उपभोक्ता संरक्षण अधिनियम, 2019 भाग:10 राज्य आयोग की अधिकारिकता

Shadab Salim

19 Dec 2021 5:00 AM GMT

  • उपभोक्ता संरक्षण अधिनियम, 2019 भाग:10 राज्य आयोग की अधिकारिकता

    उपभोक्ता संरक्षण अधिनियम, 2019 (The Consumer Protection Act, 2019) की धारा 47 के अंतर्गत राज्य आयोग की अधिकारिता के संबंध में प्रावधान किए गए हैं। जैसा की विदित है इस अधिनियम के अंतर्गत त्रिस्तरीय आयोग बनाए गए हैं। जिला आयोग, राज्य आयोग तथा राष्ट्रीय आयोग।

    जिला आयोग प्राथमिक स्तर पर किसी प्रकरण को सुनने की अधिकारिता रखता है उससे संबंधित प्रावधानों को इससे पूर्व के आलेखों में उल्लेखित किया जा चुका है। एक करोड़ रुपए के ऊपर से संबंधित मामले तथा जिला आयोग से निर्णित किए गए मामले अपील हेतु राज्य आयोग के समक्ष जाते हैं।

    इस आलेख के अंतर्गत राज्य आयोग की अधिकारिता से संबंधित समस्त प्रावधानों को उल्लेखित किया जा रहा है और उनसे जुड़े हुए न्याय निर्णय प्रस्तुत किए जा रहे हैं।

    यह अधिनियम में प्रस्तुत की गई धारा का मूल स्वरुप है:-

    धारा-47

    राज्य आयोग की अधिकारिता-

    (1) इस अधिनियम के अन्य उपबंधों के अधीन रहते हुए, राज्य आयोग को निम्नलिखित की अधिकारिता होगी

    (क) (i) उन परिवादों को ग्रहण करना जिनमें प्रतिफल के रूप में संदत्त माल या सेवाओं का मूल्य एक करोड़ रु से अधिक है किन्तु दस करोड़ रु से अधिक नहीं हो:

    परंतु जहां केन्द्रीय सरकार ऐसा करना आवश्यक समझती है वहां वह ऐसा अन्य मूल्य विहित कर सकेगी जो वह ठीक समझे।

    (ii) अनुचित संविदाओं के विरुद्ध परिवाद जहां प्रतिफल के रूप में संदत्त माल या सेवाओं का मूल्य दस करोड़ रु० से अधिक नहीं है;

    (iii) राज्य के भीतर किसी जिला आयोग के आदेशों के विरुद्ध अपीलें; और

    (ख) जहां राज्य आयोग को यह प्रतीत होता कि ऐसे जिला आयोग ने ऐसी किसी अधिकारिता का प्रयोग किया है जो विधि द्वारा उसमें निहित नहीं है या जो इस प्रकार निहित अधिकारिता का प्रयोग करने में असफल रहा या उसने वह कार्य अपनी अधिकारिता का अवैध रूप से प्रयोग करते हुए किया है या तात्विक अनियमितता से किया है तो वहां किसी उपभोक्ता विवाद में, जो राज्य के भीतर किसी जिला आयोग के समय लंबित है या जिसका विनिश्चय उसके द्वारा किया गया है, अभिलेखों को मंगाना और समुचित आदेश पारित करना।

    (2) राज्य आयोग की अधिकारिता, शक्तियों और प्राधिकार का प्रयोग उसकी न्यायपीठों द्वारा किया जा सकेगा और न्यायपीठ का गठन अध्यक्ष द्वारा या एक अधिक सदस्यों से किया जा सकेगा जैसा अध्यक्ष ठीक समझे :

    परंतु ज्येष्ठतम न्यायपीठ की अध्यक्षता करेगा।

    (3) जहां न्यायपीठ के सदस्यों में किसी मुद्दे पर राज्य पर मतभेद है वहां मुद्दों पर बहुमत की राय के अनुसार विनिश्चय किया जाएगा, यदि बहुमत है किंतु यदि सदस्य बराबर-बराबर बंटे हुए हैं, तब वे उस मुद्दे या उन मुद्दों का कथन करेंगे जिनि पर उनमें मतभेद है और अध्यक्ष को निर्देश करेंगे जो या तो मुद्दे या मुद्दों को स्वयं सुनेगा या ऐसे मुद्दे या मुद्दों पर सुनवाई के लिए मामलों को अन्य सदस्यों में एक या अधिक सदस्य को निर्दिष्ट करेगा और ऐसे मुद्दे या मुद्दों पर सदस्यों के बहुमत की राय के अनुसार विनिश्चय किया जाएगा जिन्होंने मामले पर सुनवाई की है जिसमें वे सदस्य भी हैं जिन्होंने इसे पहली बार सुना था :

    परंतु, यथास्थिति, अध्यक्ष या अन्य सदस्य ऐसे निर्देश की तारीख से एक मास की अवधि के भीतर इस प्रकार निर्दिष्ट मुद्दा या मुद्दों पर राय देगा या देंगे।

    (4) परिवाद ऐसे राज्य आयोग में संस्थित किया जाएगा जिसकी अधिकारिता की स्थानीय सीमाओं के भीतर

    (क) विरोधी पक्षकार या जहां एक से अधिक विरोधी पक्षकार हैं वहां विरोधी पक्षकारों में उनमें से प्रत्येक पक्षकार परिवाद के संस्थित किए जाने के समय वास्तव में और स्वेच्छा से निववास करता है या कारवार करता है। या शाखा कार्यालय रखता है या अभिलाभ के लिए स्वयं काम करता है; या

    (ख) जहां एक से अधिक विरोधी पक्षकार हैं वहां विरोधी पक्षकारों में से कोई भी विरोधी पक्षकार परिवाद के संस्थित किए जाने के समय वास्तव में और स्वेच्छा से निवास करता है या कारवार करता है या शाखा कार्यालय रखता है या अभिलाभ के लिए स्वयं काम करता है, परंतु यह तब जब ऐसे मामले में राज्य आयोग की अनुज्ञा प्रदान की गई हो, या

    (ग) वाद हेतुक पूर्णतः या भागतः उत्पन्न होता है,

    (घ) परिवादी निवास करता है या काम करता है।

    राज्य आयोग की शक्ति:-

    अधिनियम की धारा 17-ख के अन्तर्गत राज्य आयोग को यह शक्ति है किसी उपभोक्ता के विवाद सम्बन्धित मामले चाहे निम्न न्यायालय में विचाराधीन हो या निस्तारित कर दिये गये हैं ऐसी पत्रावली को वापस परिवादी के प्रार्थना पत्र पर मंगा सकता है या पुनः निर्णीत कर सकता है। ऐसा तब हो सकता है जब राज्य आयोग सन्तुष्ट हो जाय कि जिलाधिकरण ने आदेश पारित करने में या प्रक्रिया में कोई त्रुटि की है। अधिनियम में वाद के स्थानान्तरण या वापसी के सन्दर्भ में प्रावधान के अभाव में वाद की वापसी या स्थानान्तरण सम्भव नहीं होगी।

    राज्य आयोग अन्य न्यायधिकरणों की भांति स्पष्ट है कि सभी प्रकार के विवादों को निपटाने का क्षेत्राधिकार रखता है। राज्य आयोग की अध्यक्षता जो उच्च न्यायालय का न्यायाधीश रहा हो करता है। अतः जब तक की अति आवश्यक न हो, उच्च न्यायालय बिना राज्य आयोग को क्षेत्राधिकार सम्बन्धी मामले को तय करने हेतु समय दिये बिना अनावश्यक बोझ नहीं लेगा।

    अतः उच्च न्यायालय द्वारा रिट याचिका अपवाद स्वरूप ही सुनी जायेगी। दूसरे शब्दों में उच्च न्यायालय न्यायाधिकरण की कार्यवाही में अनावश्यक दखलंदाजी नहीं कर सकती है सिवाय वहाँ के जहाँ पर कि अभिलेखों के देखने से पता चले कि स्पष्ट रूप से अपने क्षेत्राधिकार का उल्लंघन किया जा रहा है। ।

    एक मामले में क्योंकि शुल्क को उद्गृहीत करने वाले कलेक्टर के आदेश कानूनी रूप से शास्ति तथा सरकारी खजाने में परिवादियों द्वारा किये गये भुगतान को कभी भी विधिक दृष्टिकोण से या तो सेवा प्रभार होना या सेवा के लिए प्रतिफल हेतु प्रदान की जाने वाली सेवा नहीं कहा जा सकता था, इसलिए प्रश्नगत् आदेश को पूर्णरूपेण राज्य आयोग द्वारा अधिकारिता के बगैर ही पारित किया हुआ माना गया कारण कि परिवादी इस अधिनियम उपभोक्ता की हैसियत से व्यवहृत नहीं किया जा सकता था।

    राज्य आयोग में परिवाद की वाद योग्यता:-

    यह अधिनियम उपचारात्मक मंचों को व्यवहार प्रक्रिया संहिता के अन्तर्गत व्यवहार न्यायालय के अधिकारों से सुसति करती है जैसे गवाहों को सम्मन हाजिर होने को बाध्य तथा उनकी परीक्षा शपथ दिलाकर करना, दस्तावेजों को तलब तथा जाँच और अन्य समानो में शपथपत्र पर साक्ष्य लेना, कमीशन जारी करना गवाह भी परीक्षा आदि।

    अमुक अधिनियम इस प्रकार से अभिप्रेत करता है कि उपचार मंच जो अधिनियम के अन्तर्गत गठित हुआ है अपने सम्मुख आये हुये परिवादों को मौखिक या अभिलेखीय साक्ष्यों द्वारा जैसी भी परिस्थितियाँ हों निर्णय करे।

    यह बहुत बड़ा अन्याय होगा कि मंच के समक्ष उपचार्थ आये किसी उपभोक्ता को झूठा क्षेत्राधिकार न कह इंकार कर देना। अतः टिमही टेक बनाम सिपिङ कार्पोरेशन आफ इण्डिया के मामले में यह अभिनिर्धारित किया गया कि राज्य आयोग में समक्ष परिवाद योग्य है।

    संविदा को पूरा न करना:- सेवा में कमी- रामलाराम बनाम रवीन्द्र नाथ सेन मामले में कहा गया है कि यदि कोई अपना संविदा का भाग नहीं पूरा करता है यह अधिनियम के अन्तर्गत सेवा में कमी कही जायेगी। विपक्षी द्वारा बैनामे का रजिस्ट्रीकरण तथा प्रशासित कराना उस भाग का जिसकी कीमत परिवादी से 30000/- रुपया प्राप्त कर चुका है।

    विजय कुमार शर्मा बनाम नाईन लीजिंग लिमिटेड व अन्य, 1997 के प्रकरण में परिवादी ने विरोधी पक्षकार को ट्रैक्टर रोलर एवं अन्य उपकरणों की आपूर्ति करने के लिए धन का संदाय किया। लेकिन विरोधी पक्षकार इन सभी सामानों की आपूर्ति करने में असफल रहा।

    अतएव, जब परिवादी ने विरोधी पक्षकार के विरुद्ध एक परिवाद संस्थित किया, तब विरोधी पक्षकार की ओर से ये प्रकथन किये गये कि उसने चालान परिदान में परिवादी का हस्ताक्षर करा लेने के पश्चात् 21-3-1991 को परिवादी के पक्ष में ट्रैक्टर ट्रेलर्स एवं अन्य उपकरणों की आपूर्ति किया था और विरोधी पक्षकार की ओर से आगे, यह भी अभिवचन किया गया कि विवादग्रस्त वस्तुओं की आपूर्ति इसके पूर्व की जानी संभव नहीं थी, क्योंकि निर्माताकर्ताओं द्वारा उनका निर्माण करने में विलंब हुई।

    परिवादी के द्वारा यह कथन प्रस्तुत किया गया कि उसको ट्रैक्टर एवं अन्य उपकरणों का परिदान नहीं किया गया; क्योंकि वह 16 3-1991 से 28-3-1991 समय तक उपचार के अस्पताल में रहा।

    इसके अतिरिक्त, जहाँ विरोधी पक्षकार ने ट्रैक्टर ट्रेलर का कोई भी कर प्रमाण-पत्र नहीं पेश किया और परिवादी को संदाय किये बगैर ही सुपुर्दगी चालान पर परिवादी का हस्ताक्षर तो ले लिया था, किन्तु परिवादी को ट्रैक्टर-ट्रेलर का परिदान करने में असमर्थ रहा। जबकि परिवादी का नर्सिंग होम में उपचार चल रहा था।

    वहाँ कथित सामानों का परिदान किये जाने में अकारण विलंब हुई थी और इस अविश्वसनीय कहानी को स्वीकृत किया गया कि ट्रैक्टर-ट्रेलर एवं अन्य आवश्यक सामानों का परिदान किया गया। अतएव, विरोधी पक्षकारों को परिवादी की रकम का प्रतिदाय करने के परिवादी मारुति वैन को खरीदने के लिए ऋण लेने प्रतिवादी क्रमांक-1 के पास गया।

    उसके ऋण को प्रतिवादी क्रमांक-1 द्वारा मंजूर कर लिया गया। जब प्रतिवादीगण प्रतिवादी को बाहर देने में असफल हो गये तब एक परिवाद दायर किया गया। प्रतिवादी क्रमांक-1 सशपथ पर कथन प्रस्तुत किये कि वे परिवादी को वाहन देने के लिए उत्तरदायी नहीं थे। प्रतिवादी क्रमांक 2 की ओर से यह प्रतिवाद किया गया कि परिवादी को मंजूर किया गया ऋण, प्रतिवादी क्रमांक-1 के संवितरित कर दिया गया और इसलिए वह वाहन की सुपुर्दगी में विलम्ब होने के लिए उत्तरदायी नहीं है।

    यदि कागजाती रूप में धन को मंजूरी प्रदान कर दी गयी तो परिवादी ने भी 40,000 रुपये रोकड़ तथा पांच चेकों के माध्यम से 21,489 रुपये का भी निक्षेप किया। जहाँ वाहन का परिदान परिवादी के पक्ष में कभी नहीं किया जा सका और प्रश्नगत धनराशि प्रतिवादी क्रमांक-1 के ही कब्जे में बनी रही और जहाँ यह उसका दायित्व बना रहा कि वह कथित वाहन के परिदान किये जाने को सुनिश्चित कराता वहाँ यह अभिनिर्धारित किया गया कि क्रमांक-1 परिवादी को ब्याज सहित 61,489 रुपये की रकम का भुगतान करने के लिए उत्तरदायी था और प्रतिवादीगण को बतौर क्षतिपूर्ति 5,000 रुपये का भी संदाय करने के लिए उत्तरदायी भी माना गया।

    13. कारखाने की विद्युत आपूर्ति में व्यवधान-

    एम० अमान उल्ला बनाम सहायक इन्जीनियर व अन्य, 1997 में राज्य आयोग द्वारा कहा गया कि जहाँ परिवादी की मील को विधुत आपूर्ति लाइन को उपभोग प्रभारों का भुगतान न करने के कारण काट दिया गया; वहाँ विरोधी पक्षकार के विरुद्ध दायर परिवाद में ये अभिकथन किये गये थे कि विरोधी पक्षकार, उपभोक्ता प्रभार को स्वीकार नहीं किया यद्यपि वह उसी समय कथित प्रभार का संदाय करने के लिए भी तैयार था।

    इसके साथ साथ जब विरोधी पक्षकार ने ये प्रकथन किये कि परिवादी के मिल परिसर में विद्युत आपूर्ति बारे में परिवाद को असफल पाया गया क्योंकि मीटर में साकेत नामक उपकरण को जला हुआ पाया गया, और परिवादी से मरम्मत प्रभार के रूप में 66 रुपये का भुगतान करने को कहा गया के जिसका उसने भुगतान भी किया, तब मीटर को निकाल कर परीक्षण के लिए भेजा गया। ऐसी दशा में कथित मिल को विद्युत की आपूर्ति बगैर मीटर के ही की जा रही थी।

    परिवादी ने 200 रुपये की मात्रा की एक रकम का संदाय करने से बतौर मरम्मत करने के रूप में प्रभार का संदाय करने से इसलिए इंकार कर दिया, क्योंकि इसमें तात्कालिक विद्युत उपभोग का प्रभार भी। सम्मिलित किया गया था। जहाँ अतिरिक्त उपभोग प्रभारों के अभिव्यजित कर दिये जाने के बावजूद भी, परिवादी शेष रकम का भुगतान कर पाने में असमर्थ रहा, वहाँ विरोधी-पक्षकार को विद्युत आपूर्ति के कनेक्शन के काट दिये जाने के लिए उत्तरदायी नहीं माना गया।

    इसके साथ ही साथ चूंकि यह प्रदर्शित करने के लिए कोई साक्ष्य प्रस्तुत नहीं किये गये कि परिवादी ने प्रभारों का भुगतान करने का कोई भी प्रयास नहीं किया। यदि संदाय को स्वीकृत नहीं किया जाता तो इसकी सूचना उच्चतर प्राधिकारियों को दी जा सकती थी। इन सभी परिस्थितियों में यही अवधारित किया गया कि जहाँ न चेक डिमांड, ड्राफ्ट या मनी आर्डर द्वारा प्रभार का भुगतान किया गया, वहाँ विद्युत आपूर्ति सम्बन्धी कनेक्शन को जो काट दिया गया, उसके लिए परिवादी स्वयं उत्तरदायी था और इसलिए परिवाद को खारिज कर दिया गया।

    अधिक अदायगी की राशि की वापसी दावा-

    राज्य आयोग के समक्ष परिवाद। एम० बी० ए० एस० विद्यार्थियों के लिये 2000 कापी की आपूर्ति करने की संविदा। परिवादी ने आरोप लगाया कि कापियों की आपूर्ति के लिए संविदा में प्रतिफल 32,000/- रुपये का था। विपक्षी ने दलीलें दी कि प्रति कोटेशन कापी की आपूर्ति की कीमत 58,810 /- रुपये थी।

    अधिक अदायगी की राशि की वापसी हेतु दावा किया गया। यह करार पक्षकारों के बीच मौखिक रूप से था। कोई अन्य साक्ष्य प्रस्तुत नहीं किया गया। विनिर्णीत किया गया कि विपक्षी द्वारा प्रस्तुत विवरण सत्य माना जाना चाहिए। परिवादी 58,810/- रुपये अदा करने का दायी होगा।

    उपभोक्ता विवादकरार के अनुसार अपीलार्थी की फर्म कुछ निश्चित लोहे की आपूर्ति न कर सकी क्षतिपूर्ति का दावा किया गया। राज्य आयोग ने परिवाद पर सुनवाई की। अपीलार्थी को निर्दिष्ट किया गया कि वह 10,000/- रुपये क्षतिपूर्ति एवं अग्रिम राशि परिवादी को अदा करें अपील की गई। राष्ट्रीय आयोग द्वारा यह विनिर्णत किया गया कि यह उपभाता विवाद नहीं था बल्कि संविदा के भंग होने का मामला था साथ ही यह मामला 1 लाख रुपये की का था। अतः उपभोक्ता संरक्षण अधिनियम के अन्तर्गत विवाद निर्णीत नहीं किया जा सकता।

    मुकुन्द इण्डस्ट्रियल फाइनेन्स लिमिटेड बनाम फेडरल बैंक लिमिटेड व अन्य के मामले में परिवादी ने विरोधी पक्षकार क्रमांक-2 एवं 3 को चार लाख रुपये की वित्तीय सहायता प्रदान करने के लिए सहमत हुआ और विरोधी पक्षकार क्रमांक-2 और 3 ने परिवादी को मशीन खरीदने के लिए 1,50,000 रुपये का संदाय किया। इस प्रकार से परिवादी ने अपने पास 4 लाख रुपये की पूंजी लगाकर 5,50,000 रुपये की एक मशीन खरीदी।

    यद्यपि विरोधी पक्षकार क्रमांक 2 मशीन के विक्रेता को भुगतान करने का आदेश प्रदान नहीं किया लेकिन विरोधी पक्षकार क्रमांक-1 के नाम के साथ खाता खोला और भुगतान करने के आदेश या रहम जमा की गयी।

    जब रकम विरोधी पक्षकार क्रमांक-2 द्वारा निकाली गयी, तब यह अभियन करने वाले परिवाद संस्थित किया गया कि विरोधी पक्षकार क्रमांक-2 संचयकारी बैंकर के रूप में अपने कर्तव्य का निर्वहन करने में असफल रहा और इस प्रकार से उसकी ओर से सेवा में कमी की गयी।

    जहाँ विरोधी पक्षकार ने यह प्रकथन किया कि खाता इसके ग्राहकों के द्वारा विरोधी पक्षकार क्रमांक 2 की ओर प्रस्तावना पर कारोबार के नियमित अनुक्रम में खोला गया, वहाँ उसकी ओर से नियत सेवा में कोई कमी नहीं की गयी।

    इसके अलावा, जब अभिलेख पर यह प्रदर्शित करने के लिए कोई तात्विकता विद्यमान नहीं पायी गयी कि परिवादी ने विरोधी पक्षकार क्रमांक-1 के प्रतिफल के लिए सेवा को किराये पर प्राप्त किया या उसका उपयोग किया गया, तब परिवादी द्वारा विरोधी पक्षकार क्रमांक- 2 द्वारा जिस प्रकार से सेवा प्राप्त की गयी उसको दृष्टिगत रखते हुए अधिनियम के प्रावधानों के अधीन उसे एक उपभोक्ता होने की संज्ञा नहीं प्रदान की जा सकती थी। अतएव परिवाद को खारिज कर दिया गया।

    चिकित्सालय एवं चिकित्सक सेवा में कमी -

    आर) रंगनाथन बनाम डॉ० रानी नन्द कुमार के प्रकरण में परिवादी ने यह अभिकथन किया कि विरोधी-पक्षकार उसकी पत्नी के गर्भाशय में दो ओ० वी० यू० एम० एस० के विद्यमान होने का उस समय प्रेक्षण करने में असफल हो गया, जिस समय वह उसका एम० टी० मी० कर रहा था। इसके अलावा, जीवाणुनाशक औषधि का प्रयोग किये जाने के बावजूद भी उसकी पत्नी ने तीसरे बच्चे को जन्म दिया। ऐसी दशा में, विरोधी पक्षकार डाक्टर को एम०पी०टी०स जीवाणुनाशक का प्रयोग करने में उपेक्षावान् पाया गया क्योंकि उक्त सी के गर्भाशय में जुड़ने में प्रक्रिया में अतिरिक्त से एक ओ० पी० यु० एम० एस० बचा रहा गया था।

    परिवादी ने प्रतिकर दावा सस्थित किया। विरोधी पक्षकार ने यह तर्क किया कि परिवादी तथा उसकी पत्नी को एम०टी०पी०ए कीटनाशक औषधि का प्रयोग करने के लिए विवश किया गया और सुरक्षा बरती गयी थी। प्रबल क्युराटिंग नहीं किया जा सकता था, और गर्भाशय में और गहराई तक की जांच संभव नहीं हो सकती थी क्योंकि उसमें दो केचियाँ सम्बन्धी घाद पहले ही बन गया था।

    यदि रोगी पहले से ही चिकित्सा सम्बन्धी निर्देशों का अनुसरण किया गया होता से उसको जुड़वे में दूसरे बच्चे की भी जानकारी हो जाती जो उसके गर्भाशय में पैदा हो चुका था। जहाँ न तो विरोधी-पक्षकार की ओर से प्रश्नगत उपचार सम्बन्धी सेवा प्रदान की जाने में कोई कमी नहीं की गयी और इसके लिए कोई शुल्क भी नहीं लिया गया था।

    एम० टी० पी० घूमन निर्वातन ढंग द्वारा कारित किया गया और दोनों फोयटेस (Foet uses) का निर्वातन किया जा सकता था यदि वे उसी एकोदर विवर में थे, तो दोनों फोयटेसों की पृथक्-पृथक विवरों में पाये जाने की संभावना थी। जहाँ रोगी को अगली कालावधि के पश्चात् क्लीनिक में भर्ती होने की परामर्श दी गयी या यदि कालावधि को स्थापित नहीं किया जा सका और जहाँ प्रश्नगत् रोगी इस परामर्श का अनुसरण नहीं किया, तो विरोधी पक्षकार को सेवा में कमी करने के लिए। उत्तरदायी नहीं माना जा सकता था।

    मास्टर पी एम अश्वनी व अन्य बनाम (मै०) मणिपाल अस्पताल, बंगलौर एवं अन्य के वाद में परिवादी के दाहिनी ओर हार्निया थी, जिसके उपचार किये जाने के संदर्भ में चिकित्सरों द्वारा शल्यचिकित्सा कराने की परामर्श दी गयी। इसके साथ ही साथ उसके पैरों में जलने की चोटे मौजूद पायी गयी, और इसी वजह से नर्स उसके पैरों के नीचे उस समय गर्म पानी लटकाये हुई थी जिस समय वह अचेतन अवस्था में था।

    जहाँ विरोधी पक्षकार की ओर से हुई उपेक्षा के कारण जलने की चोटें द्वितीय एवं तृतीय डिग्री की थी वहाँ यही चोटें उसके दोनों पैरों पर स्थायी दाग बन जाने का कारण बनी। जब परिवादी ने विरोधी पक्षकार के विरुद्ध परिवाद दायर किया, तब उसने यह स्वीकार किया कि ये जलने की चोटें उसकी हार्निया की शल्यचिकित्सा करने के दौरान ही आयी थी लेकिन यह शुद्ध एवं सामान्य दुर्घटना डाक्टरों एवं नसों के द्वारा असावधानी बरते जाने के बिना ही कारित हुई।

    इसके अतिरिक्त जहाँ परिस्थितियां भी यह स कर देती है कि विरोधी पक्षकार क्रमांक-2 एवं 3 अपने कर्तव्यों का निर्वहन करने में युक्तियुक्तपूर्ण सतर्कता बरतते हुए कार्य नहीं किये, वहाँ इस प्रकार के कृत्य को व्यावसायिक उपेक्षा माना जायेगा।

    यही नहीं बल्कि जहाँ, कथित परिवादी के दोनों पैरों पर दाग, प्रश्नगत् उपचार प्रक्रिया के पूर्ण होने के ही परिणामस्वरूप ही बना और उसकी भावी निर्योम्यता को भी स्थायी रूप धारण करने की स्थिति में पाया गया, वहाँ अभिनिर्धारण में, प्रतिकर के रूप में 5 लाख रुपये तथा कार्यवाही संस्थित करने के खर्च के बावत बतौर जुर्माना 3,500 रुपये की रकमों का संदाय परिवादी के पक्ष में करने के लिए विरोधी पक्षकारगण से 4 को निर्देश दिया गया।

    कर्नाटक क्रिस्टल लिमिटेड बनाम वाइब्रोमिक्स प्राइवेट लिमिटेड के मामले में परिवादी ने यह अभिकथन किया कि विरोधी पक्षकार ने जो अल्ट्रासाउण्ड क्लीनिक पद्धति का प्रयोग किया, वह प्रत्याशित स्तर का नहीं था। इसके लिए उसने विरोधी पक्षकार से यह अनुरोध किया कि वह प्रश्नगत् प्रणाली को प्रभावशाली ढंग से बनाये लेकिन इस अनुरोध विरोधी पक्षकार ने यह प्रकथन किया कि आदेशों एवं परिवाद के विनिर्देशों के अनुसार इसके द्वारा निर्मित की गयी प्रणाली की आपूर्ति की गयी। इस प्रणाली की आपूर्ति मूल्य के 90% की पावती पर किया गया। जहाँ बकाया रकम का संदाय किये जाने पर अनावश्यक आरोप किये गये, वहाँ यूनिट की आपूर्ति दोषपूर्ण कर्मकौशल एवं दोषपूर्ण संघटकों के प्रयोग के विरुद्ध एक वर्ष की गारंटी के साथ आपूर्ति की गयी।

    इसके अलावा, परिवादी द्वारा प्रस्तुत किये गये दस्तावेज यह प्रदर्शित करते हैं कि दोषपूर्ण संघटकों के कर्मकोशल या प्रयोग में कोई भी दोष नहीं पाया गया। यद्यपि कतिपय निर्देश टी० आई० के प्रयोग में कतिपय दोष के लिए सफाई की योग्यता को बढ़ाने के लिए प्रक्रिया में टी० आई० जल का प्रयोग करने के लिए तथा धब्बों को दूर करने के लिए दिये गये, फिर भी यह प्रदर्शित करने के लिए अभिलेख पर कोई महत्वपूर्ण तथ्य लाये गये कि जिस प्रणाली का आपूर्ति, विरोधीपक्षकार द्वारा दी गयी गारंटी के विरुद्ध दोषपूर्ण कर्मकौशल या प्रयोग की गयी किसी भी दोषपूर्ण संघटकों से युक्त थी।

    इन सभी तथ्यों एवं परिस्थितियों को दृष्टिगत् रखते हुए जहाँ यह पाया गया कि परिवादी अपनी वास्तविक शिकायत को वास्तव में स्थापित कर पाने में असफल रहा, वहाँ परिवाद को खारिज कर दिया गया।

    श्रीमती आशा रानी बनाम डॉ रोहित ग्रोवर के प्रकरण में परिवादी ने अपनी पिछली ग्लुकोमा के लिए बायी आंख की शल्यचिकित्सा करायी किन्तु उसके बायी आँख की दृष्टि क्षमता पुनः वापस नहीं ला जा सकी। ऐसा स्थिति में परिवादी ने यह अभिकथन करते हुए परिवाद संस्थित किया कि प्रतिवादी ने उसके वास्तविक समस्या पर ध्यान नहीं दिया और खतरनाक ढंग से तथा उपेक्षापूर्वक ढंग से परिवादी की आँख की शल्यचिकित्सा की और जबकि इस प्रकार की शल्यचिकित्सा किये जाने में विशेष सावधानी बरतने की आवश्यकता पड़ती है।

    यद्यपि परिवादी की कथित आंख की शल्यचिकित्सा तीसरी बार भी की गयी किन्तु इससे कोई उसको लाभ नहीं प्राप्त हुआ। प्रतिवादी ने ग्लूकोमा के लिए शल्यचिकित्सा की और पश्चात्वर्ती आपरेशन के पश्चात् यह विश्लेषण किया गया कि वह एक परिद्वेषी ग्लूकोमा का मामला था। लेकिन जहाँ पुनः उपचार किया जाने के पश्चात् भी उसमें कोई सुधार नहीं किया गया, वहाँ अस्पताल में परिवादी की शल्यचिकित्सा करते समय उसकी आँख से कोई खेलवाड़ नहीं किया गया।

    हालांकि परिवादी ने ऐसे किसी भी शल्यचिकित्सक के नाम का परिवाद में उल्लेख नहीं किया था जिसने आँख में अस्थायी तौर पर अरोग्यकर निर्योग्यता का परिणाम देने वाली उपेक्षापूर्वक ढंग से शल्य चिकित्सा की थी। अतएव उपगत किये गये खर्चे की रकम को वापस कर दिया गया। जब परिवादी को प्रतिवादी की ओर से सेवा में उपेक्षा किये जाने को स्थापित करने का भारी भार का उन्मोचन करने में असफल पाया गया, तब यह तथ्य कि वास्तव में परिद्वेष ग्लूकोमा का मामला था. और इसके दायित्व से प्रतियादी को आबद्ध नहीं किया जा सकता था।

    नेशनल कनज्युमर प्रोटेक्शन काउन्सिल व अन्य बनाम पूर्वाद्वीप कारपोरेशन व अन्य के एक मकान आवंटन से जुड़े मामले में प्रत्येक परिवादी ने अपनी स्वतः की 27,000 रुपये की एक रकम का विनिधान किया और वित्तीय संस्थान से 20,000 रुपये का ऋण लिया । इस प्रकार से प्रत्येक परिवादी द्वारा 47,000.00 रुपये का विनिधान किया गया। जहाँ तक सभी परिवादियों के मकान या फ्लैट गये, को फ्लैटों का पुनर्निर्माण करने के लिए नये सिरे से विनिधान करना होगा। वे 47,000.00 रुपये की भर्ती लगाने के बावजूद भी फ्लैटों का प्रयोग कर पाने में असमर्थ रहे।

    वहाँ उन परिवादियों का प्रश्न है जिनके फ्लैट क्षतिग्रस्त हो गये, वे भी अपने फ्लैटों का उपयोग कर पाने में असमर्थ रहे हैं, ये सभी परिवादीगण इसलिए अपने-अपने फ्लैटों का प्रयोग कर पाने में असफल रहे, क्योंकि उन पर चढ़ने वाली सीढ़ियाँ छूट गयी थी। ऐसी दशा में, इन सभी परिवादियों को किराये का मकान लेकर रहना पड़ा। अतएव निगम को उसके / उसकी फ्लैट का प्रयोग कर पाने में असफल रहने के कारण प्रतिकर के माध्यम से प्रत्येक परिवादी द्वारा विनिधान की गयी रकम पर 15% वार्षिक ब्याज की दर से ब्याज का संदाय हर एक प्रतिवादी को करने के लिए उत्तरदायी माना जाना चाहिए।

    राज्य आयोग व्याज की दर 15% इस आधार पर अधारित किया क्योंकि परिवादियों ने एक ख्याति कम्पनी में उपर्युक्त रकमों का सावन्धि निक्षेप किये थे। जहाँ वे किसी भी स्थिति में अपनी रकमों पर 15% का ब्याज लाभ प्राप्त कर सकते थे, वहाँ किराये के माध्यम से ऐसे ब्याज के समतुल्य रकम भी अवश्य खर्च कर चुके होंगे। इस रकम के अलावा, परिवादियों में हर एक पक्षकार, अंतिम आदेश में वर्णित कथनों के अनुसार 12% वार्षिक दर से व्याज सहित 47,000 रुपये का दावा करने का हकदार होगा जिसका फ्लैट गिर गया है।

    आयोग द्वारा 12% ब्याज सहित विनिधान की गयी रकम का अधिनिर्णय करने के लिए निर्णय लिया गया, कारण कि इन सभी परिवादियों को बढ़ी हुई मूल्य की दर से आवश्यक सामाग्रियाँ खरीद कर अपने-अपने फ्लैट का निर्माण करना पड़ेगा। यह सुविख्यात वर्तमान समय में भवन निर्माण सम्बन्धी वस्तुओं के मूल्य में, सन् 1985 की तुलना पर्याप्त वृद्धि हो चुकी है।

    जैसा ऊपर कहा गया है कि प्रतिकर के रूप में हर एक परिवादी विरोधी पशकार से अपने फ्लैट की मरम्मत कराने के लिए 1000 रुपये प्राप्त करने का भी हकदार होगा। इस मामले में इस बात को मद्दे नजर रखते हुए प्रतिकर की रकम अधिनिर्णीत की गयी कि कथित मात्रा में ही उन्हें फ्लैटों की नयी सीढ़ियों का निर्माण कराने में सम्भवतया व्यय करना पड़ा रहा होगा।

    बीमा सेवाएं-

    पी मानिक लाल सोनी बनाम नेशनल बीमा कंपनी लिमिटेड के वाद मे परिवादी ने 13 लाख रुपये की चोरी हो जाने से सुरक्षा प्रदान करने वाली बीमा पालिसी करायी और इस पालिसी के अन्तर्गत परिसर में पड़े हुए सोना, चांदी के आभूषणों के स्टाक को बीमाकृत किया गया था।

    जब एक चोरी की घटना में 11,77,200 रुपये की कीमत के आभूषण चोरी कर लिये गये, तब परिवादी इसके बाबत बीमाकर्ता को सूचना दी. और उसके विरुद्ध एक परिवाद दायर किया। इसके अतिरिक्त, हानि का सर्वेक्षण करने के एक सर्वेक्षक की नियुक्ति की गयी लेकिन उसके द्वारा किसी भी निष्कर्ष पर नहीं पहुंचा जा सका।

    ये की कीमत के सोने एवं चांदी के गहने की वसूली हो जाने पर परिवादी को वापस कर दिया गया, किन्तु ऐसी कार्यवाही जिला फोरम के समक्ष उस समय पेश करने की शर्त पर छः लाख के बंधपत्र की उसके द्वारा आपूर्ति किये जाने पर की गयी जब उसे वैसा करने के लिए कहा जायेगा। इसके साथ-साथ उसे प्रश्नगत् गहनों का उपयोग करने की दशा में नहीं पाया गया और इसलिए विरोधी पक्षकार द्वारा 5 लाख रुपये का संदाय तो कर दिया गया, किन्तु 2,49,000 रुपये की बकाया रकम पर उसके द्वारा कोई निर्णय नहीं किया जा सका।

    आगे जहाँ विरोधी पक्षकार की ओर से यह प्रकथन किया गया कि परिवादी द्वारा किये गये 1177200 रुपये के दावे में से पांच लाख रुपये की रकम का उसके द्वारा संदाय किया जा चुका था, वहाँ दाण्डिक न्यायालय को, दाण्डिक न्यायालय की अभिरक्षा में 1,40,000 रुपये के गलाये गये सोने के साथ 5,10,000 रुपये के मूल्य के आभूषणों को सौंपा जा चुका था और इसलिए परिवादी के दावे का परिसमापन कर दिया गया तथा परिवादी को किसी रकम का संदाय करने के हकदार नहीं माना गया।

    यही नहीं बल्कि यह भी सत्य माना गया कि यदि दाण्डिक न्यायालय ने परिवादी को आभूषणों को प्रस्तुत करने का निर्देश दिया था जब कभी भी न्यायालय द्वारा उसे वैसा करने का आदेश दिया और गलाये गये सोने को उसे नहीं सौंपा गया, तो इसलिए विरोधी पक्षकार को किसी भी प्रतिकर का संदाय करने का हकदार नहीं माना जा सकता था।

    इसके अलावा, परिवादी को भी विलंब से भुगतान किये जाने पर 50,00,000 रुपये का का दावा करने के लिए हकदार नहीं माना गया तथा विरोधी पक्षकार को बकाया होने के कारण 27.200 रुपये की रकम संदाय करने तथा इस 18% वार्षिक दर से ब्याज़ का हकदार माना गया।

    बीमा संविदा से जुड़े एक मामले में परिवादी ने अपने वाहन का विरोधी पक्षकार से बीमा कराया और वह एक दुर्घटना में जल गयी। इस दुर्घटना की सूचना विरोधी पक्षकार को दी गयी और इन दोनों पक्षकारों के बीच मामले का निस्तारण नहीं किया जा सका।

    जब परिवादी ने विरोधी पक्षकार के विरुद्ध एक प्रतिकर हेतु परिवाद संस्थित किया; तब विरोधी पक्षकार की ओर से यह प्रतिवाद किया गया कि वाहन का आकलित विक्रय मूल्य 5,40,000 रुपये था जबकि तारपुलिन का मूल्य पृथक् रूप मे 21,000 रुपये माना गया। दावा फार्म दिनांक 26-5-1995 को प्राप्त किया गया।

    परिवादी को किराये के क्रय मूल्य की रकम का संदाय करने के सम्बन्ध में कुछ नहीं लेना देना था। 1,10,000 रुपये प्राप्त किये गये कबाड़ के मूल्य को दावे के निस्तारण के परिप्रेक्ष्य में स्वीकार नहीं किया जा सकता है, जहाँ प्रस्तावित मूल्य के रूप में कवाड़ का मूल्य 2,20,000 रुपये था, वहाँ 3,19,500 रुपये को संदाय करने योग्य माना क्योंकि लारी का बाजार मूल्य 5,40,000 रुपये था।

    इसके अलावा, तारपुलिन को अलग से 21,000 रुपये के लिए बीमाकृत किया गया। दुर्घटना के समय प्रालगत् लारी का मूल्य 5,61,000 रुपये था। अतएव, जहाँ विरोधी पक्षकार ने यह दावा किया कि कवाड़ का मूल्य 2,20,000 रुपये, वहाँ उसे स्वीकृत नहीं किया जा सकता और इस दावे का निस्तारण समयानुसार नहीं किया जा सका इसलिए विरोधी पक्षकारी को सहित 3,42,000 रुपये का भुगतान करने का निर्देश दिया गया।

    तेजसिंह पीत बनाम न्यू इण्डिया इंश्योरेंस कंपनी लिमिटेड व अन्य के मामले में परिवादी ने 4,01,100.00 रुपये की एक रकम के लिए विरोधी पक्षकार से खरगोशो का बीमा कराया। आकस्मिक तौर पर खरगोशों की मृत्यु हो गयी और इस घटना की प्रथम सूचना रिपोर्ट करवाई गयी।

    इसके पश्चात् जहाँ क्षतिपूर्ति के लिए परिवादी द्वारा एक परिवाद संस्थित किया गया, वहाँ विरोधी पक्षकार ने यह प्रकथन किया कि परिवादी ने बीमा पालिसी का अभिदाय करने के समय दोषपूर्ण विवरण प्रस्तुत किया था। आगे, विरोधी पक्षकार की ओर से यह भी अभिवचन किया गया कि बीमा पालिसी कराने के संदर्भ में, परिवादी ने सद्भावना पूर्वक ढंग से संविदा में भाग नहीं लिया था।

    सर्वेशक को मृत खरगोशों की पोस्टमार्टम रिपोर्ट ईयर टैम्स, टीका एवं उपचार पार्टी को भी उपलब्ध नहीं कराया जा सका जो कि ऐसे तथ्य एवं कानून के जटिल प्रश्नों को अन्तर्गत करता है जिनका अवधारण संक्षिप्त कार्यवाही में नहीं किया जा सकता था। इसके अतिरिक्त चूंकि खरगोशों का मूल्य, उनके गुण और शारीरिक स्वास्थ्य पर निर्भर करता था, इसलिए इस निष्कर्ष पर नहीं पहुंचा जा सकता कि आयु एवं अन्य कारकों पर विचार किये बिना ही जर्मन अंगोला नर खरगोश का मूल्य तथा उसकी मादा खरगोश का मूल्य क्रमशः 400 एवं 500 रुपये था।

    इस प्रकार की अटकलबाजी के आधार पर नियत किये गये मूल्य को स्वीकृत नहीं किया जा सकता था, क्योंकि साक्ष्य में यह कही नहीं प्रदर्शित किया गया कि दावे के साथ ईयर टैग्स की आपूर्ति करना आज्ञापक था।

    अतः जहाँ ईयर टैग्म (ear tags) की आपूर्ति न किया जाना, मामले के लिए घातक नहीं था और जहाँ खरगोश की मृत्यु का प्रमाण पत्र, उनके मृत्यु का हेतुक तथा पोस्टमार्टम रिपोर्ट की भी सम्यक् रूप से आपूर्ति भी की गयी वहाँ परिवादी द्वारा भी दस्तावेजों की अपेक्षाओं का पूर्णतया अनुपालन किया गया था और इसलिए परिवादी के दावे का निराकरण, पूर्णतया स्वेच्छाचारी एवं अमान्य करने योग्य माना गया और विरोधी पक्षकार को ब्याज सहित परिवादी को 4,01,100.00 रुपये का बतौर प्रतिकर मंदाय करने का निर्देश दिया गया।

    सरदार सुरजीत सिंह बनाम न्यू इण्डिया इंश्योरेंस कंपनी लिमिटेड के वाद में परिवादी ने जिस ट्रक को विरोधी पक्षकार के जरिये बीमा कराया था, वही एक नदी में गिरकर पूर्णतया क्षतिग्रस्त हो गयी थी। इस दुर्घटना में वाहन चालक एवं क्लीनर सहित व्यक्तियों की मृत्यु हो गयी थी। हालांकि दावा किया गया तथा सर्वेक्षक द्वारा रिपोर्ट प्रस्तुत किये जाने के बावजूद भी, दावे का निस्तारण नहीं हो सका।

    जहाँ विरोधी पक्षकार की ओर से यह तर्क प्रस्तुत किया कि दुर्घटना होने के समय ट्रक में वाहन चालक एवं क्लीनर के साथ-साथ जो सात व्यक्ति बैठकर यात्रा कर रहे थे, वे यात्रा करने के लिए उसमें बैठने के कानूनी तौर पर हकदार नहीं थे, वहाँ पालिसी की शर्तों का उल्लंघन करने बावजूद भी वाहन चालक के पास वाहन को चलाने का विधिमान्य वाहन चालन लाइसेंस नहीं था।

    इन सभी परिस्थितियों में भी, इस धारणा का समर्थन किया जाना होगा कि दुर्घटना के समय मात्र ट्रक में अनधिकृत तौर पर कतिपय अनधिकृत व्यक्तियों को ढोने का परिवादी का दावा, तब तक पराजित नहीं हो जायेगा जब तक कि ऐसी दुर्घटना के कारित होने में उन सभी व्यक्तियों की योगदायी भूमिका होने को साबित नहीं कर दिया जाता। चूंकि यहाँ किसी व्यक्ति का यह मामला नहीं है कि ट्रक जिन मृत व्यक्तियों को दुर्घटना के समय से जा रही थी, उन्होंने दुर्घटना के घटित होने में कोई सहायता नहीं की थी।

    इसके अतिरिक्त, चूंकि दावा अधिकरण ने भी अपने लिखित आदेश में इस तर्क की संपुष्टि कर दी कि परिवादी के चालक के पास पिछले 10 वर्षों से वाहन चालन लाइसेंस या और उसे दुर्घटना के समय भी विधिमान्य पाया गया, इसलिए इस निष्कर्ष पर नहीं पहुंचा जा सकता था कि दुर्घटना होने के समय वाहन चालक के पास वाहन चालन लाइसेंस नहीं था। अंततः बीमा कंपनी को प्रतिवादी के पक्ष में 1,30,000 रुपये का संदाय करने का निर्देश दिया गया।

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