भारत का संविधान (Constitution of India) भाग 21: केंद्र और राज्यों के अंतर्गत सेवाएं

Shadab Salim

24 Feb 2021 11:15 AM IST

  • भारत का संविधान (Constitution of India) भाग 21: केंद्र और राज्यों के अंतर्गत सेवाएं

    भारत के संविधान से संबंधित पिछले आलेख में संपत्ति के अधिकार पर चर्चा की गई थी, इस आलेख के अंतर्गत संविधान में उल्लेखित की की गई सेवाओं पर चर्चा की जा रही है।

    भारत के परिसंघ संविधान ने केंद्र और राज्यों को अलग-अलग सेवाएं दी है। देश के प्रशासन के लिए लोक सेवकों की भर्ती का प्रावधान भारत के संविधान में उल्लेखित किया गया है। प्रशासन संबंधी नीतियों का निर्धारण तो मंत्रिमंडल करता है किंतु उनका कार्यान्वयन लोकसेवक ही करते हैं तथा लोक सेवकों को राजनीतिक या व्यक्तिगत दबाव से मुक्त रखना आवश्यक है जिससे वह सरकारी नीतियों को निष्पक्षता और स्वतंत्रता से कार्यान्वित कर सकें। इस उद्देश्य से संविधान के अनुच्छेद 308 से लेकर अनुच्छेद 323 तक उपबंध किए गए हैं।

    अनुच्छेद 309

    भारत के संविधान का अनुच्छेद 309 संघ और राज्य विधानमंडल को उनकी सेवा में नियुक्त लोक सेवकों की भर्ती और सेवा की शर्तों के विनियमन की शक्ति प्रदान करता है।

    अनुच्छेद 309 कहता है कि संसद तथा राज्य विधानमंडल संविधान के उपबंधों के अधीन रहते हुए संघ या राज्यों के कार्यों से संबंध लोक सेवा और पदों के लिए भर्ती का और नियुक्ति व्यक्तियों की सेवा शर्तों का विनियमन करेंगे किंतु जब तक समुचित विधानमंडल के अधिनियम द्वारा उत्तर प्रयोजनों के लिए उपबंध नहीं बनाए जाते हैं तब तक ऐसी सेवा और पदों के लिए भर्ती नियुक्ति व्यक्तियों की शक्तियों का वर्णन करने के लिए नियमों को राष्ट्रपति और राज्यपाल बनाएंगे।

    इस प्रकार बनाए गए नियम विधानमंडल द्वारा बनाए गए अधिनियम के अधीन होंगे। संविधान में लोक सेवकों की भर्ती में सहायता देने के लिए लोक सेवा आयोग की स्थापना को उपबंध किया गया है।

    अनुच्छेद 309 में प्रावधान के अधीन रहते हुए यह स्पष्ट है कि विधान मंडलों की विधान की शक्ति और कार्यपालिका की शक्ति संविधान के विरुद्ध नहीं हो सकती। अनुच्छेद 309 के अंतर्गत लोक सेवकों की भर्ती तथा उनकी सेवा की शर्तों के लिए बनाया गया। कोई अधिनियम किसी भी मूल अधिकार का अतिक्रमण नहीं कर सकता।

    मध्य प्रदेश राज्य बनाम एमपी सिंह के मामले में यह कहा गया है कि एक सेवानिवृत्त सरकारी सेवक जो अपने पुत्र या जो स्वयं एक सरकारी सेवक है के साथ रहता है उसे पुत्र पर पूर्ण रूप से आश्रित माना जाएगा। इस बात के होते हुए कि वह स्वयं पेंशन पाता है। अतः पुत्र अपने पिता की चिकित्सा में हुए खर्च की प्रतिपूर्ति का हकदार है।

    मध्य प्रदेश सिविल सेवा नियम 1958 के अधीन परिवार या पूर्णरूपेण आश्रित के अंतर्गत वित्तीय तथा शारीरिक रूप से आश्रित दोनों आते हैं। इसका अर्थ केवल वित्तीय रूप से आश्रित तक सीमित नहीं किया जा सकता। प्रस्तुत मामले में एक सरकारी कर्मचारी का पिता जो सेवानिवृत्त हो चुका था 70 वर्ष की आयु का था तथा बीमार था।

    यह नहीं कहा जा सकता कि वह अपने पुत्र पर पूर्णरूपेण आश्रित था, बुढ़ापे में पुत्र को उसकी देखभाल करना पड़ती थी, वह 414 प्रति माह पेंशन पाता था जो एक छोटी सी रकम थी। यह नहीं कहा जा सकता कि वह अपने पुत्र पर पूर्णरूपेण नहीं था।

    मध्य प्रदेश मेडिकल नियमों के अधीन पिता अपने पुत्र के परिवार का सदस्य अपने पुत्र पर पूर्णरूपेण आश्रित है तथा पुत्र को अपने पिता की चिकित्सा खर्च को पाने का हक है।

    पीके रंगराजन बनाम तमिलनाडु सरकार के मामले में यह अभिनिर्धारित किया गया कि सरकारी कर्मचारी को हड़ताल करने का अधिकार नहीं नहीं है और न ही मूल अधिकार है न कानूनी अधिकार है और न नैतिक अधिकार है।

    इस मामले में सन 2003 में प्रारंभ में तमिलनाडु के सरकारी कर्मचारीगण अपनी मांगों को लेकर हड़ताल पर चले गए। सरकार ने आवश्यक सेवा बनाए रखने के 2002 के अधिनियम के अंतर्गत 2003 के अध्यादेश द्वारा उनको नौकरी करने से बर्खास्त कर दिया।

    उच्च न्यायालय ने उनकी याचिका इस आधार पर अस्वीकार कर दी कि उन्होंने प्रशासनिक अधिकरण में जाने के अपने वैकल्पिक उपचार का प्रयोग नहीं किया था। उच्चतम न्यायालय के न्यायमूर्ति ने यह अभिनिर्धारित किया कि उन्हें हड़ताल करने का कोई अधिकार नहीं है और न ही मूल अधिकार है।

    न्यायालय ने यह कहा कि व्यापार संघ के कर्मचारियों की ओर से सामूहिक सौदेबाजी करने का अधिकार है किंतु उन्हें हड़ताल करने का अधिकार नहीं है। न्यायालय ने स्पष्ट किया है कि कोई भी राजनीतिक दल या संगठन देश की आर्थिक गतिविधियों और राज्य की औद्योगिक गतिविधियों को छिन्न-भिन्न करने यह नागरिकों को सुविधा पहुंचाने का अधिकार का दावा नहीं कर सकता है। ऐसा निर्णय कई मामलों में किया जा चुका है।

    किसी अधिनियम के अधीन उन्हें हड़ताल करने का अधिकार प्राप्त नहीं है। इस बात का दावा नहीं कर सकते कि हड़ताल करके पूरे समाज को दबा कर सकते हैं। यदि यह मान भी लिया जाए कि उनके साथ अन्याय हुआ है तो भी अधिनियम के अधीन उन्हें इसके निराकरण के लिए अधिकार दिए गए।

    हड़ताल के कारण आम जनता परेशान हो जाती है, जनता के बीच अव्यवस्था फैल जाती है, हड़ताल पूरे समाज पर प्रतिकूल असर डालती है। जहां इतनी अधिक बेरोजगारी है और लोग सरकारी और गैर सरकारी संस्थानों में नौकरी पाने के लिए प्रतीक्षा कर रहे हैं वहां हड़ताल को किसी भी आधार पर उचित नहीं ठहराया जा सकता।

    न्यायालय के सुझाव पर सरकार अधिकतर कर्मचारियों को बहाल करने पर राजी हो गई।

    लोक सेवकों के प्रसाद का सिद्धांत (डॉक्ट्रिन आफ प्लेज

    लोक सेवक सम्राट के अधीन होते हैं। लोकतांत्रिक व्यवस्था में राज्य संप्रभु है और सम्राट की भांति है। यदि कोई लोक सेवक नौकरी से सेवानिवृत्त के पहले ही निकाल दिया जाता है तो भी वह सम्राट से बकाया वेतन या किसी प्रकार का दावा नहीं कर सकता। प्रसाद का सिद्धांत लोक नीति पर आधारित है।

    भारत के संविधान के अनुच्छेद 310 में यह उपबंध किया गया है कि प्रत्येक व्यक्ति जो संघ की प्रतिरक्षा से अखिल भारतीय सेवा में पदस्थ है अथवा संघ के अधीन प्रतिरक्षा से संबंधित किसी पद को अथवा किसी सैनिक पद को धारण करता है राष्ट्रपति के प्रसादपर्यंत पद धारण करता है।

    इसी तरह राज्य सेवकों के सदस्यगण राज्यपाल के प्रसादपर्यंत पद धारण करते हैं। यह एक सामान्य नियम है किंतु संविधान में उपबंध दिए गए हैं जहां प्रसाद का सिद्धांत लागू नहीं होता है। भारत के संविधान में प्रसाद का सिद्धांत बहुत सीमित रूप में लागू होता है।

    अनुच्छेद 310 में प्रयुक्त प्रारंभिक शब्दावली संविधान द्वारा स्पष्ट उपबंधित अवस्था को छोड़कर प्रसाद के सिद्धांत के प्रयोग पर निर्बंधन लगाती है और उसके प्रयोग की सीमाओं को विहित करती हैम भारत में एक लोक सेवक अपने बकाया वेतन के लिए सरकार के विरुद्ध वाद चला सकता है।

    बिहार राज्य के अब्दुल मजीद के मामले में एक पुलिस सब इंस्पेक्टर को कायरता के आधार पर सेवा से हटा दिया गया था। बाद में उसे पुनः बहाल कर दिया गया किंतु सरकार ने पद से हटाने की अवधि के लिए वेतन देना अस्वीकार कर दिया।

    उच्चतम न्यायालय ने यह कहा कि वह बकाया वेतन पाने का हकदार था क्योंकि उसने सेवा संविधान के अधीन कार्य किया। जिस प्रकार सेवा शर्तों के अनुसार सरकार को किसी सेवा को अनिवार्य सेवानिवृत्ति करने की शक्ति प्राप्त है उसी प्रकार सेवक को भी अपने पद से स्वेच्छापूर्वक 3 माह की सूचना देकर त्यागपत्र देने का अधिकार प्राप्त है।

    चाहे उसे राज्य स्वीकार करें या नहीं करें। भारत का संविधान प्रसाद के सिद्धांत पर कुछ निर्बंधन लगाता है। जैसे सिद्धांत अनुच्छेद 311 के अधीन जिसका प्रयोग अनुच्छेद 311 में विहित प्रक्रिया के अनुसार ही किया जा सकता है।

    अनुच्छेद 311 के उल्लंघन होने पर प्रसाद के सिद्धांत का प्रयोग अवैध हो जाएगा और यह निम्न अधिकारियों पर लागू नहीं होता है- उच्चतम न्यायालय और उच्च न्यायालय के न्यायाधीश, भारत का महालेखाकार, मुख्य चुनाव आयुक्त, लोक सेवा के अध्यक्ष और सदस्य, राज्यपाल के प्रसादपर्यंत पर निर्भर करते हैं। प्रसाद का सिद्धांत मूल अधिकारों के अधीन है इसके प्रयोग द्वारा नागरिकों के मूल अधिकारों का अतिक्रमण नहीं होना चाहिए।

    भारत के संविधान के अनुच्छेद 311 के अंतर्गत लोक सेवकों को अपने पद से मनमाने ढंग से पदच्यूत किए जाने के विरुद्ध कुछ सांविधानिक संरक्षण प्राप्त है।

    कोई भी लोकसेवक आपने नियुक्तिकर्ता से नीचे के किसी अधिकारी द्वारा पदच्युत नहीं किया जाएगा हटाया।

    कोई भी व्यक्ति तब तक पद से पदच्युत नहीं जाएगा जब तक की उसे अपने विरुद्ध दोषसिद्धि से अवगत न करा दिया गया हो और उसके संबंध में सुनवाई के उपयुक्त अवसर का दे दिया गया है।

    जहां ऐसी जांच के फलस्वरुप कोई शास्ति अधिरोपित किए जाने का प्रस्ताव है वह ऐसी शास्ति जांच के दौरान दिए गए साक्ष्य के आधार पर ही अधिरोपित की जाएगी और ऐसे व्यक्ति को उनके विरुद्ध अभ्यावेदन करने का अवसर देना आवश्यक नहीं होगा।

    अनुच्छेद 311 के खंड 2 में 42 वें संविधान संशोधन अधिनियम 1976 द्वारा संशोधन किया गया और लोक सेवकों की जांच के दूसरे प्रकरण में उसके विरुद्ध अधिरोपित की जाने वाली शक्ति के विरुद्ध अभ्यावेदन के अधिकार से उन्हें वंचित कर दिया गया है।

    प्रस्तुत संकलन के पूर्व लोक सेवकों को दो स्थानों पर उचित कार्रवाई का अवसर प्राप्त था, एक आरोप लगाते समय दूसरा जांच के फलस्वरुप हटाते समय या फिर आरोपित करते समय।

    भारत सिंह बनाम छोटेलाल एआईआर 1999 उत्तम न्यायालय 376 के मामले में यदि निर्धारित किया गया है कि राष्ट्रीय रक्षा अकादमी के कैडेटों के कपड़े धोने के लिए नियुक्त धोबी अनुच्छेद 311 के अंतर्गत इस कारण सिविल पद के धारणकर्ता नहीं हो जाते क्योंकि उन्हें सेना के रेजिमेंटल को से वेतन मिलता है।

    धोबियों को वेतन का भुगतान भारत की संचित निधि या रक्षा मंत्रालय के नियंत्रण वाले किसी लोग को से नहीं किया जाता, अतः केंद्रीय प्रशासनिक अधिकरण को ऐसे धोबियों की सेवा शर्तों के निर्धारण के प्रश्न पर विचार करने के लिए कोई अधिकारिता प्राप्त नहीं है।

    अनुच्छेद 311 का खंड 2 यह उपबंधित करता है कि किसी भी एक सिविल सेवक को तब तक पद से नहीं हटाया जा सकता या पंक्ति से नीचे नहीं किया जा सकता जब तक कि उसे अपनी प्रस्तावित कार्यवाही के विरुद्ध लगाए गए आरोप के विरुद्ध सुनवाई का युक्तियुक्त अवसर प्रदान किया गया हो।

    42 वें संशोधन के पूर्व लोक सेवकों को सुनवाई का अवसर दो स्थानों पर देने का उपबंध था उसके विरुद्ध जांच के समय जो नैसर्गिक न्याय के नियमों के अनुसार अपेक्षित है किसी भी व्यक्ति को उसे सुनवाई का अवसर दिए बिना दंडित नहीं किया जा सकता और दंड देने के समय जबकि जांच के परिणामस्वरूप उसके विरुद्ध आरोप सिद्ध हो चुका है और उसे पद से हटाया जाना है पद से नीचे गिराया जाना।

    42 वें संविधान संशोधन 1975 द्वारा दूसरे स्तर पर सिविल सेवकों को प्राप्त सुनवाई का युक्तियुक्त अवसर के अधिकार को समाप्त कर दिया गया।

    भारत के संविधान के अनुच्छेद 311 के खंड 2 के अनुसार कुछ परिस्थितियां ऐसी है जिसमें किसी सरकारी सेवक को युक्तियुक्त अवसर प्रदान किए जाने का अधिकार प्राप्त नहीं है, वह परिस्थितियां निम्न हैं-

    जहां कोई व्यक्ति ऐसे आचरण के आधार पर पद से हटा दिया जाता है या पद से नीचे गिराया जाता है जिसके लिए अपराध के आरोप पर उसे दोषसिद्ध किया गया है।

    जहां किसी व्यक्ति को पदच्युत करने या पद से हटाने या पद से नीचे गिराने वाले अधिकारी को यह समाधान हो जाता है कि किसी कारण से जो उस अधिकारी द्वारा लेखबद्ध किया जाएगा कि युक्तियुक्त रूप से व्यवहार नहीं है कि सुनवाई का ऐसा अवसर प्रदान किया जाए।

    जहां राष्ट्रपति और राज्यपाल का समाधान हो जाता है कि राज्य की सुरक्षा के हित में यह समीचीन नहीं है कि ऐसी जांच की जाए।

    एक मामले में उच्चतम न्यायालय ने यह निर्धारित किया है कि अनुच्छेद 311 (2)के दूसरे परंतु खंड(ग) के अंतर्गत पारित पद्धति का आदेश न्यायिक पुनर्विलोकन के अधीन है और न्यायालय इसकी जांच कर सकता है कि क्या इसका प्रयोग दुर्भावना से प्रेरित होकर आसन आधारों पर किया गया है।

    न्यायालय ने स्पष्ट किया है कि इस मामले में न्यायिक पुनर्विलोकन का क्षेत्र उतना ही है जितना एसआर बोम्मई के मामले में निहित किया गया है अर्थात क्या इसका प्रयोग दुर्भावना से या गलत आधारों पर किया गया है।

    लोक सेवा आयोग

    भारत के संविधान के अनुच्छेद 315 संघ के लिए एक लोक सेवा आयोग तथा प्रत्येक राज्य के लिए लोक सेवा आयोग का उपबंध करता है। दो या दो से अधिक राज्य संयुक्त लोक सेवा आयोग रख सकते हैं और संसद उनकी प्रार्थना पर संयुक्त आयोग की स्थापना कर सकती है।

    यदि किसी राज्य का राज्यपाल संघ के लोक सेवा आयोग से राज्य की आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए कार्य करने की प्रार्थना करें तो राष्ट्रपति के अनुमोदन से संघ लोक सेवा आयोग राज्यों के लिए कार्य कर सकता है।

    संघ लोक सेवा आयोग के संयुक्त लोक सेवा आयोग के अध्यक्ष व अन्य सदस्यों की नियुक्ति राष्ट्रपति द्वारा की जाती है और राज्य लोक सेवा आयोग तथा सदस्यों की नियुक्ति राज्यपाल द्वारा की जाती है पर प्रत्येक लोक सेवा आयोग के सदस्यों में से यथासंभव निकटतम आधे ऐसे व्यक्ति होंगे जो अपनी नियुक्ति की तारीख पर भारत सरकार या किसी राज्य सरकार के अधीन कम से कम 10 वर्ष पद धारण कर चुके हैं।

    लोक सेवा आयोग का सदस्य 6 वर्ष की अवधि तक यदि वह संघ आयोग का सदस्य तो 65 वर्ष की आयु तक यदि व राज्य के लोक सेवा आयोग का संयुक्त लोक सेवा आयोग का सदस्य है तो 62 वर्ष की आयु प्राप्त होने तक इनमें से जो भी पहले हो अपना पद धारण करेगा।

    इसका अर्थ है कि यदि वह सेवानिवृत्ति की आयु को प्राप्त कर चुका है तो 6 वर्ष की अवधि के पहले ही सेवानिवृत्त हो जाएगा। लोक सेवा आयोग का कोई सदस्य स्वयं अपने पद से इस्तीफा दे सकता है, उसे अपने पद से राष्ट्रपति के आदेश द्वारा कदाचार के आधार पर हटाया जा सकता है कि राष्ट्रपति द्वारा निर्देश दिए जाने पर उच्चतम न्यायालय जांच करने के बाद राष्ट्रपति को यह प्रतिवेदन दे कि उसे हटा दिया जाए।

    जयशंकर प्रसाद बनाम बिहार राज्य 1993 के एक मामले में अपीलार्थी ने प्रत्यार्थी शिव रतन ठाकुर के बिहार लोक सेवा आयोग के सदस्य के रूप में की गई नियुक्ति को कुछ आधारों पर चुनौती दी जिसमें पहला आधार यह था कि कुल विहित नियुक्तियों से अधिक है और दूसरा यह कि अंधा होने के कारण प्रत्याशी शारीरिक रूप से उस पद को धारण करने के लिए योग्य नहीं था।

    यह कथन किया गया कि कुल 11 सदस्यों में से 6 गैर सरकारी सदस्य ही हो सकते हैं और प्रत्येक सातवां व्यक्ति था उसकी नियुक्ति अवैध थी और उसे समाप्त किया जाना चाहिए। उच्चतम न्यायालय ने उक्त दोनों तर्कों को अस्वीकार कर दिया और निर्णय दिया कि प्रत्यार्थी की नियुक्ति वैध थी।

    न्यायालय ने कहा कि अनुच्छेद 316(1) में यथासंभव आधे सरकारी सदस्य होना चाहिए। यह केवल निर्देश आदेशात्मक नहीं है निर्देशात्मक है, अतः साथ में गैर सरकारी सदस्य की नियुक्ति वर्जित नहीं है। दूसरा अनुच्छेद 317 के अधीन मानसिक और शारीरिक स्थिरता का तात्पर्य ऐसी अयोग्यता से है जो सदस्य को अपने कार्यों के प्रभावी रूप से करने के लिए अयोग्य बनाती है।

    अंधापन ऐसी अयोग्यता नहीं है प्रत्यार्थी विश्वविद्यालय के प्रोफेसर हैं और वह पीएचडी डिलीट है और उसे पदम श्री पुरस्कार से सम्मानित किया गया है। उसका अंधापन उसके कार्य में बाधक नहीं है उसकी नियुक्ति यह जानते हुए की गई है कि वह सदस्य के रूप में अभ्यर्थियों की योग्यता का मूल्यांकन करने में सक्षम है।

    सभी सदस्य मिलकर आपस में निर्णय लेते ऐसी परिस्थितियों में न्यायालय ने निर्णय लिया कि की नियुक्ति प्रत्यार्थी की नियुक्ति संवैधानिक है और इस प्रकार मुकदमे बाजी की प्रवृत्ति को रोकने के उद्देश्य से अपीलार्थी और राज्य को प्रत्यार्थी के खर्चे के लिए ₹5000 देने का निर्देश भी दे दिया।

    लोक सेवा आयोग के कार्य

    संघ और राज्यों के लोक सेवा आयोग का यह कर्तव्य है कि वह अपनी सेवाओं में नियुक्तियों के लिए परीक्षाओं का संचालन करें। यदि या दो से अधिक राज्य संघ लोक सेवा आयोग से प्रार्थना करें कि वह किसी विशेष सेवा के लिए मिली जुली भर्ती की योजना बनाते हैं उन राज्यों की सहायता करें तो संघ लोक सेवा आयोग ऐसी सहायता देने के लिए बाध्य होगा।

    संघ और राज्य के लोक सेवा आयोग लोक तत्वों के लिए भर्ती की नीतियों में संबंध सभी विषयों पर आपस में परामर्श करते हैं। अभ्यर्थियों की नियुक्ति पदोन्नति बदली और उनकी उपयोगिता के बारे में अनुसरण किए जाने वाले सिद्धांत पर कार्य करते हैं।

    भारत सरकार या राज्य सरकार की सेवा करने वाले व्यक्तियों पर प्रभाव डालने वाले समस्त अनुशासनिक विषयों पर कार्य करते हैं। ऐसे किसी व्यक्ति पर किए गए खर्च दावे पर जो उसके कर्तव्य पालन में किए गए कार्यों के संबंध में उसके उनकी चलाई गई किसी कानूनी कार्यवाही में उसे अपने प्रतिरक्षा में खर्च करना पड़े।

    सरकार की हैसियत में ऐसी सेवा करते समय किसी व्यक्ति को हुई क्षति के बारे में मुआवजे की राशि के किसी दावे।

    हरियाणा राज्य 1987 के एक मामले में अभिनिर्धारित गया है कि लोक सेवा आयोग का कार्य लिखित परीक्षा लेना और साक्षात्कार लेना और योग्यता क्रम में उत्तीर्ण सभी अभ्यर्थियों की सूची प्रकाशित करना और उसे सरकार को प्रेषित करना है वह इसके पश्चात उस सूची में फेरबदल नहीं कर सकता और किसी अभ्यर्थी के नाम को वापस नहीं ले सकता है।

    सरकार चाहे तो सभी स्थानों को भरें या न भरे। हरियाणा में अधीनस्थ न्यायालयों की नियुक्ति के लिए बने नियम के अधीन लोक सेवा आयोग का स्थानों की संख्या से कोई संबंध नहीं है। पिटीशनर एक चुने हुए अभ्यर्थियों में था किंतु उसका नाम सरकार को इसलिए नहीं भेजा गया था कि उसकी स्थान कम है।

    न्यायालय ने आयोग को निर्देश दिया कि उसका नाम चुने हुए अभ्यर्थियों की सूची में शामिल करें और सरकार को प्रेषित करें।

    पंजाब राज्य बनाम मनजीत सिंह के मामले में मुख्य विचारणीय प्रश्न यह था कि क्या लोक सेवा आयोग अभ्यर्थियों की संख्या को घटाने के लिए स्क्रीनिंग टेस्ट कर सकता है और सेवा में कुशलता बनाए रखने के लिए लिखित परीक्षा ली जा सकती है जिसके लिए न्यूनतम अंक का मानक नियत किया जा सकता है।

    उच्चतम न्यायालय ने अभिनिर्धारित किया कि आयोग को नियुक्ति के लिए अभ्यर्थियों की संख्या घटाने व स्क्रीन टेस्ट लेने की शक्ति है किंतु न्यूनतम अर्हता अंक निर्धारित करने की शक्ति नहीं है। आयोग सेवा में कुशलता बनाए रखने के लिए कोई और नहीं अर्हता मानक नहीं निर्धारित सकता।

    अनुच्छेद 335 के मामले में आयोग से परामर्श लेना आवश्यक नहीं है, यह नीतिगत मामला है और राज्य सरकार इस पर निर्णय करेगी क्या आरक्षण के मामले में सेवा की कुशलता बनाए रखने के लिए क्या कदम उठाए जाएं। जहां नियमों में कोई अतिरिक्त अर्हता का उपबंध नहीं किया गया है आयोग अतिरिक्त अर्हता नहीं विहित कर सकता है।

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