सिविल प्रक्रिया संहिता, 1908 भाग 43: सिविल मामले में न्यायालय की अंतर्निहित शक्ति

Shadab Salim

23 May 2022 10:18 AM IST

  • सिविल प्रक्रिया संहिता, 1908 भाग 43: सिविल मामले में न्यायालय की अंतर्निहित शक्ति

    सिविल प्रक्रिया संहिता,1908 (Civil Procedure Code,1908) की धारा 151 अति महत्वपूर्ण धारा है। इस धारा में न्यायालय को अंतर्निहित शक्ति दी गई है। यह वैसा ही शक्ति है जैसी शक्ति आपराधिक मामलों में उच्च न्यायालय को दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 482 के अंतर्गत प्राप्त होती है। इस आलेख के अंतर्गत धारा 151 पर टिप्पणी प्रस्तुत की जा रही है।

    न्यायालय की अन्तर्निहित शक्ति–वे सभी अधिकार, जो न्यायालय को, न्याय के प्रशासन के दौरान, सही और उचित कदम उठाने के लिये तथा गलत कार्य को रोकने के लिये आवश्यक हैं, से न्यायालय के अन्तर्निहित अधिकार का गठन होता है।

    अन्तर्निहित अधिकार पक्षकारों को कोई मौलिक अधिकार नहीं प्रदान करते बल्कि उनका उद्देश्य उन सभी कठिनाइयों को दूर करना या समस्याओं से निपटना है जो प्रक्रिया के नियमों से उत्पन्न होती है। सिविल प्रक्रिया संहिता एक प्रक्रिया सम्बन्धी विधि है। उसमें सिविल मामलों में न्याय के प्रशासन से सम्बन्धित प्रक्रिया दी गयी है। परन्तु उन सभी समस्याओं से निपटने के लिये जो सिविल मामलों में कार्यवाही के दौरान उठेगी, उसमें प्रक्रिया नहीं बतायी गयी है।

    ऐसा इसलिये है कि कोई विधि अपने आप में पूर्ण नहीं होती, और यह सिविल प्रक्रिया संहिता पर भी लागू होती है। अतः वे समस्यायें या कठिनाइयाँ जो दीवानों मुकदमों या कार्यवाहियों के दौरान उठेंगी और जिनके लिये संहिता में कोई प्रक्रिया नहीं बतायी गयी हैं उनसे न्यायालय कैसे निपटे। या जहाँ संहिता में प्रक्रिया तो बतायी गयी है पर कोई पक्षकार उसका दुरुपयोग कर रहा है तो ऐसो समस्या से कैसे निबटा जाये।

    इन्हीं समस्याओं को न्यायालय अपने अन्तर्निहित अधिकार के अन्तर्गत सुलझाती है। दूसरे शब्दों में, हम यह कह सकते हैं कि अन्तर्निहित शक्ति न्यायालय को साम्या, न्याय एवं शुद्ध अन्तःकरण के आधार पर वाद का अवधारण करने की शक्ति देती है। संक्षेप में कहा जा सकता है कि अन्तर्निहित अधिकार का प्रयोग न्यायालय न्याय के उद्देश्य के लिये या न्यायालय की प्रक्रिया के दुरुपयोग को रोकने के लिये कर सकता है।

    जहाँ न्यायालय में संस्थित कार्यवाही असद्भावी है और विधि को प्रक्रिया के दुरुपयोग के उद्देश्य से की गयी है, वहाँ उच्चतम न्यायालय को इसके रोकने की अन्तर्निहित शक्ति प्राप्त है।

    ध्यान रहे, यह अन्तर्निहित शक्ति न्यायालय को उन शक्तियों के अतिरिक्त है जो न्यायालय को संहिता के अधीन प्रदान की गयी है। ऐसी अन्तर्निहित शक्ति न्यायालय को संहिता द्वारा प्रदत्त शक्तियों की पूरक है और न्यायालय उसका उपयोग करने के लिये स्वतन्त्र हैं, किन्तु ऐसी शक्ति का उपयोग न्याय की प्रक्रिया का दुरुपयोग रोकने के लिये किया जायेगा। यह न्यायालय को ऐसा आदेश पारित करने का अधिकर देती है, जो वह ठीक समझें। जहाँ विशिष्ट प्रावधान (special provision) है, वहाँ धारा 151 का अवलम्ब नहीं लिया जा सकता।

    कर्नाटक उच्च न्यायालय ने ऐसा निर्णय पालधर रोलिंग मिल्स प्रा० लि० बनाम विश्वेश्वरैया आई और एस लि०' नामक वाद में दिया है। ऐसा ही विचार उच्चतम न्यायालय का भी है। शिपिंग कारपोरेशन ऑफ इण्डिया लि० बनाम मछादी ब्रदर्स में के निर्णय के अनुसार यदि कोई विशिष्ट प्रावधान नहीं हैं जो धारा 151 के अन्तर्गत माँगे गये अनुतोष को प्रदान करने का प्रतिषेध करता है तो न्यायालयों को वह सब अनिवार्य शक्ति प्राप्त है कि वे धारा 151 के अन्तर्गत समुचित आदेश, न्यायालय की प्रक्रिया के दुरुपयोग को रोकने के लिये, पारित कर सके।

    दूसरे शब्दों में धारा 151 के अन्तर्गत माँगा गया अनुतोष तभी प्रदान किया जा सकता है जब उसको प्रदान किये जाने के लिये किसी प्रावधान का प्रतिषेध नहीं है। इसका प्रयोग उस वादकारी के लाभ के लिये नहीं किया जा सकता जिसे सिविल प्रक्रिया संहिता में उपाय उपलब्ध है धारा 151 के अन्तर्गत न्यायालय की शक्ति उस अनुतोष तक सीमित है जिसका सिविल प्रक्रिया संहिता या किसी अन्य संविधि के अन्तर्गत प्रतिषेध नहीं है। अन्तर्निहित अधिकार का प्रयोग न्यायानुसार उन मामलों में किया जा सकता है जहां संहिता में अभिव्यक्त प्रावधान नहीं है।

    यहाँ यह भी जान लेना समीचीन होगा कि अन्तर्निहित शक्ति धारा 151 किसी भी न्यायालय को प्रदान नहीं करती। उच्चतम न्यायालय ने मनोहर लाल बनाम सेठ हीरा लाल नामक वाद में अपने विचार व्यक्त करते हुये कहा कि अन्तर्निहित अधिकार न्यायालय को प्रदत्त नहीं किया गया है; यह एक ऐसा अधिकार है जो न्यायालय में अन्तर्निहित है इसलिये कि उसका कार्य जो पक्षकार उसके समक्ष है, उनके बीच न्याय करना है।

    जैसा ऊपर कहा जा चुका है कि धारा 151 अन्तर्निहित अधिकार परिदत्त नहीं करती है वरन् यह इंगित करती है न्यायालय में ऐसा अधिकार है और उसका उपयोग न्याय की प्रक्रिया को आगे बढ़ाने के लिये (या न्याय करने के लिये) या न्याय की प्रक्रिया का दुरुपयोग रोकने के लिये किया जाना चाहिये।

    यह भी ध्यान रहे कि कोई भी न्यायालय अन्तर्निहित शक्ति के अन्तर्गत वह कार्य नहीं कर सकता जिसका संहिता में प्रतिषेध किया गया है। इस अन्तर्निहित अधिकार का प्रयोग संहिता के प्रावधानों को निष्प्रभावित करने के लिये नहीं किया जा सकता। उदाहरणस्वरूप, जहाँ न्यायालय ने कोई निर्णय दे दिया है या सुना दिया है, उसके बाद उसे उस निर्णय में कुछ जोड़ने या परिवर्तन करने का कोई अधिकार नहीं है और अगर न्यायालय ऐसा करता है तो वह आदेश 20, नियम 3 का सीधा उल्लंघन होगा। इसी तरह वे मामले जो न्यायालय द्वारा संज्ञेय (cognizable) नहीं है उन्हें न्यायालय अपनी अन्तर्निहित शक्ति के अन्तर्गत ग्रहण नहीं कर सकता।

    जैसे एक ऐसा वाद जिसमें एकमात्र विचारणीय प्रश्न धार्मिक या जाति से सम्बन्धित है, वह धारा 9 के अधीन किसी दीवानी न्यायालय द्वारा संज्ञेय नहीं है। अतः कोई भी न्यायालय ऐसे वाद को धारा 151 के अधीन ग्रहण नहीं कर सकता है इसी प्रकार लगान सम्बन्धी मामले को भी कोई न्यायालय धारा 151 के अधीन नहीं ग्रहण कर सकता क्योंकि उसका निपटारा रेवेन्यू (revenue) न्यायालय करते हैं।

    अन्तर्निहित अधिकार के अन्तर्गत परिसीमा अवधि नहीं बढ़ाई जा सकती। जहाँ किसी सम्पत्ति के बारे में यथास्थिति का आदेश दिया गया है वहाँ ऐसी सम्पत्ति में उप पट्टे का निर्माण यहाँ तक कि उस किरायेदार के द्वारा जो भी यथास्थिति वाले अन्तर्वतों आवेदन का पक्षकार नहीं था, अवैध है।

    कभी-कभी ऐसा होता है कि एक आवेदन एक परिनियम के किसी विशिष्ट प्रावधान के अन्तर्गत दिया जाता है और यह पाया जाता है कि परिनियम के अन्तर्गत वह ग्रहणीय नहीं है या न्यायालय या अभिकरण को उस परिनियम के अन्तर्गत ऐसे अनुतोष, प्रदान करने की शक्ति नहीं है परन्तु आवेदन परिनियम के कतिपय अन्य प्रावधान के अन्तर्गत उसी न्यायालय या अभिकरण के समक्ष ग्रहणीय है और उसे माँगे गये अनुतोष को प्रदान करने की शक्ति प्राप्त है।

    ऐसे ही मामलों में हमेशा यह अभिनिर्धारित किया गया है कि आवेदन या याचिका के नाम चिप्पी या नाम पद्धति पर ध्यान न देकर आवेदन के सारतत्व या अन्तर्वस्तु को देखा जाना चाहिये और अगर परिनियम के कतिपय अन्य प्रावधान के अन्तर्गत ऐसे माँगे गये अनुतोष का प्रदान किया जाना सम्भव है तो एक पक्षकार को ऐसे अनुतोष से वंचित नहीं किया जाना चाहिये। ऐसा निर्णय बम्बई उच्च न्यायालय को एक पूर्णपीठ ने जगदीश बलवन्त राव अभयंकर बनाम स्टेट ऑफ महाराष्ट्र' नामक बाद में दिया।

    जहाँ पूर्णरूपेण हक की घोषणा के लिये वाद लाया गया है, चिरकाल के आधार पर वर्षों प्रतिकूल कब्जा रहने के कारण, इसमें व्यादेश की माँग की गयी है वहाँ उच्चतम न्यायालय ने रजनी बाई बनाम कमलादेवी में यह अभिनिधारित किया कि मात्र यह तथ्य कि सम्पत्ति के बारे में कोई विवाद मूर्त अधिकार को लेकर नहीं है यह व्यादेश के अनुतोष के लिये आदेश 39, नियम 1-2 के अन्तर्गत कोई वर्जन नहीं है। न्यायालय को धारा 151 के अन्तर्गत भी व्यादेश जारी करने की शक्ति प्राप्त है।

    सभी न्यायालय- उच्चतम न्यायालय उच्च न्यायालय और सिविल न्यायालय जिन्हें अन्तर्निहित अधिकार प्राप्त है, न्यायालय की कार्यवाहियों के प्रकाशन पर अपनी अन्तर्निहित शक्ति के अन्तर्गत अपवादात्मक परिस्थितियों में अस्थायी रोक लगा सकते हैं और इसके अन्तर्गत न्यायालय अवमानकर्ता को दण्डित करने का अधिकार भी आता है ध्यान रहे अन्तर्निहित अधिकार का उपयोग बढ़े अपवाद स्वरूप परिस्थितियों में, वहाँ जहाँ सिविल प्रक्रिया संहिता में कोई प्रक्रिया नहीं बतायी गयी है, किया जाना चाहिये परन्तु ऐसा प्रयोग न्याय के हित में किया जाना चाहिये है।

    लेकिन यहाँ यह नहीं माना जाना चाहिये कि कोई भी न्यायालय या अधिकरण इस धारा के अन्तर्गत अपने इस आदेश को जिसके बारे में वह सन्तुष्ट है कि जिसे कपट या मिथ्या व्यपदेशन इस सीमा तक कि दावे के आधार को सत्यता को हो प्रभावित करने के माध्यम से प्राप्त किया गया है वापस नहीं ले सकता।

    दूसरे शब्दों में जहाँ न्यायालय की कृपा (आदेश के रूप में) बड़ी हो चालाकी करके कपट या मिथ्या व्यपदेशन के द्वारा प्राप्त किया गया है वहाँ न्यायालय या अधिकरण को अपने ऐसे आदेश को वापस लेने की शक्ति इस धारा के अन्तर्गत प्राप्त है। धारा 151 के अन्तर्गत दिये गये आवेदन को खारिज किये जाने पर, ऐसे आदेश के विरुद्ध पुनरीक्षण तो हो सकता है, किन्तु अपील नहीं है-

    वे व्यक्ति जो वाद के पक्षकार नहीं रहे हैं, वे आदेश 9 नियम 13 के अधीन एकपक्षीय डिक्री को निरस्त करने के लिये आवेदन नहीं दे सकते। न्यायालय अपने अन्तर्निहित अधिकार प्रयोग में किसी अजनबी को अनुतोष नहीं प्रदान कर सकता। धारा 151 कोई सारवान प्रावधान नहीं करता जो अनुतोष प्रदान करने के लिये अधिकार प्रदान करे। यह प्रक्रियात्मक प्रावधान है।

    कुछ उदाहरण जिनमें न्यायालयों ने अन्तर्निहित शक्ति का प्रयोग किया है-

    1. वाद के संयुक्त विचारण का आदेश;

    2. वाद की सुनवाई स्थगित करना;

    3. प्रतीप वाद (Cross suits) का स्थगन;

    4. इस बात की जाँच करना कि क्या यादी वयस्क की हैसियत से बाद संस्थित करने योग्य है।

    5. एक तीसरे व्यक्ति के आवेदन को ग्रहण करना ताकि उसे पक्षकार बनाया जा सके;

    6. ऐसे मामलों में प्राइन्याय के सिद्धान्त को लागू करना जो संहिता की धारा 11 के अधीन नहीं आते;

    7. न्यायालय की अवमानना के लिये सरसरी तौर पर कारावास से दण्डित करना;

    8. अपनी गलतियों को ठीक करना;

    9. जो डिक्रो या आदेश धारा 152 के अधीन नहीं आते उनमें संशोधन करना;

    10. न्याय के लिये भरण-पोषण भत्ते को अनुज्ञात करना (allow) या दुरुपयोग को रोकना;

    11. चैम्बर में दिये गये अन्तर्वती आदेश पर पुनर्विचार करना;

    12. पक्षकारों को यह निर्देश देना कि कमिश्नर के लिये अतिरिक्त फीस (शुल्क) जमा करें:

    13. न्यायालय के साथ धोखा करके कराये गये विक्रय को निरस्त करना, आदि

    14, जहाँ वाद व्यतिक्रम (default) के लिये खारिज कर दिया गया है, वाद को प्रत्यावर्तित (restore) करने के लिये आवेदन किया गया है, यादी अन्तरिम आदेश को माँग करता है जिसके माध्यम से प्रतिवादी को ऐसे आवेदन पर निर्णय होने तक सम्पत्ति के अन्तरण से रोक दिया जाये, वहाँ यह अभिनिर्धारित किया गया कि धारा 151 के अन्तर्गत (अन्तर्निहित अधिकार के अधीन) ऐसा अन्तरिम आदेश न्याय के हित में जारी किया जा सकता है

    15. जहाँ निर्णय से पूर्व कुर्की का आदेश अवैधानिक और शून्य है, वहाँ न्यायालय का यह कर्तव्य है कि वह संहिता की धारा 151 के अन्तर्गत अपनो अधिकारिता का प्रयोग करे और ऐसे निर्णय का पुनरीक्षण करें

    16. जहाँ धार्मिक, धर्मादान्यास के कुव्यवस्था दुरुपयोग और कुप्रशासन का प्रश्न है, वहाँ ऐसी चीजों को ठीक करने का अन्तर्निहित अधिकार न्यायालय को है भले ही उसके लिये कोई वैकल्पिक उपचार उपलब्ध हो।

    17. जहाँ विवादित परिसर का कब्जा, बलपूर्वक, अनधिकृत और न्यायालय की पूर्व अनुमति के बिना प्राप्त कर लिया गया है वहाँ धारा 144 के अन्तर्गत प्रतिस्थापन का आदेश तो नहीं दिया जा सकता। परन्तु न्याय के हित में इस धारा 151 के अन्तर्गत कब्जा पुनः वापस दिलाया जा सकता है जहां डिक्री की गलती को ठीक किये जाने का प्रश्न है-गलती ऐसी जो लिपिकीय त्रुटि है जो वादी के अभिवचन में गलती के कारण हुई, वहां ऐसी त्रुटि या गलती आदेश 6 नियम 17 के अन्तर्गत अभिवचन में संशोधन द्वारा नहीं की जा सकती। ऐसी त्रुटि का निराकरण न्यायालय द्वारा सिविल प्रक्रिया संहिता की धारा 151 या 152 के प्रयोग के अन्तर्गत की जा सकती है।

    जहाँ हिन्दू दतक और भरण-पोषण अधिनियम के अन्तर्गत वाद भरण-पोषण के लिये पति के विरुद्ध संस्थित किया गया है, वहाँ पारिवारिक न्यायालय सिविल प्रक्रिया संहिता की धारा 151 के अन्तर्गत, अर्थात् अपने अन्तर्निहित अधिकार के अन्तर्गत अन्तरिम भरण-पोषण प्रदान कर सकता है।

    यदि प्रतिस्थापन का कोई मामला धारा 144 की परिधि में नहीं आता तो न्यायालय अपनी अन्तर्निहित शक्ति के अन्तर्गत प्रत्यास्थापन कर सकते हैं।

    कुछ उदाहरण जिनमें अन्तर्निहित शक्ति का उपयोग नहीं किया जा सकता-

    1. कोई भी न्यायालय संहिता की धारा 10 के उपबन्धों की अवहेलना (circumvent) नहीं कर सकता। इसी प्रकार जहाँ व्यादेश के लिये आदेश 39 (1) की आवश्यकता पूरी न होती हो, वहाँ इस धारा के अन्तर्गत व्यादेश उचित नहीं होगा।

    2. कोई भी न्यायालय डिक्री की तिथि से वाद का ब्याज नहीं दे सकता अगर डिक्री इस प्रश्न पर कोई व्यवस्था नहीं करती है।

    3. ऐसा वाद जो कोई फीस न देने के कारण खारिज कर दिया गया है, उसको न्यायालय अन्तर्निहित शक्ति के अन्तर्गत फाइल पर प्रत्यावर्तित (restore) नहीं कर सकेगा. वे आदेश जो अपील योग्य नहीं है, उनसे या उनके विरुद्ध की गई अपील कोई न्यायालय धारा 151 के अधीन नहीं ग्रहण कर सकता।

    4. न्यायालय अन्तर्निहित शक्ति के अन्तर्गत एकपक्षीय डिक्री को नहीं निरस्त कर सकते।

    5. पक्षकारों को डाक्टरी जाँच के लिये मजबूर नहीं किया जा सकता (अन्तर्निहित शक्ति के अन्तर्गत)

    6. अन्तर्निहित शक्ति के अन्तर्गत एक आदेश पर पुनर्विचार या पुनर्विलोकन नहीं किया जा सकता।

    7. न्यायालय अन्तर्निहित शक्ति के अन्तर्गत निर्णय पर हस्ताक्षर करने के उपरान्त विधिक प्रतिनिधि को प्रतिस्थापित (substitute) नहीं कर सकता।

    8. इस शक्ति के अन्तर्गत किसी पक्षकार के बचाव को विखण्डित (strike down) नहीं कर सकता।

    9. धारा 151 का अवलम्ब (सहारा) विशिष्ट अनुतोष अधिनियम, 1963 की धारा 41 (ख) के प्रावधानों को अकृत करने के लिये नहीं लिया जा सकता। ऐसा निर्णय सर्वोच्च न्यायालय ने काटन कारपोरेशन ऑफ इण्डिया बनाम यूनाटेड इण्डस्ट्रियल बैंक नामक वाद में दिया।

    10. अन्तर्निहित शक्ति या अवलम्ब वादपत्र में ऐसे संशोधन के लिये नहीं लिया जा सकता जिससे एक बिल्कुल ही नये वाद हेतुक का प्रवेश हो जाये या वाद की प्रकृति में हो परिवर्तन हो जाये।

    11. अन्तर्निहित अधिकार का अवलम्ब वादी आदि के अन्तरण के लिये नहीं लिया जा सकता है।

    12. अन्तर्निहित अधिकार का प्रयोग वहां भी नहीं किया जा सकता जहां कार्यवाहियों की बहुलता हो या सांविधिक प्रावधानों के परिवंचना के लिये।

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