Consumer Protection Act के अंतर्गत रेलवे के विरुद्ध कंप्लेंट
Shadab Salim
27 May 2025 9:14 AM IST

इस एक्ट से जुड़े एक मामले फिरोज अमरोली बनाम भारतीय रेलवे में रेलवे द्वारा कुछ गाड़ियों को मनमाने ढंग से सुपर गाड़ियों के रूप में वर्गीकृत करने तथा यात्रियों से अतिरिक्त चार्ज वसूलने के संबंध में परिवाद संस्थित किया गया। सुपर फास्ट गाड़ी के रूप में वर्गीकृत करने के लिए जो मापदण्ड था वह अधिकारियों द्वारा अनुसरित निर्देशांक के रूप में बहुत अल्प सुसंगत अपवा सहायतार्थ पाया गया। रेलवे बोर्ड ने मामले के प्रति अपना ध्यानाकर्षण करने के लिए नवीन निर्देशांको (guidelines) को प्रतिपादित किया।
मामले का परिशीलन करने के उपरान्त राष्ट्रीय आयोग ने रेलवे बोर्ड को निर्देश दिया कि वह मामले के प्रति सावधानीपूर्वक अपने ध्यान में केन्द्रित करे तथा सुपर फास्ट गाड़ियों के प्रति नवीन निर्देशाकों को निर्धारित करे जैसे उक्त गाड़ी की जीमन चाल रुकने वाले स्टेशनों की संख्या तथा गाड़ी में चलने वाले यात्रियों को सुविधा इत्यादि। उपर्युक्त बिन्दुओं पर निर्देश देने के उपरान्त ही वह गाड़ियों को सुपर फास्ट गाड़ी के रूप में वर्गीकृत करे। उपर्युक्त उद्देश्यों के कारण यह मामला 2 माह के लिए स्थगित रहेगा।
नेशनल कमीशन परिवादी द्वारा रेलवे से 6 टिकट कप किया गया था लेकिन रेलवे विभाग ने परिवादी को 5 शयन सीटें उपलब्ध करायी सेवा में कमी का स्पष्ट मामला माना गया। इस बारे में उपभोक्ता संरक्षण अधिनियम के अन्तर्गत प्रतिकर की मांग की जा सकती है। रेलवे दावा अधिकरण को धारा 13, 15 इस प्रकृति के दावे को उपभोक्ता संरक्षण अधिनियम के द्वारा निराकृत किए जाने को वर्जित नहीं करती।
किसी दुर्घटना में इन्स्योर्ड कार को क्षति यह सर्वविदित है कि बीमा संविदा के अन्तर्गत बीमा कंपनी किसी माल अथवा तीसरे व्यक्ति या संपत्ति की क्षति पूर्ण करने का वचन देती है।
चंपक लाल भुण्डन लाल (डा) बनाम न्यू इण्डिया इन्स्योरेंस कम्पनी लिमिटेड, (1993) के एक वाद में आयोग इन्स्योर्ड वाहन की क्षतिपूर्ति से संबंधित था।
अतः यह एक प्रारम्भिक कर्तव्य था बीमा कम्पनी बीमित को क्षतिपूर्ति करे। दूसरे शब्दों में, उसके माल को उस स्थिति में पहुँचना जिसमें वह था। अतः उन शर्तों एवं दशाओं को सख्ती से निर्वाचित किया जाना चाहिए खास तौर से वहाँ जहां पर बीमा कम्पनी भारतीय संविधान के अनुच्छेद 12 के अन्तर्गत राज्य की परिभाषा में आती हो व्यापार पर एकाधिकार रखती हो। चाहे कोई ऐसा पसन्द करता हो या न करता है उसको स्वयं या अपने अनुषंगको के मार्फत सामान्य बीमा निगम के अन्तर्गत इन्स्योरेंस लेना है।
प्रस्तुत वाद में बीमा कम्पनी ने स्वच्छता से कार्य न करते हुए डेढ़ साल बाद जब कीमतें बढ़ गयी तो प्रस्ताव प्रस्तुत किया है तथा परिवादी को न तो सर्वे की कापी देता है न उसका पूरा विवरण दिया है जिसमें दशायें आदि दिखाई गयी हैं। सेवा में कमी माना गया अतः यह मामला धन हानि के आधार पर तय किया जाना चाहिए। अतः बीमा कम्पनी को दुर्घटना से 3 महीने के अन्दर 3000/- देने को उत्तरदायी ठहराया गया। चूंकि समय भीतर न तो भुगतान ही किया गया और न ही क्षतिपूर्ति की गयी इसलिए उसे दावे के साथ 18% ब्याज सहित द्द 1500/- खर्चे को भी देना पड़ा।
एक अन्य मामले में जिलाधिकरण ने नया टीवी देने एवं क्षतिपूर्ति के लिए 2,500/- रुपये निर्णीत किया। अपील-राज्य आयोग ने क्षतिपूर्ति को घटाकर 500/- रुपये कर दिया। अपील में राष्ट्रीय आयोग ने विनिर्णीत किया कि क्षतिपूर्ति का उचित मूल्यांकन जिलाधिकरण ही कर सकती है एवं जिलाधिकरण के आदेश को पुनर्स्थापित किया।
राज्य आयोग ने निम्न एवं तकनीकी दृष्टिकोण क्षतिपूर्ति के निर्धारण में अपनाया। यह सत्य है कि क्षतिपूर्ति का निर्धारण मनमानी ढंग से नहीं अपितु विधिक सिद्धान्तों पर आधारित होनी चाहिए। उपरोक्त वाद में परिवादी को अत्यन्त मानसिक एवं शारीरिक क्षति हुई क्योंकि उसे खराब रंगीन टी० वी० दिया गया था, जिसे नजर अन्दाज नहीं किया जा सकता। जिस दिन कोई व्यक्ति कोई सामान खरीदता है उसी दिन से उसका लाभ प्राप्त करने की इच्छा रखता है।
प्रस्तुत वाद में परिवादी रंगीन टी० बी० को खरीदने के लगभग 2 वर्ष बाद तक उसका उपभोग नहीं कर सका वल्कि 2-3 बार टी0 वी0 को मरम्मत हेतु ले जाना पड़ा। जिलाधिकरण द्वारा विनिर्णीत 2500/- रुपये की क्षतिपूर्ति उचित थी। जिलाधिकरण को क्षतिपूर्ति निर्धारित करते समय परिवादी की परेशानी, कष्ट एवं असुविधा पर विशेष रूप से विचार करना चाहिए।
रमेश ठाकर बनाम असलम, 2001 के मामले में बिल्डर द्वारा निवास गृह की पूरी राशि प्राप्त कर ली गयी थी लेकिन वह निर्धारित समय के अन्दर इसे नहीं ना सका। इस मामले में जहां दो वर्ष के विलम्ब से कब्जा दिया गया था वही निर्माण में भी कोई दोष उत्पन्न होना पाया गया। बिल्डर के नाम पर सेवा में कभी होना मानी गयी। 1,00,000/- रुपये प्रतिकर 18 प्रतिशत व्याज सहित राज्य आयोग द्वारा मंजूर किया गया।
राष्ट्रीय आयोग ने जिला फोरम तथा राज्य आयोग को निष्कर्ष को पुष्ट किया लेकिन प्रतिकर की राशि घटाकर 50,000/- रुपये कर दी। इस राशि को 6 सप्ताह के अन्दर भुगतान करने का निर्देश दिया गया। यह स्पष्टीकृत किया गया कि यदि इस अवधि के भीतर प्रतिका की राशि का भुगतान नहीं इया जाता है तो परिवाद प्रस्तुत करने की दिनांक से भुगतान किए जाने की दिनांक तक 18 प्रतिशत वार्षिक ब्याज भी भुगतान करने का दायित्व होगा।

