Consumer Protection Act में बैंक और हॉस्पिटल सर्विस के विरुद्ध कप्लेंट
Shadab Salim
21 May 2025 10:21 AM IST

एक वाद में जहाँ कंप्लेंनेंट कृष्णा ग्रामीण बैंक था तथा वादी ने ग्रामीण निर्धनता स्कीम के अधीन स्वतः रोज़गार कार्यक्रम के अन्तर्गत कर्ज के लिए प्रतिवादी बैंक के यहाँ प्रार्थना पत्र दिया। प्रार्थी को किसी अन्य बैंक से किसी अन्य उद्देश्य के लिए दोषी नहीं मानना चाहिए। इसलिए यह तर्क स्वीकार नहीं किया जा सकता कि प्रतिवादी का बैंक से कर्ज लेने की प्रार्थना पत्र किसी अन्य कार्यक्रम के अन्तर्गत था। इस विचार पर प्रतिवादी बैंक द्वारा का कंप्लेंनेंट का ऋण मंजूरी आदेश निरस्त किया जाना तथा बकायेराशि का बकायेदार माना जाना उचित ठहराया गया।
बैंक में जहाँ गैर भारतीय निवासी द्वारा निश्चित समय के लिए धनराशि को जमा किया गया तो वहाँ आरबीआई एवं फेरा (FERA) में जमा खातों की शर्तों के अनुसार तीन वर्षों की अवधि के लिए एक सीडी खोलने हेतु ड्राफ्ट को डालर में भेजा गया। जब उसे प्रचलित दर से रुपये में बदलने को महत्व दिया गया, तो प्रतिवादी ने तेजी मंदी का लाभ प्राप्त करने विदेशी मुद्रा खाते में परिवर्तित करने का प्रयास किया लेकिन उसे हानि हुई। यह अभिनिर्धारित किया गया कि वैकिंग सेवा में कोई अपूर्णता नहीं तथा उसे चोरी से प्रश्नगत मुद्रा को रखने हेतु उत्तरदायी नहीं ठहराया जा सकता है।
यह एक ऐसा मामला है जिसमें बैंक द्वारा संव्यवहार में उपेक्षा किये जाने के कारण कंप्लेंनेंट के खाते से 10,000 रुपये की एक धनराशि को एक दूसरे आदमी द्वारा निकाल लिया गया। बैंक, बाद के विचारण के दौरान चेक, पर हस्ताक्षर को सत्यापित करने में असफल रहा। हस्तलेख विशेषज्ञ ने भी विचारण कोर्ट के समक्ष यह अभिसाक्ष्य प्रस्तुत किया कि प्रश्नगत चेक पर किया गया हस्ताक्षर, कंप्लेंनेंट के हस्ताक्षर के प्रतिरूप या नमूना के समतुल्य था। यद्यपि खुली आँखों से यह प्रदर्शित किया जा सकता था कि प्रतिरूप के हस्ताक्षर एवं चेक, पर किये गये हस्ताक्षर के मध्य अन्तर था।
इस प्रकार हस्ताक्षर का अभिज्ञापन करने में बैंक की ऐसी उपेक्षा को सेवा की अपर्याप्तता का स्वरूप प्रदान किया जा सकता है तथा वादी के कप्लेंट को स्वीकृति प्रदान करने के उस आदेश की पुष्टि किया जाना चाहिए जिसे कि जिला कोर्ट द्वारा पारित किया गया।
एक मामले में कंप्लेंनेंट एक पेन्शन भोगी की हैसियत रखता था। उसने इस आधार पर कप्लेंट संस्थित किया कि वितरण की नयी प्रणाली को लागू किये जाने से उसे परेशानी का सामना करना पड़ रहा था। कारण कि उसे पेन्शन को प्राप्त करने हेतु पंक्ति में खड़ा होकर अवसर की प्रतीक्षा करनी पड़ती थी जिससे कि उसका मूल्यवान समय बर्बाद हो जाता था। जबकि धन का वितरण करने की प्रणाली का प्रमुख उद्देश्य बैंकिंग संचालन को सुचारू रूप से लागू करना होता है। इसका ग्राहक के क्षेत्राधिकार से कोई सम्बन्ध नहीं होता है। इस कप्लेंट को इस निर्देश के साथ अपास्त कर दिया गया कि कंप्लेंनेंट को 10,000 रुपये का संदाय बैंक को रखना चाहिए।
एक अन्य मामले में बैंक कर्मचारी ने कंप्लेंनेंट के साथ जालसाजी की थी। कर्मचारी ने कंप्लेंनेंट से फिक्स डिपाजिट की राशि प्राप्त की थी लेकिन बैंक ने जमा नहीं की थी। बैंक के विरुद्ध सेवा में कमी के आधार पर कप्लेंट प्रस्तुत की गयी थी। यह मत व्यक्त किया गया कि चूंकि बैंक के दैनिक अनुक्रम में संव्यवहार नहीं हुआ था। इसलिए चेक को कथित एफडीआर की राशि भुगतान करने के लिए दायी नहीं माना जा सकता अतएव बैंक की सेवा में कमी नहीं मानी गयी।
बैंक द्वारा दृष्टि ओझल हो जाने के आधार पर कम ब्याज जमा किया गया था पश्चात् मे इस गलती को सही कर दिया गया लेकिन बैंक की इस गलती से कंप्लेंनेंट को असुविधा होना पायी गयी। इसलिये उसे प्रतिकर स्वीकार किया गया।
संविदा की शर्तें कुछ क्यों न हो रिजर्व बैंक के दिशा निर्देश अभिभावी होंगे। बैंक ने भूलवश 5% के स्थान पर 13% ब्याज फिक्स डिपाजिट पर दर्शाया था। आडिट रिपोर्ट में इसे कम करके 5% किया गया परवादी ने सेवा में अभिनिर्धारित किया कि बैंक रिजर्व बैंक के द्वारा जारी निर्देशों से बाहर नहीं जा सकता यद्यपि बैंक ने भूलवश 13% ब्याज देना स्वीकार किया था। बैंक का यह कार्य सेवा में कमी माना गया। कंप्लेंनेंट को बैंक के कृत्य से शारीरिक तथा मानसिक पीड़ा होना मानी गयी। फलस्वरूप 50,000/- रुपये का प्रतिकर परिवेदी को स्वीकार किया गया। इसे 10% ब्याज के सात भुगतान करने हेतु निर्देशित किया गया।
जहाँ कंप्लेंनेंट ने यह आरोप लगाया कि विपक्षी बैंक में उसके और ड्राफ्ट लेखा के अनुशीलन के बाद एक निश्चित राशि उसकी शाख लेखा में निकलती थी और उस राशि को वह वापस पाने का अधिकारी है उसे लोटा दिया जाय। विपक्षी बैंक का पर आरोप था कि कंप्लेंनेंट दोषी था तथा धारा 420, 467 और 468 भारतीय दण्ड संहिता है अन्तर्गत अभियोजन भी चल चुका था। यह अभिनिर्धारित किया गया कि यह बहुत पेचीदा वाट है और इसमें पर्याप्त मात्रा में दस्तावेजों एवं मौखिक साध्य की आवश्यकता है जो कि उचित ढंग से तथा पर्याप्त रूप से सिविल कोर्ट द्वारा ही संभव है इसलिए, उपभोक्ता मंच इस तरह के परिवादों तथा मतभेदों के अभिनिर्धारण का उचित मंच नहीं है जिसकी परिणति कप्लेंट के निरस्ती में हुई।
चेकों का अनादर जहाँ पर कंप्लेंनेंट ने जी० एस० एफ० सी० को भुगतान योग किम्त में कर्ज भुगतान के बदले में बैंक आफ बड़ीदा को एक चेक जारी किया लेकिन बैंक की भूल से उस चेक का अनादर हो गया तथा जी० एस० एफ० सी० को भुगतान न हो सका। कंप्लेंनेंट ने यह आरोप लगाया था कि चेक की राशि को पूरा करने के लिए पर्याप्त बकाया राशि होने के बावजूद भी चेक का निरादर करना बैंक की लापरवाही का परिचायक हैं।
हर तरफ से सेवा में कमी और कंप्लेंनेंट को इससे हुई क्षति के लिए बैंक उत्तरदायी है। प्रतिवादी को यह निर्देश दिया गया कि 8000/ रुपये की धनराशि पर जिस तारीख से चेक निरादर हुआ से लेकर उस तारीच तक जिस तारीख पर वह राशि जमा हुई तक 18% मासिक व्याज का भुगतान करें तथा 500/ अतिरिक्त राशि कंप्लेंनेंट की परेशानी और कष्ट के लिए भी अदा करे।
डॉ सी सारंग पानी बनाम जी भगत, (1995) 1 सी एल सी इस मामले में यह घटित हुआ कि कंप्लेंनेंट के बायें हाथ के अग्रभाग में गिरने के कारण चोटें आयी। विरोधी पक्षकार ने उसकी चोटों को एक्स-रे की सहायता से परीक्षण करने के पश्चात् मरहम पट्टी किया था। विरोधी पक्षकार डाक्टर ने उसकी चिकित्सा सेवा में असावधानी पूर्वक कार्य किया जिसके परिणामस्वरूप कंप्लेंनेंट को अत्यधिक कष्ट झेलना पड़ा। चूंकि कंप्लेंनेंट को शल्य चिकित्सा कराने हेतु एक दूसरे नर्सिंग होम में उपचार कराना पड़ा, इसलिए उसे आर्थिक क्षति हुई। अतः उसने विरोधी पक्षकार के विरुद्ध क्षतिपूर्ति करने हेतु दावा किया।
हालांकि इस मामले में जिला उपभोक्ता कोर्ट के समक्ष विचारणार्थं कुछ निश्चित दस्तावेजों को प्रस्तुत नहीं किया जा सका, फिर भी ऐसे दस्तावेज के अभाव में कोर्ट द्वारा मामले को निर्मित किया गया। अतः जहाँ किसी भी मामले में आवश्यक दस्तावेज की अनुपस्थिति में कोर्ट द्वारा कोई निर्णय दिया जाता है, वहाँ संदूत नहीं किया जा सकता बल्कि ऐसे मामले को पुनः नये सिरे से निस्तारित किया जाना चाहिए।
इससे मामले में यह तथ्य विचारणीय मुद्दा बना कि कंप्लेंनेंट एक नर्सिंग होम में भर्ती हुआ जहाँ कि एक डाक्टर द्वारा उसकी शल्य चिकित्सा की गयी। शल्य चिकित्सा किये जाने के बाद उसके पेट में तीक्ष्ण पीड़ा हुई थी। जिसके परिणाम स्वरूप वह उपचार से असंतुष्ट होकर कथित नर्सिंग होम को छोड़कर एक दूसरे अस्पताल में प्रवेश लिया। इस अस्पताल में उस कीमत की एक दूसरी शल्य चिकित्सा की गयी।
कंप्लेंनेंट ने इस आधार पर होम विरुद्ध एक कप्लेंट संस्थित किया कि उसके द्वारा असावधानी पूर्वक शल्य चिकित्सा किये जाने के कारण उसके पेट में स्पन्नछत गया था। कंप्लेंनेंट ने अपने मामले के समर्थन में मौखिक एवं दस्तावेजी माध्य प्रस्तुत किये। लेकिन वह सिद्ध करने में विफल रही कि शल्य चिकित्सक ने समुचित सावधानी के साथ उपचार नहीं किया। जिसके फलस्वरूप कप्लेंट को अपास्त कर दिया गया।

