भारत का संविधान (Constitution of India) भाग 14: संघ की न्यायपालिका और भारत का उच्चतम न्यायालय

Shadab Salim

20 Feb 2021 5:50 AM GMT

  • भारत का संविधान (Constitution of India) भाग 14: संघ की न्यायपालिका और भारत का उच्चतम न्यायालय

    पिछले आलेख में केंद्रीय विधान मंडल के अंतर्गत भारत की संसद के संदर्भ में संवैधानिक उपबंधों पर चर्चा की गई थी, इस आलेख में संघ की न्यायपालिका भारत के उच्चतम न्यायालय के संबंध में चर्चा की जा रही है।

    भारत का संविधान एक संघीय यह संविधान है। भारत को राज्यों का संघ कहा गया है और इस राज्यों के संघ के बीच शक्तियों का विभाजन किया गया है। सरकारों की शक्तियों का विभाजन एक लिखित संविधान के द्वारा किया गया है ताकि भविष्य में सरकारों के बीच किसी प्रकार का शक्तियों को लेकर कोई विवाद न हो।

    इस प्रकार का कोई विवाद होता है तो संविधान में उसके लिए एक स्वतंत्र संस्था न्यायपालिका की व्यवस्था की गई है जिसे संघ की न्यायपालिका भारत का उच्चतम न्यायालय कहा गया है।

    संघ की न्यायपालिका के संबंध में उपबंध भारत के संविधान के अनुच्छेद 124 से 147 तक किए गए हैं। इन सभी अनुच्छेदों में संघ की न्यायपालिका के संबंध में सारे उल्लेख कर दिए गए हैं। भारत केे उच्चतम न्यायालय का गठन किया गया है और उसके मुख्य न्यायधीश के संदर्भ उल्लेख किया गया है।

    उच्चतम न्यायालय नागरिकों के मूल अधिकारों का संरक्षक होने केे होने के साथ-साथ ही संविधान का भी संरक्षक है। संविधान के उपबंध की व्याख्या के संबंध में अंतिम निर्णय देने का अधिकार भारत के उच्चतम न्यायालय को ही प्राप्त है।

    भारत का उच्चतम न्यायालय

    भारत के संविधान के अनुच्छेद 124 के अंतर्गत भारत के उच्चतम न्यायालय का गठन किया गया है। अनुच्छेद 124 यह कहता है कि उच्चतम न्यायालय में एक मुख्य न्यायमूर्ति होगा वह जब तक संसद विधि द्वारा अधिक संख्या में विहित नहीं करती है तब तक 7 से अधिक अन्य न्यायाधीश और होंगे समय-समय पर भारत के उच्चतम न्यायालय के न्यायाधीशों की संख्या बढ़ाई जाती रही है।

    वर्ष 2009 में संख्या को बढ़ाकर 30 कर दिया गया था, वर्तमान में भारत के उच्चतम न्यायालय में कुल न्यायाधीश की संख्या 31 है। संविधान में उस न्यूनतम न्यायाधीशों की संख्या को उपबंध नहीं किया गया है जो उच्चतम न्यायालय की में मामलों की सुनवाई के लिए अनिवार्य है किंतु 145 अनुच्छेद यह कहता है ऐसे मामलों में जिसमें संविधान के निर्वचन के बारे में विधि का कोई सारवान प्रश्न शामिल है विनिश्चय करने के प्रयोजन के लिए अनुच्छेद 145 के अधीन निर्देश की सुनवाई के लिए बैठने वाले न्यायाधीशों की न्यूनतम संख्या 5 होगी।

    इससे यह स्पष्ट है कि उच्चतम न्यायालय अपनी संवैधानिक तथा अनुच्छेद 145 की अधिकारिता का प्रयोग तब तक नहीं कर सकता जब तक कि न्यायालय की पीठ में न्यूनतम संख्या 5 न हो।

    उच्चतम न्यायालय के न्यायाधीशों को राष्ट्रपति नियुक्त करता है। इस मामले में राष्ट्रपति को कोई विवेक की शक्ति नहीं है । अनुच्छेद 124 यह कहता है कि राष्ट्रपति न्यायाधीशों की नियुक्ति उच्च न्यायालय तथा उच्च न्यायालय के न्यायाधीशों से परामर्श करने के पश्चात जिनसे इस प्रयोजन के लिए आवश्यक समझे तब करता है।

    न्यायाधीशों की नियुक्ति राष्ट्रपति सर्वदा मुख्य न्यायाधीशों के परामर्श से करता है। भारत में इस तरह न्यायाधीशों की नियुक्ति के लिए कालोजियम सिस्टम प्रचलित है। राष्ट्रपति उच्च न्यायालय के न्यायाधीशों से भी परामर्श कर सकता है। न्यायाधीशों की नियुक्ति करने की राष्ट्रपति की शक्ति को औपचारिक शक्ति है क्योंकि वह इस मामले में मंत्रिमंडल की सलाह से कार्य करता है मामले में शक्ति नहीं है।

    न्यायाधीशों की नियुक्ति के मामले में संविधान ने कार्यपालिका को आत्यंतिक शक्ति प्रदान नहीं की है क्योंकि भारत के उच्चतम न्यायालय के न्यायाधीशों को चुनने का अधिकार स्वयं न्यायाधीशों को ही दिया गया है।

    संविधान के अनुच्छेद 124 के अंतर्गत राष्ट्रपति को संविधान द्वारा विहित योग्यता रखने वाले किसी भी व्यक्ति को मुख्य न्यायमूर्ति नियुक्त करने की शक्ति प्राप्त है किंतु अन्य न्यायाधीशों की नियुक्ति के मामले में राष्ट्रपति मुख्य न्यायमूर्ति से परामर्श लेने के लिए बाध्य है।

    अनुच्छेद 124 में इस बात का भी कोई उल्लेख नहीं किया गया है कि उच्चतम न्यायालय में वरिष्ठ न्यायाधीश को ही मुख्य न्यायमूर्ति नियुक्त किया जा सकता है संविधान में ऐसी बाध्यता न होने के बावजूद प्रारंभ से ही उच्चतम न्यायालय के वरिष्ठ न्यायाधीश को ही मुख्य न्यायमूर्ति के पद पर नियुक्त करने की परंपरा वरिष्ठता के आधार पर चली आ रही है। न्यायाधीशों के गुण और उपयोगिता के आधार पर ऐसी कोई परंपरा नहीं है।

    एसपी गुप्ता बनाम भारत संघ के मामले में भारत के विधि मंत्री द्वारा राज्यों के मुख्यमंत्रियों को भेजे गए एक परिपत्र जिसके द्वारा न्यायाधीशों को एक उच्च न्यायालय से दूसरे उच्च न्यायालय में ट्रांसफर करने इस संबंध में अपनी सहमति देने को कहा गया था की विधि मान्यता को चुनौती दी गई।

    पटना उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश मद्रास उच्च न्यायालय में स्थानांतरण आदेश तथा दिल्ली उच्च न्यायालय के अवर न्यायाधीश की पदावली ना

    बढ़ाए जाने के आदेश को चुनौती थी कि वह भारत के मुख्य न्यायाधीश के परामर्श के बिना की गई थी। इस मामले में दिल्ली उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश मुख्य न्यायाधीश की राय को प्राथमिकता दी थी।

    उच्चतम न्यायालय की सात न्यायाधीशों की पूर्ण पीठ ने 3/4 के बहुमत से यह अभिनिर्धारित किया था कि अनुच्छेद 124 में प्रयुक्त परामर्श शब्द से तात्पर्य पूर्व प्रभावी परामर्श है अर्थात संबंधित न्यायाधीश के समक्ष संपूर्ण तर्क रखे जाने चाहिए जिसके आधार पर किसी व्यक्ति को न्यायाधीश नियुक्त करने के लिए राष्ट्रपति को अपनी सिफारिश भेजेगा किंतु बहुमत ने यह स्पष्ट किया कि उक्त परामर्श मानने के लिए राष्ट्रपति बाध्य नहीं है राष्ट्रपति अपना निर्णय स्वतंत्र रूप से ले सकता है।

    संक्षेप में न्यायधीश के अनुसार मुख्य न्यायाधीशों की नियुक्ति के मामले में सरकार को शक्ति प्राप्त है।

    उच्चतम न्यायालय की 9 सदस्य संविधान पीठ ने इन री प्रेसिडेंशियल रेफरेंस उच्चतम न्यायालय के मामले में न्यायाधीशों की नियुक्ति तथा स्थांतरण के मामले के नाम से प्रसिद्ध मामले में सर्वसम्मति से यह निर्धारित किया कि उच्चतम न्यायालय उच्च न्यायालय के न्यायाधीशों की नियुक्ति स्थानांतरण के मामले में 1993 के निर्णय में प्रतिपादित परामर्श का पालन किए बिना मुख्य न्यायाधीश द्वारा की गई सिफारिशों को मानने के लिए कार्यपालिका बाध्य नहीं है।

    राष्ट्रपति ने अनुच्छेद 142 के अधीन उच्चतम न्यायालय के प्रश्नों पर अपनी सलाह देने के लिए कहा था। राष्ट्रपति ने पूछा था कि न्यायाधीशों की नियुक्ति के मामले में क्या वह मुख्य न्यायाधीश द्वारा अन्य न्यायाधीशों से परामर्श किए बिना भेजी गई सिफारिश है।

    9 सदस्य संविधान पीठ के निर्णय के पश्चात उच्चतम न्यायालय के न्यायाधीशों की नियुक्ति तथा स्थांतरण संबंधी विवाद कुछ समय के लिए टल गया किंतु इस संबंध में न्यायाधीशों और विधायिका के सदस्यों के दृष्टिकोण में पर्याप्त मतभेद देखने में आया।

    21 दिसंबर 1996 में दिल्ली में न्यायिक सुधारों पर हुए सेमिनार ने में न्याय तथा न्यायालय के बाहर के सदस्यों के बीच विचारों में पर्याप्त मत दिखाई पड़ा। वहां हुई चर्चा से स्पष्ट है कि न्यायाधीशों की नियुक्ति संबंधित उच्चतम न्यायालय का निर्णय मामले को हल करने में सफल नहीं रहा।

    गोष्ठी में भाग लेने वाले सदस्यों में से अधिकांश का यह मत था के न्यायाधीशों की नियुक्ति संस्थान के संदर्भ में राष्ट्रपति को किया गया राष्ट्रीय न्यायिक समिति की स्थापना 1980 के स्थांतरण के मामले में न्यायमूर्ति श्री भगवती ने आस्ट्रेलिया की भर्ती एक न्यायिक समिति की स्थापना का सुझाव दिया था उन्होंने कहा था कि शक्ति सरकार के किसी एक अंग में अनन्य रूप में निहित नहीं होना चाहिए।

    ऐसी दशा में इस विवाद का एकमात्र निराकरण एक राष्ट्रीय न्यायिक समिति की स्थापना से ही है जिसमें किसी एक अंग को प्राथमिकता नहीं रहेगी वरन दोनों की समान भागीदारी रहेगी।

    1986 में विधि आयोग ने भी राष्ट्र न्यायिक समिति की स्थापना का सुझाव दिया था उसके गठन के संबंध में विधि आयोग ने यह सुझाव दिया कि उस समिति के अध्यक्ष भारत का मुख्य न्यायाधीश होना चाहिए तथा तीन उच्चतम न्यायालय उच्च न्यायालय के न्यायाधीश भारत के महाधिवक्ता एक प्रतिष्ठित अधिवक्ता तथा विधि मंत्रालय के प्रतिनिधि होना चाहिए।

    भारत के उच्चतम न्यायालय के न्यायाधीश होने के लिए योग्यता

    भारत के उच्चतम न्यायालय के न्यायाधीश पद पर नियुक्त होने के लिए किसी व्यक्ति के पास में कुछ योग्यताएं होना चाहिए। जैसे कि वह भारत का नागरिक होना चाहिए किसी उच्च न्यायालय का लगातार कम से कम 5 वर्षों तक न्यायाधीश का होना चाहिए। किसी उच्च न्यायालय में लगातार 10 वर्षों तक अधिवक्ता रहा होना चाहिए। राष्ट्रपति की राय में अच्छा विधिवेत्ता होना चाहिए।

    भारत के उच्चतम न्यायालय के न्यायाधीश 65 वर्ष की आयु तक अपने पद पर बने रह सकते हैं। न्यायाधीशों की आयु ऐसे अधिकारी द्वारा वृत्ति से आधारित की जाएगी जैसा कि संसद द्वारा उपबंध करें। कोई न्यायाधीश राष्ट्रपति को संबोधित अपने हस्ताक्षर सहित लेख द्वारा अपने पद को त्याग सकता है।

    भारत के संविधान का अनुच्छेद 145 न्यायाधीशों को पद से हटाने के लिए महाभियोग की व्यवस्था करता है। न्यायाधीशों को हटाने की प्रक्रिया उल्लेख की जाती है। उच्चतम न्यायालय के न्यायाधीशों को केवल महाभियोग द्वारा हटवा जा सकता है। पहला आधार है सिद्ध कदाचार और दूसरा आधार है असमर्थता।

    राष्ट्रपति के आदेश द्वारा उनको पद से हटाया जा सकता है। उच्च न्यायालय के न्यायाधीश को पद से हटाने के लिए समवेदनन लोकसभा और राज्यसभा दोनों कुल सदस्य संख्या के बहुमत द्वारा सदन में उपस्थित और मतदान करने वाले सदस्यों के कम से कम दो तिहाई बहुमत द्वारा समर्थित होना चाहिए।

    इसके बाद राष्ट्रपति के समक्ष रखा जाना चाहिए और उसके आदेश देने पर उसके पद से हटा दिया जाएगा। ऐसे किसी प्रस्ताव के संसद में रखे जाने तथा न्यायाधीश के कदाचार और असमर्थता के अन्वेषण और साबित करने की प्रक्रिया संसद विधि द्वारा निर्मित करेगी।

    कोई भी न्यायाधीश उस समय तक अपने पद से नहीं हटाया जा सकता जब तक कि वह वास्तविक रूप से अयोग्य और दुराचारी न हो और यह आरोप उसके विरुद्ध साबित न कर दिया जाए। संविधान द्वारा न्यायाधीशों की पदावधि को संरक्षण प्रदान करता है।

    के वीरा स्वामी बनाम यूनियन ऑफ इंडिया के मामले में उच्चतम न्यायालय ने कहा है कि उच्चतम न्यायालय और उच्च न्यायालय के न्यायाधीशों को भ्रष्टाचार निवारण अधिनियम 1947 के अधीन अपराधों के लिए अभियोजन चलाया जा सकता है।

    अनुच्छेद 124(4) में प्रयुक्त सिद्ध कदाचार शब्दावली का क्षेत्र बहुत विस्तृत है और इसमें भ्रष्टाचार निवारक अधिनियम 1947 की धारा 5(1) में वर्णित आपराधिक दुराचार भी सम्मिलित है। इस मामले में अपीलार्थी के वीरा स्वामी को 1960 में मद्रास उच्च न्यायालय में न्यायाधीश नियुक्त किया गया। 1970 में उन्हें मुख्य न्यायाधीश नियुक्त किया गया।

    24 फरवरी 1976 सीबीआई ने उनके विरुद्ध दिल्ली दिल्ली के एक न्यायालय में फाइल किए गए। एफआईआर के आधार पर एक भ्रष्टाचार का मामला दर्ज किया जिसमें यह आरोप लगाया गया था कि मुख्य न्यायाधीश के रूप में उन्होंने अपने उपलब्ध आय के स्रोतों से अधिक धन एकत्र किया था जिसका उपयुक्त आधार प्रस्तुत करने में असमर्थ रहे थे और इस प्रकार भ्रष्टाचार निवारण अधिनियम 1947 की धारा 5(1) में वर्णित अपराधों के लिए दोषी थे।

    इसकी जानकारी होने पर अपीलार्थी ने लंबा अवकाश ले लिया था और 8 अप्रैल 1974 में रिटायर हो गए। सीबीआई ने विशेष न्यायालय में उनके विरुद्ध चार्जशीट फाइल की अपीलार्थी ने मद्रास उच्च न्यायालय में अभियोजन को रद्द करने के लिए दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 482 के अधीन याचिका फाइल की। उच्च न्यायालय ने उनके पिटीशन को खारिज कर दिया।

    इस निर्णय के विरुद्ध प्रार्थी ने उच्चतम न्यायालय में अपील फाइल की अपीलार्थी ने अभिकथन किया कि उच्चतम न्यायालय और उच्च न्यायालय के न्यायाधीश भ्रष्टाचार निवारण अधिनियम 1947 के अधीन नहीं है और उसका अभियोजन असंवैधानिक है।

    उच्चतम न्यायालय ने 4/1 के बहुमत से कहा कि भ्रष्टाचार निवारण अधिनियम 1947 की धारा 56 उच्चतम न्यायालय और उच्च न्यायालय के न्यायाधीशों की लागू होती है। धारा 6 में प्रयुक्त लोकसेवक शब्द में उच्च न्यायालय और उच्चतम न्यायालय के न्यायाधीश भी आते हैं।

    अनुच्छेद 124 (5) के अधीन संसद द्वारा बनाए गए न्यायाधीश जांच अधिनियम 1968 और न्यायाधीश जांच नियम 1970 केवल सिद्ध कदाचार असमर्थता के आधार पर न्यायाधीशों को उनके पद से हटाने का उपबंध करते हैं। यह अधिनियम भ्रष्टाचार निवारण अधिनियम 1947 की धारा 5(1) के अधीन वर्णित अपराधों के लिए अभियोजन का उपयोग नहीं करते।

    श्री रविंद्र चंद्र अय्यर बनाम न्यायाधीश एनके भट्टाचार्य के मामले में उच्चतम न्यायालय ने यह कहा है कि केवल भारत का मुख्य न्यायाधीश उच्च न्यायालय के न्यायाधीश या उसके मुख्य न्यायाधीश के विरुद्ध लगाए गए किसी आरोप जो महाभियोग से कम है के विरुद्ध कार्यवाही कर सकता है।

    न्यायालय के न्यायाधीश न्यायमूर्ति के रामास्वामी और मुख्य न्यायधीश पीएल हंसरिया की खंडपीठ ने उक्त निर्णय दिया और कहा कि इस संबंध में मुख्य न्यायाधीश के ऊपर है कि वह आंतरिक जांच के लिए क्या प्रक्रिया अपनाएं।

    न्यायालय के समक्ष मुख्य विचारणीय प्रश्न यह है कि क्या अधिवक्ता संघ को किसी न्यायाधीश को त्यागपत्र देने के लिए बाध्य करने के लिए प्रस्ताव पारित करने का अधिकार है?

    अधिवक्ता संघ को ने तर्क दिया कि अनुच्छेद 124 की प्रक्रिया केवल तभी अपनाई जा सकती है जब सिद्ध कदाचार और असमर्थता स्थित हो जाए और उसका परिणाम अनिश्चित होता है जैसा कि उच्चतम न्यायालय के न्यायाधीश श्री रामा स्वामी के विरुद्ध महाभियोग गिरने से स्पष्ट है जो इसलिए पारित नहीं हो सका क्योंकि कांग्रेस पार्टी ने मतदान में भाग नहीं लिया था। ऐसी स्थिति में उनके द्वारा न्यायाधीश से त्यागपत्र मांगना न्यायपालिका की स्वतंत्रता की संरक्षा करना है।

    भारत के उच्चतम न्यायालय को कई प्रकार से अधिकारिकता प्राप्त है जैसे कि,

    1)- अभिलेख न्यायालय

    2)- प्रारंभिक न्यायालय

    3)- अपीलीय अधिकारिकता

    4)- विशेष इजाजत से अपील

    5)- परामर्श दात्री अधिकारिता

    भारत के उच्चतम न्यायालय के निर्णय सर्वोच्च विधि की तरह होते हैं। इस न्यायालय का कोई भी निर्णय पार्लियामेंट का बढ़ाएं किसी भी अधिनियम की तरह होता है। किसी विधान के संबंध में भारत का उच्चतम न्यायालय जब कोई निर्णय प्रस्तुत करता है तो उसका निर्णय विधि का बल रखता है।

    अनुच्छेद 29 उच्चतम न्यायालय को अभिलेख न्यायालय घोषित करता है और इसे न्यायालय की शक्तियां प्रदान करता है।अभिलेख न्यायालय का मतलब है इसे न्यायालय की कार्यवाही लिखित होती हैं उन्हें हमेशा संभाल कर रखा जाता है ताकि भविष्य में अधीनस्थ न्यायालय के समक्ष पूर्ण निर्णय के रूप में प्रस्तुत की जा सके।

    ऐसे न्यायालय को अपने अवमान के लिए किसी व्यक्ति को दंड देने की शक्ति होती है। भारतीय संविधान उच्चतम न्यायालय को अभिव्यक्त रूप से शक्ति प्रदान करता है। ऐसी शक्ति को ध्यान में रखते हुए न्यायालय अवमान अधिनियम 1971 पारित किया गया। इस अधिनियम के अनुसार न्यायालय का अवमान दो प्रकार से होता है। सिविल और आपराधिक।

    सिविल अवमान का अर्थ होता है न्यायालय की किसी डिक्री आदेश निदेश रिट या किसी अन्य प्रक्रिया को जानबूझकर अवज्ञा करना है या न्यायालय के दिए हुए किसी वचन को जानबूझकर न मानना। आपराधिक ऐसे विषय के प्रकाशन से है चाहे वह मौखिक या लिखित हो या ऐसे कार्यों से हैं जो निर्णय की निंदा करते हुए हो या उसके प्रतिकार को कम करते हुए हो पर प्रभाव डालने वाले हो डालते हो या न्यायिक कार्यो में बाधा डालते हैं।

    भारत का उच्चतम न्यायालय को पक्षकारों के किसी भी विवाद में प्राथमिक अधिकारिता प्राप्त है। संघ तथा एक से अधिक राज्यों के बीच होने वाले विवादों में, संघ और कई राज्य और एक तथा एक दूसरे राज्य, दो या दो से अधिक राज्यों के बीच होने वाले विवादों में सभी प्रकार के विवाद प्रारंभिक रूप से भारत के उच्चतम न्यायालय के सामने प्रस्तुत किए जाएंगे।

    प्रारंभिक अधिकारिता के अंतर्गत उच्च न्यायालय सरकार के विरुद्ध नागरिकों द्वारा प्रस्तुत मुकदमे को स्वीकार नहीं कर सकता है।

    कर्नाटक राज्य बनाम भारत संघ के मामले में केंद्र सरकार ने जांच आयोग की धारा 3 के अधीन कर्नाटक राज्य के मुख्यमंत्री और अन्य मंत्रियों के विरुद्ध भ्रष्टाचार भाई भतीजावाद पक्षपात सरकारी शक्तियों के दुरुपयोग के आरोपों की जांच करने के लिए आयोग नियुक्त किया।

    पुलिस ने कर्नाटक राज्य ने संविधान के अनुच्छेद 21 के अधीन उच्चतम न्यायालय में भारत संघ के विरुद्ध संस्थित किया जिसमें उसने यह कहा कि केंद्र सरकार को जांच आयोग का कोई अधिकार नहीं है।

    राज्य में निम्न आधारों पर केंद्र सरकार की अधिसूचना को चुनौती दी- पहला आधार था जांच आयोग अधिनियम 1992 केंद्र सरकार को उठाने का अधिकार नहीं देता है जो राज्य की विधायिका और कार्यपालिका शक्ति के अंतर्गत आता है, दूसरा आधार था- अधिसूचना संविधान का मूल तत्व है पर आघात पहुंचाती है। भारत संघ की ओर से यह प्रारंभिक आपत्ति उठाई गई के यह वाद योग्य नहीं है क्योंकि केवल मुख्यमंत्री के विरुद्ध वाद लाया जा सकता है राज्य के विरुद्ध वाद नहीं चलाया जा सकता है।

    भारत के संविधान के अनुच्छेद 32 के अधीन मूल अधिकारों के उल्लंघन के विरुद्ध नागरिकों के उपचार प्रदान करने के लिए उच्चतम न्यायालय को प्रारंभिक अधिकारिता प्रदान की गई है जिसके अंतर्गत प्रत्येक नागरिक को अपने मूल अधिकारों के प्रवर्तन के लिए उचित कार्यवाही द्वारा उच्चतम न्यायालय को प्रचलित करने का अधिकार प्रदान किया गया है।

    इस प्रयोजन के लिए उच्चतम न्यायालय को ऐसे निर्देश जिसमे रिट बंदी प्रत्यक्षीकरण, परमादेश, प्रतिषेध अधिकार पृच्छा उत्प्रेषण जो भी समुचित हो जारी करने की शक्ति प्राप्त है।

    अनुच्छेद 32 नागरिकों के मूल अधिकारों के उल्लंघन के विरुद्ध शीघ्र उपचार का उपलब्ध करता है। इस अनुच्छेद के अंतर्गत कोई भी व्यक्ति जिसके मूल अधिकारों पर कोई आघात किया गया है उपचार के लिए सीधे उच्च न्यायालय में जा सकता है इसलिए उच्चतम न्यायालय को नागरिकों के मूल अधिकारों का संरक्षण भी कहा जाता है।

    संवैधानिक मामलों में अपील को अनुच्छेद 132 के अंतर्गत उपबंधित किया गया है कि भारत सरकार किसी उच्च न्यायालय के निर्णय डिग्री या अंतिम आदेश चाहे वह दीवानी फौजदारी में दिए गए हो की अपील उच्चतम न्यायालय में की जा सकती है।

    यदि उस राज्य का उच्च न्यायालय अनुच्छेद 31 प्रमाणित करता है कि उस मामले में संविधान से संबंधित कोई सामान विशिष्ट अंतर्गत है यदि उच्च न्यायालय प्रमाण पत्र दे देता है तो मामले का कोई पक्षकार उच्चतम न्यायालय में अपील इस आधार पर कर सकता है कि इस प्रश्न पर दिया गया निर्णय गलत है।

    अनुच्छेद 132 के अधीन उच्चतम न्यायालय में अपील फाइल करने के लिए कुछ शर्ते दी गई हैं जैसे अपील उच्च न्यायालय के सिविल, दाण्डिक के अन्य कार्यवाही में दिए गए किसी निर्णय डिक्री या अंतिम आदेश के विरुद्ध होना चाहिए और मामले में संविधान के निर्वचन के बारे में कोई विधि का सारवान प्रश्न अन्तर्निहित हो।

    यूनियन कार्बाइड कारपोरेशन बनाम यूनियन ऑफ इंडिया के मामले में अनुच्छेद 136 के अधीन उच्चतम न्यायालय की प्रकृति और विस्तार के संबंध में न्यायालय ने निर्णय की पुष्टि करते हुए कहा है कि शक्ति अत्यंत विस्तृत है। इसके अंतर्गत जिला न्यायालय के न्यायालय से मूल वाद को वापस लेने या अंतरित करने की शक्ति प्राप्त है।

    अनुच्छेद 139A वादों को वापस लेने और अंतरित करने की शक्ति 136 के अधीन प्राप्त शक्ति को समाप्त नहीं करता है।

    भोपाल गैस कांड के संबंध में यूनियन कार्बाइड कंपनी के लिए वाद किया गया और कंपनी के विरुद्ध कार्रवाई प्रारंभ की गई। इस बीच केंद्र सरकार ने एक अधिनियम पारित करके वाद चलाने का अधिकार स्वयं ले लिया।

    इस अधिनियम के अनुसार भोपाल के जिला न्यायालय से कंपनी के विरुद्ध संस्थित सभी वाद और आपराधिक कार्रवाई वापस ले लिया और पक्षकारों के बीच समझौता करा दिया। प्रस्तुत मामले में समझौते की अन्य बातों की तो न्यायालय ने पुष्टि कर दी किंतु आपराधिक कार्यवाहियों के उठाने का आदेश रद्द घोषित कर दिया।

    भारत का उच्चतम न्यायालय संघ की न्यायपालिका का प्रमुख अंग है। भारत का संविधान एक संघीय संविधान है हालांकि यहां राज्यों को भी शक्तियां प्राप्त है पर व्यवस्था ऐसी की गई है जिससे भारत के उच्चतम न्यायालय को सर्वोच्च रखा जाए।

    भारत के संविधान की न्यायपालिका की निष्पक्षता और स्वतंत्रता पर्याप्त रूप से संरक्षित है।

    Next Story