भारत का संविधान (Constitution of India) भाग 15: राज्य की कार्यपालिका और राज्यपाल
Shadab Salim
21 Feb 2021 12:00 PM IST
भारत के संविधान से संबंधित पिछले आलेख में संघ की न्यायपालिका के अंतर्गत भारत के उच्चतम न्यायालय के संबंध में कुछ विशेष जानकारियों को लेकर चर्चा की गई थी, इस आलेख में राज्य की कार्यपालिका और राज्यपाल के संबंध में उल्लेख किया जा रहा है।
राज्य की कार्यपालिका
जैसा कि पूर्व के आलेखों में उल्लेख किया गया है भारत का संविधान एक संसदीय संविधान है जिसके अंतर्गत भारत को राज्यों का एक संघ घोषित किया गया है। संघ के पास अपनी शक्तियां अलग है और भारत के पृथक पृथक प्रांतों के पास अपनी शक्तियां अलग है। संघ और राज्यों के बीच शक्तियों को लेकर कोई विवाद न हो इस संबंध में भारत के संविधान में स्पष्ट उपबंध किए गए हैं।
शक्तियों के संबंध में सभी राज्य और संघ के बीच कोई विवाद होता है तो उसका निपटारा संघ की न्यायपालिका उच्चतम न्यायालय द्वारा किया जाता है। जिस प्रकार भारत के संविधान में संघ व्यवस्था दी है तो राज्यों को भी अपने अधिकार दिए हैं, अपनी शक्तियां दी हैं।
जैसी प्रक्रिया संघ की कार्यपालिका के संबंध में भारत के संविधान में उल्लेखित की गई है ठीक उसी तरह की प्रक्रिया भारत के संविधान के अंतर्गत राज्यों के संबंध में राज्य की कार्यपालिका के लिए उल्लेखित की गई है। जिस प्रकार संघ की कार्यपालिका शक्ति राष्ट्रपति में निहित होती है ठीक इसी प्रकार राज्य की कार्यपालिका शक्ति राज्यपाल में निहित होती है।
राज्यपाल कार्यपालिका शक्ति का प्रधान होता है परंतु राज्यपाल उस शक्ति का प्रयोग अपने राज्य की मंत्रिमंडल के परामर्श से करता है।
भारत के राष्ट्रपति द्वारा राज्यपाल की नियुक्ति की जाती है उसकी नियुक्ति न तो प्रत्यक्ष मतदान से की जाती है और न ही विशेष रूप से राष्ट्रपति के लिए गठित निर्वाचक मंडल द्वारा जो अप्रत्यक्ष रूप से राष्ट्रपति का चुनाव करता है।
यह केंद्र सरकार द्वारा नामांकित व्यक्ति होते हैं, राज्यपाल का पद केंद्रीय सरकार के अधीन नियुक्त पद नहीं है और अनुच्छेद 319 का प्रतिषेध उस पर लागू नहीं होता है। राज्य के लोक सेवा आयोग के किसी सदस्य को राज्यपाल के पद पर नियुक्त किया जा सकता है राज्यपाल का पद एक स्वतंत्र सांविधानिक पद है और वह केंद्र सरकार के अधीन या उसके नियंत्रण में नहीं होता है।
कोई भी भारत का नागरिक जो 35 वर्ष की आयु पूरी कर चुका है वह राज्यपाल हो सकता है। अनुच्छेद 158 के अनुसार राज्यपाल न तो संसद के किसी सदन और न ही राज्य के विधान मंडल का ही सदस्य हो सकता है यदि केंद्र और राज्य के किसी भी सदन का सदस्य है तो राज्यपाल के पद की शपथ लेने के पश्चात यह समझा जायेगा कि सदन में उसका स्थान खाली हो गया है।
राज्यपाल लाभ के किसी पद पर नहीं रहता है, राज्यपाल शासकीय निवास के उपयोग का हकदार होता है। राज्यपाल ऐसी उपलब्धियों मत और विशेष अधिकारों का जो संसद विधि द्वारा समय-समय पर अवधारित करें जब तक संसद इस संबंध में उपबंध नहीं करती है तब तक ऐसी उपलब्धियों और विशेष अधिकारों का हकदार होगा न दूसरी अनुसूची में विनिर्दिष्ट होगा।
भारत के संविधान के अनुच्छेद 156 के अनुसार राज्यपाल राष्ट्रपति के प्रसादपर्यंत अपना पद धारण करता है। समान रूप से राज्यपाल का कार्यकाल 5 वर्ष का होता है। राष्ट्रपति किसी भी समय राज्यपाल को उसके पद से हटा भी सकता है।
इस मामले में राष्ट्रपति केंद्रीय मंत्रिमंडल के परामर्श के अनुसार कार्य करता है। राज्यपाल के पदावधि राष्ट्रपति पर निर्भर करती है। राज्यपाल लिखित रूप से चाहे तो अपना त्यागपत्र भी ले सकता है।
बीपी सिंघल बनाम भारत संघ के मामले में भारत के उच्चतम न्यायालय के पांच न्यायाधीशों की संविधान पीठ के जी बालाकृष्णन सीएस कपाड़िया रविंद्र और आदि ने सर्वसम्मति से यह कहा है कि राज्यपाल को पद से केवल इस आधार पर नहीं हटाया जा सकता कि वह केंद्र सरकार शासक दल की इच्छाओं की नीतियों से सहमत नहीं है या उनका विश्वास खो दिया।
इस मामले में अपने लोकहित वाद के रूप में मुकदमा दाखिल किया और निवेदन किया कि न्यायालय उचित निर्देश दें जिससे राज्यपाल जैसे सांविधानिक पद का सम्मान न घट जाए।
इस मामले में ने तर्क दिया कि राज्यपाल राज्य का मुखिया है वह केंद्र सरकार का कर्मचारी, सेवक या एजेंट नहीं है। उसने कहा कि साधारण तौर से उसे 5 वर्ष तक अपने पद पर बने रहना चाहिए। उसे विशेष परिस्थितियों में क्यों पद से हटा दिया जाता है, उसे मनमाने तरीके से पद से नहीं हटाया जाना चाहिए।
प्रसादपर्यंत के सिद्धांत का न्यायिक समीक्षा की जानी चाहिए। सरकार की ओर से कहा गया कि राज्यपाल का पद से हटाया जाना कोई कारण से होना चाहिए और प्रसादपर्यंत का सिद्धांत अत्यधिक है। केंद्र सरकार एक दल का विश्वास होना या उसकी नीतियों के विरुद्ध काम ही पर्याप्त है। उच्च न्यायालय के न्यायाधीशों ने कहा कि राज्यपाल का पद से हटाना दुर्भावना से नहीं होना चाहिए।
अनुच्छेद 156 के राष्ट्रपति के प्रसादपर्यंत तक अपने पद पर रहेगा और उसे पद से हटाने का कारण नहीं बताया जाएगा किंतु प्रसाद का सिद्धांत लोकतांत्रिक संविधान के अधीन उस रूप में लागू नहीं किया जा सकता जिस रूप से इंग्लैंड में और उसे मनमाने किया जा सकता।
इस शक्ति का प्रयोग आपवादिक आधारों पर ही किया जाएगा। किसी मामले में अनिवार्य कारण है या नहीं कि प्रत्येक मामले की परिस्थितियों पर आधारित होगा उसे केंद्र सरकार शासक दल की नीतियों के पालन नहीं करने के आधार पर नहीं हटाया जाएगा।
केंद्र में सरकार बदलने के कारण राज्यपाल के पद से हटाए जाने का कोई कारण नहीं है। उस को पद से हटाने की न्यायिक समीक्षा बड़े सीमित आधार पर की जा सकती है। यदि हटाया गया व्यक्ति यह दिखाता है उसकी पदच्युती की मनमानी दुर्भावना से की गई है तो न्यायालय उस सामग्री को मांग सकता है जिसके आधार पर उसके पदच्युत का निर्णय लिया गया था।
न्यायालय निर्णय लिया कि सार्वजनिक महत्व के मामले में ऐसा किया जा सकता है। राज्यपाल के संविधान पद की गरिमा और प्रतिष्ठा को कायम रखने वाला है ऐसा नहीं होना चाहिए कि केंद्र में सरकार बदल जाए तो राज्यों के राज्यपालों को भी बदल दिया जाए।
संविधान द्वारा राज्यपाल को प्राप्त शक्तियां
भारत के संविधान में जिस तरह राष्ट्रपति को शक्तियां दी है उसी प्रकार राज्यपाल को भी शक्तियां दी गई है। राष्ट्रपति की शक्तियों की तरह ही राज्यपाल की शक्तियों को भी विभिन्न भागों में बांटा जा सकता है। जैसे कार्यपालिका शक्ति, वित्तीय शक्ति, विधायी शक्ति और न्यायिक शक्तियां।
राज्य की कार्यपालिका शक्ति राज्यपाल में निहित है जिसका प्रयोग वह स्वयं या अपने अधीनस्थ अधिकारियों द्वारा करता है। राज्य के समस्त कार्यपालिका कार्य राज्यपाल के नाम पर ही किए जाते हैं। समस्त आज्ञा एवं लिखित राज्यपाल के नाम विधिवत प्रमाणित किए जाएंगे जो उसके द्वारा बनाए गए नियमों के अनुसार किए जाएंगे।
किसी भी आदेश या अधिकार पत्र की जो इस प्रकार से प्रमाणीकरण थे विधि मान्यता पर इस आधार पर आपत्ति नहीं उठाई जाएगी कि व राज्यपाल द्वारा निर्मित नहीं किए गए हैं।
राज्यपाल की सिफारिश के बिना विधानसभा में कोई भी धन विधेयक पेश नहीं किया जा सकता। राज्यपाल की ही स्वीकृति पर अनुदान की मांग पेश की जा सकती है। विधान मंडल के सदस्य दोनों सदनों के समक्ष राज्यपाल द्वारा ही वार्षिक विवरण पेश करते है जिसे बजट कहा जाता है।
राज्यपाल विधान मंडल के सदस्य दोनों सदनों को निश्चित समय एवं निश्चित स्थान पर अधिवेशन के लिए बुलाता है किंतु दोनों सत्रों के बीच 6 महीने की अधिक समय नहीं दिखना चाहिए। वह दोनों सदनों का सत्रावसान कर सकता है तथा विधानसभा को भंग कर सकता है।
विधानमंडल को संबोधित करता है राज्यपाल की अनुमति के बिना भी विधेयक कानून नहीं बन सकता। वह कुछ विधेयकों को राष्ट्रपति के अनुमति के लिए अपने पास रखता है। वह विधान परिषद के एक 1/6 सदस्यों को मनोनीत करता है जो साहित्य विज्ञान कला सामाजिक सेवा के क्षेत्र में विशेष ज्ञान व्यवहार अनुभव रखते हैं।
राज्यपाल की सबसे महत्वपूर्ण विधायी शक्ति उसकी अध्यादेश जारी करने की शक्ति है। अनुच्छेद 123 के अधीन राष्ट्रपति को जो अधिकार संसद क्षेत्र में प्राप्त करें अनुच्छेद 213 के अधीन विधानमंडल के विषय में वही अधिकार राज्यपाल को प्राप्त हो।
जब कभी विधानमंडल सत्र में न हो राज्यपाल को यह समाधान हो जाए किसी प्रकार की कार्रवाई करना आवश्यक है तो अध्यादेश जारी कर सकता है जो उसे अपेक्षित प्रतीत हो और राज्यपाल उन मामलों में अध्यादेश जारी नहीं कर सकता जिन मामलों में राष्ट्रपति की सिफारिश की आवश्यकता है।
राज्यपाल की क्षमादान की शक्ति
अनुच्छेद 61 के अनुसार राज्यपाल को किसी अपराध के लिए सिद्ध दोष व्यक्ति के दंड को क्षमा, विराम और परिहार करने अथवा लघु करण करने की शक्ति प्राप्त है। राष्ट्रपति राज्यपाल की क्षमादान की शक्ति को संभावित न्याय भूलों को सुधारने के उद्देश्य से प्रदान किया गया है।
न्यायालयों में न्याय प्रशासन का कार्य संपादन मनुष्य द्वारा ही किया जाता है जिनसे भूल हो सकती है। अपराध विधायिका द्वारा पारित किसी विधि के विरुद्ध किया गया होना चाहिए। प्रत्येक राज्य की कार्यपालिका शक्ति का विस्तार के बारे में उस राज्य विधानमंडल को विधि बनाने की शक्ति है। भारत के राष्ट्रपति राज्यपाल की शक्तियां में कुछ अंतर भी है।
राष्ट्रपति को इन सभी मामलों में जिनमें की मृत्यु का दंडादेश को माफ करने शक्ति प्राप्त है जबकि राज्यपाल को मृत्यु के आदेश के विरुद्ध क्षमादान की शक्ति नहीं प्राप्त है। राष्ट्रपति को सेना न्यायालय द्वारा दिए गए दंडादेश के मामले में समाधान की शक्ति प्राप्त है। राज्यपाल को ऐसी कोई शक्ति प्राप्त नहीं है। राज्यपाल को प्रदान करने की शक्ति प्राप्त नहीं है किंतु परिहार के मामले में उसकी शक्ति राष्ट्रपति के समान ही है।
कमांडर के एम नानावती बनाम मुंबई राज्य के मामले में अपीलार्थी को हत्या के अपराध में आजीवन कारावास का दंड दिया गया था। उच्च न्यायालय द्वारा सजा सुनाए जाने के तुरंत बाद ही प्रत्यार्थी ने उच्चतम न्यायालय में अपील के लिए प्रार्थना पत्र दे दिया।
उसी दिन राज्यपाल ने अनुच्छेद 161 में शक्ति का प्रयोग करते हुए राजाज्ञा निकाली कि उच्चतम न्यायालय द्वारा जब तक निर्णय नहीं किया जाता तब तक सज़ा स्थगित कर दी जाती है और अपराधी अभिरक्षा में रखा जाएगा, अपराधी गिरफ्तार करने के लिए निकाला गया वापस निरुद्ध कर लिया गया।
इस मामले में विचार का प्रश्न यह था कि क्या दंडित व्यक्ति उच्चतम न्यायालय के आदेश 21 नियम के अंतर्गत अपने को सजा के लिए आत्मा समर्पित कर दें अथवा अनुच्छेद 161 के अधीन राज्यपाल द्वारा जारी किए गए आदेश का पालन करें। न्यायालय ने कहा कि उन मामलों में अपीलों में जो उच्चतम न्यायालय के विचार में दाखिल की गई है।
अनुच्छेद 161 के अंतर्गत राज्यपाल को प्राप्त किसी व्यक्ति की सजा को स्थगित करने की शक्ति अदालत द्वारा बनाए गए नियमों के अधीन होगी। जहां दंडित व्यक्ति के समर्पण का विषय है उस सीमा तक राज्यपाल के आदेश होने के कारण है। राज्यपाल को इस विषय पर अधिकार है कि वह किसी भी समय जब तक न्यायालय में मामला लंबित नहीं है क्षमा दान प्रदान करें। उस समय राज्यपाल इस शक्ति प्रयोग नहीं कर सकता है जब मामला लंबित है।
राज्यपाल की शक्ति का उपयोग उच्चतम न्यायालय में विचारार्थ के लिए लागू नहीं किया जा सकता जब तक निर्णय न हो जाए।
मंत्री परिषद का गठन
राज्य की मंत्री परिषद का गठन एवं कार्य केंद्र की मंत्रिपरिषद के समान नहीं है। केवल राज्यपाल की शक्ति और राष्ट्रपति की शक्ति में थोड़ा अंतर है। अनुच्छेद 163A उपबंधित करता है कि राज्यपाल उसके कार्यों के प्रयोग करने में सहायता और मंत्रणा देने के लिए मंत्रिपरिषद होगी जिसका प्रधान मुख्यमंत्री होगा शिवाय वहां तक जहां संविधान के अंतर्गत अपने कृत्य उनमें से किसी को अपने विवेक अनुसार काम करना है।
राज्यों में मंत्री परिषद और राज्यपाल के संबंध वही हैं जो केंद्र में केंद्रीय मंत्रिमंडल तथा राष्ट्रपति के हैं किंतु राज्यपाल और राष्ट्रपति की शक्तियों में एक महत्वपूर्ण अंतर और है और वह यह है कि संविधान में राष्ट्रपति को अपने विवेक से कुछ करने की शक्ति नहीं प्रदान की गई है जबकि कुछ परिस्थितियों में राज्यपाल अपने स्वविवेक से कुछ कार्य कर सकता है।
अनुच्छेद 163 यह उपबंधित करता है कि जिन बातों में उससे संविधान के उपबंधों के अनुसार या अपने विवेक से कार्य करने की अपेक्षा की जाती है उसको छोड़ कर राज्यपाल को अपने कृत्यों का निर्वहन करने में सहायता और मंत्रणा देने के लिए मंत्रिपरिषद होगी जिसका प्रधान मुख्यमंत्री होगा।
संविधान राज्यपाल के विवेकाधिकार कि कहीं पर व्याख्या नहीं करता है। इससे एक प्रश्न यह उठता है कि क्या वास्तव में राष्ट्रपति की तरह राज्यपाल भी नाममात्र का संवैधानिक प्रधान है जिसे मंत्रिपरिषद के परामर्श पर ही सारे कार्य करने हैं और उसके पास कोई वास्तविक शक्ति नहीं है या वास्तविक कार्यपालिका शक्ति उसी में निहित है।
संविधान के निर्माण के समय संविधान सभा के सदस्यों को राज्यपाल के अधिकार संकटकारी दिखाई पड़े। उनके समक्ष राज्यपाल का स्वरूप साम्राज्यवादी और स्वच्छंद अधिकारों वाला था। इस तरह से 1935 के अधिनियम के अनुसार राज्यपाल के विषय में विचार रखते हुए शंकालु हो उठे किंतु भारतीय संविधान में संसदीय पद्धती की सरकार की स्थापना के कारण उनकी संख्या निर्धारित थी क्योंकि ऐसी प्रणाली में मंत्रिपरिषद अपने कार्यों के लिए राज्य विधान सभा के प्रति सामूहिक रूप से उत्तरदाई होती है तो उसके परामर्श के अनुसार कार्य करने के लिए अवहेलना कर सकता है।
सुनील कुमार बोस बनाम चीफ सेक्रेट्री पश्चिम बंगाल के मामले में कोलकाता उच्च न्यायालय ने यह अभिनिर्धारित किया था कि राज्यपाल वर्तमान संविधान के अंतर्गत मंत्रिपरिषद के परामर्श के बिना कोई कार्य नहीं कर सकता।
गवर्नर गवर्नमेंट ऑफ इंडिया एक्ट 1935 के मामले में दूसरी परिस्थिति थी, संविधान के अधीन राज्यपाल को सौंपे विवेक के अनुसार या अपने व्यक्तिगत रूप से कार्य करने के अधिकार से वंचित कर दिया गया इसलिए राज्यपाल को अपने मंत्री के परामर्श पर ही कार्य करना है।
कपूर बनाम स्टेट ऑफ पंजाब के मामले में उच्चतम न्यायालय ने यह कहा कि हमारे संविधान के अधीन भारत में ब्रिटिश संसदीय सरकार की स्थापना की गई है जिसका मूल सिद्धांत यह है कि राष्ट्रपति और राज्य का राज्यपाल संविधानिक प्रधान होते हैं और वास्तविक कार्यपालिका शक्ति राज्यपाल में है।
शमशेर सिंह बनाम पंजाब राज्य के मामले में उच्चतम न्यायालय ने अवलोकन किया कि राष्ट्रपति और राज्यों के राज्यपाल संस्थानिक प्रधान है और वह अपनी शक्ति और कार्यों के पालन मंत्री परिषद की सहायता आमंत्रण से करते हैं न कि व्यक्तिगत समझ और सोच से करते हैं सिवाय उन मामलों को छोड़कर ने राज्यपाल को अपने स्वविवेक से कार्य करने की जरूरत होती है। इस मामले में दो अधिकारियों को उनके पद से हटाने का आदेश दिया था कि नियुक्ति नहीं किया जा सकता।
इस मामले में उच्चतम न्यायालय ने कहा कि अधीनस्थ न्यायालयों के सदस्यों की नियुक्ति और पद से हटाया जाना कार्यकारिणी के कार्य हैं जिनका प्रयोग राज्यपाल अपने मंत्रिपरिषद की सलाह से करता है।
जहां कई संविधान में राष्ट्रपति और राज्यपाल के व्यक्तिगत समाधान शब्दावली का प्रयोग किया गया है उसका वास्तविक अर्थ है मंत्रिपरिषद का समाधान राष्ट्रपति और राज्यपाल का समाधान नहीं है। इस कथन के साथ न्यायालय ने सरदारी लाल बनाम भारत संघ में निर्णय लिया अपने विवेक के अनुसार केवल उन्हीं विषयों में कर सकता है जिसमें उसके अंतर्गत ऐसा करने की स्पष्ट प्रावधान दिए गए हैं।
राज्यपाल की मंत्रिमंडल को अपदस्थ करने की शक्ति
भारत के संविधान के अनुच्छेद 164 के अनुसार मंत्री गण राज्यपाल को प्रसादपर्यंत अपने पदों पर बने रहते हैं किंतु इसका यह अर्थ नहीं है कि राज्यपाल जब चाहे स्वेच्छा से मंत्री परिषद को अपदस्थ कर दे। राज्यपाल के प्रसाद का अर्थ संसदात्मक प्रणाली वाली सरकार के संदर्भ में विधानमंडल के बहुमत के विश्वास है।
राज्यपाल को अपने प्रसाद का प्रयोग मंत्रिमंडल के परामर्श पर करना पड़ता है। अनुच्छेद 154(2) से यह स्पष्ट हो जाता है जिसके अनुसार मंत्रिमंडल अपने कार्यों के लिए विधानमंडल के प्रति सामूहिक रूप से उत्तरदाई है। जब तक मंत्रिमंडल को सदन के बहुमत का विश्वास प्राप्त है। राज्यपाल मंत्रिमंडल को बर्खास्त कर सकता है।
एसपी शर्मा बनाम सीसी घोष के मामले में कोलकाता उच्च न्यायालय ने राज्यपाल की इस कार्यवाही को संवैधानिक घोषित किया। न्यायालय ने कहा कि अनुच्छेद 164 के अंतर्गत राज्यपाल के मुख्यमंत्री की नियुक्ति और मंत्रिमंडल के अपदस्थ करने की शक्ति पर कोई निर्बंधन नहीं लगाया गया।
इन मामलों में वह अपने विवेक से कार्य करता है। इस अनुच्छेद के अनुसार मंत्रीगण राज्यपाल के प्रसादपर्यंत पद धारण करते हैं। राज्यपाल द्वारा अपने प्रसाद को वापस लेने की शक्ति अबाध है। न्यायालय ने इस तर्क के पक्ष में नाइजीरिया के संविधान के उपबंध को उल्लेखित किया।
एसआर बोम्मई बनाम भारत संघ 1994 के ऐतिहासिक निर्णय में यह कहा गया है कि कोई मंत्रिमंडल बहुमत में है या नहीं इसका उदाहरण सदन के भीतर ही किया जाना चाहिए किंतु न्यायालय ने यह भी कहा कि ऐसी परिस्थितियां हो सकती है जबकि राज्यपाल को इस मामले में स्वविवेक का प्रयोग करना पड़ सकता है।
विधानसभा का विघटन
भारत के संविधान के अनुच्छेद 174 के अंतर्गत राज्यपाल विधानसभा को आहूत करता है तथा उसे भंग भी करता है। सामान्य परिस्थितियों में राज्यपाल विधानसभा को तब तक भंग नहीं करता जब तक कि उसकी सामान्य अवधि 5 वर्ष समाप्त न हो जाए।
जहां एक मंत्रिमंडल सदन का विश्वास हो चुका है वहां किसी स्थाई वैकल्पिक मंत्रिमंडल की स्थापना संभव नहीं है तो सदन को भंग कर दिया जाता है। ऐसी परिस्थितियों में राज्यपाल अपने विवेक के अनुसार कार्य करने को स्वतंत्र है वह चाहे तो सदन को भंग करें स्थाई सरकार की नियुक्ति करें।
एकमत यह है कि राज्यपाल मुख्यमंत्री की सलाह मानने को बाध्य है और उसे राज्य विधानसभा को भंग करना ही पड़ेगा दूसरा मत है कि यदि वह चाहे तो विधानसभा को विघटित करें या ऐसे व्यक्ति की खोज करें जो प्रदेश में पराजित मंत्री परिषद के स्थान पर वैकल्पिक मंत्रिमंडल का संगठन कर सकें। भारत में संविधान शास्त्रियों का समर्थन दूसरे मत के पक्ष में है।