भारत का संविधान और आपातकाल

Shadab Salim

25 Jun 2021 4:49 AM GMT

  • भारत का संविधान और आपातकाल

    भारत के संविधान के अंतर्गत आपातकालीन समय के लिए कुछ व्यवस्थाएं की गई हैं। इन व्यवस्थाओं के अंतर्गत आपातकालीन परिस्थितियों में भारत के संविधान की स्थिति बदल जाती है। भारत का संविधान एक संघीय संविधान है, राज्यों का एक संघ कहा जा सकता है।

    संघ को अलग शक्तियां और भारत के राज्यों को अलग शक्तियां दी गई है परंतु भारत के संविधान की बनावट से यह प्रतीत होता है कि यहां संघ अधिक शक्तिशाली है। भारत के संविधान में आपात उपबंध का समावेश कर संकटकाल में भारत का संविधान संघात्मक से एकात्मक संविधान में बदल जाता है।

    इसका उद्देश्य राज्यों की अपेक्षा समस्त भारत को अधिक महत्व देना है और राज्यों के हितों से अधिक भारत राष्ट्र के हितों पर ध्यान देना है। कुछ परिस्थितियां ऐसी है जिनमें आपात उपबंध लागू किए जा सकते हैं।

    1975 में घटी घटनाओं के परिणामस्वरूप 44 वां संविधान संशोधन अधिनियम 1978 लाया गया जिसके अंतर्गत इन उपबंध में आमूल चूल परिवर्तन किए गए। 1975 में लगाए गए आपातकाल के दुष्परिणामों से सबक लेते हुए भारत की संसद ने 1978 में संशोधन कर सशस्त्र शब्द को आपात उपबंध के संबंध में समाविष्ट किया गया और इसके स्थान पर 'आभ्यांतरिक' शब्द को हटाया गया।

    आपातकाल का प्रभाव मूल विचार का प्रश्न यह है कि जब कभी अनुच्छेद 352 के अंतर्गत आपात उद्घोषणा की जाती है तब संविधान में क्या परिवर्तन आते हैं और उद्घोषणा के क्या प्रभाव होते हैं? कुछ निम्नलिखित प्रभाव आपात उद्घोषणा के होते हैं-

    संघ द्वारा राज्यों को निर्देश देना आपात उद्घोषणा का सर्वप्रथम प्रभाव यही होता है कि संघ की कार्यपालिका शक्ति राज्यों को इस बात का निर्देश देने तक बढ़ जाती है कि वे अपनी कार्यपालिका शक्ति किस तरह से प्रयोग करें।

    आपात की स्थिति में राज्य की कार्यपालिका शक्ति केंद्र कार्यपालिका शक्ति के अधीन काम करती है। संविधान के अनुच्छेद 353 में संशोधन अनुच्छेद 352 में संशोधन किए जाने के कारण आवश्यक हुआ है।

    अनुच्छेद 353 में एक नया परंतुक जोड़कर संसद को यह शक्ति दी गई कि वह किसी ऐसे राज्य पर भी आपात संबंधी कानून लागू कर सकती है जो राज्य से अलग है जिसमें आपात उद्घोषणा प्रवर्तन में है।

    यदि उस भाग की गतिविधियों से भारत के किसी भाग की सुरक्षा को कोई खतरा हो। आपात उद्घोषणा के लागू होते ही भारत का संविधान संघात्मक से एकात्मक संविधान हो जाता है। संघ की राज्य सूची के विषयों पर विधि बनाने की शक्ति आपात की घोषणा के प्रवर्तन के समय संसद को राज्य सूची के किसी भी विषय पर कानून बनाने की शक्ति प्राप्त हो जाती है।

    उसे ऐसे किसी विषय पर कानून बनाने की शक्ति होती है जो संघ उनके पदाधिकारियों को कर्तव्य सौंपी हो भले ही वो विषय संघ सूची में उल्लिखित न हो।

    इस प्रकार आपातकालीन स्थिति में केंद्र और राज्यों के बीच विधायी शक्ति का विभाजन नाम मात्र का हो जाता है। इस स्थिति में भी राज्य विधानमंडल को कानून बनाने की शक्ति प्राप्त होती है। शक्ति पूरी तरीके से समाप्त नहीं होती बल्कि केवल निलंबित हो जाती है।

    राज्य विधान मंडल राज्य सूची के विषय पर कानून बना सकते हैं पर वह संसद द्वारा पारित विधियों के अधीन होते हैं।

    संघ और राज्यों के बीच संबंधों में बदलाव आपात उद्घोषणा प्रवर्तन की अवधि में राष्ट्रपति आदेश द्वारा जैसा कि वह उचित समझे अनुच्छेद 268 से लेकर 279 तक में उपस्थित केंद्र और राज्यों के बीच संबंधों में परिवर्तन कर सकता है।

    आपातकाल में बहुत सारे ऐसे संबंध जिनमें राज्यों को वित्त सहायता प्राप्त होती है उन्हें भी राष्ट्रपति द्वारा अपने ढंग से परिवर्तित किया जा सकता है पर ऐसे प्रत्येक आदेश को शीघ्र संसद के प्रत्येक सदन के समक्ष प्रस्तुत किया जाएगा।

    लोकसभा की अवधि में वृद्धि आपात घोषणा प्रवर्तन में है तब संसद विधि द्वारा लोकसभा की अवधि को 1 वर्ष के लिए बढ़ा सकती है यह अवधि एक बार में 1 वर्ष से अधिक नहीं बढ़ाई जा सकती है।

    भारत का संविधान उन तीन प्रकार की परिस्थितियों को उल्लेखित करता है जो निम्नलिखित है- युद्ध या बाहरी आक्रमण या सशस्त्र विद्रोह के उत्पन्न होने पर। राज्यों में सांविधानिक तंत्र के विफल होने पर। वित्तीय आपात पर।

    भारत के संविधान के भाग-18 के अंतर्गत अनुच्छेद 352 से लेकर 360 तक आपात उपबंध पर प्रावधान किए गए हैं। समय-समय पर इस भाग में संशोधन किए जाते रहे हैं।

    युद्ध या बाहरी आक्रमण की स्थिति में या फिर सशस्त्र विद्रोह के उत्पन्न हो जाने की स्थिति में राष्ट्रीय आपातकाल-

    भारत के संविधान के अनुच्छेद 352 के अंतर्गत 44वें संविधान संशोधन 1978 के बाद यह उपबंधित करता है कि यदि राष्ट्रपति को इस बात का समाधान हो जाए कि गंभीर संकट विधमान हो गया है जिससे युद्ध बाहरी आक्रमण या सशस्त्र विद्रोह से भारत या उसके किसी भाग की सुरक्षा में संकट है ऐसा संकट सन्निकट है तो वह उद्घोषणा द्वारा इस आशय की घोषणा संपूर्ण भारत के संबंध में या उसके किसी ऐसे भाग के संबंध में कर सकेगा।

    जो उद्घोषणा उल्लिखित किए जाएं ऐसी घोषणा को राष्ट्रपति उत्तरवर्ती उद्घोषणा द्वारा वापस ले सकता है या परिवर्तित कर सकता है।

    राष्ट्रपति आपात उद्घोषणा तब ही जारी करेगा जब उसे मंत्रिमंडल का विनिश्चय लिखित रूप में सूचित किया जाएगा। पूरे मंत्रिमंडल के परामर्श से आपातकाल जारी किया जाएगा।

    ऐसी प्रत्येक उद्घोषणा संसद के प्रत्येक सदन के समक्ष रखी जाएगी और 1 महीने की समाप्ति पर यदि उस अवधि की समाप्ति से पहले संसद के दोनों सदनों के संकल्पों द्वारा अनुमोदित नहीं कर दिया जाता है तो प्रवर्तन में नहीं रहेगी।

    यदि ऐसी कोई उद्घोषणा उस समय जारी की जाती है जब लोकसभा का विघटन हो गया है या उसका विघटन खंड 2 के अंतर्गत बिना कोई संकल्प के पारित किए 1 महीने की अवधि के भीतर हो जाता है जबकि राज्यसभा ने संकल्प का अनुमोदन कर दिया है तो उद्घोषणा पुनर्गठित लोक सभा की प्रथम बैठक की तारीख से 30 दिन की समाप्ति पर प्रवर्तन में नहीं रहेगी।

    जब तक की उपर्युक्त 30 दिन की अवधि की समाप्ति के पूर्व उद्घोषणा का अनुमोदन करने वाला संकल्पना न पारित किया गया हो। उद्घोषणा का अनुमोदन करने वाला संकल्प सदन के विशेष बहुमत से पारित किया जाना चाहिए अर्थात कुछ सदस्यों के बहुमत से उपस्थित तथा मत देने वाले सदस्यों के दो तिहाई मत से पारित होना चाहिए। 44 वें संशोधन के पूर्व ऐसा संकल्प सदन के साधारण बहुमत से पारित किया जा सकता था।

    संसद द्वारा अनुमोदित हो जाने पर आपात घोषणा दूसरे संकल्प के पारित होने की तिथि से 6 महीने की अवधि तक प्रवर्तन में रहेगी।

    यदि इसके पहले प्रतिसंहरण न कर दी गई हो। 6 महीने की अवधि से अधिक जारी रखने के लिए प्रत्येक 6 महीने पर संसद का अनुमोदन आवश्यक होगा। यदि 6 महीने की अवधि के दौरान आपात उद्घोषणा का अनुमोदन किए बिना लोकसभा का गठन हो जाता है तो उद्घोषणा चुनाव के पश्चात नई लोक सभा की प्रथम बैठक से 30 दिन की समाप्ति पर प्रवर्तन में न रहेगी।

    यदि इस अवधि के पूर्व उद्घोषणा का सदन द्वारा अनुमोदन न कर दिया गया हो यहां भी उद्घोषणा के अनुमोदन का संकल्प विशेष बहुमत से पारित किया जाता है।

    आपात उद्घोषणा का क्षेत्रीय विस्तार 42 वें संविधान संशोधन अधिनियम 1976 द्वारा अनुच्छेद 352 में संशोधन करके यह स्पष्ट कर दिया गया है कि आपात उद्घोषणा देश के किसी भी भाग में पर सीमित की जा सकती है या यदि संपूर्ण भारत में लागू हो तो उसे किसी एक भाग से हटाया जा सकता है जहां स्थिति सामान्य हो गई है।

    इस संशोधन के पूर्व आपात की घोषणा संपूर्ण भारत के संबंध में ही की जा सकती थी। 44 वें संशोधन 1978 के द्वारा संसद के अनुमोदन के बाद आपात उद्घोषणा 6 महीने के लिए प्रवर्तन में रहेगी। इस अवधि को बढ़ाने के लिए संसद का अनुमोदन आवश्यक होगा। इस संशोधन के पूर्व संसद के अनुमोदन के पश्चात यह निश्चितकाल के लिए प्रवर्तन में रह सकती थी।

    अनुच्छेद 352 राष्ट्रपति को पर्याप्त व्यापक शक्ति प्रदान करता है। विश्व के किसी भी संघात्मक संविधान में ऐसे उपबंधों का समावेश नहीं किया गया है। संविधान सभा में इस विषय पर विचार विमर्श के समय कुछ सदस्यों ने यह आशंका व्यक्त की थी कि राष्ट्रपति द्वारा इस व्यापक शक्ति का दुरुपयोग किया जा सकता है। इस तर्क के विपरीत यह तर्क दिए गए कि राष्ट्रपति अपनी शक्ति का प्रयोग मंत्रिमंडल की सहायता और परामर्श से कर सकता है जो जनता के निर्वाचित प्रतिनिधि होते हैं।

    लोकसभा के बाद भी मंत्रिपरिषद राष्ट्रपति को परामर्श देने के लिए बनी रहती है। आपात उद्घोषणा को शीघ्र अति शीघ्र संसद के समक्ष प्रस्तुत करना पड़ेगा और उसके अनुमोदन के बिना 2 महीने से अधिक समय के लिए प्रवर्तन में नहीं रह सकती।

    1975 में घटी घटनाओं के परिणामस्वरूप 44 वां संविधान संशोधन अधिनियम 1978 लाया गया जिसके अंतर्गत इन उपबंध में आमूल चूल परिवर्तन किए गए। 1975 में लगाए गए आपातकाल के दुष्परिणामों से सबक लेते हुए भारत की संसद ने 1978 में संशोधन कर सशस्त्र शब्द को आपात उपबंध के संबंध में समाविष्ट किया गया और इसके स्थान पर 'आभ्यांतरिक' शब्द को हटाया गया।

    आपातकाल का प्रभाव मूल विचार का प्रश्न यह है कि जब कभी अनुच्छेद 352 के अंतर्गत आपात उद्घोषणा की जाती है तब संविधान में क्या परिवर्तन आते हैं और उद्घोषणा के क्या प्रभाव होते हैं?

    कुछ निम्नलिखित प्रभाव आपात उद्घोषणा के होते हैं- संघ द्वारा राज्यों को निर्देश देना आपात उद्घोषणा का सर्वप्रथम प्रभाव यही होता है कि संघ की कार्यपालिका शक्ति राज्यों को इस बात का निर्देश देने तक बढ़ जाती है कि वे अपनी कार्यपालिका शक्ति किस तरह से प्रयोग करें।

    आपात की स्थिति में राज्य की कार्यपालिका शक्ति केंद्र कार्यपालिका शक्ति के अधीन काम करती है। संविधान के अनुच्छेद 353 में संशोधन अनुच्छेद 352 में संशोधन किए जाने के कारण आवश्यक हुआ है।

    अनुच्छेद 353 में एक नया परंतुक जोड़कर संसद को यह शक्ति दी गई कि वह किसी ऐसे राज्य पर भी आपात संबंधी कानून लागू कर सकती है जो राज्य से अलग है जिसमें आपात उद्घोषणा प्रवर्तन में है।

    यदि उस भाग की गतिविधियों से भारत के किसी भाग की सुरक्षा को कोई खतरा हो। आपात उद्घोषणा के लागू होते ही भारत का संविधान संघात्मक से एकात्मक संविधान हो जाता है।

    संघ की राज्य सूची के विषयों पर विधि बनाने की शक्ति आपात की घोषणा के प्रवर्तन के समय संसद को राज्य सूची के किसी भी विषय पर कानून बनाने की शक्ति प्राप्त हो जाती है। उसे ऐसे किसी विषय पर कानून बनाने की शक्ति होती है जो संघ उनके पदाधिकारियों को कर्तव्य सौंपी हो भले ही वो विषय संघ सूची में उल्लिखित न हो।

    इस प्रकार आपातकालीन स्थिति में केंद्र और राज्यों के बीच विधायी शक्ति का विभाजन नाम मात्र का हो जाता है। इस स्थिति में भी राज्य विधानमंडल को कानून बनाने की शक्ति प्राप्त होती है।

    शक्ति पूरी तरीके से समाप्त नहीं होती बल्कि केवल निलंबित हो जाती है। राज्य विधान मंडल राज्य सूची के विषय पर कानून बना सकते हैं पर वह संसद द्वारा पारित विधियों के अधीन होते हैं। संघ और राज्यों के बीच संबंधों में बदलाव आपात उद्घोषणा प्रवर्तन की अवधि में राष्ट्रपति आदेश द्वारा जैसा कि वह उचित समझे अनुच्छेद 268 से लेकर 279 तक में उपस्थित केंद्र और राज्यों के बीच संबंधों में परिवर्तन कर सकता है।

    आपातकाल में बहुत सारे ऐसे संबंध जिनमें राज्यों को वित्त सहायता प्राप्त होती है उन्हें भी राष्ट्रपति द्वारा अपने ढंग से परिवर्तित किया जा सकता है पर ऐसे प्रत्येक आदेश को शीघ्र संसद के प्रत्येक सदन के समक्ष प्रस्तुत किया जाएगा।

    लोकसभा की अवधि में वृद्धि आपात घोषणा प्रवर्तन में है तब संसद विधि द्वारा लोकसभा की अवधि को 1 वर्ष के लिए बढ़ा सकती है यह अवधि एक बार में 1 वर्ष से अधिक नहीं बढ़ाई जा सकती है।

    आपात उद्घोषणा के समाप्त हो जाने के बाद 6 महीने बाद स्वयं ही समाप्त हो जाती है। मूल अधिकारों के अंतर्गत अनुच्छेद 19 में प्रदत्त मूल अधिकारों का निलंबन आपात उद्घोषणा का सबसे खतरनाक पहलू यह है कि जब अनुच्छेद 358 के अनुसार आपात की उद्घोषणा प्रवर्तन में है तब अनुच्छेद 19 की किसी बात से राज्य कोई ऐसी विधि बनाने की अथवा कार्यपालिका को कोई ऐसी कार्यवाही करने की शक्ति अनुच्छेद 13 के अधीन नहीं होगी।

    अनुच्छेद 13 राज्य की विधायिका शक्ति पर अंकुश लगाता है जिसके अनुसार राज्य कोई भी ऐसा कानून नहीं निर्मित कर सकता जो मूल अधिकारों को कम करता हो किंतु आपात घोषणा के प्रवर्तन काल में राज्य के ऊपर यह प्रतिबंध समाप्त हो जाता है और राज्य द्वारा बनाए गए कानूनों को इस आधार पर न्यायालय में चुनौती नहीं दी जा सकती कि वह मूल अधिकारों के विरुद्ध हैं या उनका उल्लंघन करते हैं।

    इस स्थिति में अनुच्छेद 19 में प्रदत्त अधिकारों का केवल निलंबन ही होता है अधिकार पूरी तरह समाप्त नहीं हो जाते हैं और आपात उद्घोषणा के प्रवर्तन में न रहने पर व्यवस्था पुनर्जीवित होते हैं किंतु आपात के दौरान किए गए कृत्यों के विरुद्ध आपात स्थिति की समाप्ति के बाद भी कोई कार्यवाही नहीं की जा सकती।

    संविधान के 32वें संशोधन अधिनियम 1976 द्वारा अनुच्छेद 358 में एक नया परंतुक जोड़ा गया है।

    अनुच्छेद 352(1) में किए गए संशोधन के कारण आवश्यक हुआ है इसके अनुसार यदि भारत के किसी एक भाग में आपातकालीन स्थिति लागू है इसे समय बनाए गए कानून अन्य भागों में भी लागू होंगे यदि उन भागों में उत्पन्न होने वाली गतिविधियों में भारत के किसी भाग की सुरक्षा को खतरा है।

    एम ए पाठक बनाम भारत संघ के मामले में अनुच्छेद 358 में प्रयुक्त पदावली वे बातें जो की गई या जाने में छोड़ दी गई है के प्रभाव के विषय में उच्चतम न्यायालय को विचार करने का अवसर मिला। इस मामले में तथ्य यह था कि जीवन बीमा निगम के कर्मचारियों के बीच 1961 में एक समझौता हुआ जिसके अनुसार जीवन बीमा निगम उनको बोनस देने के लिए राजी हो गया किंतु 1976 में आपातकाल के दौरान संसद एलआईसी मॉडिफिकेशन सेटेलमेंट एक्ट 1976 पास करके 1971 में किए गए समझौतों को रद्द कर दिया गया और यह उपबंध किया गया कि कर्मचारीगण आपात के दौरान बोनस की मांग नहीं कर सकते हैं।

    कर्मचारियों ने उपर्युक्त अधिनियम की मान्यता को उच्चतम न्यायालय ने निर्धारित किया कि उद्घोषणा का प्रभाव यह होता है कि अनुच्छेद 14 और 19 द्वारा अधिकार नहीं होते बल्कि उनका प्रवर्तन कराने का अधिकार निर्मित हो जाता है।

    उपयुक्त का अर्थ लगाया जाना चाहिए और आपात उद्घोषणा की समाप्ति पर उपर्युक्त समझौता पुनर्जीवित हो जाता है उसके लिए आपातकाल की अवधि के लिए भी दावा किया जा सकता है।

    संक्षेप में विधिक दावे आपात घोषणा मात्र से ही रद्द नहीं हो जाते हैं उनको केवल अनुच्छेद 358 और 359 के प्रवर्तन काल में विधि बनाकर ही निलंबित किया जा सकता है। अनुच्छेद 359 के अंतर्गत मूल अधिकारों के प्रवर्तन का निलंबन अनुच्छेद 359 के अनुसार जहां कि आपात उद्घोषणा प्रवर्तन में है वहाँ राष्ट्रपति आदेश द्वारा यह घोषित कर सकता है कि भाग-3 द्वारा दिए गए अधिकारों को प्रवर्तित कराने के लिए जैसे कि उक्त आदेश में वर्णित हो किसी न्यायालय के प्रवर्तन का अधिकार तथा इस प्रकार वर्णित अधिकारों को प्रवृत्त कराने के लिए किसी न्यायालय में लिखित कार्यवाही या उस अवधि के लिए जैसा कि आदेश में उल्लेखित की जाए निलंबित रहेंगे।

    उपरोक्त प्रकार का समस्त आदेश समस्त भारत या उसके किसी भाग पर लागू रहेगा। इस अनुच्छेद के अंतर्गत अनुच्छेद 20 और 21 के अतिरिक्त अन्य अधिकारों को निलंबित किया जा सकता है।

    अनुच्छेद 19 आपात की उद्घोषणा पर स्वतः निलंबित हो जाता है जबकि अनुच्छेद 359 का प्रयोग राष्ट्रपति के आदेश द्वारा किया जाता है। अनुच्छेद 359 के अंतर्गत राष्ट्रपति भाग-3 द्वारा प्रदत किसी भी मूल अधिकार को न्यायालयों द्वारा प्रवर्तित कराने के अधिकार का निलंबन कर सकता है यह आवश्यक नहीं है कि सभी अधिकार निलंबित किए जाए।

    भारत के संविधान अनुच्छेद 352 का प्रयोग सबसे पहले भारत पर चीन द्वारा आक्रमण के मौके पर किया गया था। सितंबर 1962 में चीन ने भारत पर आक्रमण किया। 26 अक्टूबर को अनुच्छेद 352 के अंतर्गत राष्ट्रपति ने यह घोषणा की कि गंभीर आपात विधमान है जिसमें बाहरी आक्रमण से भारत की सुरक्षा संकट में है।

    यह आपात स्थिति 10 जनवरी 1968 तक चलती रही। सन 1971 में जब पाकिस्तान ने भारत पर आक्रमण किया तो आपात स्थिति की घोषणा की गई थी। यह आपात स्थिति मार्च 1977 तक प्रवर्तन में रही।

    3 नवंबर 1962 को राष्ट्रपति ने अनुच्छेद 359(1) के अंतर्गत एक आदेश जारी किया जो इस प्रकार अनुच्छेद 359 ए के अंतर्गत शक्ति के प्रयोग में राष्ट्रपति यह घोषित करता है कि किसी व्यक्ति के अनुच्छेद 14, 21 और 22 में दिए गए अधिकारों को प्रवृति कराने के लिए जब तक अनुच्छेद 352 एक के अंतर्गत जारी की गई आपात उद्घोषणा प्रवर्तन में है किसी न्यायालय के प्रवर्तन का अधिकार निलंबित रहेगा।

    माखन सिंह बनाम पंजाब राज्य एआईआर 1964 उच्चतम न्यायालय 382 के प्रकरण में उच्चतम न्यायालय ने निर्णय लिया कि राष्ट्रपति के आदेश के परिणामस्वरुप पिटीशनर के किसी भी कानून के अधीन न्यायालय में जाने के अधिकार का निलंबन हो जाता है।

    केवल अनुच्छेद 32 के अधीन उच्चतम न्यायालय जाने के अधिकार के ऊपर ही नहीं है वरन अनुच्छेद 226 के अधीन उच्च न्यायालय जाने के विरुद्ध भी है। अनुच्छेद में प्रयुक्त शब्दावली से बिल्कुल स्पष्ट है न्यायालय में नहीं जा सकता तो परोक्ष रूप से किसी अन्य विधि के अधीन भी उन्हीं न्यायालयों में नहीं जा सकता है। इस मामले में न्यायालय ने कहा कि जैसे ही अनुच्छेद 352 के अंतर्गत आपात उद्घोषणा की जाती है अनुच्छेद 19 में प्रदत्त अधिकार निलंबित हो जाते हैं।

    आपात उद्घोषणा के प्रवर्तन में न रहने पर अनुच्छेद 19 पुनर्जीवित हो जाता है किंतु आपातकाल में किए गए कृत्यों को आपात के पश्चात चुनौती नहीं दी जा सकती है। इसके विपरीत अनुच्छेद 359 के अंतर्गत मूल अधिकार निलंबित नहीं होते हैं, वरन न्यायालयों द्वारा केवल उनके प्रवर्तन कराने का अधिकार निलंबित हो जाता है।

    अनुच्छेद 19 में जब प्रदत अधिकार समस्त भारत में निलंबित हो जाते हैं जबकि अनुच्छेद 359(1) में जारी किए गए आदेश का विस्तार पूरे भारत या उसके किसी भाग में हो सकता है।

    अनुच्छेद 19 जब तक आपात उद्घोषणा प्रवर्तन में है तब तक निलंबित रहता है जबकि अनुच्छेद 359 एक के अंतर्गत अधिकारों का निलंबन पूरे समय से छोटी अवधि के लिए हो सकता है। अनुच्छेद 358 के अंतर्गत आपातकाल में किए गए कृत्यों को आपात की समाप्ति के पश्चात चुनौती नहीं दी जा सकती क्योंकि उनको अनुच्छेद 360 के अंतर्गत ऐसे कृत्यों को आदेश की समाप्ति पर चुनौती दी जा सकती है यदि उनके द्वारा उस काल के नागरिकों के किसी अधिकार का अतिक्रमण किया गया है कि उस काल में भी अधिकार जीवित रहते हैं।

    प्रभाकर पांडुरंग बनाम महाराष्ट्र राज्य के मामले में उच्चतम न्यायालय ने अभिनिर्धारित किया है कि यदि किसी नागरिक को भारत प्रतिरक्षा अधिनियम या उसके अधीन निर्मित किसी नियम के विरुद्ध उसकी व्यक्तिगत स्वतंत्रता से वंचित किया गया हो तो अनुच्छेद 360 के अंतर्गत न्यायालय से प्रवर्तन करने का उसका अधिकार निलंबित नहीं किया जा सकता है।

    25 जून 1975 को राष्ट्रपति ने इस आधार पर आपात स्थिति की घोषणा की कि आंतरिक अशांति से देश की सुरक्षा खतरे में है। बाहरी आक्रमण से देश की सुरक्षा के लिए संकट के आधार पर 1971 में की गई आपात स्थिति की घोषणा पहले से ही प्रवचन में थी।

    इन दोनों आपात घोषणाओं को वापस ले लिया गया। सन् 1971 में लागू की गई आपात उद्घोषणा को 27 मार्च 1977 में समाप्त किया गया है। सन 1975 में लागू की गई आपात स्थिति को 21 मार्च 1977 को वापस कर लिया गया।

    संविधान के 38 वें संशोधन अधिनियम 1975 द्वारा अनुच्छेद 352 में एक नया खंड 4 जोड़कर स्पष्ट कर दिया गया है कि अनुच्छेद 352 के खंड 1 में अलग आधार पर अलग उद्घोषणा करने की शक्ति शामिल है भले ही इसके अंतर्गत एक उद्घोषणा पहले ही की गई है वह प्रवर्तन में हो।

    44वां संविधान संशोधन 1978 इस संशोधन द्वारा अनुच्छेद 359 में 2 संशोधन किए गए। अनुच्छेद 359 के अधीन अनुच्छेद 20 और 21 के अधिकारों के प्रवर्तन के लिए न्यायालय में जाने के अधिकार निलंबित नहीं होंगे। अनुच्छेद 359 के अधीन उन विधियों को कार्यपालिका आदेशों से लागू करना होगा जिसमें इस आशय का उल्लेख होगा कि आपात उद्घोषणा से संबंधित है।

    इस प्रकार 44वा संशोधन अधिनियम यह स्पष्ट करता है कि प्रथम अनुच्छेद 359 के अधीन राष्ट्रपति को अनुच्छेद 21 द्वारा प्राण और दैहिक स्वतंत्रता के अधिकार को निलंबित करने का अधिकार नहीं होगा अर्थात भविष्य में अनुच्छेद 21 को निलंबित नहीं किया जा सकता है।

    दूसरे अनुच्छेद 359 के अधीन आपात के दौरान उन्हीं नीतियों और उनके अधीन जारी किए गए कार्यपालिका आदेशों को न्यायालय में चुनौती दिए जाने से संरक्षण प्राप्त होगा जो आपात उद्घोषणा से संबंधित है अन्य विधियों को नहीं। यह संशोधन बंदी प्रत्यक्षीकरण के मामले में उच्च न्यायालय द्वारा दिए गए खतरनाक निर्णय के प्रभाव को दूर करने के लिए पारित किया गया।

    राष्ट्रपति शासन भारत के संविधान का अनुच्छेद 356 उद्घोषणा की तरह ही यह उपबंधित करता है कि यदि किसी राज्य के राज्यपाल से प्रतिवेदन मिलने पर या अन्यथा राष्ट्रपति को समाधान हो जाए कि ऐसी स्थिति पैदा हो गई है जिसमें किसी राज्य का शासन संविधान के उपबंधों के अनुसार नहीं चलाया जा सकता तो राष्ट्रपति उद्घोषणा द्वारा- उस राज्य की सरकार के सभी या कोई कृत्य तथा राज्यपाल या राज्य के विधान मंडल से भिन्न राज्य के किसी निकाय प्राधिकारी में निहित या उसके द्वारा प्रयोग सभी या कोई शक्ति अपने हाथ में ले सकेगा।

    घोषित कर सकेगा कि राज्य के विधान मंडल की शक्तियां संसद के प्राधिकार के द्वारा या अधीन होगी। वह ऐसे प्रसंगिकता अनुषंगिक उपबंध बना सकेगा जो राष्ट्रपति की उद्घोषणा के उद्देश्य को प्रभावित करने के लिए आवश्यक दिखाई दे।

    ऐसी किसी उद्घोषणा को राष्ट्रपति उत्तरवर्ती उद्घोषणा द्वारा वापस ले सकता है या उससे परिवर्तन कर सकता है। अनुच्छेद 356 में प्रयुक्त पदावली राज्यपाल से प्रतिवेदन पर या अन्यथा से यह स्पष्ट है कि राष्ट्रपति राज्य के राज्यपाल से कोई रिपोर्ट न मिलने पर भी कार्यवाही कर सकता है।

    इसके लिए केवल इतना ही पर्याप्त है कि राष्ट्रपति को इस बात का समाधान हो जाए कि किसी राज्य में संवैधानिक तंत्र विफल हो गया है। ऐसा संभव है कि राज्यपाल राज्य के मुख्यमंत्री से मिल जाए और राष्ट्रपति को संबोधित तंत्र की विफलता की सूचना न भेजें। ऐसी स्थिति में केंद्र को अपने कर्तव्य का पालन करना होगा और स्वयं कार्य करना होगा।

    अनुच्छेद 356 के राष्ट्रपति का समाधान मंत्रिमंडल का समाधान होता है, उसका अपमान समाधान नहीं है। अनुच्छेद 356 प्रयुक्त शब्द राज्य का शासन संविधान के अनुसार नहीं चला चलाया जा सकता बहुत व्यापक अर्थ रखता है।

    अनुच्छेद 356 के अधीन जारी की गई उद्घोषणा संसद के प्रत्येक सदन के समक्ष रखी जाएगी और यदि वह पूर्ववर्ती उद्घोषणा द्वारा वापस नहीं कर दी गई तो 2 महीने की समाप्ति पर प्रवर्तन में नहीं रहेगी।

    यदि उस अवधि की समाप्ति से पूर्व संसद के दोनों सदनों द्वारा संकल्प द्वारा उसका अनुमोदन नहीं कर दिया जाता किंतु यदि कोई उदघोषणा ऐसे समय की जाती है जब लोकसभा का विघटन हो गया है या 2 माह की अवधि के दौरान हो जाता है।

    पूर्व राज्यसभा द्वारा अनुमोदन का संकल्प पारित कर दिया गया है किंतु लोकसभा द्वारा अनुमोदित नहीं किया गया है तो पुनर्गठन के पश्चात लोक सभा की प्रथम बैठक से 30 दिन की समाप्ति पर प्रवर्तन में नहीं रहेगी।

    लोकसभा द्वारा इस अवधि के भीतर अनुमोदन करने वाला संकल्प पारित नहीं कर दिया जाता है इसके अंदर संसद उद्घोषणा का अनुमोदन कर देती है तो वह 6 माह तक प्रवर्तन में रहेगी। संकल्प द्वारा एक बार में अवधि को 6 माह के लिए बढ़ाया जा सकता है किंतु कोई भी ऐसी उद्घोषणा किसी भी दशा में 3 वर्ष से अधिक प्रवर्तन नहीं रहेगी।

    अनुच्छेद 356 के अधीन उद्घोषणा की अधिकतम अवधि 3 वर्ष है, इस अवधि की समाप्ति के पश्चात न तो राष्ट्रपति और न ही संसद उद्घोषणा को बनाए रख सकते हैं। इस अवधि के भीतर ही चुनाव कराकर जनता के प्रतिनिधियों को शासन सौंप दिया जाएगा।

    एसआर बोम्मई बनाम भारत संघ 1994 के मामले में उच्चतम न्यायालय के न्यायाधीशों की संविधान पीठ ने अपने निर्णय में यह अभिनिर्धारित किया कि अनुच्छेद 356 के अधीन राज्यों में राष्ट्रपति शासन लागू करने और विधानसभा को भंग करने की राष्ट्रपति की शक्ति सशर्त है। यह आत्यंतिक शक्ति नहीं है। वह न्यायिक पुनर्विलोकन के अधीन हैं, यदि विधानसभा का भंग किया जाना अवैध पाया जाता है तो न्यायालय उसे पुनर्जीवित कर सकता है।

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