भारत का संविधान ( Constitution of India) भाग 1: भारत के संविधान का मूल आधारभूत परिचय

Shadab Salim

5 Jan 2021 4:45 AM GMT

  • भारत का संविधान ( Constitution of India) भाग 1: भारत के संविधान का मूल आधारभूत परिचय

    भारत का संविधान भारत की सर्वोच्च विधि है। हिंदी भाषा में संविधान से संबंधित जानकारियां अत्यंत न्यून है। लाइव लॉ का उद्देश्य भारत के संविधान पर कुछ ऐसे आलेख प्रकाशित करना है जिनसे अत्यंत संक्षिप्त और कम समय में इतने विशद संविधान का अध्ययन हो सके।

    लेखक इस उद्देश्य में प्रयासरत है कि कुछ इस प्रकार के आलेखों को प्रस्तुत कर सके जिनके माध्यम से भारत के संविधान की मूल बातों का सरलता के साथ कम समय में संक्षिप्त से अध्ययन हो सके। इस उद्देश्य की पूर्ति हेतु ही लाइव लॉ द्वारा भारत के संविधान पर इस सीरीज का प्रारंभ किया जा रहा है। इस सीरीज के सबसे पहले आलेख में भारत के संविधान के संदर्भ में मूल बातों को प्रस्तुत किया जा रहा है तथा संविधान का एक सामान्य परिचय दिया जा रहा है।

    भारत का संविधान

    भारत में अंग्रेजी शासन की स्थापना 16 वीं शताब्दी में हुई, हालांकि यह आधिकारिक अंग्रेजी शासन की स्थापना नहीं थी। आधिकारिक अंग्रेजी शासन की स्थापना सन 1757 के प्लासी के युद्ध में बंगाल के अंतिम शासक नवाब सिराजुद्दौला को हराकर हो गई थी। यह भारत में मुस्लिम साम्राज्य की सबसे पहली हार थी जहां प्लासी के युद्ध में ब्रिटिश साम्राज्य ने अपनी नींव रख दी थी।

    प्लासी के युद्ध के ठीक बाद ही 1773 में ब्रिटिश शासन ने भारत में रेगुलेटिंग एक्ट पास किया। इसके बाद निरंतर संघर्ष चलते रहे और अनेकों कानून ब्रिटिश साम्राज्य द्वारा भारत में बनाए गए। भारत में ब्रिटिश कानूनों का निर्माण सोलवीं शताब्दी से प्रारंभ हो गया था परंतु रेगुलेटिंग एक्ट महत्वपूर्ण कानून था जिसने अंग्रेजी शासन के पैर भारतीय धरती पर जमा दिए थे।

    भारत का संविधान बनने के पीछे एक लंबी प्रक्रिया है एक लंबा ऐतिहासिक काल है जिसकी अवधि लगभग 300 वर्ष की है। इस अवधि के बाद भारत का संविधान अस्तित्व में आया। अंग्रेजों से लंबे संघर्ष के बाद अगस्त सन 1947 भारतीय स्वतंत्रता अधिनियम लागू हुआ जिसमें पूर्ण रूप से उल्लेख कर दिया गया था कि 15 अगस्त 1947 को भारत और पाकिस्तान दोनों स्वतंत्र राज्य की स्थापना हो जाएगी, प्रत्येक राज्य में गवर्नर जनरल होगा तथा जब तक दोनों राज्य में अपने संविधान का निर्माण नहीं कर लेते हैं तब तक वहां पर भारत सरकार अधिनियम 1935 लागू रहेगा।

    संविधान निर्माताओं के कंधों पर एक बड़ी चुनौती थी एक छोटी अवधि में इतने विशाल देश के संविधान का निर्माण करना था। भारत के नेताओं ने स्वतंत्रता संग्राम में लड़े हुए लोगों ने इस चुनौती को हाथों हाथ लिया और ताबड़तोड़ अगस्त 1947 के बाद भारत का संविधान तैयार करने बैठ गए।

    भारत का संविधान बनने में अथक प्रयास हुए, इस संविधान समिति के प्रारूप समिति के अध्यक्ष डॉक्टर भीमराव अंबेडकर की अध्यक्षता की कमेटी ने कुल 2 वर्ष 11 महीने 18 दिन तक निरंतर परिश्रम के परिणाम स्वरूप परिष्कृत होकर भारत का संविधान भारत की जनता के सामने आया।

    इस संविधान के निर्माण में अनेक अधिवेशन हुए संविधान सभा ने कुल 11 अधिवेशन किए। इन अधिवेशन में संविधान के ऊपर बहस हुई 26 नवंबर 1949 को जब संविधान प्राप्त हुआ तब संपूर्ण संविधान को संपूर्ण भारत वर्ष में लागू नहीं हुआ था उसके कुछ विशेष उपबंध उसी समय लागू कर दिए गए थे जैसे अनुच्छेद 5, 6, 7, 8, 9 अनुच्छेद 324 ,368, 380, 388, 391, 392, 393, 394 शेष बंद 26 जनवरी 1950 को प्रवृत हो गए। इसी तारीख को संविधान की प्रवर्तन की तारीख भी कहा गया, इस ही दिन गणतंत्र दिवस भी मनाया जाता है।

    इतना समझ लिया जाना चाहिए कि भारत का संविधान एक लंबी यात्रा का परिणाम है। भारतीयों ने एक लंबी यात्रा की है उस यात्रा के फल स्वरुप भारत का संविधान सामने आया है। मुस्लिम लीग ने संविधान समिति के प्रति असहयोग जताया था परंतु विभाजन होने के पश्चात उनके असहयोग की कोई कीमत नहीं रह गई तथा भारतीयों ने अपना संविधान तैयार कर दिया।

    कैबिनेट योजना के अनुसार नवंबर 1946 को संविधान सभा के सदस्यों का निर्वाचन हुआ था। कुल 296 सदस्यों में से 211 सदस्य कांग्रेसी चुने गए और 73 मुस्लिम लीग के तथा शेष खाली रहे। संविधान सभा के प्रमुख सदस्य जवाहरलाल नेहरू, राजेंद्र प्रसाद, सरदार पटेल, मौलाना आजाद, गोपाल स्वामी, गोविंद बल्लभ पंत, अब्दुल गफ्फार खान टीटी कृष्णमाचारी, हृदयनाथ कुंजरू, मसानी, आचार्य कृपलानी, डॉ भीमराव अंबेडकर, राधा-कृष्ण जयशंकर, लियाकत अली खान, ख्वाजा मोइनुद्दीन,सर फिरोज खान, डॉ सच्चिदानंद सिन्हा इत्यादि लोग शामिल रहे।

    भारत का संविधान परीसंघात्मक व्यवस्था पर आधारित है। यहां पर केंद्र और राज्यों के अलग अलग शासन व्यवस्था है। एक ही संविधान में केंद्र और राज्य दोनों का ही उल्लेख करना था इसके कारण यह संविधान अत्यंत विशद हो गया।

    कई विद्वानों ने भारत के संविधान को विश्व का सर्वाधिक बड़ा संविधान घोषित किया है। इस संविधान की मूल प्रति में कुल 295 अनुच्छेद थे जिसे 22 भागों में बांटा गया था और 8 अनुसूचियां थी।

    संविधान निर्माताओं ने विश्व के सभी संविधानों से कुछ न कुछ अनुभव लिया और उनके संचालन में हुई अनेक कठिनाइयों के बारे में भी ज्ञान हुआ। संविधान निर्माताओं ने विश्व के इन सभी संविधानओं को देखा उनकी समस्याओं का आकलन किया और उसके बाद भारत के संविधान का निर्माण किया। इससे भारत के संविधान निर्माताओं को यह लाभ मिला कि जो उपबंध अधिक कठिनाई वाले थे जिनके संचालन में कठिनाई आई थी उपबंधों का समावेश भारत के संविधान में नहीं किया गया।

    इस प्रकार भारतीय समाज को ध्यान में रखते हुए भारत के संविधान में अमेरिका से मूल अधिकार लिए गए, ब्रिटेन से संसदीय प्रणाली ली गई, आयरलैंड के संविधान से राज्य के नीति निर्देशक तत्व और जर्मनी के संविधान से तथा भारत सरकार अधिनियम 1935 के प्रावधानों से आपात उपबंध को लिया गया इन सभी को लेकर भारत के संविधान का निर्माण किया गया।

    भारत संघ अलग-अलग राज्यों से मिलकर बना है। इन राज्यों के पास इनका अपना कोई संविधान नहीं है अपितु संपूर्ण भारत संघ का केवल एक ही संविधान है और उसे कि संविधान में भारत संघ से संबंधित तथा भारत के अलग-अलग प्रांतों से संबंधित सभी का उल्लेख कर दिया गया है अर्थात सभी प्रांतों का एक ही संविधान है तथा भारत संघ का भी एक ही संविधान है। संविधान में संघ और भारत के राज्यों के लिए अलग-अलग व्यवस्था है परंतु पुस्तक एक ही है।

    भारत के संविधान को गढ़ने में सर्वाधिक कठिनाई इसकी विविधता सांस्कृतिक भिन्नता है। अलग-अलग स्थानों पर अलग-अलग बोली अलग-अलग संस्कृति का होना तथा इतने विशाल भारत के संविधान को बनाना कोई सरल कार्य नहीं है। इतने धर्म इतनी जातियां और इतनी भाषाओं के होते हुए भी भारत की एकरूपता के लिए भारत के संविधान का निर्माण किया गया जो आज तक सफल साबित हुआ है।

    भारत के संविधान में नागरिकों को केवल मूल अधिकार ही नहीं दिए अपितु इन मूल अधिकारों के साथ में राज्य के नीति निर्देशक तत्वों का भी उल्लेख किया गया है। यह राज्य के नीति निदेशक तत्व तथा मूल अधिकार आपस में एक दूसरे के सहवर्ती हैं अर्थात जो राज्य का कर्तव्य है वही नागरिकों के अधिकार हैं। यदि राज्य अपने कर्तव्य को पूरा कर देगा तो नागरिकों को उनके अधिकार स्वतः ही मिल जाएंगे।

    भारत के संविधान के अंतर्गत मूल अधिकारों को न्यायालय के द्वारा प्रवर्तनीय करार दिया गया है परंतु राज्य के नीति निर्देशक तत्व को किसी न्यायालय द्वारा प्रवर्तनीय नहीं किया जा सकता। संविधान निर्माताओं ने इन सब के बारे में विस्तार से उपबंधों को रखने के बारे में कहा है कि यदि ऐसा नहीं किया जाता तो लोकतांत्रिक प्रणाली समुचित ढंग से कार्य नहीं कर सकती।

    संपूर्ण प्रभुत्व संपन्न

    भारत का राज्य संपूर्ण प्रभुत्व राज्य है। भारत को संपूर्ण प्रभुत्व संपन्न बनाना भारतीय संविधान का कार्य था तथा भारत के संविधान ने भारत को प्रभुसत्ता बनाया। संप्रभु राज्य बनाया अर्थात भारत राज्य से ऊपर कुछ नहीं है। भारत संप्रभु राज्य है न भारत पर किसी का कोई अधिकार है न भारत के आंतरिक मामलों में राजनीतिक मामलों में सामाजिक मामलों में किसी प्रकार का कोई हस्तक्षेप अंतर्राष्ट्रीय विधि द्वारा नहीं किया जाएगा।

    भारत संप्रभु राज्य है अर्थात भारत से सर्वोच्च कुछ नहीं है। आधुनिक व्यवस्था में राज्य उसे कहते हैं जो बाहरी नियंत्रण से पूरी तरह मुक्त हो तथा अपनी आंतरिक को विदेशी नीतियों को स्वयं निर्धारित करता है। इस संबंध में भारत पूर्णतः स्वतंत्र है। भारत की सरकार आंतरिक तथा बाहरी मामलों में अपनी इच्छा अनुसार आचरण करने के लिए पूर्ण स्वतंत्र है, यह संप्रभुता है किसी विदेशी सत्ता में नहीं अपितु भारत की जनता में निहित है।

    स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद भी भारत राष्ट्रमंडल और संयुक्त राष्ट्र संघ का एक सदस्य है। राष्ट्रमंडल की सदस्यता की कुछ लोगों ने आलोचना की कि, भारत की संप्रभुता विपरीत प्रभाव पड़ता है और भारत को उसकी सदस्यता लेना चाहिए किंतु यह सदस्यता किसी प्रकार से भारत की संप्रभुता पर कोई प्रभाव नहीं डालती और न ही भारत किसी विदेशी शक्ति के अधीन हो जाता है।

    लोकत्रांतिक

    लोकतंत्र शब्द का तात्पर्य ऐसी सरकार है जिसका समूचा अधिकार जनता में निहित होता है और जनता के लिए जनता द्वारा स्थापित की जाती है। देश का प्रशासन सीधे जनता द्वारा निर्वाचित प्रतिनिधियों द्वारा किया जाता है। प्रत्येक 5 वर्ष के बाद जनता नए प्रतिनिधि को निर्वाचित करती है इसी उद्देश्य के लिए संविधान प्रत्येक नागरिक को मताधिकार प्रदान करता है।

    भारत का संविधान भारत के संचालन के लिए भारत की सर्वोच्च प्रशासनिक विधि है अर्थात देश की राजनीतिक व्यवस्था का उल्लेख करता है। किसी भी देश के संचालन के लिए उसकी राजनीतिक व्यवस्था तथा उसके प्रशासनिक कानून का स्पष्ट प्रावधान होना अति आवश्यक है क्योंकि किसी भी राष्ट्र का निर्माण केवल भूभाग केवल धरती के नागरिकों से ही नहीं होता है किसी राष्ट्र का निर्माण होता है जिस राष्ट्र के पास उसका संविधान है।

    इस हेतु ही भारत के संविधान का अधिक महत्व है भारत में उसके संविधान से अधिक सर्वोच्च कुछ भी नहीं है क्योंकि भारत को निर्माण करने वाली शक्ति भारत का संविधान है। भारत के संविधान ने ही भारत को निर्माण किया है। इस संविधान के पहले भारत की अलग स्थिति थी जिस समय भारत का संविधान लागू हुआ उस समय भारत की अखंडता और भारत की संप्रभुता सारे विश्व के सामने आई।

    संसदीय सरकार

    भारत के संघात्मक संविधान में संसदीय सरकार की स्थापना की है। अध्यक्ष सरकार के नियम को भारत के संविधान में नहीं अपनाया, जैसा कि अमेरिका के संविधान में अध्यक्ष शासन प्रणाली के मत को अपनाया गया है क्योंकि भारत अनेकों प्रांतों में बंटा हुआ राज्य है। अनेक बोली तथा अनेको धर्मों का राज्य था, इस सिद्धांत का पालन इस हेतु ही किया गया है। यह व्यवस्था केंद्र व राज्य दोनों सरकारों में एक सी है।

    सरकार का यह स्वरूप इंग्लैंड की सरकार के समान है। सरकार के स्वरूप को अपनाने का मुख्य कारण यह था कि भारत में इसकी नींव वर्तमान संविधान के लागू होने के पहले ही पड़ चुकी थी क्योंकि भारत सरकार अधिनियम 1935 जो ब्रिटिश साम्राज्य द्वारा लागू किया गया था उसमें भी संसदीय प्रणाली द्वारा शासन की व्यवस्था थी तो संसदीय प्रणाली शासन व्यवस्था का श्रेय भारत सरकार अधिनियम 1935 को भी जाता है।

    संविधान सभा ने बिना किसी विकल्प पर विचार किए ऐतिहासिक परंपरा के आधार पर संसदीय प्रणाली को अपना लिया। संसदीय प्रणाली में राष्ट्रपति का स्थान इंग्लैंड के सम्राट के समान है। यह कार्यपालिका का नाममात्र का प्रधान होता है वास्तविक कार्यपालिका शक्ति जनता के निर्वाचित प्रतिनिधियों में जिसे मंत्रिपरिषद कहते हैं निहित होती है।

    मंत्री परिषद का प्रधान प्रधानमंत्री होता है। असल में भारत का राष्ट्रीय अध्यक्ष उसका प्रधानमंत्री है परंतु संविधानिक रूप से भारत का प्रमुख राष्ट्रीय अध्यक्ष राष्ट्रपति है परंतु वह मात्र का राष्ट्रीय अध्यक्ष है। विधान के अनुसार समस्त कार्यपालिका शक्ति राष्ट्रपति के हाथों में हैं परंतु उसका प्रयोग मंत्रिपरिषद की सलाह से ही करता है।

    भारत के संविधान में विस्तारपूर्वक मूल अधिकारों का उल्लेख किया है। भारत के संविधान के भाग 3 के अंतर्गत लगभग उन सभी मूल अधिकारों को शामिल कर दिया गया है जिन अधिकारों के लिए लंबा स्वतंत्रता संग्राम चला है। इन्हीं अधिकारों के लिए भारत के वीर लोगों ने अपने प्राणों की आहुति दी है,आजादी के हवन कुंड में अपना रक्त प्रस्तुत किया है।

    भारत के मूल अधिकार उसी ऐतिहासिक युद्ध के परिणाम स्वरूप प्राप्त फल है। यह मूल अधिकार किसी भी मनुष्य के लिए अति आवश्यक है। यह मूल अधिकार उसके नैसर्गिक अधिकार भी है व्यक्ति के बहुमुखी विकास के लिए जिन अधिकारों का प्राप्त होना आवश्यक है उन्हें मूल अधिकार कहा जाता है। यह मूल अधिकार ही व्यक्ति के विकास और उसकी स्वतंत्रता की आधारशिला है। प्रत्येक विकसित राष्ट्रीय में इस प्रकार के मूल अधिकारों का उल्लेख किया गया है। इन अधिकारों को संविधान में समाविष्ट करने की प्रेरणा हमें अमेरिका के संविधान से मिली है। यह अधिकार राज्य की विधायिका और कार्यपालिका शक्ति पर निर्बंधन स्वरूप है।

    इतना समझ लिया जाना चाहिए कि जो राज्य की कानून बनाने की शक्ति है और राज्य की कार्यपालिका शक्ति है उस पर कुछ निर्बंधन होना चाहिए क्योंकि यदि नहीं हुए तो नागरिकों पर संकट खड़ा हो जाएगा। राज्य नागरिकों के अधिकारों का राज नहीं रहेगा तानाशाही बन जाएगा। इस प्रकार के निर्बंधन इन मूल अधिकारों के माध्यम से भारत राज्य की विधायिका कार्यपालिका शक्ति पर लगाए गए हैं। इन्हीं निर्बंधनो को मूल अधिकार कहा गया है।

    संविधान राज्य को ऐसी विधियों को बनाने का निषेध करता है जिनसे नागरिकों के मूल अधिकारों का उल्लंघन होता हो। राज्य ऐसी विधि बनाता है तो उन्हें न्यायपालिका असंवैधानिक घोषित कर सकती है। संविधान में केवल अधिकारों का घोषणा मात्र कोई महत्व नहीं है जब तक कि उनके संरक्षक बना दिए जाएं।

    अधिकारों को वास्तविक बनाते हैं हमारे संविधान में मूल अधिकारों की संरक्षा का कार्य में सर्वोच्च न्यायालय को सौंप दिया है जिसे इन अधिकारों के अतिक्रमण होने पर उपयुक्त और शीघ्र उपाय की व्यवस्था करने के लिए बंदी प्रत्यक्षीकरण, परम आदेश, प्रतिषेध, उत्प्रेषण, अधिकार पुच्छा आदि रिट जारी करने की शक्ति प्रदान की गई है।

    परंतु इतना ध्यान देना चाहिए इस प्रकार के दिए गए मूल अधिकार आत्यंतिक मूल अधिकार नहीं है। इन अधिकारों पर आवश्यकता पड़ने पर सार्वजनिक हित में निर्बंधन लगाए जा सकते हैं। किसी भी सामाजिक व्यवस्था में व्यक्ति और समाज दोनों में सामंजस्य स्थापित करने के लिए यह आवश्यक है कि नागरिक अधिकारों पर निर्बंधन लगाया जाए।

    भारत के संविधान में स्वतंत्र न्यायपालिका की स्थापना की है। स्वतंत्र न्यायपालिका की स्थापना भारतीय संविधान की एक महत्वपूर्ण विशेषता है। संघात्मक संविधान में प्राय दोहरी न्याय पद्धति होती है अर्थात एक संघ की दूसरे राज्य की, इसके विपरीत भारतीय संविधान संघात्मक होते हुए भी सारे देश के लिए न्याय व्यवस्था की एक ही व्यवस्था करता है जिसके शिखर पर भारत का उच्चतम न्यायालय है।

    उच्चतम न्यायालय के निर्णय देश के समस्त न्यायालय के ऊपर बाध्यकारी हैं। देश की विधियों में एकरूपता अस्पष्टता तथा स्थिरता की दृष्टि से व्यवस्था के लाभों से इनकार नहीं किया जा सकता स्वतंत्र न्यायपालिका के बीच होता है इसलिए उच्चतम न्यायालय को संविधान का रक्षक कहा गया है।

    देश के विधान मंडल द्वारा बनाए गई विधियों को उच्चतम न्यायालय द्वारा असंवैधानिक घोषित कर दिया जा सकता है यदि यह विधियां संविधान की किसी उपबंध उसके असंगति में है। उच्चतम न्यायालय द्वारा किया गया संविधान के उपबंधों का निर्वचन अंतिम होता है।

    स्वतंत्र न्यायपालिका का दूसरा महत्वपूर्ण कार्य नागरिकों के मूल अधिकारों की रक्षा करना होता है। भारतीय संविधान में नागरिकों के अनेक मूल अधिकारों का उल्लेख किया गया है संविधान में अधिकारों का उल्लेख महत्वहीन होगा यदि इनकी सुरक्षा के लिए कोई समुचित व्यवस्था की न गई हो। मूल अधिकारों का सबसे बड़ा संरक्षक भारत का उच्चतम न्यायालय है।

    एसआर बोम्मई बनाम भारत संघ 1994 के एक महत्वपूर्ण प्रकरण में भारत के उच्चतम न्यायालय के ने बहुमत से निर्णय लिया है कि भारत का संविधान एक परिसंघात्मक संविधान है। एक परिसंघात्मक संविधान का आधारभूत सिद्धांत भारत के संविधान का आधारभूत ढांचा है तथा इससे किसी प्रकार की छेड़छाड़ नहीं की जा सकती और इसमें किसी प्रकार का संशोधन नहीं किया जा सकता।

    इस व्यवस्था को बदला जा सकता है न्यायमूर्ति श्री कुलदीप सिंह ने कहा है कि भारतीय संविधान में संघात्मक संविधान होने के सभी लक्षण उपलब्ध हैं इस तथ्य के होते हुए भी कि संविधान में ऐसे उपबंध है जिनके अधीन केंद्र को राज्य पर अधिभावी शक्ति प्रदान की गई है। फिर भी हमारा संविधान परिसंघात्मक है।

    इसका तात्पर्य है कि राज्य अपने क्षेत्रीय परिधि के भीतर प्रभु है राज्यों का स्वतंत्र अस्तित्व है, राज्य के लोगों की राजनीतिक, सामाजिक शिक्षण और सांस्कृतिक जीवन में महत्वपूर्ण भूमिका निभानी पड़ती है, वह केंद्र की एजेंट नहीं है। आपातकालीन परिस्थितियों में उनकी शक्तियों पर केंद्र द्वारा हस्तक्षेप किया जाता है इससे संविधान की परिसंघात्मक प्रकृति के तत्व नष्ट नहीं हो जाते हैं।

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