भारत का संविधान (Constitution of India) भाग 22: भारत के संविधान के अंतर्गत निर्वाचन

Shadab Salim

24 Feb 2021 12:37 PM GMT

  • भारत का संविधान (Constitution of India) भाग 22: भारत के संविधान के अंतर्गत निर्वाचन

    भारत के संविधान से संबंधित पिछले आलेख में संघ और राज्यों के लिए सेवाओं के संबंध में तथा संघ लोक सेवा आयोग के संबंध में चर्चा की गई थी, इस आलेख के अंतर्गत भारत के संविधान में उल्लेखित किए गए निर्वाचन के संबंध में चर्चा की जा रही है।

    निर्वाचन

    भारत का संविधान भारत को एक लोकतांत्रिक राष्ट्र के रूप में उल्लेखित करता है, कोई भी लोकतांत्रिक राज्य में सरकार का संचालन जनता द्वारा चुने हुए प्रतिनिधियों द्वारा किया जाता है। किसी भी मजबूत लोकतंत्र के लिए निष्पक्ष चुनाव आवश्यक है यदि चुनाव निष्पक्ष होगा तो लोकतंत्र मजबूत होगा। जनता में लोकतंत्र के लिए न्याय की भावना का जन्म होता है।

    जनता की इच्छा होती है उनके द्वारा चुने गए प्रतिनिधियों का चुनाव निष्पक्ष प्रकार से किया जाए क्योंकि सरकार का संचालन जनता की इच्छा पर होता है। जनता के चुने हुए प्रतिनिधि ही सरकार का संचालन करते हैं।

    भारत का संविधान एक स्वतंत्र और निष्पक्ष चुनाव की आधारशिला स्थापित करने हेतु निर्वाचन आयोग का गठन करता है। यह निर्वाचन आयोग 5 वर्ष बाद देशभर में चुनाव का कार्य संचालित करता है।

    निर्वाचन आयोग का गठन

    भारत के संविधान का अनुच्छेद 324 निर्वाचनों के लिए निरीक्षण,निर्देशन और नियंत्रण के कार्य हेतु निर्वाचन आयोग की स्थापना करता है। संविधान के अंतर्गत न्यायपालिका की भांति निर्वाचन आयोग स्वतंत्र संस्था है जिसके क्षेत्र में कार्यपालिका का किसी प्रकार का हस्तक्षेप नहीं होता है तथा उनके वह स्वतंत्रतापुर्वक कार्यों का संपादन करता है।

    निर्वाचन आयोग में एक मुख्य निर्वाचन आयुक्त होता हैं, मुख्य निर्वाचन आयुक्त की नियुक्ति राष्ट्रपति द्वारा की जाती है। राष्ट्रपति निर्वाचन आयोग के आयुक्त की नियुक्ति कर सकता है।

    राष्ट्रपति निर्वाचन आयोग से परामर्श करके आयोग की सहायता के लिए ऐसे प्रादेशिक आयुक्तों की नियुक्ति कर सकता है जैसा कि वह आवश्यक समझे। निर्वाचन आयुक्त और प्रादेशिक आयुक्तों की सेवा की शर्तें और पदावधि ऐसी होती है जो कि राष्ट्रपति नियम द्वारा निर्धारित करें।

    मुख्य निर्वाचन आयुक्त अपने पद से उन्हीं कारणों और उन्हीं नीतियों से हटाया जा सकता है जिन कारणों और नीतियों से उच्चतम न्यायालय का न्यायाधीश हटाया जा सकता है। नियुक्ति के बाद मुख्य निर्वाचन अधिकारी की सेवा की शर्तों में उसको आलाभकारी कोई परिवर्तन नहीं किया जा सकता।

    प्रादेशिक आयुक्त को मुख्य निर्वाचन आयुक्त की सिफारिश के बिना पद नहीं हटाया जा सकता। भारत का संविधान निर्वाचन आयोग के पदाधिकारियों की अवधि को संरक्षण प्रदान करता है जिससे वह अपने कार्यों को स्वतंत्रतापूर्वक संपादित कर सकें।

    भारत के संविधान के भीतर राज्यों के लिए अलग से कोई निर्वाचन आयोग की व्यवस्था नहीं की गई है। भारत राष्ट्र के लिए जो एक निर्वाचन आयोग कार्य करता है राज्यों के चुनाव का संपादन भी उसी निर्वाचन आयोग द्वारा किया जाता है।

    2 अक्टूबर 1993 को राष्ट्रपति ने एक अध्यादेश जारी कर के वर्तमान एक सदस्य निर्वाचन आयोग को बहुसदस्य बना दिया और दो निर्वाचन आयुक्तों की नियुक्ति कर दी। यह अध्यादेश अधिनियम बन चुका है।

    निर्वाचन आयोग को बहुसदस्य बनाने का निर्णय सरकार ने इस कारण लिया कि नवंबर 1993 में कई राज्यों की विधानसभाओं के चुनाव संपन्न कराने के मामले में निर्वाचन आयोग द्वारा लिए गए विवादास्पद निर्णयों के कारण सरकार और आयोग के बीच एक मामले में गंभीर विवाद की स्थिति उत्पन्न हो गई थी।

    निर्वाचन आयोग का कहना था कि चुनाव के दौरान सशस्त्र बलों की पर्याप्त संख्या न मिलने पर चुनाव कार्य में लगे सभी कर्मचारियों और अनुशासनिक शक्ति न मिलने पर वह चुनाव प्रक्रिया को रोक देगा।

    भारत के संविधान के अनुच्छेद 324 के अनुसार निर्वाचन आयोग में एक या एक से अधिक सदस्य हो सकते हैं। इस उपबंध को काम में लेते हुए अक्टूबर 1990 में दो व्यक्तियों का निर्वाचन आयुक्त नियुक्त किया गया था।

    सरकार द्वारा निर्वाचन आयोग को बहुसदस्य बनाने का निर्णय का प्रभाव यह हुआ कि लोकसभा और विधानसभाओं के निर्वाचन संबंधी महत्वपूर्ण मामले में एक व्यक्ति का वर्चस्व समाप्त हो गया।

    अब भी निर्वाचन आयोग सर्वोच्च है परंतु उसकी सारी शक्तियां किसी एक ही व्यक्ति में निहित नहीं है और अनियंत्रित नहीं है।निर्वाचन आयोग को बहुसदस्य बनाने की शक्ति सरकार को भारत के संविधान के अनुच्छेद 324 के अधीन प्राप्त है।

    भारत का चुनाव आयोग बनाम डॉ सुब्रमण्यम स्वामी 1996 के एक मामले में उच्चतम न्यायालय ने यह अभिनिर्धारित किया है कि एक बहुसदस्य चुनाव आयोग के मामले में यह आवश्यक नहीं है कि प्रत्येक मामले में निर्णय लेते समय सभी सदस्य भाग ले। उच्चतम न्यायालय तथा उच्च न्यायालय की तरह पीठों में बैठ सकते हैं और विशेषकर जब किसी सदस्य के ऊपर पक्षपात करने का आरोप लगाया गया हो।

    प्रस्तुत मामले में तमिलनाडु की मुख्यमंत्री श्रीमती जयललिता के ऊपर आरोप लगाया गया था कि वह विधानसभा की सदस्यता के लिए निरह है। अनुच्छेद 192 (2) के अधीन किसी सदस्य की अर्हता के प्रश्न पर निर्णय लेने के लिए पूर्व राज्यपाल को चुनाव आयोग का मत लेना आवश्यक है।

    श्रीमती जयललिता ने आरोप लगाया कि उनके सदन की अर्हता के प्रश्न को उठाने वाले व्यक्ति सुब्रमण्यम स्वामी से मुख्य चुनाव आयोग का घनिष्ट संबंध है अतः उन्हें न्याय की उम्मीद नहीं है। न्यायालय ने अपने निर्णय में कहा कि अनुच्छेद 324 के अधीन एक बहूसदस्य आयोग की स्थिति में मुख्य चुनाव आयुक्त का भाग लेना आवश्यक नहीं है, मुख्य चुनाव आयुक्त आयोग की बैठक बुलाने के मामले का निर्णय अन्य आयुक्त के निर्णय के लिए छोड़ दें तो स्वयं हट जाए किंतु सदस्यों में असहमति होने की दशा में आवश्यकता का नियम लागू होगा और राज्यपाल को बहुमत का मत देने के लिए मुख्य आयुक्त को भाग लेना होगा और अपना मत देना होगा।

    टी एन शेषन बनाम भारत संघ के अपने महत्वपूर्ण मामले में उच्चतम न्यायालय के पांच न्यायाधीशों की संविधान पीठ ने सर्वसम्मति से यह कहा कि संसद द्वारा पारित अधिनियम जिसके द्वारा निर्वाचन आयोग को बहुसदस्य बनाया गया है तथा अन्य निर्वाचन आयुक्त को मुख्य निर्वाचन आयुक्त के समान ही पद तथा शक्ति प्रदान की गई है वह संवैधानिक है।

    उस समय के तत्कालीन निर्वाचन आयुक्त श्री टी एन सेशन ने इस अधिनियम की सांविधानिकता को चुनौती दी थी। उच्चतम न्यायालय ने निर्वाचन आयुक्त श्री शेषन के इस तर्क को स्वीकार नहीं किया कि संविधान के अनुच्छेद 324 के अंतर्गत मुख्य निर्वाचन आयुक्त को दो अन्य निर्वाचन आयुक्तों की अपेक्षा अधिक अधिकार प्राप्त है।

    निर्वाचन आयोग के कार्य

    भारत के संविधान का अनुच्छेद 324 निर्वाचन आयोग को कुछ कार्यभार सौंपता है, जो निम्न प्रकार हैं-

    संसद तथा राज्य विधान मंडलों के निर्वाचन के लिए निर्वाचन नामावली और राष्ट्रपति तथा उपराष्ट्रपति के पदों के निर्वाचनों का अधीक्षण निर्देशन और नियंत्रण करना।

    उक्त निर्वाचनों का संचालन करना

    संसद और राज्य विधानमंडल के निर्वाचन संबंधी संदेह और विवादों के निर्णय के लिए निर्वाचन अधिकारी की नियुक्ति करना।

    संसद तथा राज्य विधान मंडल के सदस्यों की अर्हता के प्रश्न पर के राष्ट्रपति और राज्यपालों को परामर्श देना।

    चुनाव आयोग को किसी स्थान के चुनाव को रद्द करने की भी शक्ति उपलब्ध है। निर्वाचन आयोग का कार्य निर्वाचन का संचालन है, निर्वाचन की तारीख नियत करना सरकार का कार्य है। सरकार द्वारा चुनाव की तारीख नियत करने के पश्चात निर्वाचन आयोग चुनाव कराने का कार्य शुरू करता है और उसे पूरा करता है। उक्त निर्वाचन की तारीख नियत नहीं करता है।

    निर्वाचन आयोग की चुनाव कराने की शक्ति न्यायिक पुनर्विलोकन के अधीन है-

    इन प्रेसिडेंशियल रिफरेंस 2002 के मामले में अनुच्छेद 143 के अधीन उच्चतम न्यायालय से परामर्श देने के लिए यह महत्वपूर्ण प्रश्न सौंपा की अनुच्छेद 174 और अनुच्छेद 324 का सही निर्वाचन क्या है!

    दोनों अनुच्छेदों में क्या संबंध है! अनुच्छेद 174 के अधीन राष्ट्रपति को यह शक्ति प्राप्त है कि वह विधानसभा को समय-समय पर जैसा ठीक समझें विघटन करें। शक्ति का प्रयोग राज्यपाल की सलाह से ही किया जाता है। इस शक्ति का प्रयोग सरकार ही करती है किंतु अनुच्छेद 174 यह भी कहता है कि उसके एक सत्र की अंतिम बैठक और आगामी सत्र की प्रथम बैठक के लिए नियत तारीख के बीच 6 महीने से अधिक का अंतर नहीं होना चाहिए।

    इसका अर्थ यह है कि सामान्य परिस्थितियों में भी कोई एक विधानसभा विघटित कर दी जाती है तो 6 महीने के अंदर चुनाव करा लिए जाएं और विधानसभा का गठन कर दिया जाए और उसकी बैठक बुलाई जाए।

    दूसरी तरफ राज्य के विधान मंडल के लिए कराए जाने वाले सभी निर्वाचन के लिए निर्वाचक नामावली तैयार कराने और उन सभी निर्वाचन संचालन निदेशक नियंत्रण निर्वाचन आयोग में निहित होता है। अनुच्छेद 356 के तहत किसी राज्य में राष्ट्रपति शासन लागू करने का उपबंध है।

    उच्चतम न्यायालय ने अपने ऐतिहासिक फैसले मैं यह अभिनिर्धारित किया है कि चुनाव सुधार कानून लोक प्रतिनिधित्व अधिनियम में पेश किया गया संशोधन असंवैधानिक है और अपने पहले के निर्देश को यथावत रखा है जिसमें प्रत्याशियों को अपने नामांकन पत्र भरते समय अपने आपराधिक रिकॉर्ड अपनी संपत्ति अपनी देनदारियों पोस्ट शिक्षण योग्यता के बारे में पूर्ण जानकारी देने को अनिवार्य बना दिया था।

    न्यायालय की तीन सदस्यीय खंडपीठ ने अलग-अलग किंतु सर्वसम्मति से यह निर्धारित किया कि पिछले वर्ष संसद द्वारा चुनाव कानून में किया गया संशोधन मतदाता के सूचना के मूल अधिकारों की कटौती करता है जिसके द्वारा उसे अपने पसंद के उम्मीदवार को चुनते समय उसकी आवश्यकता पड़ती है।

    न्यायाधीशों ने कहा कि मतदाता का सूचना का अधिकार संविधान के अनुच्छेद 19 में प्रदत्त अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के मूल अधिकार का एक अभिन्न अंग है लोक प्रतिनिधित्व अधिनियम की धारा 30 में किया गया संशोधन उसका अतिक्रमण करता है।

    अतः न्यायालय ने चुनाव कानून में किए गए संशोधनों को अविधिमान्य घोषित करने के बाद चुनाव आयोग को निर्देश दिया कि वह न्यायालय के वर्तमान आदेश को लागू करने के लिए नई अधिसूचना जारी करें। न्यायालय ने चुनाव में किए गए संशोधन बल के प्रयोग को रोकने के लिए किए गए प्रयास को ठीक नहीं बताया।

    न्यायालय ने स्पष्ट कहा कि मतदान के अधिकार का कोई अर्थ नहीं है जब तक कि नागरिक अपने उम्मीदवार के संबंध में पूरी जानकारी नहीं प्राप्त कर लेता है।

    वयस्क मताधिकार

    भारत के संविधान के अनुच्छेद 325 के अनुसार संसद के प्रत्येक सदस्य राज्य के विधान मंडल सदन के लिए निर्वाचन के लिए प्रत्येक प्रादेशिक निर्वाचन क्षेत्र के लिए एक साधारण निर्वाचन नामावली होगी जिस के सभी सदस्यों को निर्वाचन में अपना मत देने का अधिकार होगा। कोई भी व्यक्ति धर्म मूल वंश जाति लिंग में से किसी भी आधार पर किसी व्यक्ति को ऐसी किसी नामावली में सम्मिलित किए जाने के लिए अपात्र नहीं कर सकता।

    संविधान का अनुच्छेद 326 यह कहता है कि लोकसभा और राज्य की विधानसभा के लिए निर्वाचन कार्य अर्धन्यायिक आधार पर होंगे प्रत्येक व्यक्ति जो भारत का नागरिक है 18 वर्ष की अवस्था से कम नहीं है तो संविधान द्वारा समुचित विधान मंडल द्वारा निर्मित विधि के अनुसार अनिवार्य विकृति अपराध या भ्रष्टाचार के आधार पर आयोग नहीं कर दिया जाता है ऐसी किसी निर्वाचन में मतदाता के रूप में रजिस्टर्ड होने का अधिकार होगा।

    भारत के संविधान में 61वें संविधान संशोधन अधिनियम द्वारा संविधान में उल्लेखित किए गए अनुच्छेद 326 में संशोधन किए गए। इस अनुच्छेद में पहले मतदाताओं की आयु 21 वर्ष थी उस 21 वर्ष की आयु को घटाकर 18 वर्ष कर दिया गया।

    चुनाव का अधिकार एक मूल अधिकार नहीं है बल्कि विधि द्वारा प्रदत्त अधिकार है-

    जावेद बनाम हरियाणा राज्य के मामले में भारत के उच्चतम न्यायालय ने यह कहा है कि चुनाव का अधिकार मूल अधिकार नहीं है यह अधिनियम प्रदत्त अधिकार है अर्थात किसी अधिनियम के माध्यम से दिया गया अधिकार है अथवा विधि द्वारा इस प्रयोग पर निर्बंधन लगाए जा सकते हैं, इसके लिए नियम विहित किए जा सकतें है।

    एसी जोस बनाम सिवन पिल्लई के मामले में चुनाव आयोग ने उस आदेश की विधिमान्यता को चुनौती दी जिसके द्वारा चुनाव में मत डालने के लिए यंत्र का प्रयोग किया गया था। उच्चतम न्यायालय ने इस मामले में अभिनिर्धारित किया कि चुनाव आयोग का आदेश असंवैधानिक था क्योंकि मतपत्र शब्द के अंतर्गत मशीन के द्वारा मतदान शामिल नहीं है।

    आयोग को अनुच्छेद 327 के अधीन बनाए गए अधिनियम लोक प्रतिनिधित्व अधिनियम और उनके अधीन बनाए गए नियमों को अधिभावी करने की शक्ति नहीं है। यदि संसद द्वारा बनाई गई कोई विधि या उसके अधीन कोई नियम नहीं है तो चुनाव आयोग कोई भी आदेश पारित कर सकता है किंतु चुनाव आयोग को चुनाव संचालन की शक्ति के अधीन विधि बनाने की शक्ति नहीं है।

    अनुच्छेद 329A यह उपबंध करता है कि संसद द्वारा अनुच्छेद 327, 328A के अधीन बनाई गई किसी विधि कि जो निर्वाचन क्षेत्रों के परिसीमन या ऐसे निर्वाचन क्षेत्रों के स्थानों से आवंटन से संबंधित है विधिमान्यता पर किसी न्यायालय में आपत्ति नहीं की जा सकती है।

    अनुच्छेद 329 भी यह उपबंध करता है कि संसद राज्य के विधान मंडल के किसी सदन के निर्वाचन पर ऐसी निर्वाचन याचिका के बिना कोई भी आपत्ति नहीं की जो ऐसे प्राधिकारी को ऐसी नीति से प्रस्तुत की गई है जो समुचित विधान मंडल द्वारा निर्मित विधि के द्वारा या अधीन उपबंधित है। खंड बी के अनुसार चुनाव प्रक्रिया के प्रारंभ होने तथा उसके समाप्त होने तक चुनाव संबंधी मामलों पर न्यायालय की अधिकारिता वर्जित रहेगी।

    चुनाव संपन्न हो जाने के पश्चात ही उसे चुनौती दी जा सकती है। ऐसा इस उद्देश्य से किया गया है जिससे निर्वाचनों को समय से संपन्न कराया जा सके और बीच में कोई अवरोध न उत्पन्न हो।

    के वेंकटाचलम बनाम ए स्वामीपन के मामले में उच्चतम न्यायालय नहीं अभिनिर्धारित किया है क्या अनुच्छेद 329 बी जो न्यायालय के अधिकारिता को निर्वाचन संबंधी मामलों से वर्जित करता है उन मामलों पर भी लागू नहीं होगा जहां एक अयोग्य व्यक्ति निर्वाचित हो जाता है और सदन में बैठता है और मतदान करता है।

    ऐसे मामलों में उच्च न्यायालय अनुच्छेद 226 के अंतर्गत अपनी अधिकारिता का प्रयोग कर सकता है और यह घोषित कर सकता है कि उसका निर्वाचन अवैध है क्योंकि उसके पास अपेक्षित रहता नहीं है। अनुच्छेद 191 और 193 के अंतर्गत एक अयोग्य सदस्य को सदन में बैठना तथा मतदान करने के लिए दंडित किए जाने के उपबंद है।

    भारत के संविधान के 19वें संशोधन अधिनियम द्वारा अब खंड बी के अंतर्गत निर्वाचन अधिकारियों के निर्वाचन संबंधी विवादों को निपटाने की अधिकारिकता को समाप्त कर दिया गया है। संशोधन में शक्ति को उच्च न्यायालय में निहित कर दिया है। ऐसे विवादों के शीघ्र निपटारे के उद्देश्य से किया गया है, निर्वाचन ट्रिब्यूनल को इन विवादों को निपटाने में अनावश्यक विलंब होता था।

    भारत के संविधान में निर्वाचन से संबंधित दिए गए सभी उपबंध सतही उपबंध है। यह ऐसे उपबंध हैं जो निर्वाचन से संबंधित संविधान निर्माताओं की आधारभूत विचार शैली का उल्लेख कर रहे हैं। यह निर्वाचन के आधारभूत सिद्धांत कहे जा सकते हैं जो संविधान में उल्लेखित किए गए है। निर्वाचन के इन आधारभूत सिद्धांतों की अवहेलना नहीं की जा सकती है।

    भारत के संविधान के निर्वाचन से संबंधित निर्वाचन संबंधी उपबंध करने की शक्ति भारत की संसद में निहित की गई है। इसका उल्लेख भारत के संविधान के अनुच्छेद 327 के अंतर्गत भारत के संविधान निर्माताओं ने कर दिया था।

    अनुच्छेद 327 के अंतर्गत भारत की संसद निर्वाचन से संबंधित विधि का निर्माण कर सकती है। इस अनुच्छेद से लक्षित होकर भारत की संसद ने लोक प्रतिनिधित्व अधिनियम का निर्माण किया है।

    वर्तमान भारत के चुनाव लोक प्रतिनिधित्व अधिनियम के अंतर्गत संपादित किए जा रहे हैं परंतु इस लोक प्रतिनिधित्व अधिनियम का निर्माण निर्वाचन से संबंधित दिए गए आधारभूत सिद्धांत जिनका उल्लेख भारत के संविधान में किया गया है उसके अधीन ही किया गया है। पाठकगण अगर निर्वाचन से संबंधित समस्त जानकारी का अवलोकन करना चाहते हैं तो उसके लिए लोक प्रतिनिधित्व अधिनियम का अध्ययन करें।

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