भारत का संविधान (Constitution of India) भाग 16: राज्य के विधानमंडल (विधानसभा)

Shadab Salim

21 Feb 2021 12:30 PM GMT

  • भारत का संविधान (Constitution of India) भाग 16: राज्य के विधानमंडल (विधानसभा)

    भारत के संविधान से संबंधित पिछले आलेख में राज्य की कार्यपालिका के संबंध में राज्यपाल के संवैधानिक पद का उल्लेख किया गया था, इस आलेख में भारत के संविधान के अंतर्गत राज्य के विधानमंडल (विधानसभा) से संबंधित उपबंधों का उल्लेख किया जा रहा है।

    राज्य विधान मंडल

    भारत के संविधान में संघ और राज्यों के बीच सामंजस के साथ बंटवारा किया है। भारत का संविधान एक संघीय संविधान है जिसके अंतर्गत भारत के राज्यों के लिए अलग व्यवस्था है और भारत के संघ के लिए अलग व्यवस्था है।

    भारत राज्यों का एक संघ है जिस प्रकार भारत के संघ को विधि निर्माण के संबंध में अधिकार भारत के संविधान द्वारा दिए गए हैं इसी प्रकार भारत के राज्य को भी अपनी विधायी शक्ति दी गई है जिसके अंतर्गत राज्य के विधान मंडल राज्यों के लिए विधि निर्माण करते हैं। संविधान प्रत्येक राज्य के लिए एक विधानमंडल का उपबंध करता है। प्रत्येक राज्य का विधान मंडल राज्यपाल तथा एक या दोनों सदनों को मिलाकर बनता है।

    भारत के कुछ राज्यों में केवल एक ही सदन होता है और कुछ में दो सदन हैं जैसे बिहार महाराष्ट्र कर्नाटक उत्तर प्रदेश में दो सदनों वाला विधानमंडल है बाकी सभी राज्यों में एक सदन है जिसे विधानसभा कहा जाता है। विधानसभा और विधान मंडल में कोई विशेष अंतर नहीं है विधानमंडल एक बड़ा शब्द है जिसके अंतर्गत विधानसभा भी आ जाती है।

    भारत के संविधान के अनुच्छेद 168 से लेकर 212 तक राज्यों के विधान मंडल के संबंध में उपबंध किए गए हैं। अनुच्छेद 169 के अधीन संसद विधि द्वारा किसी राज्य में विधान परिषद का सृजन कर सकती है यदि उस राज्य की विधानसभा इस आशय का संकल्प कुल सदस्यों के बहुमत तथा उपस्थित और मत देने वाले सदस्यों के दो तिहाई बहुमत से पारित कर देती है।

    विधानसभा जनता के प्रतिनिधियों का सदन है जिसकी न्यूनतम सदस्य संख्या 60 अधिकतम सदस्य संख्या 500 है अर्थात किसी भी राज्य में उसकी विधानसभा के सदस्यों की संख्या न्यूनतम 60 रहेगी अधिकतम 500 है। राज्य में चुनाव क्षेत्र के वयस्क मताधिकार के आधार पर सीधे मतदान द्वारा विधानसभा के सदस्यों का चुनाव होता है।

    प्रत्येक चुनाव क्षेत्र की जनसंख्या के आधार पर ही सदनों में सदस्यों का प्रतिनिधित्व होता है। उस जनसंख्या का निर्धारण साधारण रूप से जनगणना के आधार पर ही किया जाता है। प्रत्येक जनगणना की समाप्ति पर राज्य में विधानसभा के सदस्य संख्या के आधार पर निर्वाचन क्षेत्रों का पुनः समायोजन किया जाएगा।

    जनसंख्या के आधार पर राज्य में अनुसूचित जनजातियों तथा जनजातियों के लिए राज्य की विधानसभा में उनकी सदस्य संख्या निर्धारित की जाएगी। राज्यपाल की राय में एंग्लो इंडियन को पर्याप्त नहीं मिला तो वह विधानसभा में उस समुदाय के एक सदस्य को नामजद कर सकता है।

    निर्वाचन क्षेत्रों का विभाजन किया जाएगा कि प्रत्येक निर्वाचन क्षेत्र की जनसंख्या का अनुपात समस्त राज्य में एक ही हो। इस प्रयोजन के लिए जनसंख्या 1971 के आधार पर मानी जायेगी।

    राज्य में विधानसभा की कालावधि 5 वर्षों की होती है किंतु यदि राज्यपाल चाहे तो निश्चित समय से पूर्व ही विधानसभा भंग कर सकता है। राज्य विधानसभा का उपयुक्त कार्यकाल जब आपात की उद्घोषणा प्रवचन में है संसद द्वारा विधि बनाकर 1 वर्ष के लिए बढ़ाया जा सकता है किंतु आपातकालीन स्थिति के समाप्त होने के उपरांत 6 महीने की कालावधि से अधिक नहीं बढ़ाया जा सकता।

    भारत के संविधान के अनुच्छेद 171 के अनुसार विधान परिषद के सदस्यों की समस्त संख्या उस राज्य के विधानसभा के कुल सदस्यों की संख्या के 1 तिहाई से अधिक नहीं होगी। किसी भी दशा में विधान परिषद के सदस्यों की संख्या 40 से कम नहीं होगी।

    संसद विधान परिषद के गठन के संबंध में कानून बना सकती है किंतु जब तक संसद ऐसा न करें विधान परिषद का गठन किसी राज्य की विधान परिषद की कुल संख्या के एक तिहाई सदस्य नगर पालिका परिषद तथा स्थानीय निकायों के सदस्यों के निर्वाचन मंडल द्वारा चुने जाएंगे, इसके अलावा संसद द्वारा निश्चित करें।

    केंद्र में राज्यसभा की तरह यह राज्य की विधान परिषद की स्थाई सभा है इसे बंद नहीं किया जा सकता है किंतु इसके एक तिहाई सदस्य प्रतिवर्ष 2 वर्ष में रिटायर हो जातें हैं।

    राज्य विधान मंडल के सदस्य चुने जाने के लिए किसी व्यक्ति में कुछ योग्यताएं होना आवश्यक है। जैसे उसे भारत का नागरिक होना चाहिए, विधानसभा की सदस्यता के लिए कम से कम 25 वर्ष की आयु तथा विधान परिषद की सदस्यता के लिए 30 वर्ष की आयु पूरी हो जाना चाहिए, और वह सभी अर्हताएं रखता हो जिन्हें समय-समय पर संसद विधि द्वारा नियत करें।

    अनुच्छेद 191 के अनुसार सदस्यता के लिए कुछ लोग निर्योग्य भी हो सकते हैं जैसे यदि वह व्यक्ति केंद्र अथवा राज्य सरकार के अधीन कोई लाभ का पद ग्रहण करता हो, यदि वह विकृत चित्त हो, यदि वह अनुमोदित दिवालिया है, यदि वह भारत का नागरिक नहीं है या उसने किसी अन्य देश की नागरिकता स्वीकार कर ली है, यदि वह संसद के किसी कानून के द्वारा निर्योग्य घोषित कर दिया गया।

    अनुच्छेद 191(1) खंड 2 यह कहता है कि कोई ऐसा व्यक्ति किसी राज्य की विधान सभा विधान परिषद का सदस्य होने के लिए निर्योग्य होगा जो संविधान की दसवीं अनुसूची के अधीन निर्योग्य हो जाता है। दसवीं अनुसूची के अनुसार विधानसभा का सदस्य जो किसी राजनीतिक दल का सदस्य है उसकी सदस्यता कुछ परिस्थितियों में समाप्त हो जाती है।

    जैसे सदस्य ने ऐसे राजनीतिक दल की अपनी सदस्यता अपनी इच्छा से छोड़ दी है या किसी राजनीतिक दल की पूर्व आज्ञा के बिना सदन में मतदान करता है या मतदान करने से दूर रहता है और मतदान करने या दूर रहने को राजनीतिक दल ने 15 दिनों के भीतर माफ नहीं किया है या फिर सदन का कोई निर्वाचित सदस्य जो निर्वाचन के पश्चात किसी अन्य राजनीतिक दल का सदस्य हो जाता है या फिर सदन का कोई नाम निर्देशित सदस्य सदस्यता ग्रहण के पश्चात 6 महीने की समाप्ति पर किसी राजनीतिक दल में शामिल हो जाता है।

    संविधान के यह संशोधन दल परिवर्तन की राजनीति रोकने के लिए किए गए हैं। दल परिवर्तन के आधार पर निर्योग्यता कुछ परिस्थितियों में लागू नहीं होती है जैसे यदि उसके मूल राजनीतिक दल या किसी अन्य राजनीतिक दल में विलय हो जाता है और वह उसका सदस्य बन जाता है या विधानसभा में दल के कम से कम दो तिहाई सदस्य किसी अन्य दल से मिलने के लिए सहमत हो गए हो या दल परिवर्तन के यथास्थिति सभापति अध्यक्ष निर्णय करेगा और उसका विनिश्चय अंतिम होगा।

    विधान परिषद अनुच्छेद 169 के अंतर्गत संसद को यह अधिकार प्राप्त है कि यदि वह चाहे तो जिस प्रदेश में विधान परिषद पहले से है उसे समाप्त कर दें तथा इसके विपरीत जिन राज्यों में एक सदन वाला विधानमंडल है वहां विधान परिषद को बना दे। किसी राज्य में केवल 1 विधानसभा होती है वहां पर संसद किसी विधान परिषद का निर्माण भी कर सकती है।

    यह शक्ति संसद को प्राप्त है जहां पर विधान परिषद का प्रावधान नहीं है अर्थात जहां पर सदन वाला विधानमंडल है यदि वहां की विधानसभा सदन के बहुमत से तथा उपस्थित सदस्यों के कम से कम दो तिहाई बहुमत से इस आशय पर प्रस्ताव प्राप्त करें।

    किसी भी सदन द्वारा ऐसा प्रस्ताव पास किया जाना संविधान में संशोधन नहीं माना जाएगा इसको साधारण विधि के समान ही पास किया जाता है। कई राज्यों ने इस सदन को समाप्त कर दिया है अभी यह सदन बिहार तमिलनाडु महाराष्ट्र कर्नाटक और उत्तर प्रदेश में रह गया है, अधिकांश राज्यों में केवल एक ही सदन है जिसे विधानसभा कहा जाता है।

    विधानसभा के सत्र

    भारत के संविधान में जिस तरह भारत की संसद के लिए सत्र की व्यवस्था की है इसी तरह राज्यों के विधान मंडल के लिए सत्र की व्यवस्था की है। अनुच्छेद 174 के अनुसार राज्य विधान मंडल के प्रत्येक सदन को ऐसे समय तथा ऐसे स्थान पर जैसा वह उचित समझे अधिवेशन के लिए आहूत करेगा किंतु शर्त यह है कि गत सत्र के अंतिम दिन तथा अगले सत्र की प्रथम बैठक के लिए नियत तिथि के बीच 6 माह से अधिक का अंतर नहीं होना चाहिए।

    इसका अर्थ यह है कि असेंबली कम से कम साल में दो बैठकें अवश्य करें तथा इसके मध्य का अंतर 6 महीने से अधिक का न हो। राज्य समय-समय पर किसी भी सदन का सत्रावसान कर सकता है लेकिन जहां पर उस सदन का सत्र वासन कर दिया गया है तो नए सत्र को 6 महीने के भीतर ही अवश्य आहूत किया जाएगा।

    राज्यपाल के लिए जरूरी नहीं है कि वह राज्य के विधानमंडल के दोनों सदनों को साथ ही आहूत करें अथवा साथ ही सत्रवासन की घोषणा करें। राज्यपाल राज्य की विधानसभा को भंग कर सकता है। विधानसभा के भंग और उसके सत्रवासन के संबंध में राज्यपाल कुछ सीमा तक अपने विवेक के अनुसार कार्य करता है।

    उसका विवेक वाद का प्रश्न नहीं है इसलिए उसे इस आधार पर चुनौती नहीं दी जा सकती कि उसका प्रयोग दुर्भावना से किया गया।

    प्रेसीडेंशियल रेफरेंस 2002 के मामले में राष्ट्रपति ने उच्चतम न्यायालय को यह परामर्श देने के लिए सौंपा गया कि अनुच्छेद 174 के अंतर्गत राज्य विधानसभा के वितरण के पश्चात 6 महीने के अंदर चुनाव कराने के लिए निर्वाचन आयोग बाध्य है।

    इस मामले में तथ्य इस तरह थे कि 27 फरवरी 2002 को गोधरा कांड के कारण राज्य में सांप्रदायिक दंगा भड़क उठा, राज्य सरकार ने इस पर शीघ्र निर्णय लिया इसके पश्चात मुख्यमंत्री ने इसका राजनीतिक लाभ लेने के उद्देश्य से विधानसभा को समय के पहले बंद कर दिया और राज्यपाल से चुनाव कराने की सिफारिश की।

    चुनाव आयोग ने निर्णय लिया कि राज्य में चुनाव कराने के लिए परिस्थिति अनुकूल नहीं है चुनाव नहीं कराए जा सकते हैं। राज्य सरकार के आदेश के अनुसार 6 महीने के भीतर चुनाव कराने के लिए चुनाव आयोग बाध्य है अन्यथा विधान सभा की प्रथम बैठक के बीच 6 महीने की अपेक्षा का उल्लंघन होगा।

    इस मामले में उच्चतम न्यायालय के पांच न्यायाधीशों की संविधान पीठ ने गुजरात राज्य के इस तर्क को मानने से इंकार कर दिया कि अनुच्छेद 174 के तहत एक बैठक दूसरे विधानसभा की बैठक के बीच 6 महीने से अधिक समय बीतने की अपेक्षा की गई है।

    यह निर्धारित किया गया है कि अनुच्छेद 174 विघटित विधानसभा के मामले में लागू नहीं होता है जिसका जीवन समाप्त हो चुका है बल्कि एक जीवित विधानसभा चल रही है उस पर लागू होता है। न्यायालय ने कहा की अनुच्छेद 174 चुनाव के लिए कोई अधिकतम सीमा का बंद नहीं करता है।

    चुनाव कराने की शक्ति निर्वाचन आयोग में ही निहित है। लोक प्रतिनिधित्व अधिनियम की धारा 14 और 15 से यह स्पष्ट है जिसमें यह उपबंध किया गया है कि राष्ट्रपति और राज्यपाल निर्वाचन आयोग की सिफारिश पर चुनाव करने की तारीख तय करेंगे।

    विधानसभा अध्यक्ष

    विधानसभा का मुख्य पदाधिकारी अध्यक्ष होता है। उसका चुनाव विधानसभा के सदस्यों द्वारा अपने सदस्यों में से किया जाता है। सब अपने सदस्यों में से एक ही उपाध्यक्ष का चुनाव भी करतें है। उपाध्यक्ष अध्यक्ष की अनुपस्थिति अथवा उसके पद खाली होने के समय विधानसभा की अध्यक्षता करता है। जब अध्यक्ष व उपाध्यक्ष दोनों का स्थान खाली हो जाता है तो विधानसभा का सदस्य विधानसभा द्वारा इस प्रयोजन के लिए नियुक्त किया जाता है और अध्यक्ष पद के कर्तव्यों का पालन करता है।

    अध्यक्ष उपाध्यक्ष उस समय अपना पद खाली कर देते हैं जब उनकी विधानसभा की सदस्यता समाप्त हो जाती है। वह अपने पद से त्यागपत्र दे सकते हैं। अध्यक्ष तथा उपाध्यक्ष विधानसभा के तत्कालीन समस्त सदस्यों के बहुमत से पारित संकल्प द्वारा अपने पद से हटाए जा सकते हैं किंतु ऐसा कोई संकल्प तब तक नहीं प्रस्तावित किया जाता है जब तक कि उसे प्रस्तावित करने की 14 दिन की पूर्व सूचना दे दी गई हो।

    विधानसभा भंग होने के साथ-साथ अपना पद रिक्त नहीं करता अपितु नई विधानसभा द्वारा नया अध्यक्ष चुन लिए जाने तक अपने पद पर आसीन रहता है।

    प्रत्येक राज्य में विधान परिषद अपने सदस्यों में से एक सभापति और उपसभापति का चुनाव करती है। राज्यसभा में उपराष्ट्रपति की तरह राज्यपाल बने राज्य के विधान परिषद का अध्यक्ष नहीं होता है। विधानसभा के अध्यक्ष और उपाध्यक्ष की तरह सभापति और उपसभापति भी अपने पद से त्यागपत्र दे सकते हैं।

    उस समय उनका पद स्वयं में रिक्त हो जाता है जब विधान परिषद के सदस्य नहीं दे जाते हैं उनको पद से हटाया जा सकता है उनके कार्य और शक्तियां सभा के सभापति के समान ही होती है।

    विधानसभा की विधान प्रक्रिया

    भारत के संविधान के अनुच्छेद 107 संसद के अंतर्गत विधि बनाने की प्रक्रिया है, उसी प्रकार राज्यों में भी विधि बनाने की प्रक्रिया होती है। धन विधेयक और वित्त विधेयक के अतिरिक्त कोई भी साधारण दोनों में से किसी भी सदन में प्रस्तुत किया जा सकता है और केंद्र की ही तरह दोनों सदनों द्वारा पारित किया जाना आवश्यक है।

    यदि कोई विधानसभा द्वारा पारित करके भेज दिया जाने के बाद उसके द्वारा अस्वीकृत कर दिया जाता है या विधान परिषद को विचार भेजे गए विधेयक पर बिना विचार किए 3 महीने से अधिक समय तक अपने पास रखें रखती है या विधेयक ऐसे संशोधनों सहित पास करके भेजा जाता है जिस पर विधानसभा सहमत नहीं होती है और विधानसभा उसी विधेयक को दोबारा बिना संशोधनों के रूप में ही पारित कर देती है या संसद सत्र में पारित कर देती है।

    इस प्रकार विधान परिषद को भेजा जाएगा विधानसभा द्वारा पारित हो जाने के बाद विधेयक विधान परिषद को भेजे जाने के बाद विधान परिषद द्वारा अस्वीकार कर दिया जाता है या विधान परिषद 1 माह से अधिक समय तक उसे बिना पारित किए रखे रखती है या विधान परिषद द्वारा ऐसे संशोधन सहित पारित होता है जिन्हें विधानसभा स्वीकार नहीं करती है तो विधेयक दोनों सदनों द्वारा उसी रूप में पारित समझा जाएगा जिसमें वह विधानसभा द्वारा दूसरी बार पारित किया गया।

    अनुच्छेद 198 में दी गई परिभाषा केंद्रीय विधि निर्माण से संबंधित अनुच्छेद 110 में दी गई परिभाषा के समान ही है। केंद्रीय विधान मंडल की तरह ही धन विधेयक राज्य की विधानसभा में पेश किए जा सकते हैं।

    धन विधेयक विधान परिषद में पेश नहीं किए जा सकते हैं विधानसभा द्वारा पारित किए जाने के पश्चात धन विधेयक को विधान परिषद की सिफारिश के लिए भेज दिया जाता है। विधेयक प्राप्त करने की तिथि से 14 दिनों के भीतर ही विधान परिषद को अपनी सिफारिश के तहत इन्हें अवश्य लौटा देना चाहिए।

    यह विधानसभा पर निर्भर करता है कि वह विधान परिषद द्वारा की गई सिफारिश को आंशिक या पूर्णता स्वीकार कर ले या उसे स्वीकार न करें।

    जब एक विधायक दोनों सदनों द्वारा पास किया जा चुका है तो वो राज्यपाल के पास उसकी अनुमति के लिए भेजा जाता है। राज्यपाल का निम्न प्रकार की घोषणाएं कर सकता है- वह विधेयक को स्वीकृति दे सकता है या अपनी स्वीकृति रोक सकता है।

    विधेयक को राष्ट्रपति के विचार सुरक्षित कर ले याएक परिस्थिति में अवश्य ही जब वो विधेयक राज्य को उच्च न्यायालय के अधिकार और शक्तियों को प्रभावित करता है तो उस विधेयक को वह आरक्षित करता ही है।

    पुनर्विचार के लिए विधेयक को वापस कर दे या अंतिम परिस्थिति में जब राज्यपाल पुनर्विचार किसी विधेयक को सदन को वापस करता है तो सदन उस पर विचार करेगा ही किंतु यह सदन पर निर्भर करता है कि राज्यपाल द्वारा प्रस्तावित संशोधनों को वह माने या न माने किंतु दोबारा यदि वह विधायक अपने पूर्व रूप में संशोधित रूप में सदनों द्वारा पारित हो जाता है तो राज्यपाल के हस्ताक्षर करता है तो उसे वापस नहीं कर सकता।

    इससे स्पष्ट है कि राज्यपाल को कोई विशेष अधिकार नहीं है या तो वह विधेयक पर अपनी स्वीकृति दे या फिर उसे राष्ट्रपति के विचार आरक्षित कर ले।

    जहां पर विधेयक राज्यपाल द्वारा राष्ट्रपति के विचार आरक्षित कर लिया गया है वहां पर राष्ट्रपति के पास उसके संबंध में तीन रास्ते है

    जैसे- वह विधेयक पर स्वीकृति दे दे या अपनी स्वीकृति रोक ले, यदि उक्त विधेयक धन विधेयक नहीं है तो वह उसे पुनर्विचार हेतु राज्य के विधान मंडल या सदनों को भेज सकता है तथा कतिपय संशोधन समझा सकता है।

    राज्य के विधान मंडल को उस विधेयक के प्राप्त हो जाने के पश्चात 6 महीने की अवधि के अंदर अवश्य विचार कर लेना चाहिए, यदि उसी सदनों को पुनः उसी रूप में संशोधन सहित वापस कर दिया तो वो राष्ट्रपति पर निर्भर है कि वह चाहे तो उस पर आप अपनी अनुमति दें।

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