सिविल प्रक्रिया संहिता, 1908 भाग 32:संहिता की धारा 81,82,83 एवं 84

Shadab Salim

23 April 2022 5:17 AM GMT

  • सिविल प्रक्रिया संहिता, 1908 भाग 32:संहिता की धारा 81,82,83 एवं 84

    सिविल प्रक्रिया संहिता,1908 (Civil Procedure Code,1908) की धारा 81,82,83 एवं 84 यह चारों ही धाराएं विशेष वाद से संबंधित है। विशेष वाद अर्थात सरकार के द्वारा या सरकार के विरुद्ध वाद है। इस आलेख में इन चारों ही धाराओं पर टिप्पणी प्रस्तुत की जा रही है।

    यह अधिनियम में प्रस्तुत की गई धारा का मूल रूप है।

    धारा 81

    गिरफ्तारी और स्वीय उपसंजाति से छूट- ऐसे किसी भी कार्य के लिये, जो लोक अधिकारी द्वारा उसकी पदीय हैसियत में किया गया तात्पर्यित है, उसके विरुद्ध संस्थित किये गये वाद में -

    (क) डिक्री के निष्पादन में से अन्यथा न तो गिरफ्तार किये जाने का दायित्व प्रतिवादी पर और न कुर्क किये जाने का दायित्व उसकी सम्पत्ति पर होगा; तथा

    (ख) जहाँ न्यायालय का यह समाधान हो जाता है कि प्रतिवादी लोक-सेवा का अपकार किये बिना अपने कर्त्तव्य से अनुपस्थित नहीं हो सकता वहाँ, वह उसे स्वीय उपसंजाति से छूट दे देगा।

    जहाँ कोई वाद किसी लोक-अधिकारी के विरुद्ध उसके पदीय हैसियत से किये गये कार्य के लिये संस्थित किया गया है, वहाँ ऐसे अधिकारी को डिक्री के निष्पादन से अन्यथा न तो गिरफ्तार किया जाएगा और न हाँ उसकी सम्पत्ति को कुर्क किया जायेगा। दूसरे शब्दों में उस लोक-अधिकारी के विरुद्ध जो वह संस्थित किया गया है, उसमें पारित डिक्री के निष्पादन के अन्तर्गत ही उसे गिरफ्तार किया जा सकता है उसकी सम्पत्ति कुर्क की जा सकती है, अन्यथा नहीं।

    धारा 81 खण्ड (ख) के अनुसार यदि ऐसा अधिकारी अपने कार्य को क्षति पहुंचाये बिना न्यायालय में उपस्थित नहीं हो सकता है तो उसे व्यक्तिगत उपसंजाति (personal appearance) से मुक्त कर दिया जायेगा।

    यह धारा 82 का संहिता में प्रस्तुत किया गया मूल रूप है-

    धारा 82

    डिक्री का निष्पादन (1) जहाँ सरकार द्वारा या उसके विरुद्ध या ऐसे कार्य की बाबत जिसके बारे में यह तात्पर्थित है कि ऐसे लोक-अधिकारी द्वारा अपनी पदीय हैसियत में किया गया है, उसके द्वारा उसके विरुद्ध किसी वाद में यथास्थिति, भारतीय या किसी राज्य या लोक-अधिकारी के विरुद्ध डिक्री पारित की जाती है, वहाँ ऐसी डिक्री उपधारा (2) के उपबन्धों के अनुसार ही निष्पादित की जायेगी, यथा नहीं।

    (2) ऐसी डिक्री की तारीख के संगणित तीन मास की अवधि तक उस डिक्री के तुष्ट न होने पर ही किसी डिक्री के निष्पादन का आदेश निकाला जायेगा।

    (3) उपधारा (1) और उपधारा (2) के उपबन्ध किसी आदेश या पंचाट के सम्बन्ध में ऐसे लागू होंगे जैसे वे डिक्री के सम्बन्ध में लागू होते हैं, यदि वह आदेश या पंचाट

    (क) भारत संघ या किसी राज्य के या यथापूर्वोक किसी कार्य के बारे में किसी लोक-अधिकारों के विरुद्ध चाहे न्यायालय द्वारा चाहे किसी अन्य प्राधिकारी द्वारा दिया गया हो, तथा

    (ख) इस संहिता या तत्समय प्रवृत्त किसी अन्य विधि के उपबन्धों के अधीन ऐसे निष्पादित किये जाने के योग्य ही मानो वह डिक्री हो।

    पुरानी धारा 82 को 1976 के संशोधन के माध्यम से परिवर्तित कर दिया गया है। पुरानी धारा के अनुसार जहाँ डिक्री सरकार या लोक-अधिकारी के विरुद्ध पारित की जाती थी वहाँ डिक्री में एक अवधि का निश्चित किया जाना आवश्यक था जिसके भीतर डिक्री का समाधान होना था। यदि उल्लिखित अवधि की सीमा के भीतर डिक्री का समाधान नहीं कर दिया जाता अथवा डिक्री की तारीख से तीन माह के भीतर (जहाँ किसी समय का उल्लेख न किया गया हो) ऐसा समाधान नहीं हो जाता, वहाँ न्यायालय उस मामले को राज्य सरकार के पास आदेश हेतु निर्देशित करती है।

    ऐसी डिक्री का निष्पादन तब तक नहीं हो सकता था जब तक कि रिपोर्ट भेजने की तिथि के तीन मास की अवधि तक वह डिक्री असमाधान की स्थिति में पड़ी रह जाए। अब यह स्थिति 1976 के संशोधन के माध्यम से बदल गयी है। अब न्यायालय द्वारा राज्य सरकार को रिपोर्ट प्रेषित करने की आवश्यकता नहीं है। संशोधित धारा के अनुसार कोई डिक्री तब तक नहीं निष्पादित की जा सकेगी जब तक डिक्री की तिथि से तीन मास की अवधि न समाप्त हो जाये और डिक्री समाधान के बिना पड़ी रही।

    इस धारा के उपबन्ध किसी आदेश या किसी पंचाट (award) पर भी उसी तरह लागू होंगे जैसे किसी डिक्री पर यदि ऐसा आदेश या पंचाट भारत संघ या राज्य सरकार या किसो लोक-अधिकारी के विरुद्ध किसी न्यायालय द्वारा या किसी अन्य प्राधिकारी द्वारा दिया गया हो, किन्तु ऐसा आदेश या पंचाट इस संहिता पर तत्समय प्रवृत्त किसी अन्य विधि के उपबन्धों के अधीन डिक्री की भाँति निष्पादित किये जाने योग्य हो।

    धारा 83

    अन्य देशीय कब वाद ला सकेंगे- अन्य देशीय शत्रु जो केन्द्रीय सरकार की अनुज्ञा से भारत में निवास कर रहे हैं, और अन्य देशीय मित्र किसी भी ऐसे न्यायालय में, जो वाद का विचारण करने के लिये अन्यथा सक्षम है, इस प्रकार वाद ला सकेंगे मानों वे भारत के नागरिक हो, किन्तु अन्य देशीय शत्रु, जो ऐसो अनुज्ञा के बिना भारत में निवास कर रहे हैं या जो विदेश में निवास कर रहे हैं, ऐसे किसी भी न्यायालय में वाद नहीं लायेंगे।

    स्पष्टीकरण- ऐसे हर व्यक्ति के बारे में जो ऐसे विदेश में निवास कर रहा है जिसको सरकार भारत में युद्धस्थिति में है और जो केन्द्रीय सरकार द्वारा इस निमित दी गयी अनुतति के बिना उस देश में करार कर रहा है, इस धारा के प्रयोजनों के लिये यह समझा जायेगा कि वह ऐसा अन्य देशीय शत्रु है जो विदेश में निवास कर रहा है।

    यह धारा इस मामले का उपबन्ध करती है कि अन्य देशीय (alicns) कब भारत के न्यायालयों में जो वाद के विचारण के लिये सक्षम है, वाद संस्थित कर सकता है। अन्य देशीय मित्र को उसी स्तर पर माना जाता है जैसे भारत का कोई नागरिक इस प्रकार का एक विदेशी राजकुमार भारत में वाद संस्थित करने के लिये सक्षम है, किन्तु अन्य देशीय शत्रु जो भारत में केन्द्रीय सरकार की अनुमति से रह रहा है भारत के न्यायालयों में वाद संस्थित कर सकेगा।

    दूसरे शब्दों में अन्य देशीय शत्रु भी भारत के न्यायालयों में वाद संस्थित कर सकेगा, अगर वह भारत सरकार की अनुमति से यहाँ रह रहा है। यह धारा अन्य देशीय के विरुद्ध जो बिना ऐसी अनुमति के रह रहा है, बाद को प्रतिरोधित नहीं करती और न ही उनके द्वारा ऐसे वाद में उनके बचाव के अधिकार को प्रभावित करती है।

    एक अन्य देशीय शत्रु जो विदेश में रह रहा है भारत के न्यायालय में वाद संस्थित नहीं कर सकता। अतः जहाँ एक भागीदारी के कुछ भागीदार एक ऐसे देश में रह रहे हैं जो बैरों (hostile) है, वहाँ भागीदारी (firm) के द्वारा भारतीय न्यायालयों में वाद नहीं संस्थित कर सकती।

    अन्य देशीय शत्रु- प्रत्येक व्यक्ति जो ऐसे विदेश में निवास कर रहा है जिसकी सरकार भारत में युद्धस्थिति में है और जो केन्द्रीय सरकार द्वारा इस निमित्त दी गयी अनुजति (licence) के बिना उस देश में कारबार कर रहा है, इस धारा के प्रयोजन के लिये अन्यदेशीय शत्रु माना जायेगा।

    धारा 84

    विदेशी राज्य कब वाद ला सकेंगे-

    कोई विदेशी राज्य किसी भी सक्षम न्यायालय में वाद ला सकेगा परन्तु यह तब जब कि वाद का उद्देश्य ऐसे राज्य के शासक में या ऐसे राज्य के किसी अधिकारी में उसको लोक हैसियत में निहित प्राइवेट अधिकारों का प्रवर्तन कराना हो।

    जिस प्राइवेट अधिकार की बात इस धारा के अधीन की गयी है उसका तात्पर्य व्यक्तिगत अधिकार से नहीं है अपितु राज्य के प्राइवेट अधिकार से है जिसका प्रवर्तन न्यायालय द्वारा ही किया जा सकता है और वह राज्य के राजनैतिक और सीमा सम्बन्धी अधिकारों से भिन्न है जिसके बाबत राज्य आपस में इन्तजाम (arrangement) करते हैं यह वे अधिकार है जिनका प्रवर्तन एक विदेशी राज्य निजी व्यक्तियों (private individuals) के विरुद्ध कर सकता है और जो उन अधिकारों से भिन्न हैं, जिन्हें एक राज्य अपनी राजनैतिक हैसियत में किसी दूसरे राज्य के विरुद्ध उसको राजनैतिक हैसियत में रख सकता है।

    प्रत्येक न्यायालय इस तथ्य पर न्यायिक विचार करेगा कि कोई राज्य केन्द्रीय सरकार द्वारा मान्यता प्राप्त है या नहीं।

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