भारत का संविधान (Constitution of India) भाग 17: राज्य की न्यायपालिका, उच्च न्यायालय और उच्च न्यायालय की रिट अधिकारिकता
Shadab Salim
22 Feb 2021 9:49 AM IST
भारत के संविधान से संबंधित पिछले आलेख में राज्य के विधान मंडल (विधानसभा) के संबंध में अध्ययन किया गया था इस आलेख में राज्य के महत्वपूर्ण अंग राज्य की न्यायपालिका के संबंध में उल्लेख किया जा रहा है।
राज्य की न्यायपालिका
भारत के संघ को उसे अपनी न्यायपालिका दी गई है जिसे भारत का उच्चतम न्यायालय कहा जाता है और भारत के राज्यों को अलग न्यायपालिका दी गई है जो अलग-अलग राज्यों के उच्च न्यायालय होते हैं।
भारत के संविधान के अनुच्छेद 214 से लेकर 237 तक राज्य न्यायपालिका के संबंध में उल्लेख किया गया है। राज्यों के उच्च न्यायालय और उसके अधीनस्थ न्यायालयों से मिलकर राज्य न्यायपालिका बनती है।
प्रत्येक राज्य में एक उच्च न्यायालय होता है पर संसद दो या दो से अधिक राज्यों और एक संघ राज्य क्षेत्र के लिए एक ही उच्च न्यायालय की स्थापना कर सकती है। इसका उल्लेख संविधान के अनुच्छेद 231 के अंतर्गत किया गया है।
प्रत्येक उच्च न्यायालय में एक मुख्य न्यायाधीश होता है तथा ऐसे अन्य न्यायाधीश होते हैं जिन्हें समय समय पर राष्ट्रपति नियुक्त करना आवश्यक समझता है। भारत के संविधान के अनुच्छेद 216 के अंतर्गत उच्च न्यायालय का गठन किया जाता है तथा अनुच्छेद 217 के अंतर्गत मुख्य न्यायाधीश की नियुक्ति की जाती है।
उच्च न्यायालय के न्यायाधीशों की नियुक्ति राष्ट्रपति करता है। मुख्य न्यायमूर्ति के नियुक्ति वह उच्चतम न्यायालय के मुख्य न्यायमूर्ति और राज्य के राज्यपाल के परामर्श से करता है। अन्य न्यायाधीशों की नियुक्ति दशा में वह उक्त व्यक्तियों के अतिरिक्त संबंधित उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायमूर्ति से भी परामर्श कर सकता है।
उच्च न्यायालय का एक न्यायाधीश अपना पद 62 वर्ष तक धारण कर सकता है चाहे तो अपने हस्ताक्षर से राष्ट्रपति को भेजे पत्र के माध्यम से पद का त्याग कर सकता है।
भारत संघ बनाम प्रतिभा बनर्जी के मामले में उच्चतम न्यायालय ने यह कहा है कि उच्च न्यायालय के न्यायाधीश और उसके अधिकारी सरकारी सेवक नहीं है। वह संवैधानिक पद धारण करते हैं जो कार्यपालिका के नियंत्रण से अलग है।
उच्च न्यायालय के अधिकारी और सेवक सरकार के बीच का संबंध स्वामियों सेवक का संबंध नहीं है, अतः वह सरकार के अधीन पद धारण नहीं करते हैं यदि ऐसा संबंध स्वीकार कर लिया जाएगा तो न्यायिक स्वतंत्रता और कार्यपालिका से न्यायपालिका के पृथक्करण के संपूर्ण अवधारणा ही समाप्त हो जाएगी।
प्रस्तुत मामले में प्रत्यार्थी प्रतिभा बनर्जी 1978 में कोलकाता उच्च न्यायालय के न्यायाधीश नियुक्त की गई थी और 1989 उस उस पद से रिटायर हुए। इसके पश्चात उन्हें केंद्रीय प्रशासन अभिकरण का उपसभापति नियुक्त किया गया था जिस पथ से वह 1992 में रिटायर हुई थी।
प्रत्यार्थी का अभिकथन था कि उसकी पेंशन उच्च न्यायालय न्यायाधीश सेवा की शर्तें अधिनियम 1954 की प्रथम अनुसूची के भाग 1 के अनुसार निर्धारित की जाना चाहिए थी किंतु केंद्र सरकार का तर्क यह था कि उसकी पेंशन उक्त अधिनियम के भाग 3 के अंतर्गत नियत किया जाना चाहिए। प्रशासनिक अधिकरण ने निर्णय दिया कि उनकी पेंशन भाग-1 के अधीन नियत की जानी चाहिए।
केंद्र सरकार ने इस निर्णय के विरुद्ध उच्चतम न्यायालय में अपील फाइल की थी। उच्चतम न्यायालय ने प्रशासनिक अभिकरण द्वारा दिए गए निर्णय की पुष्टि करते हुए यह कहा कि उच्च न्यायालय के न्यायधीश संविधानिक पद धारण करते हैं और वह सरकारी सेवक नहीं है। उच्च न्यायालय के अधिकारियों व सेवक भी सरकारी सेवक नहीं है।
उच्च न्यायालय ने यह कहा कि संविधान के अनुच्छेद 214, 217, 219, 221 से यह स्पष्ट हो जाता है उच्च न्यायालय सरकार का तीसरा अंग है और कार्यपालिका और विधान मंडल से पूरी तरह स्वतंत्र है। संविधान के अधीन एक न्यायाधीश एक विशेष पद धारण करता है। इस प्रकार संविधान की योजना से स्पष्ट है संविधान निर्माता यह सुनिश्चित करने के लिए उत्सुक थे की न्यायपालिका कार्यपालिका से स्वतंत्र हो।
शक्ति कहीं भी एक स्थान पर एकत्रित नहीं होना चाहिए इसलिए भारत के संविधान में कार्यपालिका न्यायपालिका और विधायिका में बंटवारा करने के प्रयास किए हैं। सरकार की कोई भी शक्ति किसी एक अंग में समा जाने से रोकने का प्रयास किया है।
संविधान के भाग 5 के अध्याय 6 से यह स्पष्ट है के संविधान निर्माता अधीनस्थ न्यायपालिका को भी कार्यपालिका से स्वतंत्र रखने के इच्छुक थे इसलिए अनुच्छेद 233 और 230 के अंतर्गत अधीनस्थ न्यायालय के न्यायिक अधिकारियों जिला जज तक की नियुक्ति की प्रक्रिया सिविल पदों के धारण करने वाले सेवकों से पूर्णता भिन्न है।
प्रारंभिक नियुक्ति राज्य के राज्यपाल द्वारा की जाती है किंतु उसके पश्चात उनकी तैनाती, अवकाश आदि के मामले उच्च न्यायालय के हाथ में है सरकार के हाथ में नहीं है। न्यायपालिका की स्वतंत्रता को सशक्त बनाने में उक्त निर्णय अत्यंत सार्थक है।
न्यायाधीशों की अर्हताएं
भारत के संविधान के अनुच्छेद 217 के अनुसार किसी उच्च न्यायालय में न्यायाधीश नियुक्त होने के लिए एक व्यक्ति में कुछ योग्यताएं होनी चाहिए जैसे वह भारत का नागरिक होना चाहिए, भारत राज्य क्षेत्र में कम से कम 10 वर्ष तक कोई न्यायिक पद धारण कर चुका होना चाहिए और उच्च न्यायालय में कम से कम 10 वर्ष तक अधिवक्ता रह चुका होना चाहिए।
श्रीकुमार पदम प्रसाद बनाम भारत संघ के मामले में न्यायालय ने असम उच्च न्यायालय में नियुक्त किए गए अनुमोदित श्री श्रीवास्तव की नियुक्ति को इस आधार पर अवैध घोषित कर दिया कि संविधान के अनुच्छेद 217 के अधीन न्यूनतम योग्यता नहीं रखते थे। इस अनुच्छेद के अनुसार उच्च न्यायालय में न्यायाधीश के रूप में नियुक्त होने के लिए भारत राज्य क्षेत्र में कम से कम 10 वर्ष तक किसी न्यायिक पद को धारण करना आवश्यक है।
अनुच्छेद 217 (2) के अधीन न्यायिक पद धारण करने वाले से तात्पर्य ऐसे व्यक्ति से है जो न्यायिक कार्य करता है। पक्षकारों के बीच मामलों का निपटारा करता है, वह न्यायिक क्षमता में वृद्धि करता है उसे कार्यपालिका से पृथक होना चाहिए।
उच्च न्यायालय के न्यायाधीश 62 वर्ष की आयु तक अपना पद धारण करते हैं उन्हें अपने पद से हटाया भी जा सकता है। इस संबंध में सारी प्रक्रिया उच्चतम न्यायालय के समान है अर्थात उसी तरह और उसी आधारों पर हटाए जा सकते हैं।
स्थिति और जिन कारणों से उच्चतम न्यायालय का एक न्यायधीश हटाया जा सकता है यदि उच्च न्यायालय के न्यायाधीशों की आयु के बारे में कोई प्रश्न होता है तो मुख्य न्यायाधीश के परामर्श से राष्ट्रपति द्वारा निश्चित किया जाएगा और उसका निर्णय अंतिम होगा। किसी न्यायाधीश का पद उसके उच्चतम न्यायालय के न्यायाधीश नियुक्त हो जाने पर या अन्य उच्च न्यायालय को स्थापित किए जाने पर खाली हो जाएगा।
कोई न्यायधीश राष्ट्रपति को संबोधित अपने हस्ताक्षर द्वारा अपने पद का त्याग कर सकता है। इसका उल्लेख भारत के संविधान के अनुच्छेद 217 में प्रयुक्त भाषा से स्पष्ट नहीं होता है कि न्यायाधीश द्वारा दिया गया त्यागपत्र कब प्रभावी होता है।
अनुच्छेद 220 उच्च न्यायालय के सेवानिवृत्त न्यायाधीशों को भारत के किसी न्यायालय किसी पर अधिकारी के समक्ष अभिवचन करने का प्रतिषेध करता है किंतु वह उच्चतम न्यायालय और उच्च न्यायालय में वकालत कर सकता है, यह न्यायपालिका की स्वतंत्रता के लिए आवश्यक है।
संविधान के अनुच्छेद 222 के अधीन राष्ट्रपति भारत के मुख्य न्यायमूर्ति के परामर्श से उच्च न्यायालय के किसी न्यायाधीश का एक उच्च न्यायालय से दूसरे उच्च न्यायालय में स्थानांतरण कर सकता है। इस स्थांतरण किए गए न्यायाधीश को वेतन के अतिरिक्त ऐसे प्रतीकात्मक भत्ते भी दिए जाएंगे जैसा कि संसद विधि द्वारा निर्धारित करें।
भारत बनाम संकलचंद के मामले में राष्ट्रपति की उस अधिसूचना को जिसके द्वारा गुजरात उच्च न्यायालय के एक न्यायाधीश को आंध्र प्रदेश उच्च न्यायालय को स्थापित कर दिया गया था इस आधार पर चुनौती दी गई थी कि स्थानांतरण आदेश संबंधित न्यायाधीश की सहमति के बिना और भारत के मुख्य न्यायाधीश के परामर्श के बिना किया गया था।
उच्चतम न्यायालय ने 3/2 के बहुमत से सरकार के तर्क को स्वीकार करते हुए कहा कि उच्च न्यायालय के न्यायाधीश को बिना उसकी सहमति के स्थान्तरित किया जा सकता है यदि न्यायधीश की सहमति को अनुच्छेद 222 में निहित माना जाता है तो अपनी सहमति न देकर स्थांतरण की शक्ति को विफल कर देता है।
भारत के मुख्य न्यायाधीश के मामले में न्यायालय ने यह निर्णय दिया कि परामर्श सहमति नहीं है परामर्श मानने के लिए राष्ट्रपति बाध्य नहीं है किंतु न्यायालय ने यह निर्णय लिया कि स्थानांतरण की शक्ति जनहित में प्रयोग करने के लिए प्रदान की गई है न की किसी न्यायाधीश को जो कार्यपालिका की इच्छा अनुसार निर्णय नहीं देता है उसे दंडित करने के लिए प्रदान की गई है। ऐसा न्यायपालिका की स्वतंत्रता को बनाए रखने के लिए अत्यंत आवश्यक है।
अनुच्छेद 222 के अधीन राष्ट्रपति अपनी शक्ति का प्रयोग भारत के मुख्य न्यायाधीश के परामर्श से करने के लिए बाध्य है, यह पूर्ववर्ती शब्द है जिसका पूरा होना आवश्यक है। यही परामर्श को प्रभावी होना आवश्यक है, इसका तात्पर्य यह है कि न्यायाधीशों से परामर्श करते समय राष्ट्रपति को सभी आवश्यक तत्वों को जो उसे उपलब्ध हो उसके समक्ष प्रस्तुत करना चाहेंगे इसके लिए आवश्यक तत्व नहीं दिए गए हैं तो वह उन्हें मांग सकता है।
मुख्य न्यायाधीश सभी तथ्यों पर विचार करके राष्ट्रपति को अपना परामर्श देगा। राष्ट्रपति द्वारा संपूर्ण तत्वों को देना तथा मुख्य न्यायधीश द्वारा अपनी राय के लिए आवश्यक तथ्यों को मांगना एक ही प्रक्रिया के अंग हैं और एक दूसरे के पूरक है।
एडवोकेट ऑन रिकॉर्ड बनाम भारत संघ के मामले में अपने ऐतिहासिक निर्णय में उच्चतम न्यायालय ने एमसी गुप्त बनाम भारत संघ के निर्णय को उलट दिया जिसमें निर्णय दिया गया था कि न्यायाधीशों की नियुक्तियां और स्थानांतरण के मामले में अंतिम निर्णय सरकार का है और यह कहा गया कि उच्च न्यायालय के न्यायाधीशों की नियुक्ति और उनके स्थांतरण के मामलों में भारत के मुख्य न्यायमूर्ति का परामर्श लेना अंतिम माना जाएगा न की सरकार का निर्णय अंतिम माना जाएगा।
एसपी गुप्ता के मामले में यह कहा गया कि न्यायाधीशों की नियुक्ति और स्थांतरण के संबंध में सरकार का निर्णय ही अंतिम है। न्यायालय की 9 सदस्यीय पीठ ने 7/2 के बहुमत से यह कहा कि उच्च न्यायालय के न्यायाधीशों की नियुक्ति और स्थांतरण के मामले में भारत के मुख्य न्यायाधीश का निर्णय अंतिम होगा जो वह अपने दो सहयोगियों के परामर्श करके करेगा।
सरकार को केवल अयोग्य व्यक्तियों को रोकने की शक्ति होगी। न्यायालय ने कहा कि किसी उच्च न्यायालय के न्यायाधीश की नियुक्ति भारत के मुख्य न्यायाधीश के परामर्श के बिना नहीं की जाएगी। किसी उच्च न्यायालय में नियुक्ति का प्रस्ताव उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश के द्वारा ही किया जाना चाहिए।
उच्चतम न्यायालय के बहुमत ने उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायमूर्ति और अन्य न्यायाधीशों के स्थानांतरण के मामले में यह कहा कि इस मामले में अंतिम निर्णय भारत के मुख्य न्यायमूर्ति का ही होगा। उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश और अन्य न्यायाधीशों के स्थानांतरण के संबंध में भारत के मुख्य न्यायमूर्ति के मत को प्राथमिकता दी जाएगी।
भारत के मुख्य न्यायमूर्ति की सिफारिश पर किया गया कोई स्थांतरण दंड स्वरूप नहीं माना जाएगा और न ही उसे किसी आधार पर न्यायालय में चुनौती दी जा सकेगी। स्थानांतरण के संबंध में संबंधित न्यायाधीश की सहमति की आवश्यकता नहीं है। सभी नियुक्तियां और स्थांतरण के निर्णय विहित मापदंडों के आधार पर ही किए जा सकते हैं। बहुमत ने यह निर्णय दिया की उच्च न्यायालय में न्यायाधीशों की संख्या भी पुनर्विलोकन का विषय है।
उच्च न्यायालय की अधिकारिता
राज्य की न्यायपालिका के अंतर्गत उच्च न्यायालय को भारत के उच्चतम न्यायालय की तरह ही अभिलेख न्यायालय की अधिकारिता प्राप्त है। वर्तमान उच्च न्यायालय की अधिकारिता और अधीनस्थ न्यायालयों पर निरीक्षण की अधिकारिता और रिट अधिकारिता प्राप्त है।
अनुच्छेद 225 के अनुसार संविधान के उपबंधों के अधीन समुचित विधान मंडल द्वारा निर्मित किसी विधि के अधीन रहते हुए किसी वर्तमान उच्च न्यायालय का क्षेत्राधिकार उस में प्रकाशित विधि उच्च न्यायालय में न्याय प्रशासन से संबंधित उसके न्यायाधीशों की शक्तियां के अंतर्गत न्यायालय के नियम बनाने तथा बैठकों के विनियम शक्ति भी शामिल है वैसी ही रहेगी जैसी इससे ठीक पहले थे।
राज्यों के उच्च न्यायालयों को अधीनस्थ न्यायालयों के निरीक्षण और नियंत्रण की शक्ति प्राप्त है। इसका उल्लेख भारत के संविधान के अनुच्छेद 227 के अंतर्गत किया गया है। अनुच्छेद 227 के अंतर्गत उच्च न्यायालय को उन समस्त क्षेत्रों में जिनके संबंध में वह अधिकारिता का प्रयोग करता है सभी न्यायालयों न्यायाधिकरण की देखभाल की शक्ति प्राप्त है।
इस प्रयोजन के लिए वह उच्च न्यायालय को अधीनस्थ न्यायालयों से विवरण मांग सकता है, उनकी कार्यप्रणाली और कार्रवाई के विनियमन हेतु नियम बनाने तथा उनके अधिकारियों द्वारा रखी जाने वाली पुस्तकों पर पत्रों को पेश करने की शक्ति प्राप्त है। उच्च न्यायालय के पदाधिकारियों अधिवक्ता और वकीलों को मिलने वाली फीस निश्चित कर सकता है।
उच्च न्यायालय की रेट अधिकारिता
भारत के संविधान के अनुच्छेद 226 के अधीन उच्च न्यायालय को दी गई रिट अधिकारिता राज्य न्यायपालिका को दी गई सर्वोच्च शक्ति है। अनुच्छेद 226 कहता है कि अनुच्छेद 32 में किसी बात के होते हुए भी प्रत्येक उच्च न्यायालय को समस्त क्षेत्रों में रिट के संबंध में वह अपनी अधिकारिता का प्रयोग करता है।
संविधान के भाग 3 में प्रदत्त मूल अधिकारों को प्रवर्तित कराने के लिए और किसी अन्य प्रयोजन के लिए संबंधित राज्यों में किसी व्यक्ति अधिकारी को समुचित मामलों में किसी सरकार को ऐसे निदेश या आदेश के अधिक जिनके अंतर्गत बंदी प्रत्यक्षीकरण, परमादेश, प्रतिषेध, अधिकार पृच्छा, और उत्प्रेरण रेट जारी करने की शक्ति होगी।
इस प्रकार उच्च न्यायालय की अधिकारिता केवल मूल अधिकारों की रक्षा के लिए ही नहीं सीमित है बल्कि अन्य अधिकारों की रक्षा के लिए भी उपलब्ध है। इस मामले में उच्च न्यायालय की अपेक्षा अधिक विस्तृत है किसी अन्य प्रयोजन के लिए अधिकार है। इसका अर्थ यह नहीं है कि उच्च न्यायालय अनुसार किसी भी प्रयोजन के लिए इसका प्रयोग कर सकते हैं। उच्च न्यायालय के अतिरिक्त अन्य विधियों के अधीन प्राप्त अधिकारों के लिए भी किया जा सकता है।
अनुच्छेद 226 में उल्लेखित रिट को विशेष अधिकार रिट कहा जाता है क्योंकि उसका विकास सम्राट की शक्ति शक्ति से हुआ है जिसके माध्यम से वह अपने अधिकारियों व अधीनस्थ न्यायालयों पर निरीक्षण और नियंत्रण रखता था।
रिट अंग्रेजी न्याय प्रणाली की महान देन है जो नागरिकों के अधिकारों और स्वतंत्रता के संरक्षक है। भारत में वर्तमान संविधान लागू होने से पहले कोलकाता मुंबई और मद्रास प्रेसिडेंसी के उच्च न्यायालयों को जारी करने की शक्ति प्राप्त होती किंतु इनकी संबंधित अधिकारिता केवल प्रेसिडेंट तक ही सीमित थी। अनुच्छेद 226 के अंतर्गत भारत के सभी राज्यों के उच्च न्यायालयों को रिट जारी करने की शक्ति प्रदान की गई है।
सामान्य नियम के अनुसार अनुच्छेद 226 में उल्लेखित उपचार के लिए वही व्यक्ति आवेदन कर सकता है जिसके विधिक अधिकारों को राज्य किसी व्यक्ति द्वारा अतिक्रमण किया जाता है किंतु अब इस परंपरागत दृष्टिकोण में काफी परिवर्तन हुआ है और अपने हाल के निर्णय में उच्चतम न्यायालय ने यह कहा है कि समाज का कोई भी व्यक्ति किसी ऐसे व्यक्ति या वर्ग के विधिक अधिकारों का अतिक्रमण के विरुद्ध उपचार के लिए आवेदन दे सकता है जो अपने निर्धनता या किसी कारण से न्यायालय में जाने में असमर्थ है, बस शर्त यह है कि उसमें उसका ही पर्याप्त हित हो। अखिल भारतीय रेलवे शोषित कर्मचारी संघ बनाम भारत संघ के मामले में निर्णय लिया गया है।
हिमाचल प्रदेश राज्य बनाम एक छात्र के अभिभावक के मामले में यह कहा गया है कि लोकहित वाद के अधीन उच्च न्यायालय को यह अधिकारिकता नहीं है कि वह राज्य सरकार को अपने निर्णय को लागू करने के लिए कोई विशेष विधि बनाने का निर्देश दें।
उन्हें राज्य सरकार को सार्वजनिक एवं विधिक कर्तव्यों का पालन करने के लिए बाध्य कर सकता है किंतु विधानमंडल के कार्य स्वयं नहीं धारण कर सकता। इस मामले में एक छात्र के अभिभावक में उच्च न्यायालय फाइल की और यह निवेदन किया कि वह मेडिकल कॉलेज में रैगिंग रोकने के लिए सरकार को विधि बनाने का निर्देश दे।
न्यायालय ने कहा रिट का प्रयोग कार्यपालिका और विधानमंडल के कार्य क्षेत्र में हस्तक्षेप करने के लिए नहीं किया जाना चाहिए।
बंदी प्रत्यक्षीकरण
बंदी प्रत्यक्षीकरण रिट लेटिन भाषा का शब्द है जिसका अर्थ है निरुद्ध व्यक्ति को न्यायालय के समक्ष प्रस्तुत करो यह आदेश के रूप में उन व्यक्तियों के विरुद्ध जारी की जाती है जो किसी को बंदी बनाए हुए हैं। इस रिट द्वारा उन्हें यह आदेश दिया जाता है कि वह निरुद्ध व्यक्ति को न्यायालय के समक्ष प्रस्तुत करें वह बताएं कि उन्होंने किस अधिकार से उसे निरूद्ध किया हैम संक्षेप में व्यक्ति को न्यायालय के समक्ष प्रस्तुत करने का आदेश है यदि दिखाए गए कारणों से यह पता चलता है कि निरोध का कारण कोई विधि घोषित नहीं है तो न्यायालय व्यक्ति को छोड़ देता है। इस प्रकार इस रिट का मुख्य उद्देश अवैध रूप से निरुद्ध किए गए व्यक्ति को शीघ्र न्याय प्रदान करना है।
सामान्य नियम यह है कि बंदी प्रत्यक्षीकरण रिट के लिए आवेदन वही व्यक्ति प्रस्तुत कर सकता है जिसके विधिक अधिकार का अतिक्रमण हुआ है। अतिक्रमण की धमकी दी गई है किंतु कुछ परिस्थितियों में रिट के लिए निर्धन व्यक्ति की ओर से कोई अन्य व्यक्ति भी आवेदन दे सकता है। ऐसा व्यक्ति निरूद्ध व्यक्ति का कोई रिश्तेदारी भी हो सकता है। सुनील बत्रा के मामले में जेल के कैदी के लिखे पत्र को रिट मान लिया गया था।
परमादेश
'हम आदेश देते हैं' इस प्रकार परमादेश उच्चतम न्यायालय का एक आदेश है जिसके द्वारा किसी व्यक्ति के लोक प्राधिकारी जिसके अंतर्गत सरकार और निगम भी शामिल है को उनके विधिक कर्तव्य किसी संवैधानिक के अधीन आरोपित कर्तव्य को करने का आदेश दिया जाता है या उन कर्तव्यों को अवैध रूप से न करने का आदेश दिया जाता है।
उदाहरण के लिए यदि प्रार्थी ने किसी अधिनियम के अधीन लाइसेंस प्राप्त करने के लिए विहित सभी शर्तों को पूरा कर दिया है तो लाइसेंस देने वाले अधिकारी का यह कर्तव्य हो जाता है कि वह प्रार्थी को लाइसेंस प्रदान करें। विधि के अंतर्गत सभी शर्तों को पूरा करने के पश्चात भी संबंधित अधिकारी लाइसेंस देने से इनकार करता है तो पीड़ित व्यक्ति परमादेश लेख प्राप्त करके उपचार प्राप्त कर सकता है।
प्रतिषेध
प्रतिषेध रिट मुख्य रूप से अधीनस्थ न्यायालय अधिकारियों को अपनी अधिकारिता से बाहर जाने या प्राकृतिक न्याय के सिद्धांतों के विरुद्ध कार्य करने से रोकने नहीं जारी की जाती है। यह एक न्यायिक रिट है जो किसी वरिष्ठ न्यायालय द्वारा किसी अधीनस्थ न्यायालय को जारी की जाती है। जिसके द्वारा उन्हें इस अधिकारिता को बलपूर्वक ग्रहण करने से रोका जाता है जो कानून द्वारा उनमें निहित नहीं है। दूसरे शब्दों में उन्हें अपनी अधिकारिता की सीमाओं में कार्य करने के लिए जारी किया जाता है।
संक्षेप में प्रतिषेध रिट का मुख्य उद्देश अधीनस्थ न्यायालयों के द्वारा की गई न्यायिक त्रुटियों को ठीक करना है। इस प्रकार यह दोनों अवस्थाओं में जारी की जाती है जहां अधिकारिता से बाहर कार्य किया गया जहां अधिकारिता में नहीं।
प्रतिषेध उत्प्रेषण में अंतर बहूत कुछ मिलता जुलता है। यह दोनों रिट मुख्यता अधीनस्थ न्यायालयों को अपनी अधिकारिता से बाहर न जाने से रोकने के लिए जारी किए जाते हैं। उच्चतम न्यायालय ने अपने एक मामले में दोनों रिट के अंतर को स्पष्ट करते हुए कहा है कि जब कोई अधीनस्थ न्यायालय ऐसे मामलों की सुनवाई करता है जिस पर उसे अधिकारिता नहीं प्राप्त है तो वरिष्ठ न्यायालय प्रतिषेध रिट जारी करके अधीनस्थ न्यायालय को आगे बढ़ने से रोक सकता है।
उत्प्रेषण
उत्प्रेषण रिट द्वारा अधीनस्थ न्यायालय या न्यायिक या अर्ध न्यायिक कार्य करने वाले निकायों में चलने वाले मुकदमों में वरिष्ठ न्यायालयों के पास भेजने का आदेश दिया जाता है जिससे उनके निर्णय की जांच की जा सके। यदि निर्णय दोषपूर्ण हो तो रद्द किया जा सके।
उच्च न्यायालय में मुंबई राज्य बनाम खुशालदास के मामले में इसके बारे में कहा है कि जहां कहीं व्यक्तियों का कोई निकाय नागरिकों के अधिकारों को प्रभावित करने वाले प्रश्नों को निपटारा करने का विधिक अधिकार रखता है और न्याय के लिए कर्तव्य है अपने अधिकार को हटाने के लिए यह कार्यपालिका या प्रशासनिक अधिकारियों के कार्यों को हटाने के लिए जारी नहीं किया जाता है इस शब्द का अर्थ आवश्यक रूप से किसी न्यायाधीश या न्यायाधिकरण के कार्य से अधिक मामले में निर्णय देने के लिए बैठते हैं।
एक ऐसे न्यायिक कार्य से प्रतीत होता है जो किसी सक्षम प्राधिकारी द्वारा परिस्थितियों पर विचार करके किया गया है और दूसरों के अधिकारों को प्रभावित करता है, उन पर दायित्व आरोपित करता है।
अधिकार पृच्छा
भारत के संविधान के अनुच्छेद 226 के अधीन राज्यों की न्यायपालिका उच्च न्यायालय द्वारा अधिकार पृच्छा जारी की जाती है। इसके अनुसार 'आपका अधिकार क्या है? यह प्रश्न है। यह किसी ऐसे व्यक्ति के लिए जारी की जाती है जो किसी सार्वजनिक पद को अवैध रूप से धारण किए हुए है।
इस रिट द्वारा उससे पूछा जाता है कि वह किस प्रकार से वह पद धारण किए हुए हैं। इसका मुख्य उद्देश्य किसी व्यक्ति को उसके धारण करने से रोकना है जिसे धारण करने का कोई अधिकार नहीं प्राप्त है। यदि जांच करने पर यह पता चलता है कि उसको धारण करने का कोई अधिकार नहीं है तो न्यायालय अधिकारी उस व्यक्ति को उस पद से हटा देगा और उसके पद को खाली घोषित कर देगा।
अधिकार पृच्छा प्राप्त करने के लिए प्रश्न स्पष्ट पद एक सार्वजनिक पद होना चाहिए। व्यक्ति को विधिक रूप से उस पद को धारण करने का अधिकार नहीं होना चाहिए। अधिकार पृच्छा किसी निजी प्रकृति के पद धारण करने वाले व्यक्ति के विरुद्ध जारी किया जाता है।
किसी सार्वजनिक पद पर नियुक्त की वैधता को चुनौती देने के लिए कोई निजी व्यक्ति भी अधिकार पृच्छा की मांग कर सकता है, भले ही व्यक्तिगत रूप से वह पीड़ित न हो या उसके किसी अधिकार का अतिक्रमण न किया गया हो। इस रिट की मांग करने वाले व्यक्ति को यह दिखाना आवश्यक है कि उसे इस पद के धारण करने का कोई विधिक अधिकार प्राप्त नहीं है।