सिविल प्रक्रिया संहिता, 1908 भाग 40: निर्देश से संबंधित प्रावधान

Shadab Salim

18 May 2022 5:30 AM GMT

  • सिविल प्रक्रिया संहिता, 1908 भाग 40: निर्देश से संबंधित प्रावधान

    सिविल प्रक्रिया संहिता,1908 (Civil Procedure Code,1908) की धारा 113 निर्देश से संबंधित है। निर्देश न्यायालय की एक शक्ति है। कोई अधीनस्थ न्यायालय निर्देश के माध्यम से किसी विधि के प्रश्न को उच्च न्यायालय से पूछ सकता है और उसका हल जान सकता है। इस आलेख में इस ही निर्देश से संबंधित प्रावधान पर चर्चा की जा रही है।

    निर्देश के बारे में उपबन्ध धारा 113 एवं आदेश 46 में किये गये हैं। निर्देश का उद्देश्य अधीनस्य न्यायालय द्वारा, उन मामलों में जिनमें अपील नहीं होती, विधि के प्रश्नों पर उच्च न्यायालय की राय प्राप्त करना है, विधि के ऐसे प्रश्न जिनके सम्बन्ध में स्वयं न्यायालय को ही सन्देह है और जिसका निराकरण मामले के निपटारे के लिये आवश्यक है।

    ऐसा करके न्यायालय पर उन गलतियों से बच सकेगा जिनका निराकरण आगे चलकर नहीं किया जा सकता। ऐसा निर्देश अधीनस्थ न्यायालय द्वारा मामले की सुनवाई से पूर्व या मामले की सुनवाई के दौरान किया जा सकता है, लेकिन हर हालत में निर्णय देने से पहले किया जाना चाहिये।

    आवश्यक शर्तें

    अधीनस्थ न्यायालय द्वारा निर्देश के लिये निम्नलिखित शर्तों का पूरा होना आवश्यक है-

    (1) जहाँ ऐसे न्यायालय के समक्ष कोई वाद, जिसमें डिक्री के विरुद्ध अपील नहीं होती या अपील, जिसमें पारित डिक्री के विरुद्ध द्वितीय अपील उच्च न्यायालय को नहीं होती या निष्पादन को कोई कार्यवाही लम्बित है;

    (2) ऐसे वाद, अपील या निष्पादन की कार्यवाही में विधि या विधि का बल रखने वाली किसी रूढ़ि से सम्बन्धित प्रश्न उत्पन्न होता है; और

    (3) वह न्यायालय जो वाद का विचारण कर रहा है, या अपील को सुनवाई कर रहा है या डिक्री का निष्पादन कर रहा है, वह स्वयं ऐसे प्रश्न पर युक्तियुक्त (reasonable) सन्देह करता है।

    विधि के ऐसे प्रश्न जिस पर न्यायालय को सन्देह है दो भागों में बाटे जा सकते हैं-

    (1) वे प्रश्न जिनका सम्बन्ध किसी अधिनियम, अध्यादेश या विनियम (Act, Ordinance of Regulation) की वैधता से है; और

    (2) अन्य प्रश्न

    जहाँ तक अन्य प्रश्नों का सम्बन्ध है उसमें किसी अधीनस्थ न्यायालय द्वारा उच्च न्यायालय को निर्देश ऐच्छिक (optional) है। जहाँ किसी अधिनियम, अध्यादेश या विनियम की वैधता का सम्बन्ध है, यहाँ निर्देश करना आवश्यक है और धारा के प्रावधान आदेशात्मक है, किन्तु ऐसा करने के लिये भी निम्नलिखित शर्तों का पूरा होना आवश्यक है-

    (1) मामले के निपटारे के लिये प्रश्न का विनिश्चय या अवधारण आवश्यक है;

    (2) अधीनस्थ न्यायालय के विचार में आक्षेपित (impugned) अधिनियम, अध्यादेश या विनियम, अधिकारातीत (ultra vires) है; और

    (3) उच्चतम न्यायालय द्वारा या उच्च न्यायालय द्वारा (जिसके अधीन अधीनस्थ न्यायालय कार्य करता है) ऐसा कोई अभिनिर्धारण नहीं है कि ऐसा अधिनियम, अध्यादेश या विनियम अधिकारातीत है।

    ध्यान रहे किसी अधिनियम या उसके प्रावधान को अवैध घोषित करने का अधिकार केवल उच्च न्यायालय और उच्चतम न्यायालय को है, किसी अन्य अधीनस्थ न्यायालय को नहीं राज्य वित्तीय निगम के अन्तर्गत प्राधिकारी जिला न्यायालय को तो बिल्कुल नहीं। इन्हीं सारी शर्तों का, जिनके अधीन एक अधीनस्थ न्यायालय, उच्च न्यायालय को निर्देश करता है,

    कलकत्ता उच्च न्यायालय ने राना डेव बनाम लैण्ड एक्वीजीशन जज नामक वाद में कहा है-

    प्रथमतः सामान्यतया निर्देश का यह अधिकार अधीनस्थ न्यायालय का है। द्वितीय, निर्देश का अधिकार विवेकीय है इस अर्थ में कि न्यायालय एक मामले का कथन करके उच्च न्यायालय की राय के लिये निर्देश कर सकता है। तृतीय, अधीनस्थ न्यायालय को इस बारे में सन्तुष्ट होना है कि उसके समक्ष जो मामला लम्बित हैं, उसमें किसी अधिनियम की वैधता का प्रश्न अन्तर्वलित है। चतुर्थ, अधीनस्थ न्यायालय को इस मामले में सन्तुष्ट होना है कि अधिनियम की वैधता के प्रश्न का अवधारण मामले के निपटारे के लिये आवश्यक है। पंचम, अधीनस्थ न्यायालय के विचार में ऐसा अधिनियम, अविधिमान्य (invalid) या अप्रवर्तनीय (inoperative) हैं। छठें, अधीनस्थ न्यायालय के विचार में अविधिमान्यता या अप्रवर्तनीयता को घोषणा या अवधारण या तो उच्च न्यायालय के द्वारा जिसके अधीन वह कार्यरत है या उच्चतम न्यायालय के द्वारा नहीं किया गया है।

    अगर ये शर्तें पूरी हो जाती हैं तो अधीनस्थ न्यायालय का अधिकार विवेकीय न होकर आदेशात्मक है और अधीनस्थ न्यायालय मामले का कथन करेगा उस पर अपना विचार व्यक्त करेगा और उसके लिये कारण भी देगा। ऐसी अवस्था में अधीनस्थ न्यायालय को अपना विचार या मत अभिव्यक्त करना होगा कि क्या अधिनियम अविधिमान्य या अप्रवर्तनीय है? जब तक कि अधीनस्थ न्यायालय इस निष्कर्ष पर नहीं पहुंचती है, वह निर्देश करने के लिये बाध्य नहीं है।

    प्रक्रिया

    अधीनस्थ न्यायालय निर्देश या तो स्वप्रेरणा (suo motu) से या पक्षकारों में से किसी के आवेदन पर कर सकेगा। निर्देश करने वाला न्यायालय मामले के तथ्यों का और उस विषय-बिन्दु का जिसके बारे में शंका या सन्देह है, कथन तैयार करेगा, उस पर अपना विचार अभिव्यक्त करेगा और मामला उच्च न्यायालय के विनिश्चय के लिये भेज देगा। अधीनस्थ न्यायालय या तो कार्यवाही को स्थगित कर देगा या ऐसे निर्देश के किये जाने पर भी मामले में अग्रसर हो सकेगा और उच्च न्यायालय को निर्दिष्ट किये गये विषय-बिंदु के विनिश्चय पर समाश्रित (contingent) डिक्री या आदेश पारित कर सकेगा परन्तु जहाँ ऐसी डिक्री या आदेश पारित कर दिया गया है, वहाँ ऐसी डिक्री या आदेश का निष्पादन तब तक नहीं किया जायेगा जब तक कि उस निर्देश पर उच्च न्यायालय के निर्णय को प्रति न प्राप्त हो जाये यदि पक्षकार उपसंजात (appear) हो और सुनवाई को बांछा (desire) करे तो उच्च न्यायालय उन्हें सुनने के बाद इस प्रकार विनिर्दिष्ट किये गये विषय-बिंदु का विनिश्चय करेगा और अपने निर्णय की रजिस्ट्रार द्वारा हस्ताक्षरित प्रति उस न्यायालय को प्रेषित करेगा जिसने निर्देश किया था और ऐसा न्यायालय उसकी प्राति पर उस मामले के उच्च न्यायालय के विनिश्चय के अनुरूप निपटायेगा।

    जहाँ उच्च न्यायालय को किसी मामले का निर्देश नियम के अधीन या धारा 113 के परन्तुक के अधीन किया जाता है, वहाँ उच्च न्यायालय मामले को संशोधन के लिये लौटा सकेगा और किसी ऐसी डिक्री या आदेश को परिवर्तित रद्द या अपास्त कर सकेगा जिसे निर्देश करने वाले न्यायालय ने उस मामले में किया है पारित किया है। अगर परिस्थितियों के अनुसार निर्देश को आवश्यकता नहीं है, तो उच्च न्यायालय सम्बन्धित न्यायाधीश को यह निर्देश दे सकता है कि यह निर्देश का खर्चा व्यक्तिगत रूप से वहन करे निर्देश का खर्चा उच्च न्यायालय के विनिश्चय के लिये किये गये निर्देश के परिणामस्वरूप खर्च (आदि कोई हो) वह मामले में खर्च माना जायेगा।

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