उपभोक्ता संरक्षण अधिनियम, 2019 भाग:4 अधिनियम के अंतर्गत उपभोक्ता कौन है

Shadab Salim

13 Dec 2021 4:40 AM GMT

  • उपभोक्ता संरक्षण अधिनियम, 2019 भाग:4 अधिनियम के अंतर्गत उपभोक्ता कौन है

    उपभोक्ता संरक्षण अधिनियम, 2019 (The Consumer Protection Act, 2019) के अंतर्गत परिभाषा खंड में ही हमें उपभोक्ता की परिभाषा मिलती है। अदालतों द्वारा समय-समय पर दिए गए न्याय निर्णय से भी उपभोक्ता की परिभाषा स्पष्ट होती है। इस आलेख के अंतर्गत उपभोक्ता कौन है इस प्रश्न पर चर्चा की जा रही है।

    "उपभोक्ता" का तात्पर्य उपभोक्ता से ऐसा कोई व्यक्ति अभिप्रेत है जो

    (1) ऐसे किसी प्रतिफल के लिए जिसका संदाय कर दिया गया है या बचन दिया गया है या भागत संदाय किया गया है और भागत वचन दिया गया है, किसी अस्थगित संदाय पद्धति के अधीन किसी माल का क्रय करता है, इसके अन्तर्गत ऐसे किसी व्यक्ति से भिन्न ऐसे माल का कोई प्रयोग कर्त्ता भी है जो ऐसे प्रतिफल के लिए जिसका संदाय किया गया है या वचन दिया गया है या भागत संदाय किया गया है या भागत वचन दिया गया है या अस्थगित मंदाय की पद्धति के अधीन माल का क्रय करता है जब ऐसा प्रयोग ऐसे व्यक्ति के अनुमोदन से किया जाता है किन्तु इसके अन्तर्गत ऐसा कोई व्यक्ति नहीं आता है जो ऐसे माल को पुन विक्रय या किसी वाणिज्यिक प्रयोजन के लिए अभिप्राप्त रखता है, और

    (2) किसी ऐसे प्रतिफल के लिए निम्न का संदाय किया गया है या वचन दिया गया है या भागतः संदाय और भागत वचन दिया गया है या किसी अस्थगित संदाय की पद्धति के अधीन सेवाओं को भाड़े पर लेता है और इसके अन्तर्गत ऐसे किसी व्यक्ति में भिन्न ऐसी सेवाओं का कोई हिताधिकारी भी है जो ऐसे किसी प्रतिफल के लिए जिसका संदाय किया गया है और वचन दिया गया है और भागत संदाय किया है और भागतः वचन दिया गया है या किसी अस्थगित संदाय की पद्धति के अधीन सेवाओं को भाड़े पर लेता है जब ऐसी सेवाओं का उपयोग प्रथम वर्णित व्यक्ति के अनुमोदन से किया जाता है।

    उपभोक्ता संरक्षण अधिनियम के अन्तर्गत परिभाषित उपभोक्ता या उपभोक्ताओं की विशिष्ट पहचान आवश्यक होती है जिन्हें क्षतिपूर्ति प्रदान की जा सकती है।

    (i) उपभोक्ता कौन है:-

    इस अधिनियम के अन्तर्गत उपभोक्ता" शब्द को वस्तुओं पर सेवाओं के संदर्भ में अलग-अलग ढंग से परिभाषित किया गया है।

    (i) वस्तुओं के संदर्भ में–उपभोक्ता वह व्यक्ति है जो, प्रतिफल का भुगतान करके प्रतिफल का भुगतान करने का वचन देकर या प्रतिफल का आंशिक भुगतान करके या आंशिक भुगतान करने का वचन देकर या आस्थगित भुगतान की पद्धति के अधीन कोई माल खरीदा है। इसमें ऐसा व्यक्ति भी शामिल है जो वास्तविक क्रेता नहीं है बल्कि वास्तविक क्रेता के अनुमोदन से ऐसे माल का उपयोग करता है।

    (ii) सेवाओं के सन्दर्भ में उपभोक्ता वह व्यक्ति है जो प्रतिफल का भुगतान करके या प्रतिफत का भुगतान करने का वचन देकर या प्रतिफल का आंशिक भुगतान करके या आंशिक भुगतान करने का वचन देकर या आस्थगित भुगतान की पद्धति के अधीन किसी सेवा को प्राप्त करता है। इसमें ऐसा व्यक्ति भी शामिल है जो वास्तविक रूप से प्रतिफल का भुगतान करके सेवाओं को नहीं प्राप्त करता है बल्कि वास्तविक क्रेता के अनुमोदन से ऐसी सेवाओं को प्रातः करता है।

    उक्त धारा 2 (1) (घ) में प्रयुक्त शब्द "व्यावसायिक उद्देश्य के लिए का बहुत सूक्ष्म एवं निषेधात्मक अर्थ है व्यावसायिक उद्देश्य का अर्थ व्यावसायिक उत्पादन एवं व्यावसायिक कार्य से भिन्न है। निम्नलिखित परीक्षणों के आधार पर यह निश्चित किया जा सकता है कि क्या माल व्यावसायिक उद्देश्य के लिए क्रय किया गया है

    (1) वस्तु त्वरित अन्तिम उपभोग के लिए नहीं बल्कि केवल अन्तरण हेतु है अर्थात् पुनः बिक्री हेतु।

    (2) वस्तु के क्रय तथा अग्रिम बिक्री के लाभ तथा हानि में सीधा निकटतम संबंध होना चाहिए। ऐसे निकटतम संबंध का तब अभाव होता है जब वस्तु या सेवाएं अन्य वस्तु या सेवाओं के उत्पादन के संबंध में प्रयुक्त की जाती है। परिवर्तन के गए वस्तु तथा विक्रय किए गये वस्तु के बीच निकटतम संबंध नहीं होता है।

    अधिनियम के उपबंधों का गहन अध्ययन करने के पश्चात् यह निष्कर्ष निकलता है कि विधि का निर्माण करते समय संसद का आशय निम्नलिखित चार प्रकार के उपभोक्ताओं को संरक्षण एवं अनुतोष प्रदान करने का था:-

    (i) उन व्यक्तियों को जिन्होंने किसी व्यवसायी द्वारा अपनाए गए अनुचित व्यावसायिक पद्धति के परिणामस्वरूप हानि उठाई हो।

    (ii) उन व्यक्तियों जिन्होंने प्रतिफल का भुगतान करके वस्तु का क्रय किया है तथा वस्तु में एक अथवा अनेक दोष हैं।

    (iii) उन व्यक्तियों को जिन्होंने व्यवसायी से वस्तु क्रय किया हो तथा व्यवसायी ने विधि द्वारा निर्धारित मूल्य से अधिक मूल्य व्यक्त कर लिया हो या पैकेज दोषपूर्ण हो ।

    (iv) उन व्यक्तियों को जिन्होंने प्रतिफल का भुगतान करके सेवाएं अर्जित की हो तथा अर्पित सेवाएं अक्षय एवं दोषपूर्ण हो।

    उपर्युक्त श्रेणियों के उपभोक्ताओं को यह अधिकार प्रदान किया गया है कि अपने अधिकारों एवं हितों की रक्षा के लिए उपभोक्ता परिषद के समक्ष आवेदन प्रस्तुत करके अनुतोष एवं संरक्षण प्राप्त करे।

    एक वाद में परिवादी ने तेल मिल चलाने के लिए जनरेटर सेट खरीदा जनरेटर सेट दोषपूर्ण साबित हुआ। परिवादी ने क्षतिपूर्ति की माँग की। न्यायालय ने यह धारण किया कि परिवादी उपभोक्ता है।

    एक प्रकरण में परिवादी कृषक था। उसने विपक्षी से बाजरे का बीज बोने के लिए खरीदा। बीज दोषपूर्ण था इसलिए उपज कम आई। परिवादी ने क्षतिपूर्ति का दावा किया धारण किया गया कि परिवादी उपभोक्ता था तथा परिवाद पोषणीय था।

    उपभोक्ता वह व्यक्ति है जो प्रतिफल को अदा करके वस्तु एवं सेवाएं प्राप्त करता है तथा वह व्यक्ति उपभोक्ता नहीं है जो ऐसे वस्तु को पुनः विक्रय के लिए अथवा व्यावसायिक उद्देश्य के लिए प्राप्त करता है।

    रामप्रताप अग्रवाल व अन्य बनाम वीरेन्द्र प्रताप सिंह, 1992 के प्रस्तुत बाद में अपीलार्थी संविदा पर बस परिवहन की सेवा प्रदान करने की एक संस्था थी। उसने सतना से टीकमगढ़ तक परिवहन सुविधा उपलब्ध कराने के लिए मध्य रेलवे से करार किया।

    परिवादी एक रेल यात्री था जो कि प्रतिफल का भुगतान करके परिवहन सेवा अर्जित कर रहा था। परिवहन सेवा विलम्ब से की गई यह धारा 2 (1) (छ) के अन्तर्गत सेवा में कमी है तथा परिवादी अधिनियम की धारा 2 (1) (छ) के अन्तर्गत उपभोक्ता है।

    एक वाद में न्यायालय ने यह धारण किया कि ट्रेन के टिकट धारक यात्री "उपभोक्ता" है क्योंकि वे प्रतिफल का भुगतान करके सेवाएं प्राप्त करते हैं।

    नगरपालिका निगम, रीवा बनाम रविकान्त पाण्डे और एम पी स्टेट व अन्य बनाम रविकान्त पाण्डे, 1992 के प्रस्तुत वाद में नल का कनेक्शन मकान मालिक के नाम से था। जल निगम ने गढ़े पानी की आपूर्ति किया। परिवादी जो कि किराएदार था क्षतिपूर्ति के लिए परिवाद संस्थित किया।

    विपक्षी ने आपत्ति किया कि परिवादी धारा 2 (1) (प) के अन्तर्गत उपभोक्ता नहीं है। न्यायालय ने धारण किया कि अधिनियम की धारा है (1) (घ) के अन्तर्गत केवल वही आते हैं जो वास्तविक रूप में वस्तु क्रय करते हैं या सेवाय अर्जित करते हैं बल्कि इसके अन्तर्गत ऐसे किसी व्यक्ति से भिन्न ऐसे माल का कोई प्रयोगकर्ता भी है जो ऐसे प्रतिफत के लिए जिसका संदाय किया गया है या वचन दिया गया है या भागत संदाय किया गया है या भागतः वचन दिया गया है या अस्थगित संदाय की पद्धति के अधीन माल क्रय करता है जब ऐसा प्रयोग ऐसा व्यक्ति के अनुमोदन में पाया जाता है।

    (ii) इसके अन्तर्गत ऐसे किसी व्यक्ति से भिन्न ऐसी सेवाओं का कोई हिताधिकारी भी है जो ऐसे किसी प्रतिफल के लिए जिसका संदाय किया गया है और वचन दिया गया है और भागतः संदाय किया गया है और भागतः वचन दिया गया है या किसी अस्थगित मंदाय की पद्धति के अधीन सेवाओं को भाड़े पर लेता है जब ऐसी सेवाओं का उपयोग प्रथम वर्णित व्यक्ति के अनुमोदन में किया जाता है।

    अतएव प्रस्तुत वाद में किराएदार मकान मालिक को जो मासिक भाड़ा देता है उसमें नाम का भी किराया सम्मिलित होता है, इससे स्पष्ट है कि वह प्रतिफल का संदाय करके सेवा अर्जित करता है। अतः वह अधिनियम की धारा 2 (1) (क) के अन्तर्गत उपभोक्ता है तथा क्षतिपूर्ति के लिए परिवाद संस्थित कर सकता है।

    इस्थान प्राइवेट लिमिटेड वनाम कर्नाटक विद्युत परिषद व अन्य, 1991 के वाद में परिवादी बिजनेस के प्रयोजन के लिए स्थापित फैक्ट्री में विद्युत आपूर्ति का उपभोक्ता था। वाद में प्रश्न यह था कि क्या परिवादी उपभोक्ता है?

    न्यायालय ने यह धारण किया कि इसमें संदेह नहीं है कि विद्युत वस्तु है और परिवादी प्रतिफल का भुगतान करके व्यावसायिक उद्देश्य के लिए बिजली क्रय कर रहा था तथा उसके द्वारा आटो का स्पेयर पार्ट बनाता था तथा लाभ के लिए विक्रय करता था।

    यहां तक तो परिवादी धारा 2 (1) (प) के उपधारा (i) के अन्तर्गत उपभोक्ता नहीं है। परन्तु धारा 2 (1) (घ) की उपधारा (ii) के अन्तर्गत वह व्यक्ति जो सेवाएं भाड़े पर प्रतिफल का भुगतान करके अर्जित करता है उपभोक्ता होगा और अधिनियम की धारा 2 की उपधारा (ण) के अनुसार सेवा के अन्तर्गत विद्युत की आपूर्ति सम्मिलित है। अतएव परिवादी धारा 2 (1) (घ) (ii) के अन्तर्गत "उपभोक्ता है।

    मुम्बई ग्राहक पंचायत बनाम आन्ध्र प्रदेश स्कूटर्स लिमिटेड, 1991 के प्रकरण में परिवादी ने विपक्षी कम्पनी को स्कूटर बुकिंग हेतु 500 /- रुपये अग्रिम जमा किया। इससे स्पष्ट है कि परिवादी ने प्रतिफल का भुगतान करके विपक्षी से स्कूटर क्रय करने की सेवा प्राप्त की। अतएव परिवादी धारा 2 (1) (घ) के अन्तर्गत उपभोक्ता है। हालांकि विपक्षी द्वारा सेवा अर्पित करने में कमी की गयी इसलिए परिवादी क्षतिपूर्ति का हकदार था।

    "नियत निक्षेप द्वारा धन का विनियोग-

    शालिक अलाउद्दीन एवं अन्य बनाम टर्की कंस्ट्रक्शन एवं अन्य, (1995) मामले में यह निर्णीत किया गया कि वे परिवादीगण उपभोक्ता होने की हैसियत रखते है जिन्होंने विपक्षी फर्म में धन का विनियोग किया है।

    इसी फर्म के विपक्षीगण क्रमांक 2 से 4 तक भागीदार है तथा परिवादीगण उपभोक्ता संरक्षण अधिनियम की धारा 2 (1) (घ) (II) के अर्थ में उपभोक्ता है। परिपक्व धनराशि को वापस करने की असफलता ने यह सिद्ध कर दिया है कि उनकी सेवा में गम्भीर अपूर्णता विद्यमान है और इसलिए परिवादीगण इस दावा को पोषणीय रखने हेतु अधिकृत है।

    एक प्रकरण में प्रतिवादी ने फोटोस्टेट मशीन खरीदा किन्तु परिवादी ने यह अभिकथन किया कि इस मशीन में दोष पाये गये। हालांकि यह पैरामीटर को अवधारित करना था कि क्या परिवादी एक उपभोक्ता होने के लिए अधिनियम की धारा 2 (घ) के स्पष्टीकरण के भीतर आता था या नहीं?

    लेकिन परिवादी का यह मामला नहीं था कि वह स्वयं मशीन चला रही थी या उसका कर्मचारी चला रहा था, इसके अलावा जहां परिवादी के पास आय के पर्याप्त दूसरे भी खर्च थे और जहां उसका पति भी सऊदी अरब में उपार्जन कर रहा था, वहां जब जिला फोरम ने इस निष्कर्ष को लेखबद्ध किया कि परिवादी एक उपभोक्ता था, तब इसे अपीलीय आयोग एक दोषपूर्ण निर्णयादेश माना।

    अधिनियम के अन्तर्गत स्वतः रोजगार शब्द को कहीं परिभाषित नहीं किया गया है और इसलिए इसे एक साक्ष्य की विषय वस्तु माना जाता है। अतः जब तक उसके ऊपर विचार करने का यह साक्ष्य नहीं होता है कि मशीन का प्रयोग, ईट के निर्माण एवं विक्रय में व्यापार व्यवसाय के लिए कर्मचारीगण या कर्मकारों की नियमित आधार पर नियुक्ति करके वाणिज्यिक प्रयोजन में भाषार्थ को समझे बिना ही अपनी जीवकोपार्जन के लिए स्वतः रोजगार के भाव में ही किया जा रहा था; तब तक इसको स्वतः रोजगार के ही भाव में समझा जायेगा।

    कारण कि एक वाणिज्य सम्बन्धी प्रयोजन में ईंटों का निर्माण किया जाना तथा उनका विक्रय किया जाना भी जीविकोपार्जन करना हो सकता है बल्कि वाणिज्य सम्बन्धी कारोबार में एकमात्र जीविकोपार्जन करना यह अभिप्राय नहीं रखता है कि उसका प्रयोग वाणिज्य सम्बन्धी प्रयोजन में नहीं किया जाता है।

    स्वतः रोजगार शब्द इन बातों के साथ ही साथ एक पृथक् धारणा को भी संबोधित करता है अर्थात् वह अपनी जीविकोपार्जन के लिए स्वयं को रोजगार प्रदान करने निर्माण के प्रयोजनार्थ क्रप की गयी मशीन का अकेले ही प्रयोग करता है, उसके विस्तार में उसके परिवार के सदस्यगण में सम्मिलित होते हैं। क्या वह ऐसी मशीन का प्रयोग स्वयं के लिए ह स्वयं के साथ-साथ परिवार के अन्य सदस्यों के रोजगार के लिए भी करता है, आदि ऐसे मुद्दे है जिनका निस्तारण एकमात्र साक्ष्य के आधार पर ही किया जा सकता है।

    इन प्रश्नों को साबित करने का भार प्रतिवादी पर होता है। अतएव, अधिकरण को इस निष्कर्ष को अभिलिखित मे में सही नहीं माना गया कि मशीन का प्रयोग प्रतिवादी द्वारा स्वतः रोजगार के प्रयोजन में किया जा रहा था और इसलिए प्रश्नगत मशीन के प्रयोग को वाणिज्य सम्बन्धी प्रयोजन में किये जा रहे निष्कर्ष को सही नहीं माना गया।

    कोरेल इण्डिया लिमिटेड व अन्य बनाम शक्ति प्रेम सेट्टी, 1997 (2) सीपी आगरा 226 (राज्य आयोग) परिवादी ने छाया प्रतिलिपि का निर्माण करने वाली एक मशीन का क्रय किया। जहां परिवाद स्वयं इस अभिवचन की संपुष्टि कर दे कि परिवादी ने लाभ अर्जित करने के लिए अपने कारोबार को विस्तारित करने के प्रयोजन से छाया प्रतिलिपि निर्माणकर्ता मशीन को खरीदा या और न कि स्वतः को रोजगार प्रदान करने के प्रयोजन से, वहां प्रश्नगत मशीन का अभिनिर्धारण इस प्रकार से ही किया जाना चाहिए कि मशीन का क्रय वाणिज्य सम्बन्धी प्रयोजनों के लिए ही किया गया था। अतएव, यह अभिनिर्धारित किया गया कि इस मामले में चूंकि परिवादी को एक उपभोक्ता नहीं माना जा सकता है और इसलिए प्रश्नगत परिवाद को खारिज कर दिया जाता है।

    जहां रजिस्ट्रीकरण के लिए दस्तावेज को प्रस्तुत करने वाले व्यक्ति तथा इस पर स्टाम्प ड्यूटी या रजिस्ट्रीकरण शुल्क का भुगतान करने वाले व्यक्ति को एक उपभोक्ता नहीं माना जाता है, वहीं रजिस्ट्रीकरण अधिनियम तथा स्टाम्प अधिनियम के प्रावधानों का क्रियान्वयन करने के लिए नियुक्त किये गये अधिकारीगण, उपभोक्ता संरक्षण अधिनियम के अर्थ के अन्तर्गत कोई सेवा नहीं करते हैं।

    अधिनियम के खण्ड 2 (iii) एवं (iv) निश्चित रूप से इस मामले के प्रति लागू नहीं होते हैं। अतः जिस बात की अपेक्षा की जाती है वह यह है कि क्या किसी भी अनुचित व्यवसाय पद्धति को अंगीकार किया गया है? नियमानुसार 'व्यवसाय' शब्द का अभिप्राय ठीक वैसे ही होगा जैसे कि एकाधिकार और अवरोधक व्यापारिक व्यवहार अधिनियम, 1969 की धारा 369 (क) के अधीन परिभाषित किया गया है।

    वह प्रावधान यहाँ लागू नहीं हो सकता है, क्योंकि कंपनी शेयरों में व्यवसाय नहीं कर रही है। शेयर का अर्थ पूंजी में एक शेयर रखना होता है। पूंजी बढ़ाने का अर्थ, व्यापार को चलाने के लिए व्यवस्थापन करना होता है।

    इसे किसी भी कारोबार को चालू रखने से संबंधित पद्धति नहीं माना जा सकता है। शेयरों के आवंटन हुए बिना ही पूंजी शेयरों की रचना करना, शेयरों के अस्तित्वशील होने का हेतुक नहीं होता है। अतएव इस निष्कर्ष पर पहुंचा गया कि प्रतिवादी या संघ के सदृश्य भावी विनिधानकर्ता अधिनियम के अधीन एक उपभोक्ता नहीं होता है।

    लाभ के लिए वस्तु क्रय करने वाला व्यक्ति उपभोक्ता नहीं है:-

    एक वाद में परिवादी ने व्यावसायिक उद्देश्य के लिए एक अम्बेसडर कार खरीदी शिकायत यह थी कि कार ज्यादा तेल खाती थी तथा स्टार्ट होने में कठिनाई होती थी। कम्पनी में शिकायत की गई। विपक्षी ने इंजिन बदल दिया। इंजिन बदलने के बावजूद इंजिन को स्टार्ट होने में कठिनाई होती थी।

    अतः परिवाद संस्थित किया गया। विपक्षी ने आपत्ति प्रस्तुत की कि चूंकि परिवादी ने एम्बेस्डर कार को टैक्सी में चलाने हेतु अर्थात् व्यावसायिक उद्देश्य के लिए खरीदा था। अतएव वह उपभोक्ता नहीं है न्यायालय ने धारण किया कि वह उपभोक्ता नहीं था ।

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