सिविल प्रक्रिया संहिता, 1908 भाग 44: निर्णय और डिक्री में संशोधन

Shadab Salim

26 May 2022 3:29 PM IST

  • सिविल प्रक्रिया संहिता, 1908 भाग 44: निर्णय और डिक्री में संशोधन

    सिविल प्रक्रिया संहिता,1908 (Civil Procedure Code,1908) की धारा 152 संहिता की अंतिम धाराओं में है। इस धारा में डिक्री और निर्णय में होने वाली किसी गलती में संशोधन से संबंधित प्रावधान है। इस आलेख में धारा 152 पर विस्तृत टिप्पणी प्रस्तुत की जा रही है।

    यह अधिनियम में प्रस्तुत की गई धारा का मूल रूप है-

    धारा 152

    निर्णयों, डिक्रियों का आदेशों या संशोधन निर्णयों, या डिक्रियों या आदेशों में ही लेखन या गणित सम्बन्धी भूलें या किसी आकस्मिक भूल या लोप से उसमें हुयी गलतियाँ न्यायालय द्वारा स्वप्रेरणा से या पक्षकारों में से किसी के आवेदन पर किसी भी समय शुद्ध की जा सकेगी।

    आदेश 20, नियम 3 के अनुसार निर्णय सुनाये जाने के समय न्यायाधीश उस पर खुले न्यायालय में तारीख डालेगा और उस पर हस्ताक्षर करेगा। एक बार जब निर्णय पर हस्ताक्षर कर दिया गया है, तदनन्तर न तो उसमें कोई परिवर्तन किया जायेगा और न ही कोई परिवर्धन किया जायेगा। परन्तु इस सामान्य नियम का अपवाद 152 में दिया गया है। दूसरे शब्दों में धारा 152 उन परिस्थितियों का वर्णन करती है जिनके अधीन एक निर्णय पर हस्ताक्षर करने के पश्चात् उसमें परिवर्तन और परिवर्धन हो सकता है।

    धारा 152 के अनुसार निर्णयों, डिक्रियों या आदेशों में की लेखन या गणित सम्बन्धी भूले (clerical or carithmetical mistakes) या किसी आकस्मिक भूल या लोप से उत्पन्न हुयी गलतियों न्यायालय द्वारा स्वप्रेरणा से या पक्षकारों में से किसी के आवेदन पर किसी भी समय शुद्ध को जा सकेगी।

    ऐसा इसलिये है कि धारा 152 के प्रावधानों का आधार यह है कि किसी को न्यायालय के कार्य से क्षति नहीं पहुँचनी चाहिये।

    यह सूत्र स्वयं न्याय एवं शुद्ध विवेक पर आधारित है। जहाँ डिक्री की धनराशि वाद में माँगे गये दावे से अधिक है, त्रुटि लेखन एवं गणित सम्बन्धी है, डिक्री में अधिक धनराशि के लिये प्रतिवादी ने न तो अपोल दाखिल किया और न ही कोई प्रत्याक्षेप (cross (objection) और न ही त्रुटि को ठीक करने के लिये धारा 151 के अधीन आवेदन दिया, वहाँ कर्नाटक उच्च न्यायालय ने विजया बैंक बनाम भयोजा नामक वाद में यह अभिनिर्धारित किया कि ऐसी स्थिति में न्यायालय स्वप्रेरणा से त्रुटि ठीक कर सकता है।

    धारा 152 के अन्तर्गत न्यायालय वास्तविक या प्रामाणिक और सद्भावी गलती को सुधार सकता है। जैसे जहां वाद की सम्पत्ति का खसरा नम्बर डिक्री में गलत पड़ गया वहां ऐसी गलती को शुद्धि के लिये निर्देश मुकदमेबाजी को कम करने के लिये अनुज्ञेय है।

    निर्णयों में संशोधन-

    निर्णयों, डिक्रियों या आदेशों में संशोधन केवल निम्न परिस्थितियों में किया जा सकता है-

    (1) जब उसमें लिपिकीय भूल हो; या

    (2) जब उसमें गणितीय भूल हो, या

    (3) आकस्मिक भूल हो; या

    (4) आकस्मिक लोप से उत्पन्न गलती हो।

    ध्यान रहे धारा 152 के अधीन न्यायालय को केवल अपनी ही ऐसी त्रुटियों को ठीक करने की शक्ति नहीं प्राप्त है जो निर्णय डिक्री या आदेश में घटित हुयी है, अपितु वह ऐसी त्रुटियों को भी संशोधित कर सकता है जो आरम्भिक रूप में पक्षकारों द्वारा अपने बयान में शुरू से हो घटित हुयी हो और जिसे आगे चलकर निर्णय, डिक्री एवं आदेश में दोहराया गया हो। परन्तु इस प्रकार का कोई संशोधन उस समय अनुज्ञात नहीं किया जा सकता जब कि तीसरे पक्षकार के अधिकार उसमें अन्तर्गत हों और ऐसे भूल सुधार से तीसरे पक्षकार के हितों पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ने की सम्भावना है।

    जहाँ पारित डिक्री पूर्ण रूप से सन्तुष्ट कर दी गयी है, वहाँ ऐसी डिक्री में संशोधन अनुज्ञात नहीं किया जायेगा। ऐसा निर्णय मद्रास उच्च न्यायालय ने ए० पलानीवेल चेट्टियार बनाम आर० ऐलूमलाइ- नामक वाद में दिया है। जयलक्ष्मी कोयेल्हो बनाम ओरावाल्ड जोसेफ कोयेल्हों में उच्चतम न्यायालय ने कहा कि एक ऐसे मामले में जहाँ यह स्पष्ट है कि न्यायालय जो करने के लिये आशयित था उसमें आकस्मिक रूप से भूत हो गयी या उसमें लिपिकीय या गणितीय गलतियाँ आ गयीं वहाँ यह न्याय के उद्देश्य को और आगे बढ़ायेगा या न्याय के हित में होगा कि न्यायालय ऐसी गलती को ठीक कर दे।

    इसी प्रकार उच्चतम न्यायालय ने ही लक्ष्मीराम भूयन बनाम हरि प्रसाद भूयन' में कहा कि जहाँ विचारण न्यायालय ने डिक्री बनाया और उसके निर्णय में अभिव्यक्त आशय के अनुरूप अनुतोष की मात्रा और रीति को स्पष्ट रूप से विनिर्दिष्ट नहीं किया, वहाँ सफल पक्षकार धारा 152 के अन्तर्गत उच्च न्यायालय का दरवाजा निर्णय में उपयुक्त संशोधन के लिये खटखटा सकता है।

    उच्चतम न्यायालय ने मास्टर कन्सट्रक्शन कम्पनी बनाम स्टेट ऑफ उड़ीसा नामक वाद में अभिनिर्धारित किया कि गणित सम्बन्धी भूल से तात्पर्य गणना या हिसाब सम्बन्धी भूल (calculation of mistake) से है जबकि लेखन सम्बन्धी भूल वह है जो लिखने में या टंकण में होती है। आकस्मिक लोप गलती एक ऐसी गलती है जो असावधानी वश होती है और जानबूझकर नहीं की जाती। यह एक ऐसी गलती है जो अभिलेख के सकृत दर्शने (apparent on the race of the record) स्पष्ट है। ऐसी गलती को प्रकटीकरण तथ्य गैर विधि पर विस्तृत तर्क की आवश्यकता की माँग नहीं करता।

    दूसरे शब्दों में ऐसी गलती या भूल के प्रकटीकरण के लिये विधि और तथ्य पर आधारित विस्तृत तर्क की आवश्यकता नहीं। इस धारा के अधीन (धारा 152) संशोधन के लिये कदम उठाने से पहले न्यायालय को स्वयं सन्तुष्ट होना चाहिये कि उपर्युक्त लिखित भूलें हुयी हैं।

    उच्चतम न्यायालय ने जानकीरामा अय्यर बनाम नीलकान्त अय्यर नामक वाद में यह अभिनिधारित किया कि जहाँ डिक्री में भूल से "अन्तःकालीन लाभ" को जगह पर शुद्ध लाभ" लिख दिया यहाँ धारा 151 और 152 के अधीन उच्च न्यायालय ऐसी भूल को सुधार सकता है भले हो उच्च न्यायालय के उस निर्णय के विरुद्ध उच्चतम न्यायालय ने भूल-सुधार की तारीख से पहले अपील करने की मंजूरी दे दी हो। यहाँ यह बता देना भी समीचीन होगा कि न्यायालय अपनी अन्तर्निहित शक्ति के अन्तर्गत (धारा 151) भी डिक्री या आदेश में संशोधन या परिवर्तन कर सकता है, परन्तु तभी जबकि डिक्री या आदेश न्यायालय के वास्तविक निर्णय या उसके विचार को सही रूप में नहीं प्रतिपादित करता।

    अतः डिक्री या आदेश पर हस्ताक्षर हो जाने के पश्चात् उसमें संशोधन या परिवर्द्धन केवल दो रूपों में हो सकता है, एक तो धारा 151 के अधीन और दूसरा इस धारा (धारा 152) के अधीन। धारा 152 के प्रावधानों का अर्थान्वयन ठीक तरीके से नहीं किया जाना चाहिये।

    न्यायालय के निर्णय में कोई भूल या त्रुटि है, इस बात को प्रमाणित करने का भार आवेदक के ऊपर है जो डिक्री में संशोधन के लिये आवेदन देता है। उच्च न्यायालय के निर्णय में संशोधन के लिये अधीनस्थ न्यायालय की टीका-टिप्पणी (observation) पर विचार नहीं किया जा सकता है जहाँ बाद बेदखली का है, वाद-पत्र, निर्णय एवं डिक्री की अनुसूची में सुधार हेतु आवेदन दिया गया है, मामला सम्पत्ति के गलत विवरण का है न कि सम्पत्ति के गलत पहचान का, वहाँ कलकत्ता उच्च न्यायालय ने दिलीप कुमार चटर्जी बनाम नारायन दास मुखर्जी एवं अन्य नामक याद में यह अभिनिर्धारित किया कि सुधार के आवेदन को अनुज्ञात किया जाना चाहिये।

    यहाँ यह भी जान लेना समीचीन होगा कि जहाँ विचारण न्यायालय के निर्णय के विरुद्ध अपील की गयी है और अपील न्यायालय ने अपील में निर्णय कर दिया है, वहाँ पंजाब और हरियाणा उच्च न्यायालय ने निशावर सिंह बनाम लोकल गुरुद्वारा कमेटी नामक वाद में यह निर्णय दिया कि विचारण न्यायालय अपनी डिक्री में कोई संशोधन नहीं कर सकता।

    जहाँ एक वाद माध्यस्थम पंचाट के निबन्धनों के अनुसार डिक्री प्राप्त रकने के लिये लाया गया, वाद के सम्बित रहने के दौरान का व्याज न तो मध्यस्थ ने और न हो विचारण न्यायालय ने प्रदान किया, इस तरह उन्होंने ब्याज देने में लोप किया, वहाँ उच्च न्यायालय ने के० राजामौली बनाम ए बी के एन स्वामी में अभिनिर्धारित किया कि ऐसे लोप को आकस्मिक लोप या गलती नहीं माना जा सकता, ऐसी गलती को धारा 152 के अन्तर्गत नहीं ठीक किया जा सकता।

    धारा 152 का अवलम्ब सीमित उद्देश्य अर्थात् विनिश्चयों (डिक्री, निर्णय, आदेश) में लेखन या गणित सम्बन्धी या आकस्मिक भूल आदि के लिये हो लिया जा सकता है, अन्य किसी उद्देश्य के लिये नहीं अर्थात् अधिनियम में संशोधन के परिणामस्वरूप प्राप्त होने वाले लाभ के लिये नहीं धारा 152 के प्रवधान, लिपिकीय, गणितीय या आकस्मिक चूल तक सीमित है। धारा 152 संशोधन के लिये कोई समय सीमा निर्धारित नहीं करती है। यह अपील के दैरान भी हो सकता है।

    पंचाट में संशोधन-

    जहाँ पंचाट में लिपिकीय या गणितीय त्रुटि या गलती हुयी है, वहाँ उसे सिविल प्रक्रिया संहिता की धारा 152 का सहारा लेकर ठीक किया जा सकता है।

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