भारत का संविधान (Constitution of India) भाग 12: संघ की कार्यपालिका और राष्ट्रपति के निर्वाचन की प्रक्रिया

Shadab Salim

18 Feb 2021 4:56 AM GMT

  • भारत का संविधान (Constitution of India) भाग 12: संघ की कार्यपालिका और राष्ट्रपति के निर्वाचन की प्रक्रिया

    पिछले आलेख में भारत के संविधान के अंतर्गत राज्य की नीति के निदेशक तत्व के संबंध में चर्चा की गई थी, इस आलेख में भारत के संविधान के भाग 5 संघ की कार्यपालिका जिसमें राष्ट्रपति और उपराष्ट्रपति का उल्लेख सर्वाधिक महत्वपूर्ण है पर चर्चा की जा रही है।

    संघ की कार्यपालिका

    जैसा कि पूर्व के आलेख में यह उल्लेख किया गया है भारत के संविधान के अंतर्गत संघ का अर्थ केंद्र है और राज्य का अर्थ प्रांत है। भारत राज्यों का एक संघ है। राज्यों के पास अपनी पृथक शक्तियां हैं और संघ के पास अपनी पृथक शक्तियां हैं परंतु फिर भी इनमें संघ सर्वोच्च है।

    भारत के संविधान का भाग 5 संघ की कार्यपालिका का उल्लेख कर रहा है जिसमें अनुच्छेद 52 से लेकर अनुच्छेद 78 तक उल्लेख किया गया है।

    भारतीय संविधान में भारत में संसदीय सरकार की स्थापना की है, संयुक्त राज्य अमेरिका में अध्यक्षतामक शासन व्यवस्था है। संसदीय सरकार में राष्ट्रपति संविधान एक अध्यक्ष होता है लेकिन वास्तविक शक्ति मंत्रिपरिषद में है जिसका प्रधान प्रधानमंत्री होता है। मंत्री परिषद लोकसभा के प्रति उत्तरदाई होती है मंत्री परिषद के सदस्य जनता के निर्वाचित प्रतिनिधि होते हैं।

    अनुच्छेद 53 द्वारा संघ की कार्यपालिका शक्ति राष्ट्रपति में निहित की गई है लेकिन अनुच्छेद 74 में यह भी स्पष्ट कर दिया गया है कि वह उसका प्रयोग मंत्री परिषद के परामर्श से ही कर सकता है। इसके विपरीत संयुक्त राज्य अमेरिका में अध्यक्षतामक प्रणाली में राष्ट्रपति वास्तविक कार्यपालिका का अधिकारी होता है उसका निर्वाचन सीधा जनता द्वारा होता है।

    अनुच्छेद 52 यह उपबंधित करता है कि भारत का एक राष्ट्रपति होगा। क्षेत्रफल के अनुसार भारत के संघ की कार्यपालिका शक्ति भारत के राष्ट्रपति में निहित है और वह इसका प्रयोग संविधान के अनुसार या तो स्वयं या अपने अधीनस्थ अधिकारियों के द्वारा करेगा।

    अनुच्छेद 74 केवल संघ की कार्यपालिका शक्ति के विस्तार का उल्लेख करता है जिसके अनुसार संघ की कार्यपालिका शक्ति का विस्तार इन विषयों के संबंध में होगा जिन पर संसद को कानून बनाने की शक्ति है। इसका अर्थ यह है कि संघ की कार्यपालिका शक्ति संसद की विधान बनाने की शक्ति की सह विस्तारी शक्ति है।

    कार्यपालिका शक्ति का उन राजकीय कार्यों से तात्पर्य है जो विधाई और न्यायिक कार्यों को निकालने के पश्चात शेष बचते हैं। एक मामले में यह कहा गया है कि कार्यपालिका शक्ति के अधीन राज्य को मान्यता प्राप्त शिक्षण संस्थानों के लिए पाठ्य पुस्तकों के प्रकाशन मुद्रण और विक्रय की शक्ति प्राप्त है किंतु इस प्रकार के कार्यों से नागरिक के मूल अधिकारों का अतिक्रमण नहीं होना चाहिए।

    भारत की संसदीय सरकार पद्धति में राष्ट्रपति केवल नाम मात्र का राष्ट्राध्यक्ष है असल सारी शक्तियां तो प्रधानमंत्री में ही है क्योंकि प्रधानमंत्री ही मंत्री परिषद का अध्यक्ष होता है।

    राष्ट्रपति होने के लिए पात्रता

    भारत के संविधान का अनुच्छेद 58 राष्ट्रपति के पद के लिए पात्र होने वाले व्यक्ति को कुछ अर्हता आवश्यक करता है जिसके अनुसार ऐसा व्यक्ति को भारत का नागरिक होना चाहिए और उसे 45 वर्ष की आयु का होना चाहिए और लोकसभा का सदस्य निर्वाचित होने की अर्हता रखनी चाहिए अर्थात उसका नाम किसी संसदीय निर्वाचन मंडल में मतदाता के रूप में पंजीकृत होना चाहिए और उसे भारत सरकार अथवा किसी राज्य सरकार के अधीन अथवा उक्त सरकारों में से किसी के अधीन नियंत्रित किसी स्थानीय या अन्य पदाधिकारी के अधीन कोई लाभ का पद धारण किए हुए नहीं होना चाहिए।

    राष्ट्रपति संसद के किसी सदन के किसी राज्य विधानमंडल के सदन का सदस्य नहीं होगा यदि वह निर्वाचन के समय उक्त सदनों में से किसी का सदस्य था तो राष्ट्रपति के रूप में अपने पद ग्रहण के तारीख से उस सदन से उसकी सदस्यता स्वता समाप्त मानी जाएगी। राष्ट्रपति अन्य कोई लाभ का पद धारण नहीं कर सकता।

    राष्ट्रपति की पदावधि

    राष्ट्रपति अपने पद ग्रहण की तारीख से 5 वर्ष तक की अवधि तक पद धारण करता है। राष्ट्रपति अपने पद की समाप्ति के पश्चात भी अपने पद धारण करता रहेगा जब तक कि उसका उत्तराधिकारी अपना प्रकरण नहीं कर लेता है। वह पद के पूर्ण निर्वाचन का पात्र है। वह इस पद के लिए अनेक बार निर्वाचित किया जा सकता है।

    भारत का संविधान किसी भी व्यक्ति को अनेकों बार राष्ट्रपति के रूप में नियुक्त होने की इजाजत देता है। 5 साल के पहले भी राष्ट्रपति अपना पद त्याग सकता है। यह त्यागपत्र उपराष्ट्रपति को संबोधित किया जाएगा जो इसकी सूचना लोकसभा अध्यक्ष को देगा।

    उसे संविधान का अतिक्रमण करने पर अनुच्छेद 61 में उपबंधित रीति से किए गए महाभियोग पद से हटाया जा सकता है। यहां ध्यान देना चाहिए कि राष्ट्रपति पर महाभियोग लगाने की प्रक्रिया प्रीति का उल्लेख अनुच्छेद 61 के अंतर्गत किया गया है।

    राष्ट्रपति के निर्वाचन का तरीका

    भारत का राष्ट्रपति अप्रत्यक्ष निर्वाचन द्वारा चुना जाता है। इसके लिए कोई सीधा चुनाव नहीं होता है अर्थात जनता के चुने हुए प्रतिनिधियों द्वारा ही राष्ट्रपति को चुन लिया जाता है। संसदीय प्रणाली के अंतर्गत राष्ट्रपति नाम मात्र का राष्ट्र अध्यक्ष होता है इसलिए इसके लिए कोई सीधा चुनाव नहीं होता है।

    संयुक्त राज्य अमेरिका में राष्ट्रपति के लिए जनता से सीधा चुनाव होता है। जनता द्वारा सीधे चुना गया व्यक्ति ही राष्ट्रपति होता है परंतु भारत की संसदीय सरकार प्रणाली में राष्ट्रपति नाम मात्र का अध्यक्ष है इसलिए उसका चुनाव अप्रत्यक्ष निर्वाचन के आधार पर होता है। संघ की कार्यपालिका शक्ति मंत्री परिषद में निहित होती है।

    राष्ट्रपति का निर्वाचन एक ऐसे निर्वाचन खंड के सदस्य करते हैं जिनमें संसद के दोनों सदनों के निर्वाचित सदस्य तथा राज्य की विधानसभाओं के निर्वाचित सदस्य होते हैं। इसका उल्लेख भारत के संविधान के अनुच्छेद 54 के अंतर्गत किया गया है। राष्ट्रपति निर्वाचन आनुपातिक प्रतिनिधित्व पद्धति के अनुसार एकल संक्रमणीय मत द्वारा होता है तथा इसे निर्वाचन में मतदान गुणाकार के द्वारा होता है।

    भारत के संविधान के अनुच्छेद 55 के अनुसार जहां तक व्यवहार की बात हो राष्ट्रपति के निर्वाचन में भिन्न भिन्न राज्यों के प्रतिनिधित्व में एकरूपता होगी तथा समस्त राज्यों में आपस में एकरूपता तथा समस्त राज्यों और संघ में भी ऐसी समतुल्यता का प्रयास होगा।

    अलग-अलग राज्यों में ऐसी एकरूपता तथा समस्त राज्यों और संघ में संतुलित बनाए रखने के लिए एक विशेष फार्मूला अपनाया गया है।

    इस फार्मूले के अनुसार किसी राज्य के विधानसभा के प्रत्येक निर्वाचित सदस्य के उतने मत होंगे जितने की 1000 के गुणित भाग में हो। जो राज्य की जनसंख्या को सभा के निर्वाचित सदस्यों की संपूर्ण संख्या से भाग देने में आया। यदि 1000 से उक्त गुणित को लेने के बाद शेष 500 से कम न हो तो उल्लेखित प्रत्येक सदस्य के पदों की संख्या में एकमत और जोड़ दिया जाएगा।

    जैसे कि मध्य प्रदेश राज्य की जनसंख्या 28000000 है और वहां की विधानसभा में निर्वाचित सदस्यों की संख्या 230 है अर्थात एक सदस्य एक लाख जनता का प्रतिनिधित्व करता है।

    राज्य जनसंख्या

    विधानसभा के निर्वाचित सदस्यों की कुल संख्या और भाग 1000

    संसद के प्रत्येक सदन के प्रत्येक निर्वाचित सदस्यों के मतों की संख्या वही होगी जो राज्यों की विधानसभाओं के सदस्यों के लिए संपूर्ण मत संख्या को सदन संसद के दोनों सदनों के निर्वाचित सदस्यों की कुल संख्या से भाग देने से आए।

    मान लीजिए कि उक्त घटना के अनुसार राज्य विधानसभा में के सदस्यों की कुल संख्या 700000 है और संसद के दोनों सदनों की कुल 750 निर्वाचित सदस्य हैं तो संसद के प्रत्येक सदस्य को निम्नलिखित मत देने का अधिकार होगा।

    राज्य विधानसभाओं के मतों की कुल संख्या÷ संसद के निर्वाचित सदस्यों की कुल संख्या ÷ 1000।

    संविधान के अंतर्गत राष्ट्रपति का निर्वाचन अनुपातिक प्रतिनिधित्व पद्धति के अनुसार एकल संक्रमणीय मत द्वारा होगा। पूर्ण निर्वाचन में मतदान गूढ़ शलाका द्वारा होगा। यह मत प्रणाली निम्न तरीके से कार्य करती है।

    मान लीजिए कि राष्ट्रपति पद के लिए ABCD 4 प्रत्याशी हैं और दिए गए वैध मतों की संख्या 15000 है| निर्वाचित घोषित होने के लिए 1 प्रत्याशी को न्यूनतम 7501 मत प्राप्त करना आवश्यक है अर्थात कुल वैध मतों का 50%।

    चारों प्रत्याशियों ने क्रमश निम्न प्रकार से प्रथम वरीयता मत प्राप्त किए-

    A-5250

    B-4800

    C-2700

    D- 2250

    यहां किसी भी उम्मीदवार को बहुमत अर्थात 7501 मत प्राप्त नहीं हुआ है। इस स्थिति में D को सबसे कम मत मिलने के कारण पराजित घोषित कर दिया जाएगा और उसके 2250 में ऊपर दिए गए द्वितीय वरीयता मध्य तीनों उम्मीदवारों में विभाजित कर दिया जाएगा।

    मान लीजिए D के मतों में विभाजन इस प्रकार है- A को 300 B को 1050 और C को 900 तो उनकी संख्या इस प्रकार होगी-

    A- 5550

    B- 5850

    C- 3600

    उसके बाद भी किसी को बहुमत नहीं मिल पाया। अतः C को सबसे कम मत मिले उसे पराजित घोषित कर दिया जाएगा और उसके 3600 मतपत्रों पर वरीयता ए और बी को हस्तांतरित कर दिए जाएंगे।

    मान लीजिए कि A पक्ष में 1720 और B पक्ष में 1900 है, इस प्रकार दूसरी बार हस्तांतरण का परिणाम इस प्रकार होगा-

    A-7250

    B-7750

    इस प्रकार B 50% 7501 से अधिक मत प्राप्त करने के कारण विजय घोषित होगा। A को प्रथम बार मत अधिक मिले थे। यह प्रक्रिया तब तक दोहराई जाती रहेगी जब तक कि किसी उम्मीदवार को बहुमत अर्थात आधे से अधिक मत नहीं प्राप्त हो जाते हैं।

    डॉक्टर खरे बनाम इलेक्शन कमीशन ऑफ इंडिया के मामले में पिटीशनर ने 1957 में होने वाले राष्ट्रपति के निर्वाचन को इस आधार पर स्थगित किए जाने के लिए न्यायालय में याचिका दाखिल की कि पंजाब हिमाचल प्रदेश के विधान मंडलों में कुछ स्थान रिक्त थे। इस प्रकार अनुच्छेद 54, 55 के अधीन निर्वाचक मंडल अपूर्ण था और स्थगित कर दिया जाना चाहिए।

    न्यायालय ने याचिका को खारिज करते हुए निर्णय दिया कि राष्ट्रपति के निर्वाचन पर आपत्ति करने वाली याचिका केवल चुनाव पूर्ण होने के बाद ही स्वीकार की जा सकती है। अर्थात जबकि कोई उम्मीदवार निर्वाचित घोषित कर दिया जाता है।

    यदि ऐसा न हो तो राष्ट्रपति का निर्वाचन 5 वर्ष तक रुका रह सकता है जो अनुच्छेद 62 के विरुद्ध है। राष्ट्रपति और उपराष्ट्रपति के निर्वाचन पर इस आधार पर आपत्ति नहीं की जा सकती कि उसके निर्वाचन करने वाले निर्वाचक मंडल के सदस्यों में किसी कारण से रिक्तता वर्तमान हैं।

    निर्वाचन पूर्ण हो जाने के पश्चात डॉक्टर खरे ने राष्ट्रपति के निर्वाचन विधिमान्यता को फिर से चुनौती दी है। न्यायालय ने उनकी याचिका को खारिज कर दिया। न्यायालय ने कहा कि राष्ट्रपति उपराष्ट्रपति के निर्वाचन अधिनियम की धारा 14 के अंतर्गत किसी चुनाव पर आपत्ति ऐसे निर्वाचन में के उम्मीदवार कर सकते हैं या 10 से अधिक मतदाता कर सकते हैं, क्योंकि डॉक्टर खरे न मतदाता न उम्मीदवार इसलिए उन्हें याचिका दाखिल करने का अधिकार नहीं था।

    इन री प्रेसीडेंशियल इलेक्शन के मामले में पुनः राष्ट्रपति के चुनाव को इस आधार पर स्थगित करने के लिए याचिका फाइल की गई कि गुजरात राज्य की विधानसभा स्थगित हो गई थी। अनुच्छेद 54, 55 में उल्लेखित निर्वाचक मंडल अपूर्ण था। इस मामले में यही तर्क दिए गए जो डॉ खरे के मामले में दिए गए थे।

    उच्चतम न्यायालय ने यह अभिनिर्धारित किया कि राष्ट्रपति की पदावधि समाप्ति पर हुई रिक्त स्थान की पूर्ति के लिए निर्वाचन राष्ट्रपति की अवधि समाप्ति से पूर्व ही पूर्ण कर लिया जाएगा। संविधान के अनुच्छेद 62 में अपेक्षा की गई है कि राष्ट्रपति का निर्वाचन उसमें नियत किए गए समय के अंदर पूर्ण हो जाना चाहिए और यह उपबंध सर्वसाधारण के हित में है और आज्ञापक स्वरूप का है।

    निर्वाचन की प्रक्रिया को 5 वर्ष की अवधि समाप्त हो जाने के बाद तक रोका नहीं जा सकता। यदि संसद में अथवा एक या अधिक राज्यों के विधान मंडलों में रिक्तियां हो तो भी राष्ट्रपति के चुनाव को रोका नहीं जा सकता। राष्ट्रपति की पदावली निश्चित है, अवधि की समाप्ति से हुई रिक्त स्थान की पूर्ति के लिए निर्वाचन की समाप्ति से पहले पूरा कर लिया जाएगा।

    अनुच्छेद 56 केवल उन्हीं मामलों में लागू होगा जहां उसका उत्तराधिकारी अपना पद धारण नहीं कर लेता है। अनुच्छेद 56 और अनुच्छेद 62 को साथ-साथ पढ़ा जाना चाहिए और इससे स्पष्ट हो जाता है कि राष्ट्रपति की पदावधि की समाप्ति से हुई रिक्तियों को भरने के लिए निर्वाचन पदावली के समाप्ति से पहले ही पूर्ण कर लिया जाना चाहिए।

    उपराष्ट्रपति

    भारत का एक उपराष्ट्रपति भी होता है। उपराष्ट्रपति का निर्वाचन संसद के दोनों सदनों के सदस्य मिलकर आनुपातिक प्रतिनिधित्व पद्धति के अनुसार एकल संक्रमणीय मत द्वारा करते हैं और ऐसा निर्वाचन में मतदान गूढ़ शलाका द्वारा होता है।

    अनुच्छेद 66 के अनुसार राष्ट्रपति के निर्वाचन में विधानमंडल के सदस्य भी भाग लेते हैं जबकि उपराष्ट्रपति के निर्वाचन में केवल संसद के सदस्य की भाग लेते हैं। उपराष्ट्रपति का निर्वाचन राज्य के विधान मंडलों की भूमिका में नहीं होता है। ऐसा उसके कार्यों को देखते हुए किया गया है। उसका मुख्य कार्य राज्य सभा की बैठकों की अध्यक्षता करना।

    राष्ट्रपति के निर्वाचन से संबंधित किसी विषय का विनियम संसद विधि बना कर कर सकती है। उसके निर्वाचन से संबंधित सभी शंका और विवादों की जांच और विहित उच्चतम न्यायालय करता है। उसके निर्वाचन पर आपत्ति निर्वाचन पूरा होने के बाद भी की जा सकती है। न्यायालय द्वारा उसके निर्वाचन को शून्य घोषित किए जाने पर उसके पद की शक्तियों के प्रयोग में किए गए कार्य मान्य नहीं होंगे।

    राष्ट्रपति की भांति उपराष्ट्रपति का कार्यकाल 5 वर्षों का होता है पर उपराष्ट्रपति भी राष्ट्रपति की तरह अपने पद से कभी भी इस्तीफा दे सकता है।

    राष्ट्रपति की शक्तियां

    भारत के संविधान में दी गई राष्ट्रपति की शक्तियां कुछ भागों में बांटी जा सकती हैं। जैसे कि राष्ट्रपति की कार्यपालिका शक्ति, सैनिक शक्ति, कूटनीतिक शक्ति ,विधायिका शक्ति, न्यायिक शक्ति और आपातकालीन शक्तियां।

    संविधान में राष्ट्रपति को अनेकों कार्यपालिका शक्ति प्राप्त है। संघ की कार्यपालिका शक्ति राष्ट्रपति में निहित है। वह भारतीय गणतंत्र का प्रधान है। भारत की समस्त कार्यपालिका कार्यवाही राष्ट्रपति के नाम से की जाती है।

    वह देश के सभी उच्च अधिकारियों की नियुक्ति करता है जिसे प्रधानमंत्री की सलाह से अन्य मंत्रियों, उच्चतम तथा उच्च न्यायालय के न्यायाधीशों, राज्यों के राज्यपालों, भारत के महान्यायवादी, भारत के नियंत्रक महालेखा परीक्षक, लोक सेवा आयोग के अध्यक्ष तथा सदस्य तथा ऑफिशल कमीशन के सदस्य अनुसूचित और आदिम जाति के लिए विशेष अधिकारी अनुसूचित और पिछड़े वर्गों के लिए आयोग तथा अल्पसंख्यकों के लिए विशेष अधिकारी आदि की नियुक्ति राष्ट्रपति द्वारा की जाती है परंतु राष्ट्रपति शक्तियों का उपयोग मंत्रिपरिषद की सलाह पर ही करता है।

    राष्ट्रपति केंद्रीय विधान मंडल का एक आवश्यक अंग है। उसे बहुत सारी कानूनी शक्तियां प्राप्त हैं किंतु व्यवहार में हुई शक्तियों का प्रयोग वह मंत्रिपरिषद के परामर्श से करता है। राष्ट्रपति संसद के सत्र को आहूत करता है और सत्र खत्म करता है।

    अनुच्छेद 85 के अनुसार संसद के एक सत्र की अंतिम बैठक और आगामी सत्र की प्रथम बैठक के लिए नियुक्त तारीख के बीच 6 माह से अधिक का अंतर नहीं होना चाहिए वरना राष्ट्रपति एक सत्र के अंतिम बैठक के बाद 6 माह के बीच संसद का सत्र बुलाने के लिए बाध्य है।

    प्रत्येक सत्र के आरंभ में राष्ट्रपति दोनों सदनों के संयुक्त सत्र को संबोधित करता है जिसमें वह सरकार की सामान्य नीतियों और भावी कार्यवाही कार्यक्रमों का विवरण देता है किंतु अभिभाषण राष्ट्रपति का अभिभाषण नहीं होता।

    संसद के दोनों सदनों द्वारा पारित विधेयक राष्ट्रपति के हस्ताक्षर के लिए भेजा जाता है उसकी अनुमति के बाद ही वह अधिनियम बनता है। यदि कोई विधेयक धन विधेयक नहीं है तो वह उसे अपने सुझाव के साथ पुनर्विचार के लिए लौटा भी सकता है।

    यदि विधेयक संसद में संसद नहीं पहचाना नहीं पुनः पारित हो जाता है और राष्ट्रपति के अनुमति के लिए आता है तो उस पर अपनी अनुमति देने के लिए बाध्य है, यदि किसी साधारण विधेयक पर दोनों में कोई असहमति है तो समझाने के लिए राष्ट्रपति दोनों सदनों की संयुक्त बैठक बुला सकता है।

    नए राज्यों के निर्माण में वर्तमान राज्यों के बदलने के लिए कोई विधेयक राष्ट्रपति की सिफारिश के बिना संसद में पेश नहीं किया जा सकता। व्यापार वाणिज्य स्वतंत्रता पर लगाने वाला राज्य का कोई भी विधेयक राष्ट्रपति की पूर्व अनुमति के बिना राज्य विधान मंडल में पेश नहीं किया जा सकता है।

    अध्यादेश प्रख्यापित करने की शक्ति

    भारत के संविधान के अनुच्छेद 123 के अनुसार राष्ट्रपति की विधाई शक्तियों में उसके अध्यादेश जारी करने की शक्ति सबसे महत्वपूर्ण शक्ति है। अनुच्छेद 123 उपबंधित करता है इसे संसद के दोनों सदन सत्र में न हो राष्ट्रपति को इस बात का समाधान हो जाएगी ऐसी परिस्थितियां वर्तमान है जिनमें तुरंत कार्यवाही करना आवश्यक हो तो वह ऐसे अध्यादेश प्रख्यापित कर सकेगा जो उसे उक्त परिस्थितियों में अपेक्षित हो।

    राष्ट्रपति द्वारा जारी किए गए अध्यादेश का वही बल होगा और प्रभाव होगा जो संसद द्वारा पारित अधिनियम का होता है। संसद के दोनों सदनों के समक्ष रखा जाएगा। 6 सप्ताह होने की तारीख से समाप्त हो जाएगा। राष्ट्रपति किसी समय अपने द्वारा जारी किए गए अध्यादेश को वापस ले सकता है।

    राष्ट्रपति के अध्यादेश जारी करने की शक्ति संसद की विधायी शक्तियों की सह विस्तारी अर्थात या उन्हीं विषयों से संबंधित है जिन पर संसद को विधि बनाने की शक्ति प्राप्त किया है। कोई अध्यादेश ऐसा उपबंध करता है जिसे अधिनियमित करने का संसद का अधिकार नहीं है तो वह शून्य होगा।

    इस प्रकार किसी अध्यादेश द्वारा नागरिकों के मूल अधिकारों का अतिक्रमण नहीं किया जा सकता क्योंकि अनुच्छेद 13 के अधीन विधि शब्द के अंतर्गत अध्यादेश भी शामिल है।

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