मय करने की योग्यता है। वे उन कुछ प्राशासनिक अधिकारियों की तरह नहीं है जिन्हें न्यायायिक अनुभव नहीं होता है। कहने का अर्थ है कि इन अधिकरणों के नियत अधिकारियों को क्षेत्राधिकार संबंधी प्रश्न निर्धारण करने का अधिकार नहीं दिया जाना चाहिए स्वीकार योग्य नहीं है यह सुनिश्चित है कि ये संस्थाएं क्षेत्राधिकार निर्धारित करने के लिए सक्षम है कि क्षेत्राधिकार उनके अन्तर्गत है तथा उनके सम्मुख आया।

    परिवादी धारा 2 (द) के अन्तर्गत उपभोक्ता है। यदि शुरु में ही बजरिये रिट उच्च न्यायालय ने क्षेत्राधिकार संबंधी प्रश्न को चुनौती देकर आपत्ति कर दी जायेगी तो संसद का उद्देश्य असफल हो जायेगा। यदि सिर्फ इसी उद्देश्य से उच्च न्यायालय में संबंधी प्रश्न उठाया जाता है तो उच्च न्यायालय को सामान्यतया स्वीकार करने को मजबूर नहीं समझना चाहिए।

    यदि रिट याचिकायें सिर्फ इसलिये स्वीकार कर ली गयी हैं कि जिला मंच राज्य आयोग तथा राष्ट्रीय आयोग के क्षेत्राधिकार संबंधी प्रश्न व्याप्त है तथा उन प्राधिकरणों के सम्मुख चल रही कार्यवाहियों में देरी होगी तो इन मंत्रों की स्थापना का उद्देश्य निश्फल हो जायेगी।

    यदि उच्च न्यायालय द्वारा ये रिट याचिकायें सुन ली जाती हैं और अन्त में खारिज कर दी। जाती है तो पक्षों को आवश्यक रूप से आगे के उपचारार्थ अपील द्वारा खण्डपीठ के सम्मुख और फिर उसके बाद संविधान में अनुच्छेद 133 एवं 136 के अन्तर्गत उच्चतम न्यायालय में जाना होगा। यदि रिट जारी नहीं होता है तो परिवाद को मंच को सुनना ही होगा।

    इस तरह का कार्य काफी देरी करेगा। उच्च न्यायालय के पास वैसे ही काफी बकाया कार्यों का भार है और यही वजह है कि उपभोक्ता संरक्षण अधिनियम के अन्तर्गत अलग उत्तारोत्तर अभिकरणों की स्थापना की व्यवस्था है। अतः इसलिए यह बुद्धिमानी नहीं है कि उच्च न्यायालय को सामान्यतया ऐसे विवाद सुलझाने को बोझ अपने सिर पर ले यद्यपि कि वे क्षेत्राधिकार से संबंधित है।

    जो बातें ऊपर कही गयी ये एक सामान्य नियम है। बहुत से कदाचित ऐसे भी मामले हो सकते हैं जिन्हें इस अधिनियम के संविधानों के अन्तर्गत खास मनाही हो तो ऐसे भी बाद हो सकते हैं जिन्हें उच्च न्यायालय की दखलंदाजी आवश्यक हो। परन्तु ये यदाकदा अपवाद स्वरूप होंगे न कि एक नियम एक ही समय पर जिला मंच तथा राज्य आयोग परिवाद को सुनने में सावधान होने चाहिए। उनको यह देखना चाहिए कि उनके क्षेत्राधिकार का दुरुपयोग न हो।

    उन्हें परिवादियों को यह अवसर नहीं प्रदान करना चाहिए कि जो इस अधिनियम के दायरे में नहीं आते हैं उन्हें वे फंसा कर मानसिक ताड़ना दें। जब उच्च न्यायालय इस तरह से प्रतिबंधित रूप से कार्य करेगे तो जिला मंच एक राज्य आयोग की जिम्मेदारी और बड़ी होगी कि वे देखे कि बिना किसी पर्याप्त कारण में उनका क्षेत्राधिकार नहीं प्रदान किया जा रहा है।

    अतः इस बाद में जिला मंच द्वारा क्षेत्राधिकार सम्बन्धी प्रश्न बहुत अच्छी तरह से तय किया जायेगा। खास मनाही हो और न ही यह ऐसा मामला था जो यदाकदा अपवाद स्वरूप हो।

    उत्तार प्रदेश राज्य में एक कोल्ड स्टोरेज स्थित था जिसमें कि बीमाकृत आलू को रखा गया। कोल्ड स्टोरेज की मशीन के टूट जाने से आलू विनष्ट हो गयी। परिवादी ने बीमा कम्पनी के विरुद्ध एक क्षतिपूर्ति का दावा किया सर्वप्रथम उसके दावा को क्षेत्राधिकार के प्रश्न के आधार पर आयोग द्वारा अस्वीकृत कर दिया गया कारण कि कोल्ड स्टोरेज उत्तार प्रदेश में स्थिति था.

    अतः सामान्य तौर पर परिवाद को उस न्यायालय के प्रादेशिक क्षेत्राधिकार की परिसीमा में संस्थित किया जाना चाहिए जिसके अन्तर्गत कोल्ड स्टोरेज स्थित था जब बाद में परिवाद को जिला उपभोक्ता न्यायालय दिल्ली में प्रस्तुत किया गया तो उसमें परिवादी द्वारा यह उत्सेव किया गया था कि प्रश्नगत घटना दिल्ली में हुई थी।

    विरोधी पक्षकार बीमा कम्पनी की भी एक शाखा दिल्ली में कार्यरत थी। उपभोक्ता संरक्षण अधिनियम, 1989 की धारा 11 को सन् 1993 के संशोधन द्वारा संशोधित किया जा चुका है जिसमें यह प्राविधान किया गया है कि एक परिवाद को उस न्यायालय के स्थानीय क्षेत्राधिकार की परिसीमा के अन्तर्गत संस्थित किया जा सकता है जिसके अन्तर्गत किसी भी निकाय का कार्यालय स्थित होता है। अतः यह अभिनिर्धारित किया गया कि वर्तमान मामले के परिवादको विचारणार्थ ग्रहण करने का क्षेत्राधिकार, जिला उपभोक्ता न्यायालय, दिल्ली के पास था।

    जहाँ तक उपभोक्ता न्यायालय के क्षेत्राधिकार का प्रश्न है तो यह उपभोक्ता के विवादों का निर्धारण करने का क्षेत्राधिकार रखती है। उपभोक्ता संरक्षण अधिनियम स्वयमेव एक पूर्ण संहिता है। उपभोक्ता को दावा करने हेतु जिला न्यायालय में जाना चाहिए।

    जिला न्यायालय द्वारा पारित किए गये आदेश के विरुद्ध राज्य आयोग में अपील करने का प्राविधान अधिनियम की धारा 15 के अन्तर्गत किया गया है ऐसी अपील जिला न्यायालय द्वारा पारित किये गये आदेश की तिथि से 30 दिनों की एक अवधि के भीतर की जानी चाहिए।

    उपभोक्ता संरक्षण अधिनियम की धारा 17 (बी) के प्राविधान के अनुसार राज्य आयोग जिला न्यायालय में लम्बित बाद के अभिलेख को मंगा सकती है और अपनी पुनरीक्षण करने की शक्ति के अधीन आदेश भी पारित कर सकती है जहाँ कि उसे यह प्रतीत होता है कि जिला न्यायालय ने अपने क्षेत्राधिकार का प्रयोग अवैधानिक एवं महत्त्वपूर्ण अनियमितता साथ किया है।

    राज्य द्वारा पारित आदेश के विरुद्ध अपील राष्ट्रीय आयोग के पास, राज्य आयोग में लम्बित बाद के अभिलेख को मंगाने की शक्ति होती है तथा वह स्वयं यह समधान कर सकती है कि क्या राज्य आयोग ने अपने क्षेत्राधिकार का प्रयोग अवैधानिक ढंग से एवं तात्विक अनियमितता के साथ किया है।

    राष्ट्रीय आयोग के विरुद्ध अपील पारित आदेश के तिथि के 30 दिनों के अन्दर उच्चतम न्यायालय में की जा सकती है। यही नहीं बल्कि उच्चतम न्यायालय ऐसी अपील को, कथित अवधि (30 दिनों) के व्यतीत हो जाने के पश्चात् भी विचारणार्थ ग्रहण कर सकती है।

    लेकिन ऐसा यह तभी करती है जब उसे यह समाधान हो जाता है कि पर्याप्त मौजूद कारणवश अपील को निर्धारित समय सीमा के अन्दर प्रस्तुत नहीं किया जा सका। यद्यपि भारत के संविधान के अनुच्छेद 226 के अन्तर्गत उच्च न्यायालय के द्वारा क्षेत्राधिकार संबंधी प्रश्नों को विचारणार्थ ग्रहण किया जा सकता है लेकिन ऐसी कोई बाध्यता नहीं होती कि उच्च न्यायालय ऐसी शक्ति का प्रयोग प्रत्येक याचिका में करे की इस प्रकार के क्षेत्राधिकार संबंधी मुद्दे को विचारणार्थ स्वयमेव उपभोक्ता न्यायालय द्वारा ही ग्रहण किया जा सकता है।

    जहाँ परिवादी राजस्थान गांव का निवासी था और उसने यह अभिकथन करते हुए राजस्थान गांव के जिला फोरम के समक्ष परिवाद संस्थित किया कि उसे शेयर का प्रमाण पत्र नहीं प्राप्त हुआ, वहां प्रतिवादी कंपनी की ओर से यह प्रतिवाद किया गया कि राजस्थान गांव जिला फोरम के पास परिवाद को विचारण करने हेतु स्वीकार करने की शक्ति नहीं थी और केवल उसी स्थान के उच्च न्यायालय के पास ऐसे परिवाद को विचारणार्थ ग्रहण करने की अधिकारिता होती है, जहाँ पर कंपनी का रजिस्ट्रीकृत कार्यालय होता है।

    कंपनी का राजस्थान गांव में कोई शाखा नहीं थी, फिर भी जिला फोरम ने यह अभिनिर्धारित किया कि कथित फोरम के पास प्रश्नगत मामले को विचारणार्थ ग्रहण करने की अधिकारिता थी। जिला फोरम के इस आदेश को पुनरीक्षण न्यायालय के समक्ष चुनौती दी गयी।

    जब कंपनी पब्लिक हो जाय और अनेक से भिन्न-भिन्न आवेदकों ने शेयरों के लिए अभ्यावेदन प्रस्तुत किये, तो इसका अर्थ नहीं होता कि बाद हेतुक उसी स्थानपर उद्भूत होगा जहां वे रहते रहे हो या जहां उनके द्वारा शेयर प्रमाणपत्रों के प्राप्त किये जाने की प्रत्याशा की जा सके।

    ऐसी दशा में, यह अभिनिर्धारित किया गया कि राजस्थान गांव जिला फोरम के पास प्रश्नगत परिवादों को विचारणार्थ ग्रहण करने की अधिकारिता नहीं थी और इसलिए जिला फोरम एवं राज्य आयोग के आदेशों को अपास्त कर दिया गया।

    प्रभात जैन, स्वत्वधारी, मेसर्स भवानी, बोरवेल व अन्य बनाम एस आर मड़ई, 2005 के प्रकरण में जहां दावेदारी की भूमि में कुएं का बोर करने हेतु खुदाई करवायी गयी और उसमें पाइपहेतु खुदाई करवायी गयी और उसमें पाइप का लगाया जाना उचित नहीं थ और जलमग्न होने वाली पाइप को नहीं फिट करवाया जा सकता था; वहां जब परिवादी ने लागत मूल्य तथा प्रतिकर संदाय किये जाने के लिए दावा किया तब यह आक्षेप किया गया कि जिला फोरम रायपुर क परिवद को विचारणार्थ ग्रहण करने की कोई अधिकारिता नहीं था।

    क्योंकि परिवादी जिला महा समण्ड में स्थित था और अपीलार्थी सं0 2 में अपीलार्थी विरोधी पक्षकार सं0 1 का अभिकर्ता भी उसी जिले में निवास करता था। जबकि अपलार्थी सं० 1 का कार्यालय जिना रायपुर में था। इसके अलावा, विरोधी पक्षकार सं0 2 ने कोई रूपान्तर नहीं दाखिल किया और इस प्रकार रायपुर में फोरम की अधिकारिता के संदर्भ में उपमत हो गया।

    चूंकि इस प्रतिवाद में कोई सार नहीं था कि यह आदेश नहीं दिया जा सकता था कि सम्पूर्ण लागत का प्रतिदाय किया जाय जब जल मग्र करने योग्य पम्प नहीं लगायी जा सकती थी इसलिए 14.315/- रुपये 500/- रुपये का प्रतिकर तथा 500/- रुपयू का खर्च का प्रतिदाय करने का निर्देश देने वाले संदिग्दार्थी, आदेश में हस्तक्षेप करने का कोई आधार नहीं था।

    विदेशी कम्पनी के विरुद्ध भारत में यदि कोई वाद कारण नहीं उत्पन्न होता है तो इस स्थिति में उपभोक्ता संरक्षण अधिनियम के अन्तर्गत ऐसी विदेशी कम्पनी के विरुद्ध परिवाद ग्रहण करने योग्य नहीं होगी। इसका कारण यह बताया गया कि ऐसी कम्पनी की स्थिति भारत में साधारण तोर पर निवास करने वाले अथवा काबार करने के रूप में नहीं समझी जाएगी।

    पैकेज यात्रा की सेवाओं का लाभ सिंगापुर, थाइलैंड एवम् मलेशिया इक्स मुम्बई के लिए परिवादी द्वारा लिया गया। परिवादी ने सेवा में कमी का अभिकथन करते हुए एक परिवाद, जिला फोरम भोपाल में दाखिल किया।

    जहां बुक करने की शर्तें यह प्रावधान करती थी कि मुम्बई में जिला फोरम के पास एक मात्र सभी दावा एवम विवादों का निपटारा करने को अधिकारिता होगी। जहां विरोधी पक्षकार सं0 1 की सेवाओं का भोपाल में आधारित इसके विरोधी पक्षकार सं० 2 के माध्यम से लाभ लिया गया और जिला फोरम-भोपाल के पास परिवाद का न्याय निर्णयन करने की अधिकारिता थी।

    संशोधन प्रार्थनापत्र:-

    परिवादी ने प्रारम्भ में 1,44,900 रुपये का बतौर क्षतिपूर्ति दावा किया जो कि स्पष्ट रूप से जिला मंच के आर्थिक क्षेत्राधिकार से बाहर था जब परिवादी ने उसे वसूल करना चाहा तब तक संशोधन की दरख्वास्त इस आशय की डाली गई। जिससे कि आयोग के क्षेत्राधिकार में आ जाय। संशोधन प्रार्थनापत्र में स्केलिंग करने का पूर्णतया कोई कारण नहीं दिखाया गया।

    जिलामंच ने संशोधन प्रार्थना पत्र को अंतर करते हुये यह अवलोकित किया कि चूंकि यह सामान्य प्रकृति का संशोधिन प्रार्थना पत्र है तथा जो संशोधन चाहा गया है उससे विवाद को प्रकृति पर कोई असर नहीं पड़ेगा।

    मंच के सारे अभिलेख यह दर्शित करते हैं कि जितनी भी प्रक्रियाएं है एवं संशोधन प्रार्थनापत्र पड़ता है उनमें केवल अध्यक्ष जिला मंच के हस्ताक्षर होने है, अधिनियम के कार्यक्रम के मुताबिक अध्यक्ष अकेले ही अपने हस्ताक्षर से कोई आदेश पारित करने को अधिकृत नहीं है।

    अतः सारी प्रक्रियाओं की वैधता पर गंभीर शंका पैदा होती है। जब प्रक्रियाएं औपचारिक एवं सामान्य है जैसे तिथि नियत करना आदि उसमें अगली तिथि पर सदस्यों की भागीदारी एवं मौजूदगी से यह प्रतीत होता है कि पिछली कार्यवाइयों में उनकी सम्पत्ति थी परन्तु यह बात तब नहीं हो सकती है जब कार्यवाहियां सारभूत कृत की है।

    आदेश 6 नियम 17 सिविल प्रक्रिया संहिता के अधीन प्रार्थनापत्र मंजूर करते हुये जिससे कि उसका विवाद का विषय प्रवेश मंच के क्षेत्राधिकार में भर जाय यह सारभूत प्रकृति का विषय है और इस प्रकार का आदेश सिर्फ अध्यक्ष के हस्ताक्षर से ही नहीं पारित हो सकता है।

    माल का प्रदाय:- परिवादी ने प्रतिपक्षी को दिल्ली में सामान दिया कि वह फिरोजाबाद पहुंचा दे। माल पर्ची आदि सभी कागजात बैंक के जरिये परिवादी ने माल करने वाले को भेज दिया परन्तु कुछ दिनों बाद वे सारे कागजात वापस प्राप्त कर लिये क्योंकि माल पाने वाले ने भुगतान करने से इंकार कर दिया था। परिवादी ने सामान की मय व्याज सहित तथा बैंक एवं अन्य खर्चे को पाने का परिवाद लाया।

    प्रतिपक्षी ने यह परि किया कि जिला मंच दिल्ली का इस परिवाद को सुनने का क्षेत्राधिकार नहीं हासिल था क्यों प्रतिपक्षी कम्पनी का मुख्य कार्यालय बम्बई में होना रसीद में विशेष रूप से अंकित था। व अभिनिर्धारित किया गया कि चूंकि सामान दिल्ली से फिरोजाबाद बुक हुआ है इसलिए वि का एक कार्यालय दिल्ली में है कोई वाद कारण का भाग बम्बई में नहीं उठता है। बम्बई न्यायालय को इस वाद को सुनने का क्षेत्राधिकार नहीं है। माल रसीद की यह शर्त की मो विवाद बम्बई क्षेत्राधिकार में होंगे प्राप्त करने योग्य नहीं है।

    भगवती चाँदवानी बनाम सिपानी आटोमोबाइल्स लि. (1993) के मामले में जयपुर क्रय की गयी कार खराब निकली बुकिंग शर्तो में क्षेत्राधिकार बंगलोर के न्यायालय में को दिया गया। राजस्थान आयोग के समक्ष परिवाद वाद योग्यता अधिनियम की धारा 11 जिलामंच में क्षेत्राधिकार का वर्णन करती है।

    अधिनियम की धारा 18 के कारण नियम 12, 13 और 14 में प्रक्रियात्मक नियम बावत परिवादों में निस्तारण के बनाये गये हैं जो राज्य आयोग सुधार करने के साथ-साथ परिवादों के निस्तारण हेतु लागू करते हैं। क्षेत्रीय क्षेत्राधिकार से सम्बन्धित उपबन्ध अधिनियम की धारा 11 की उपधारा 2 में प्रदत्त है।

    धारा 11 में उपबन्ध धारा 20 व्यवहार प्रक्रिया संहिता के उपबन्धों के समानार्थी है। यह है कि वाद कारण का कोई भाग राज्य आयोग के स्थानीय क्षेत्राधिकार में उत्पन्न हो गया है। तब पर भी वहाँ जहाँ विपक्षी या किसी एक विपक्षी द्वारा जो वाद संस्थित करते वक्त वास्तविक रूप से स्वेच्छया रहता हा या व्यापार करता हो अथवा व्यक्तिगत लाभ कमाई कार्य करता हो।

    परिवाद अन्तर्त 11 (2) नहीं हो सकता है। धारा 11 की उपधारा 2 (ब) उपबन्धित करती है। कि विपक्षी में से एक जहाँ एक से अधिक हो परिवाद संस्थित करते समय वास्तविक रूप से संकाया रहता हो व्यापार करता हो या कोई लाभ का कार्य करता हो बशर्ते कि उसने समझौता कर लिया हो या कि विपक्षीगण अपना हक न छोड़ चुके हो।

    प्रस्तुत वाद में परिवादी के पतिदेव द्वारा हस्ताक्षरित प्रार्थनापत्र दी गयी थी। परिवादी के पति ने परिवादी के लिए कार बुक कराते समय शर्त नं0 7 से समझौता कर लिया तथा शुरू की रकम 10,000/- रुपया अदा किया।

    परिवादी ने अपने हलफनामें में इस बात को तसलीम किया कि कार उसके पति ने प्राप्त किया परन्तु यह नहीं कर कथन नहीं किया कि शर्त नं0 7 को उसके पति ने नहीं माना है। प्रार्थना पत्र फार्म में भी कही नहीं इंगित था कि यदि कोई विवाद बड़ा होता है तो वह बंग्लौर न्यायालय द्वारा निर्णीत किया जायेगा। उस उपबन्ध द्वारा राजस्थान उपचार मंच का स्थानीय क्षेत्राधिकार बहिष्कृत था।

    शर्त नं 7 के आधार पर यह अभिनिर्धारित किया गया कार खरीद से सम्बन्धित उठा विवाद द्वारा परिवादी बंग्लौर क्षेत्राधिकार के अन्तर्गत था। यह राज्य आयोग राजस्थान के सुनने "योग्य नहीं है। यह आदेशित किया गया कि परिवादी द्वारा प्रस्तुत परिवाद मय अन्य कागजात में परिवादी को वापस किये जिससे वह सक्षम उपचार मंच के सम्मुख प्रस्तुत सके।

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