सिविल प्रक्रिया संहिता, 1908 भाग 39: संहिता के अंतर्गत हाईकोर्ट को अपील

Shadab Salim

18 May 2022 4:30 AM GMT

  • सिविल प्रक्रिया संहिता, 1908 भाग 39: संहिता के अंतर्गत हाईकोर्ट को अपील

    सिविल प्रक्रिया संहिता,1908 (Civil Procedure Code,1908) की धारा 109 उच्चतम न्यायालय को अपील से संबंधित प्रावधान करती है। हालांकि अपील केवल उच्च न्यायालय को ही नहीं होती अपितु दूसरे न्यायलयों को भी होती लेकिन जिन मामलों में अपील उच्चतम न्यायालय को होती है उसका उल्लेख इस धारा के अंतर्गत मिलता है। इस आलेख के अंतर्गत धारा 109 पर टिप्पणी प्रस्तुत की जा रही है।

    भारतीय संविधान के अनुच्छेद 132 133 और 134 (क) में भी सिविल मामले में सर्वोच्च न्यायालय में अपील का प्रावधान है। सर्वोच्च न्यायालय में अपील सम्बन्धित सिविल प्रक्रिया संहिता के आदेश 45 में दिया हुआ है। संविधान का अनुच्छेद 133- संविधान के तीसवें संशोधन को 1972 में पारित किया गया।

    इससे पूर्व सर्वोच्च न्यायालय में अपील, उच्च न्यायालय के किसी निर्णय डिक्री या अन्तिम आदेश में निम्नलिखित परिस्थितियों में तभी की जा सकती थी जब वह उच्च न्यायालय यह प्रमाणित करता है-

    (अ) विवादग्रस्त विषय-वस्तु का मूल्य प्रथम बार में और अपील में भी 20,000 रुपये से कम नहीं है, या

    (ब) निर्णय, डिक्री या अन्तिम आदेश प्रत्यक्षतः या अप्रत्यक्षतः रूप से जिस दावे या सम्पत्ति सम्बन्धी प्रश्न को अन्तर्वलित (involves) करता है उसका मूल्य 20,000 रुपये से कम नहीं है, या

    (स) मामला सर्वोच्च न्यायालय में अपील के योग्य है :

    परन्तु जो संविधान संशोधन 1972 में (तीसवाँ) पारित किया गया उसके अनुसार उच्च न्यायालय की सिविल कार्यवाही में किसी निर्णय, डिक्री या अन्तिम आदेश की अपील उच्चतम न्यायालय में होगी, यदि उच्च न्यायालय यह प्रमाणित कर देता है-

    (i) मामले में व्यापक महत्व का कोई सारवान् विधिक प्रश्न अन्तर्वलित है, तथा

    (ii) उच्च न्यायालय की राय में उस प्रश्न को उच्चतम न्यायालय द्वारा विनिश्चय आवश्यक है।

    सर्वोच्च न्यायालय में अपील की आवश्यक शर्ते- संहिता की धारा 109 के अनुसार न्यायालय में तभी अपील की जा सकती है जब निम्नलिखित शर्तें पूरी की जाएं-

    (1) कोई निर्णय, डिक्री या अन्तिम आदेश उच्च न्यायालय द्वारा पारित किया गया है,

    (2) मामले में व्यापक महत्व का कोई सारवान् विधिक प्रश्न अन्तर्वलित है, और

    (3) उच्च न्यायालय की राय में इस प्रश्न का उच्चतम न्यायालय द्वारा विनिश्चय आवश्यक है। ध्यान रहे उपरोक्त सभी शर्तों का पूरा होना आवश्यक है। अगर उपरोक्त शर्तें पूरी नहीं होती हैं तो उच्चतम न्यायालय में अपील नहीं की जा सकेगी।

    दीवानी कार्यवाही

    कोई भी कार्यवाही दीवानी या सिविल कार्यवाही होती है, अगर उसमें अन्तर्बलित (involved) प्रश्न सम्पत्ति के अधिकार या अन्य सिविल अधिकार के न्यायनिर्णयन (adjudication) का प्रश्न है कोई भी कार्यवाही दीवानी या सिविल कार्यवाही है इस बात का निर्धारण अन्तर्वलित (involved) अधिकार के स्वभाव से होता है न कि कार्यवाही के प्रारूप (form) से।

    निर्णय

    इस धारा के अधीन निर्णय से तात्पर्य उस न्याय-निर्णयन (adjudication) से है जिसके माध्यम से पक्षकारों के अधिकारों पर अन्तिम रूप से फैसला हो जाता है और उसकी परिधि में ऐसा अन्तर्वती निर्णय नहीं आता जिससे एक या अधिक विवाद्यकों पर निर्णय होता है किन्तु पक्षकारों के अधिकारों का पूर्ण रूप से अवधारण नहीं होता।

    अन्तिम आदेश

    एक आदेश अन्तिम आदेश होता है अगर वह पक्षकारों के अधिकारों का अन्तिम रूप से निपटारा कर देता है और वैसा नहीं जैसा कि सिवित प्रक्रिया संहिता में परिभाषित किया गया है। अन्तिम आदेश' पद की व्याख्या का निर्वाचन उच्चतम न्यायालय ने तमाम मामलों में किया है। उन निर्णयों का अर्थ यह है कि कोई आदेश 'अन्तिम आदेश' होगा अगर ऐसे आदेश से पक्षकारों के अधिकारों का अन्तिम रूप से विनिश्चय हो गया है, किन्तु जहाँ वाद की कार्यवाही का ऐसा आदेश पारित होने के बाद भी विचारण जारी है, और पक्षकारों के अधिकारों का सभी अवधारण होना है, वहाँ ऐसा आदेश अन्तर्वती है।

    डिक्री

    डिक्री से भी तात्पर्य ऐसी डिक्री से है जो पक्षकारों के बीच मुकदमेबाजी को समाप्त कर देती है। दूसरे शब्दों में डिक्री से तात्पर्य ऐसे विधि-निर्णयन से है जो पक्षकारों के बीच मुकदमेबाजी का अन्त का व्यापक महत्व का सारवान् विधिक प्रश्न जैसा कि ऊपर कहा गया है कि उच्च न्यायालय धारा 109 के अधीन जब ऐसा प्रमाणित करे कि मामले में व्यापक महत्व का सारवान् विधिक प्रश्न इन्वॉल्व है, तभी उच्चतम न्यायालय में अपील की जा सकती है। विधि का सारवान् प्रश्न' संहिता में कहीं भी परिभाषित नहीं है।

    किन्तु धारा की शब्दावली से यह स्पष्ट है कि उच्च न्यायालय अपील के लिये प्रमाण-पत्र तभी दे सकेगा जबकि मामले में विधि का ऐसा सारवान् प्रश्न होना चाहिये कि जिसके उच्चतम न्यायालय के द्वारा अवधारण में पक्षकारों के अतिरिक्त सर्वसाधारण को भी हितबद्ध होना चाहिये। प्रश्न ऐसा होना चाहिये कि एक बहुत बड़ी संख्या में (अधिकांश) लोगों को प्रभावित करेगा या तमाम कार्यवाहियों को जिनमें वही प्रश्न अन्तर्वलित है, प्रभावित करेगा। परन्तु कलकता उच्च न्यायालय की एक पूर्णपीठ ने रतन लाल बंशीलाल बनाम किशोरी लाल गोयंका नामक वाद में यह अभिनिर्धारित किया कि विधि के एक प्रश्न को विधि का सारवान् प्रश्न होने के लिये व्यापक महत्व या सामान्य महत्व का होना आवश्यक नहीं है।

    सारवान् विधिक प्रश्न

    सारवान् विधिक प्रश्न की व्याख्या सर्वोच्च न्यायालय ने चुन्नीलाल बी० मेहता बनाम सेन्चुरी स्पिनिंग और मैनुफैक्चरिंग कम्पनी लिमिटेड नामक बाद में निम्न प्रकार से किया है-

    "किसी मामले में उठाया गया विधि का प्रश्न सारवान् है इसके निर्धारण के लिये हमारे मत में उपयुक्त परख यह होगा कि क्या ऐसा प्रश्न व्यापक सार्वजनिक महत्व का है या क्या ऐसा प्रश्न पक्षकारों के अधिकारों को प्रत्यक्षतः और सारतः प्रभावित करता है? और अगर ऐसा करता है तो क्या यह खुला हुआ प्रश्न है, इन अर्थों में कि ऐसे प्रश्न का अन्तिम रूप से निपटारा इस न्यायालय द्वारा पा प्रिवी कौन्सिल द्वारा या फेडरल न्यायालय द्वारा नहीं किया गया है या क्या यह कठिनाइयों से मुक्त नहीं है, या क्या यह वैकल्पिक विचार के विवेचना की अपेक्षा करता है। अगर प्रश्न का निपटारा उच्चतम न्यायालय द्वारा कर दिया गया है या ऐसे प्रश्न के अवधारण में लागू किये जाने वाले सामान्य सिद्धान्त का पूर्ण रूप से निरूपण कर दिया गया है और यहाँ मात्र प्रश्न उन सिद्धान्तों को लागू करने का है या मामले में उठाया गया तर्क स्पष्ट रूप से (palpably) बेतुका (असंगत) है तो प्रश्न सारवान् विधिक प्रश्न नहीं होगा।"

    दिल्ली उच्च न्यायालय ने चन्दकिशोर शर्मा बनाम कम्पावती? नामक वाद में यह अभिनिर्धारित किया कि जहाँ पिता पुत्र मकान के एक हिस्से में रह रहे हैं वहाँ एक के द्वारा दूसरे को मकान उपपट्टे (sub lease) पर दिये जाने का प्रश्न, विधि का सारवान प्रश्न है।

    इस प्रकार उच्चतम न्यायालय ने पंकजराय भागवा बनाम मोहिन्दर नाथ नामक वाद में यह निर्धारित किया कि जहाँ प्रश्न एक विवादित दस्तावेज की व्याख्या का है, और उससे विधि का प्रश्न उठ होता है, और ऐसे प्रश्न से पक्षकार के अधिकारों पर प्रत्यक्षतः और सारतः प्रभाव पड़ता है, वहाँ ऐसे प्रश्न को पक्षकारों के बीच विधि का सारवान् प्रश्न माना जायेगा।

    इसी प्रकार जहाँ एक दस्तावेज की गलत व्याख्या अर्यान्वयन किया गया है या दस्तावेज के अर्थान्वयन में विधि के सिद्धान्त का गलत प्रयोग किया गया है, बात जैसा कि उच्चतम न्यायालय ने हीरा विनोध बनाम शेषाम्मल में अभिनिर्धारित किया कि धारा 100 के अन्तर्गत हस्तक्षेप अनुज्ञेय है। एक दस्तावेज जिसने " अनुदान का सृजन" किया है उसको व्याख्या " आवश्यकता जन्य सुखाधिकार (casement of necessity) के रूप में मामले में निर्णय को तात्विक रूप से प्रभावित करता है। अतः यहाँ विधि का सारवान प्रश्न उठता है।

    यहाँ विधि निश्चित है या निर्धारित कर दी गयी है (the law is settled) वहाँ उसका गलत लागू किया विधि के सारवान् प्रश्न को जन्म देता है। इसी प्रकार जहाँ तथ्यों का निष्कर्ष दूषित हो गया वहाँ भी विधि कासारवान् प्रश्न खड़ा हो जाता है। ऐसा निर्णय कलकत्ता उच्च न्यायालय को एक पूर्ण पीठ ने रतनलाल बंशीलाल बनाम किशोरलाल गोयंका नामक वाद में दिया।

    संतोष हजारी बनाम पुरुषोत्तम तिवारी में उच्चतम न्यायालय ने "विधि का सारवान् प्रश्न क्या है " की व्याख्या करते हुये कहा कि "विधि का एक बिन्दु जिस पर दो मत नहीं हो सकते विधि का एक प्रतिपादन (proposition) तो हो सकता है किन्तु "विधि का सारवान् प्रश्न" नहीं हो सकता। विधि का सारवान् प्रश्न होने के लिये यह आवश्यक है कि वह विवाद योग्य हो, राष्ट्र की विधि द्वारा या बाध्यकर पूर्व निर्णय द्वारा पहले से ही निश्चित या सुस्थापित न हो और जिसका मामले में निर्णय के लिये महत्वपूर्ण एवं आवश्यक सम्बन्ध हो, चाहे जिस तरफ उसका उत्तर दिया जाये, जहाँ तक न्यायालय के समक्ष पक्षकारों के अधिकारों का सम्बन्ध है। अतः यह प्रत्येक वाद के तथ्यों एवं परिस्थितियों पर निर्भर करेगा कि किसी मामले में विधि का कोई प्रश्न विधि का सारवान् प्रश्न है कि नहीं।

    सर्वोपरि समस्त विचार सभी प्रक्रमों पर न्याय करने की अनिवार्य बाध्यता और किसी मुकदमें के जीवन को बढ़ाते रहने से बचने को प्रेरक आवश्यकता के बीच एक न्यायसम्मत संतुलन बनाये रखना होना चाहिये। जहां श्रेष्ठ न्यायालयों द्वारा पहले से ही दिये गये निर्णय का मामले के तथ्यों पर गलत प्रयोग किया गया है। वहां विधि का सारवान प्रश्न नहीं उठता इसी प्रकार जहां प्रथम अपीलीय न्यायालय ने अपने विवेक का प्रयोग न्यायिक तरीके से किया है, वहां इसे विधि या प्रक्रिया सम्बन्धी गलती नहीं कहा जा सकता।

    यहां विधि का सारवान प्रश्न नहीं उठता कि उसमें उच्च न्यायालय हस्तक्षेप करे , परन्तु जहाँ प्रथम अपीलीय न्यायालय में अधिकारिता का अभाव है, वहां विधि का सारवान प्रश्न उठता, जहाँ असंगत तथ्यों पर विचार करके या सुसंगत तथ्यों पर विचार किये बिना विनिश्चय पर पहुँचा गया है यहाँ विधि का सारवान प्रश्न उठता है। विधि का सारवान प्रश्न होने के लिये यह आवश्यक है कि प्रश्न ऐसा होना चाहिये जिसका उत्तर वाद में के पक्षकारों के अधिकारों को प्रभावित करता है। दूसरे शब्दों में प्रश्न ऐसा होना चाहिये जो मामलों के विनिश्चय के लिये आवश्यक एवं महत्वपूर्ण हो।

    "विधि का सारवान् प्रश्न" का तात्पर्य केवल यह नहीं कि "सामान्य महत्व का विधि का प्रश्न" अपितु एक मामले में पक्षकारों के बीच उठने वाले विधि के सारवान् प्रश्न से भी है। धारा 100 के सन्दर्भ में पक्षकारों के बीच विधि का वह प्रश्न जो एक मामले में अन्तिम निर्णय को प्रभावित करता है, का सारवान प्रश्न है।

    यही नहीं जहां विधि के एक प्रश्न का स्पष्ट और दृढ़ता से उच्चतम न्यायालय या सम्बन्धित न्यायालय द्वारा प्रतिपादन किया गया है और उसका अनुगमन अधीनस्थ न्यायालय ने किया है वहां भी अपीलार्थी उच्च न्यायालय को समझाने में समर्थ है कि जिस विधि का स्पष्ट एवं दृढतापूर्वक प्रतिपादन किए है, उस पर पुनर्विचार या परिवर्तन, संशोधन या स्पष्टीकरण की आवश्यकता है या दोनों परस्पर विरोधी विचारों के बीच समाधान की आवश्यकता है, वहां वह विधि का सारवान् प्रश्न होगा।

    उच्चतम न्यायालय में की जाने वाली अपील की प्रक्रिया संहिता के आदेश 45 में उच्च न्यायालय में की जाने वाली अपीलों की प्रक्रिया के बारे में विवरण दिया गया है।

    अपील की अनुमति के लिये आवेदन प्रमाण पत्र की आवश्यकता पड़ती है कि उच्चतम न्यायालय में अपील करने के लिये इस आशय के-

    (1) मामले में व्यापक महत्व का कोई सारवान् विधिक प्रश्न अन्तर्वलित है और

    (2) ऐसे प्रश्न का विनिश्चय उच्चतम न्यायालय द्वारा किया जाना आवश्यक है।

    अतः उच्चतम न्यायालय में अपील की इच्छा रखने वाले पक्षकार को इस आशय का प्रमाणपत्र करने के लिये उच्च न्यायालय में (जिसको डिक्री के विरुद्ध अपील किया जाना है) आवेदन करना आवेदन अर्जी (petition) के माध्यम से होगा।

    इस अर्जी की सुनवाई यथाशीघ्र की जायेगी और आवेदन का निपटारा, उस तारीख से जिसको वह न्यायालय में उपस्थित की गयी है, साठ दिन के भीतर समाप्त करने का प्रयास किया जायेगा।

    न्यायालय ऐसी अर्जी प्राप्त हो जाने पर निर्देश देगा कि विरोधी पक्षकार को सूचित किया जाये कि वह यह हेतु दर्शित करे कि उक्त प्रमाण-पत्र क्यों न दे दिया जाये। ऐसी सुनवाई के पश्चात् उच्च न्यायालय ऐसा प्रमाण पत्र जारी कर सकेगा और अगर ऐसे प्रमाणपत्र दिया जाना अस्वीकृत कर दिया जाता है तो वहाँ अर्जी खारिज कर दी जायेगी प्रतिभूति और निक्षेप- जहाँ ऐसा प्रमाण पत्र जारी कर दिया जाता है वहाँ आवेदक परिवादी (complained of) डिक्री की तारीख से नब्बे दिन या हेतु दर्शित किये जाने पर न्यायालय द्वारा अनु (allowed) को जाने वाली साठ दिन से अधिक नहीं अतिरिक्त अवधि के भीतर या प्रमाण पत्र जारी किये जाने की तारीख से छह सप्ताह की अवधि के भीतर जो भी तारीख पश्चातूवर्ती हो।

    (1) प्रत्यर्थी (respondent) के खर्चों के लिये प्रतिभूति (नकद या सरकारी प्रतिभूतियों के रूप में देगा तथा

    (2) वह रकम निक्षिप्त करेगा जो वाद में के पूरे अभिलेख को अनुवाद कराने, अनुलिपि करारे अनुक्रमणिका तैयार करने (मुद्रण) और उसको शुद्ध प्रति उच्चतम न्यायालय को (transmitting) के व्ययों की पूर्ति के लिये अपेक्षित हो अपील का प्रतिग्रहण (Admission of appeal)-

    जहाँ उपरोक्त अपेक्षित प्रतिभूति और निक्षेप का दिया गया है वहाँ न्यायालय अपील के प्रतिग्रहण की घोषणा करेगा, उसकी सूचना प्रत्यर्थों को देगा और अभिलेख को उच्चतम न्यायालय को भेज देगा।

    अपील लम्बित रहने तक न्यायालय की शक्तियाँ- अपील के उच्चतम न्यायालय में लम्बित रहने से डिक्रीदार के अपने डिक्री का निष्पादन कराने के अधिकार पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता अगर न्यायालय उसके विपरीत कोई आदेश न दे। न्यायालय अपीलार्थी से पर्याप्त प्रतिभूति लेकर डिक्री के निष्पादन की कार्यवाही को रोक सकेगा या प्रत्यर्थी से पर्याप्त प्रतिभूति लेकर डिक्री के निष्पादन की अनुमति दे सकेगा।

    उच्चतम न्यायालय के आदेशों को प्रवृत्त (enforce) कराने की प्रक्रिया

    अपील की सुनवाई के बाद उच्चतम न्यायालय मामले में अपना निर्णय देगा जो कोई उच्चतम न्यायालय की किसी डिक्री या आदेश का निष्पादन करना चाहता है, वह उस डिक्री की जो अपील में पारित की गयी थी या उस आदेश को जो अपील में दिया गया था, और जिसका निष्पादन चाहा गया है, प्रमाणित प्रति सहित अर्जी द्वारा उस न्यायालय से आवेदन करेगा जिसकी अपील उच्चतम न्यायालय में की गयी थी।

    ऐसा न्यायालय (जिसे आवेदन किया गया है) उच्चतम न्यायालय की डिक्री के आदेश को उस न्यायालय को भेजेगा जिससे वह पहली डिक्री (जिसकी अपील की गयी है) पारित की थी अर्थात् प्रथम बार के न्यायालय या विचारण न्यायालय को भेजेगा उच्चतम न्यायालय की डिक्री या आदेश ऐसे किसी भी न्यायालय को भेजी जा सकती है जिसे भेजने के लिये उच्चतम न्यायालय ने अपनी डिक्री या आदेश में निदेश दिये है, वह न्यायालय जिसे उच्चतम न्यायालय की ऐसी डिक्री या आदेश भेजा जायेगा उसका निष्पादन उस रीति से और उन प्रावधानों के अधीन करेगा जो उसकी अपनी मूल (original) डिक्री के निष्पादन को लागू होते हैं।

    निष्पादन सम्बन्धी आदेश की अपील-उच्चतम न्यायालय की डिक्री या आदेश का निष्पादन जो न्यायालय करता है उस न्यायालय द्वारा ऐसे निष्पादन के सम्बन्ध में किये गये आदेश के विरुद्ध अपील उसी रीति से और उन्हीं नियम के अधीन होंगे जिसके अधीन उस न्यायालय की अपनी डिक्रियों के निष्पादन सम्बन्धी आदेश अपीलीय होते हैं।

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