सिविल प्रक्रिया संहिता, 1908 भाग 35: अनुपूरक कार्यवाहियों के अधीन न्यायालय को शक्तियां
Shadab Salim
30 April 2022 7:00 PM IST
सिविल प्रक्रिया संहिता,1908 (Civil Procedure Code,1908) की धारा 94 और 95 के माध्यम से अनुपूरक कार्यवाहियों के बारे में उपबन्ध किया गया है। धारा 94 में वर्णित अनुपूरक कार्यवाहियों को विवेचना से पहले यह जान लेना आवश्यक है कि ऐसे कार्यवाही की आवश्यकता क्यों पड़ती है? न्यायालय का काम न्याय करना है, और ऐसा कार्य वह डिक्री, आदेश, निर्णय एवं व्यादेशों आदि के माध्यम से पूरा करता है जहाँ कोई पक्षकार न्याय को विफल करना चाहता है वहाँ, न्यायालय उसे ऐसा नहीं करने देगा।
दूसरे शब्दों में जब कोई पक्षकार डिक्री से बचना चाहता है, या डिक्री के निष्पादन में विलम्ब या अवरोध उत्पन्न करना चाहता है या न्याय को विफल करना चाहता है, वहाँ न्यायालय ऐसा नहीं होने देगा और इस उद्देश्य हेतु उचित कार्यवाही करेगा और ऐसे उचित कार्यवाही करने की शक्ति न्यायालय को प्रदान की गयी है। इस आलेख के अंतर्गत धारा 94 पर टिप्पणी प्रस्तुत की जा रही है।
यह धारायें जो न्यायालय को ऐसी शक्ति प्रदान करती हैं उनमें धारा 94 और 95 तथा संहिता के आदेश 38 39 एवं 40 भी हैं।
धारा 94 के अन्तर्गत जिन अनुपूरक कार्यवाहियों का वर्णन किया गया है वे निम्न हैं:
(1) निर्णय के पूर्व की गिरफ्तारी (Arrest before judgement)
(2) निर्णय के पूर्व कुर्की (Attachment before judgement)
(3) अस्थायी व्यादेश (Temporary injunction)
(4) किसी सम्पत्ति का रिसीवर नियुक्त करना (Appointment of Receiver)
(5) अन्तर्वती आदेश जारी करना (Issue of Interlocutory orders)
(1) निर्णय से पूर्व गिरफ्तारी- सामान्यतया जब वाद में डिक्री पारित कर दी जाती है तभी उस डिक्री के निष्पादन में निर्णीत-ऋणी गिरफ्तार किया जा सकता है। परन्तु उन परिस्थितियों में जिनका वर्णन आदेश 38, नियम (1) में दिया गया है, प्रतिवादी को निर्णय पूर्व भी गिरफ्तार किया जा सकता है।
वे परिस्थितियाँ निम्न हैं :
(1) जहाँ किसी वाद में किसी भी प्रक्रम पर शपथ पत्र या अन्यथा न्यायालय को यह समाधान हो जाता है कि
(अ) प्रतिवादी का आशय है कि वह वादी को विलम्बित करने या न्यायालय की किसी आदेशिका से बचने के लिये या जो डिक्री उसके विरुद्ध पारित की जायेगी उसके निष्पादन को बाधित करने के उद्देश्य से
(i) न्यायालय की अधिकारिता की स्थानीय सीमाओं से फरार हो गया है या उन्हें छोड़ गया है; अन्यथा
(ii) न्यायालय की अधिकारिता की स्थानीय सीमाओं से फरार होने ही वाला है या उन्हें छोड़ने ही वाला है; अथवा
(iii) अपनी सम्पत्ति को या उसके किसी भाग को व्ययनित (dispose of) कर चुका न्यायालय की अधिकारिता की स्थानीय सीमाओं से हटा चुका है, अथवा
(ब) प्रतिवादी ऐसी परिस्थितियों में भारत छोड़ने वाला है जिससे यह पूरी सम्भावना है कि वादी किसी ऐसी डिक्री के बाद जो प्रतिवादी के विरुद्ध पारित की जायेगी उसके निष्पादन में बाधा उत्पन्न करेगा या विलम्ब करेगा;
वहाँ न्यायालय प्रतिवादी को गिरफ्तारी के लिये निर्णय से पूर्व वारण्ट जारी कर सकेगा। परन्तु अगर वाद संहिता की धारा 16 के खण्ड (क) से (घ) में निर्दिष्ट वाद है तो निर्णय से पूर्व गिरफ्तारी का वारण्ट नहीं जारी किया जा सकेगा।
( 2 ) निर्णय से पूर्व कुर्की
यहाँ भी वही बात कही जा सकती है कि सामान्यतया किसी की सम्पत्ति डिक्री के निष्पादन में ही कुर्की की जा सकती है, किन्तु आदेश 38, नियम 5 के उपबन्धों के अधीन प्रतिवादी की सम्पति निर्णय से पूर्व कुर्की की जा सकेगी।
आदेश 38, नियम 5 के उपबन्ध निम्न प्रकार हैं-
जहाँ वाद के किसी भी प्रक्रम पर न्यायालय का शपथ-पत्र द्वारा या अन्यथा यह समाधान हो जाता है कि प्रतिवादी ऐसी किसी डिक्री के जो उसके विरुद्ध पारित की जाये उसके निष्पादन को बाधित या विलम्बित करने के आशय से-
(i) अपनी पूरी सम्पत्ति या उसके किसी भाग को व्ययनित करने वाला है;
(ii) अपनी पूरी सम्पत्ति या उसके किसी भाग को न्यायालय हटा देने वाला है। वहाँ न्यायालय प्रतिवादी को यह आदेश दे सकेगा कि
(i) वह हेतु सन्दर्शित करे कि वह प्रतिभूति क्यों न दे; और की अधिकारिता की स्थानीय सीमाओं से
(ii) यह उक्त सम्पत्ति को या उसके मूल्य को या किसी पर्याप्त भाग को प्रस्तुत करने कर न्यायालय के व्ययनाधीन (at the disposal of court) के लिये प्रत्याभूति दे; तथा
(ii) आदेश में उल्लिखित सम्पत्ति को सशर्त कुर्की का आदेश दे सकेगा।
जहाँ प्रतिवादी न्यायालय में दावा के लिये नियत समय के भीतर यह हेतुक दर्शित करने में असफलत रहता है कि उसे प्रतिभूति क्यों नहीं देनी चाहिये या अपेक्षित प्रतिभूति देने में असफल रहता है, वहाँ न्यायालय यह आदेश दे सकेगा कि विनिर्दिष्ट सम्पत्ति या उसका ऐसा भाग जो डिक्री को तृष्ट करने के लिये पर्याप्त प्रतीत होता है कुर्क कर लिया जाये
निर्णय से पूर्व कुर्की की स्थिति में न्यायालय दोनों आदेश अर्थात् कारण बताओ नोटिस का आदेश और कुर्की का सशर्त आदेश साथ-साथ जारी कर सकता है।
जहाँ निर्णय से पूर्व एक सम्पत्ति के कुर्की का आदेश एक न्यायालय ने पारित किया, सम्पत्ति ऐसे आदेश पारित करने वाले न्यायालय को अधिकारिता से बाहर, एक दूसरे न्यायालय की अधिकारिता में स्थित है, वहाँ ऐसी स्थिति में कुर्की का आदेश पारित करने वाले न्यायालय को धारा 136 के अनुसार कुर्की के आदेश और तत्सम्बन्धित कागजात को उस जिला न्यायालय को भेजना चाहिये जिसकी स्थानीय सीमाओं के अन्तर्गत कुर्क की जाने वाली सम्पत्ति स्थित है।
किन्तु ऐसा न करने की स्थिति में, अर्थात् कुर्की का आदेश पारित करने वाले न्यायालय के ऐसा करने की असफलता की स्थिति में कुर्की का आदेश अपने आप में अविधिमान्य नहीं हो जाता।
अस्थायी व्यादेश (Temporary injunction)
व्यादेश दो प्रकार के होते हैं- अस्थाई और शाश्वत (temporary and perpetual) अस्थायी व्यादेश आदेश 39 के नियम (1) और (2) से विनियमित होते हैं, शाश्वत व्यादेश विनिर्दिष्ट अनुतोष अधिनियम (Specific Relief Act. 1963) की धारा 38-42 से विनियमित होते हैं। एक पक्षकार जिसके विरुद्ध शाश्वत व्यादेश जारी किया जाता है, उसे किसी कार्य (जिसके लिये शिकायत की जाती है) के करने से हमेशा के लिये रोक दिया जाता है। एक शाश्वत व्यादेश डिक्री के माध्यम से ही (जिसे बाद की पूरी सुनवाई के बाद गुण-दोष के आधार पर पारित किया जाता है) पारित किया जा सकता है।
किन्तु एक अस्थायी व्यादेश, अन्तवंत आवेदन (interlocutory application) पर वाद में किसी प्रक्रम पर जारी किया जा सकता है। व्यादेश को अस्थायी इसलिये कहा जाता है क्योंकि उसकी प्रकृति अन्तरिम होती है और वह तभी तक प्रभावी होता है जब तक कि वाद का निपटारा नहीं हो जाता या जब तक न्यायालय द्वारा कोई अन्य आदेश नहीं दे दिया जाता है। यह तिथि आधारित हो सकता है, घटना आधारित हो सकता है, परिणाम आधारित हो सकता है या जब तक प्रतिवादी का उत्तर नहीं आ जाता तब तक के लिये होता है किन्तु हर स्थिति में वाद में अन्तिम निर्णय तक सह-विस्तारी होता है।
एक रिट याचिका दाखिल की गई, इसके लम्बित रहने के दौरान अन्तरिम अनुतोष प्राप्त कर लिया गया, याचिका वापस ले ली गई। ऐसी याचिका के वापस लेते ही प्रदान किया गया अन्तरिम अनुतोष अपने आप समाप्त हो जाएगा। न्यायालय को भी चाहिये कि जो भी अन्तरिम आदेश पारित किया गया है और उसके जो भी परिणामिक प्रभाव हैं उनको निष्प्रभावी करने वाला आदेश पारित करेम
ध्यान रहे अस्थायी व्यादेश आदेश 39 नियम 1 और 2 के अन्तर्गत सिविल न्यायालय द्वारा ही प्रदान किये जा सकते हैं, काश्त सम्बन्धी विधियों के अधीन राजस्व प्राधिकारियों द्वारा नहींम
अन्तरिम आदेश कौन पारित कर सकता है?
उच्चतम न्यायालय ने अशोक कुमार लिगाला बनाम स्टेट ऑफ कर्नाटक में यह अभिनिर्धारित किया कि अन्तरिम आदेश पारित करने का प्राधिकार उसी न्यायालय को है जिसे अन्तिम आदेश पारित करने का अधिकार है सिवाय वहां के जहां यह अधिकार विशिष्ट रूप से संविधि द्वारा छोन न लिया गया हो। इसका प्रयोग ऐसे प्राधिकारी द्वारा किया जायेगा जिसे अन्तिम आदेश पारित करना है या एक ऐसे प्राधिकारी द्वारा जो अपीलीय अधिकारिता या पुनरीक्षण की अधिकारिता का प्रयोग करता है, एक ऐसे आदेश के विरुद्ध अन्तरिम आदेश प्रदान करता है या अस्वीकार करता है।
परिस्थितियाँ जिनमें एक पक्षीय अस्थायी व्यादेश जारी किया जा सकता है-अस्थायी व्यादेश का जारी किया जाना न्यायालय के विवेकाधीन अधिकार में आता है। दूसरे शब्दों में, न्यायालय ऐसा आदेश जारी भी कर सकता है और नहीं भी जारी कर सकता है।
निम्नलिखित अवस्थाओं पर व्यादेश जारी किया जा सकता है-
(1) जहाँ किसी वाद में शपथ-पत्र द्वारा या अन्यथा यह साबित कर दिया जाता है कि
(क) विवादित सम्पत्ति के बारे में यह खतरा है कि वाद का कोई भी पक्षकार उसका दुव्र्व्ययन करेगा, उसे नुकसान पहुंचायेगा या अन्यसंक्रांत करेगा या डिक्री के निष्पादन में उसका सदोष विक्रय कर दिया जायेगा; अथवा
(ख) प्रतिवादी अपने लेनदारों को कपट-वंचित करने की दृष्टि से अपनी सम्पत्ति को हटाने या व्ययनित करने की धमकी देता है या ऐसा आशय रखता है; अथवा
(ग) प्रतिवादी वादी को बाद में विवादित किसी सम्पत्ति से बेकब्जा करने की या वादी को उस सम्पत्ति के सम्बन्ध में अन्यथा क्षति पहुंचाने की धमकी देता है, वहाँ न्यायालय ऐसे कार्य को अवरुद्ध करने के लिये आदेश द्वारा अस्थायी आदेश जारी कर सकेगा। लेकिन ध्यान रहे कि किसी भी न्यायालय के लिये यह उचित नहीं होगा कि स्थायी व्यादेश प्रदान करने के प्रक्रम पर एक छोटा विचारण करें।
उच्चतम न्यायालय ने कार्तिक दास में अन्तरिम व्यादेश जारी किये जाने के लिये निम्नलिखित सात कसौटियाँ या मार्ग निर्देशक सिद्धान्त जारी किया सिद्धान्त के रूप में एक पक्षीय व्यादेश अपवादात्मक परिस्थितियों में जारी किया जाना चाहिये।
ये कारक जो एक न्यायालय को एक पक्षीय व्यादेश जारी करने से पूर्व ध्यान में रखना चाहिये निम्न है-
1 क्या वादी को अपूरणीय या गम्भीर रिष्टि होगी;
2 क्या एकपक्षीय व्यादेश के जारी किये जाने को अस्वीकार किये जाने से इसके जारी किये जाने की अपेक्षा अधिक अन्याय होगा;
3. न्यायालय उस समय को भी ध्यान में रखेगा जब शिकायतो कर्ता (act complained of) वादी को सूचना में आया ताकि एक पक्षकार के विरुद्ध उसकी अनुपस्थिति में अनुचित आदेश का पारित किया जाना रोका जा सके
4. न्यायालय इस पर भी ध्यान देगा कि क्या वादी कुछ समय के लिये उपमत (acquiesce) हो गया था और ऐसी परिस्थिति में वह एक पक्षीय व्यादेश नहीं पारित करेगा;
5. एक पक्षकार जो एक पक्षीय व्यादेश के लिये आवेदन करता है, उससे न्यायालय यह अपेक्षा कर सकता है कि वह अत्यधिक सद्भावना का प्रदर्शन करेगा;
6. यदि जारी किया भी जाता है तो, एक पक्षीय व्यादेश एक सोमित समयावधि के लिये होगा; और
7 सामान्य सिद्धान्त जैसे प्रथम दृष्टया मामला, सुविधा का सन्तुलन, अपूरणीय क्षति आदि को भी न्यायालय ध्यान में रखेगा। इस तरह पुराना चला आ रहा त्रिसूत्रीय नियम (अन्तरिम व्यादेश जारी करने के लिये) अब सात सूत्रीय कसौटो में बदल गया है।
अन्तर्निहित शक्ति और अस्थायी व्यादेश आदेश 39. नियम (1) के अधीन उन परिस्थितियों का वर्णन किया गया है जिनके अन्तर्गत अस्थायी व्यादेश जारी किये जा सकते हैं। प्रश्न यह है कि क्या उन परिस्थितियों से बाहर, न्यायालय अपने अन्तर्निहित शक्ति (संहिता की धारा 151) का उपयोग करते हुये अस्थायी व्यादेश जारी कर सकते हैं? इस प्रश्न पर न्यायालयों में मतभेद था।
किन्तु अब इस मतभेद का पूर्ण समाधान हो गया है। सर्वोच्च न्यायालय ने मनोहरलाल बनाम सेठ हीरालाल' नामक वाद में अपने निर्णय के माध्यम से कहा कि न्यायालयों को धारा 151 (अन्तर्निहित शक्ति) के अधीन अस्थायी व्यादेश जारी करने का अधिकार उन परिस्थितियों में भी है जहाँ वे आदेश 39, नियम (1) एवं (2) के बाहर हैं।
उदाहरण (1) 'अ' एक न्यास में न्यासी है। वह न्यास की सम्पत्ति को न्यास-भंग की स्थिति में भी बेच देने की धमकी देता है। न्यास के हिताधिकारी न्यास- भंग को रोकने के लिये व्यादेश हेतु वाद संस्थित कर सकते हैं। वाद-पत्र स्वीकार कर लिये जाने के पश्चात् किसी भी समय वे अस्थायी व्यादेश के लिये आवेदन कर सकते है कि न्यासी को न्यास की सम्पत्ति बेचने से तब तक रोका जाये जब तक कि वाद का सुनवाई के पश्चात् अन्तिम रूप से विनिश्चय नहीं हो जाता है।
(2) 'अ' अपनी जमीन 'ब' को पट्टे पर देता है। 'ब' 'अ' से संविदा करता है कि वह उस जमीन से बालू और पत्थर को गिट्टी नहीं खोदेगा। 'ब' संविदा का उल्लंघन करके उस जमीन से बालू खोदने वाला है। 'अ' 'ब' को ऐसा करने से रोकने के लिये व्यादेश हेतु वाद संस्थित कर सकता है और वाद पत्र स्वीकार कर लिये जाने के पश्चात् किसी भी समय अस्थायी व्यादेश हेतु आवेदन कर सकता है कि 'ब' को बालू खोदने से तब तक रोका जाये जब तक कि वाद की सुनवाई के पश्चात् उस पर अन्तिम रूप से विनिश्चय नहीं हो जाए।
(3) 'अ' धुयें से अपने अगल-बगल के वातावरण को दूषित करता है जिससे उसके पड़ोसी 'ब' के सुख-चैन में बाधा पड़ती है। 'ब' स्थायी व्यादेश के लिये वाद संस्थित कर सकता है ताकि 'अ' को वातावरण को दूषित करने से रोका जाये और वाद-पत्र स्वीकार कर लिये जाने के पश्चात् अस्थायी व्यादेश हेतु आवेदन कर सकता है ताकि 'अ' को ऐसा करने के लिये तब तक रोका जाये जब तक वाद पर सुनवाई के पश्चात् अन्तिम रूप से विनिश्चय नहीं हो जाता है।
4 रिसीवर की नियुक्ति (Appointment of Receiver)
धारा 94 के अन्तर्गत न्यायालय रिसीवर को नियुक्ति कर सकते हैं। रिसीवर के नियुक्ति की प्रक्रिया और तत्सम्बन्धी नियम आदेश 40 में दिये गये हैं।
आदेश 40 नियम (1) के अनुसार (1)
जहाँ न्यायालय को यह न्यायसंगत और सुविधापूर्ण प्रतीत होता है, वहाँ न्यायालय आदेश द्वारा (क) किसी सम्पत्ति का रिसीवर चाहे डिक्री पारित होने के पहले या पश्चात् नियुक्त कर सकेगा;
(ख) किसी सम्पत्ति पर से किसी व्यक्ति का कब्जा या अभिरक्षा (custody) हटा सकेगा
(ग) उसे रिसीवर के कब्जे अभिरक्षा या प्रबन्ध के सुपुर्द कर सकेगा तथा
(घ) वाद संस्थित करने और यादों में बचाव करने के बारे में और सम्पत्ति के आयन (realization), प्रबन्ध संरक्षण और सुधार उसके भाटकों और लाभों के संग्रहण, ऐसे भाटकों और लाभों के उपयोजन और व्ययन तथा दस्तावेजों के निष्पादन के लिये सभी ऐसी शक्तियाँ जो स्वयं स्वामी की हैं, या उन शक्तियों में से ऐसी शक्ति जो न्यायालय ठीक समझे, रिसीवर को प्रदत्त कर सकेगा।
रिसीवर की नियुक्ति का प्रभाव - रिसीवर न्यायालय का एक अधिकारी होता है। उसके हाथ में जो सम्पत्ति होती है, न्यायालय की अनुमति के बिना उसे कुर्क नहीं किया जा सकता। एक रिसीवर न तो स्वयं वाद संस्थित कर सकता है और न हो उसके विरुद्ध वाद संस्थित किया जा सकता है। ऐसा तभी हो सकता है, जब उस न्यायालय की जिसने उसे नियुक्त किया है अनुमति ले तो जाये।
दूसरे शब्दों में न्यायालय को अनुमति के बिना न तो रिसीवर वाद संस्थित कर सकता है और न ही उसके विरुद्ध वाद संस्थित किया जा सकता है। यदि रिसीवर के विरुद्ध वाद संस्थित किया जाता है तो उसे धारा 80 के अधीन सूचना दिया जाना आवश्यक है, क्योंकि रिसीवर एक लोक-अधिकारी (public officer) होता है।
जहाँ किसी मृतक व्यक्ति की सम्पत्ति के लिये रिसीवर नियुक्त किया गया है और उस मृत व्यक्ति के व्यापार को चालू रखने के लिये अधिकृत किया गया है, वहाँ अगर ऐसा रिसीवर व्यापार के दौरान ऋण लेता है, तो ऐसे ऋण की वसूली, ऋणदाता न केवल रिसीवर से व्यक्तिगत रूप से कर सकता है अपितु मृत व्यकि की सम्पत्ति से भी कर सकता है।
कोई व्यक्ति जो किसी सम्पत्ति का रिसीवर नियुक्त किया गया है और उस सम्पत्ति को भले ही वह न्यायालय द्वारा बेची जा रही हो नहीं खरीद सकता है। किसी भी व्यक्ति के लिये समझौते द्वारा रिसीवर के अधिकार को सीमित करना या नियन्त्रित करना, न्यायालय की मानहानि मानी जायेगी क्योंकि वह न्यायालय का अधिकार है और यह अधिकार न्यायालय को ही प्राप्त है। रिसीवर का पारिश्रमिक जैसा कि ऊपर कहा जा चुका है, रिसीवर न्यायालय का अधिकारी है,
अत: उसके पारिश्रमिक की व्यवस्था करना न्यायालय का काम है। इसीलिये आदेश 40, नियम (2) में यह उपबन्ध है कि न्यायालय रिसीवर की सेवाओं के लिये पारिश्रमिक के रूप में दी जाने वाली रकम को साधारण या विशेष आदेश द्वारा नियत करेगा।
5 अन्तर्वती आदेश
अन्तर्वर्ती आदेश जारी करते समय न्यायालय को यह ध्यान में रखना चाहिये और यह उसका कर्त्तव्य भी है कि ऐसे आदेश से कहीं पक्षकारों के अधिकारों को कोई खतरा न उत्पन्न हो जाये और ऐसा करने से न्याय न विफल हो।
अन्तर्वर्ती आदेश को लेकर उच्चतम न्यायालय ने यूपी जूनियर डाक्टर्स एक्शन कमेटी बनाम बी सी एल नन्दवानी नामक वाद में यह अभिनिर्धारित किया है कि व्यवहार एवं प्रक्रिया का यह बहुचर्चित नियम है कि अन्तर्वत प्रक्रम पर एक अनुतोष जो माँगा गया है और मामले के निपटारे पर प्राप्त है.... नहीं प्रदत्त किया जाना चाहिये। इस नियम को लागू करते हुये उच्चतम न्यायालय ने कहा कि अस्थायी प्रवेश की अनुमति नहीं दी जानी चाहिये जब तक कि उसके लिये विशेष कारण न हो। तकनीकी पाठ्यक्रमों में तो और नहीं दिया जाना चाहिये।
किसी कार्यवाही में जब अन्तिम न्याय-निर्णयन (निपटारा) होने से पहले कोई व्यक्ति अन्तरिम आदेश प्राप्त कर लेता है तब यह बात ध्यान में रखी जानी चाहिये कि ऐसा अन्तरिम या अन्तर्वर्ती आदेश मानले के अन्तिम निपटारे में सहायक एक कदम होता है और किसी वादकारों को बिना अन्तिम निपटारे का सामना किये ऐसे अन्तर्वर्ती आदेश का अनुचित लाभ उठाने की अनुमति नहीं दी जा सकती।
जब एक पक्षकार अन्तरिम आदेश प्राप्त कर लेता है और बिना अन्तिम निपटारे का सामना किये अपने मामले को स्वेच्छा से वापस ले लेता है और अन्तिम कार्यवाही वापस ली गयी समझकर खारिज कर दी जाती है (dismissed as withdrawn) तो ऐसी स्थिति में अंतर्वर्ती आदेश अपने आप निष्प्रभावी हो जाता है और ऐसे आदेश के अधीन जो भी लाभ प्राप्त होता है वह भी समाप्त हो जाता है
जहाँ कहीं अन्तर्वती आदेश पारित करने का प्रश्न उठता हो और ऐसा आदेश पारित करने का प्रभाव मुख्य मामले के कुछ महत्वपूर्ण एवं संवेदनशील मुद्दों पर पूर्व निर्णय के अनुमान का आभास देता हो, वहाँ उच्चतम न्यायालय ने सब कमेटी आफ जूडीशियल एकाउण्टीविलिटी बनाम यूनियन आफ इण्डिया नामक वाद में यह अभिनिर्धारित किया कि न्यायालय को ऐसा आदेश पारित करने से विरत रहना चाहिये।