सिविल प्रक्रिया संहिता,1908 आदेश भाग 1: वादों के पक्षकार आदेश 1

Shadab Salim

19 Aug 2023 10:24 AM GMT

  • सिविल प्रक्रिया संहिता,1908 आदेश भाग 1: वादों के पक्षकार आदेश 1

    सिविल प्रक्रिया संहिता,1908(Civil Procedure Code,1908) सिविल विधि का सर्वाधिक महत्वपूर्ण कानून है। यह संहिता सिविल मामलों में मील का पत्थर है। पिछले आलेखों में सिविल प्रक्रिया संहिता की धाराओं पर विस्तारपूर्वक टिप्पणियां की गई हैं। सीपीसी के अंतर्गत केवल धाराएं ही नहीं हैं अपितु उन धाराओं के साथ अनुसूचियाँ भी हैं और यह सभी सिविल प्रक्रिया संहिता का ही भाग है। प्रथम अनुसूची में कुल 51 आदेश हैं जिन्हें अलग अलग नियमों में बांटा गया है। एक आदेश में अनेक नियम हैं।

    इस प्रकार सिविल प्रोसीजर कोड में केवल धाराएं न होते हुए आदेश और नियम भी हैं, इन आदेशों एवं नियमों का अध्ययन किए बगैर सिविल प्रक्रिया संहिता को समझा नहीं जा सकता है और यह केवल धाराओं से ही पूर्ण नहीं होती है। अगले आलेखों के माध्यम से अलग अलग भागों में सिविल प्रक्रिया संहिता के विभिन्न आदेशों पर उनके नियमों के साथ चर्चा की जाएगी। इस भाग में आदेश 1 पर विस्तारपूर्वक टिप्पणी प्रस्तुत की जा रही है।

    इस आलेख में आदेश 1 से लेकर आदेश 3क तक टिप्पणी प्रस्तुत की जा रही है।

    यह संहिता के मूलशब्द हैं-

    (1) वादियों के रूप में कौन संयोजित किए जा सकेंगे वे सभी व्यक्ति वादियों के रूप में एक वाद में संयोजित किए जा सकेंगे जहां-

    (क) एक ही कार्य या संव्यवहार या कार्यों या सव्यवहारों की आवली के बारे में या उससे पैदा होने वाले अनुतोष पाने का अधिकार उनमें संयुक्तत. या पृथकृत या अनुकल्पतः वर्तमान होना अभिकथित है, और

    (ख) यदि ऐसे व्यक्ति पृथक् पृथक वाद लाते तो, विधि या तथ्य का सामान्य (कामन) प्रश्न पैदा होता।

    (2) पृथक् विचारण का आदेश करने की न्यायालय की शक्ति जहां न्यायालय को यह प्रतीत होता है कि वादियों के किसी संयोजन से बाद के विचारण में, उलझन या विलंब हो सकता है यहां न्यायालय वादियों से निर्वाचन करने को कह सकेगा या पृथक विचारण का ऐसा अन्य आदेश दे सकेगा जो समीचीन हो।

    (3) प्रतिवादियों के रूप में कौन संयोजित किए जा सकेंगे वे सभी व्यक्ति प्रतिवादियों के रूप में एक वाद में संयोजित किए जा सकेंगे जहां-

    (क) एक ही कार्य या संव्यवहार या कार्यों या संव्यवहारों की आवली के बारे में या उससे पैदा होने वाले अनुतोष पाने का कोई अधिकार उनके विरुद्ध संयुक्ततः या पृथकृत या अनुकल्पतः वर्तमान होना अभिकयित है, और

    (ख) यदि ऐसे व्यक्तियों के विरुद्ध पृथक-पृथक वाद लाए जाते तो, विधि या तथ्य का सामान्य (कामन) प्रश्न पैदा होता।

    (3क) जहां प्रतिवादियों के संयोजन से उलझन या विचारण में विलम्ब हो सकता है वहां पृथक् विचारण का आदेश देने की शक्ति जहां न्यायालय को यह प्रतीत होता है कि प्रतिवादियों के संयोजन से वाद - के विचारण में उलझन या विलम्ब हो सकता है वहा न्यायालय पृथक् विचारण का आदेश या ऐसा अन्य आदेश दे सकेगा जो न्याय के हित में समीचीन हो ।

    आदेश 1 के नियम 1 से 3क के अन्तर्गत निम्नलिखित दो मुख्य बातें बताई गई हैं-

    (1) वादियों/प्रतिवादियों यानी पक्षकारों का संयोजन (नियम 1 व 3),और

    (2) पृथक् विचारण का न्यायालय का आदेश (नियम 2 तथा नियम 3क)

    2. पक्षकार और उनके भेद-वादी का कर्त्तव्य- प्रत्येक वादपत्र में जिन व्यक्तियों को पक्षकार बनाया जाता है, वे उस "वाद के पक्षकार" कहलाते हैं। वादी वाद का जनक या संप्रभु होता है। अतः यह उसका कर्त्तव्य है कि वह अपने वाद में प्रभावपूर्ण अनुतोष प्राप्त करने के लिए अपने विपक्षियों तथा सहयोगियों का चयन करे। अतः यह वादी का कर्तव्य है कि वह आदेश में दिये गये नियमों के अनुसार पक्षकारों को संयोजित करे। हालांकि पक्षकारों के 1 असंयोजन या कुसंयोजन के कारण किसी वाद को विफल नहीं किया जा सकता, परन्तु आवश्यक पक्षकार के असंयोजन से वाद खारिज किया जा सकता है।

    एक वाद में दो मुख्य पक्ष होते हैं- (1) वादी और (2) प्रतिवादी। पक्षकारों को दूसरे रूप में इस प्रकार वर्गीकृत किया जा सकता है-

    (i) आवश्यक पक्षकार (Necessary Parties) व उचित पक्षकार (Proper Parties),

    (iii) मध्यक्षेपी (Interveners) या तृतीय पक्षकार ।

    (ii) प्रतिनिधि पक्षकार (Representative Parties)

    (iv) प्ररूपिक पक्षकार (Proforma Parties)

    (1) आवश्यक व उचित पक्षकार

    प्रत्येक आवश्यक पक्षकार उचित पक्षकार है, परन्तु प्रत्येक उचित पक्षकार सदैव आवश्यक पक्षकार नहीं है। यह कहावत आवश्यक और उचित पक्षकारों में अंतर की और संकेत करती है। इन दोनों में मूलभूत अंतर है। जो पक्षकार किसी वाद को संस्थित करने के लिए आवश्यक हैं और जिनकी उपस्थिति के बिना न्यायालय कोई प्रभावशील डिक्री पारित नहीं कर सकता हो, ऐसे पक्षकार आवश्यक पक्षकार " होते हैं, जबकि उचित पक्षकार वे हैं, जिनको उपस्थिति में न्यायालय को उस वाद के विवादास्पद प्रश्नों का निर्णय करने में सुगमता रहती है और आगे हो सकने वाले संविवादों से बचाव हो सकता है अतः सावधानी से पक्षकारों का संयोजन करना आवश्यक है।

    (क) कोई व्यक्ति आवश्यक पक्षकार है या नहीं सही मापदण्ड

    यह निश्चय करने के लिए कि कोई व्यक्ति एक आवश्यक पक्षकार है या नहीं, सही मापदण्ड इस प्रकार है कि-

    (1) उस कार्यवाही में अन्तर्विलित मामले के बारे में ऐसे पक्षकार के विरुद्ध कोई अनुतोष प्राप्त करने के लिए अधिकार हो, और

    (2) ऐसे पक्षकार की अनुपस्थिति में कोई प्रभावपूर्ण डिक्री पारित करना संभव नहीं हो।

    ये दोनों मापदण्ड पूरे होने आवश्यक हैं।

    आवश्यक पक्षकार उदाहरण के माध्यम से

    1. एक न्यास (ट्रस्ट) द्वारा दी गई राशि की वसूली के वाद में सभी न्यासी आवश्यक पक्षकार है। केवल एक न्यासी द्वारा, उपाध्यक्ष के रूप में प्राधिकृत किये जाने पर लाया गया वाद संधारित नहीं किया गया।

    2. एक व्यक्ति ने समनुदेशिती और समनुदेशक दोनों के विरुद्ध वाद संस्थित किया, जिसमे समनुदेशक (alicnator) को आवश्यक पक्षकार माना गया, जिसकी मृत्यु पर उसके विधिक प्रतिनिधियों को आवश्यक पक्षकार माना गया।

    3. वादी अपने भाई 'म' के तथा उसके समनुदेशितियों के विरुद्ध वाद लाया कि परिवार में सम्पत्ति के विभाजन में विवादग्रस्त सम्पत्ति वादी की शाखा के हिस्से में आई। अतः 'म' को उसे समनुदेशितियों को बेचने का कोई अधिकार नहीं था अभिनिर्धारित कि "म" इस वाद में एक आवश्यक पक्षकार है, क्योंकि इस वाद में उसका सम्पत्ति का अधिकार विवादग्रस्त है। हालांकि 'म' को इस संविवाद में कोई हित या रुचि नहीं है, फिर भी उसे "प्ररूषिक प्रतिवादी" (Proforma defendant) नहीं कहा जा सकता।

    4. जब एक सह स्वामी द्वारा वाद लाया जाये, तो दूसरा सहस्वामी एक आवश्यक पक्षकार है। अतः सम्पत्ति में हिस्सा सहस्वामी की अनुपस्थिति में नहीं दिलाया जा सकता।

    5. सहस्वामी के स्वामित्व को किरायेदार ने जब अस्वीकार कर दिया, तो वह सहस्वामी भी आवश्यक पक्षकार होगा।

    6. जब माता का सम्पत्ति में भाग (शेष) था, तो यह आवश्यक पक्षकार थी।

    7. जब पुत्री के रूप में उसकी प्रास्थिति प्रश्नगत थी, तो वह एक आवश्यक पक्षकार थी।

    8. विभाजन (बंटवारे) के वाद में सभी हिस्सेदार आवश्यक पक्षकार होते हैं और उनके बिना वाद नहीं चल सकता।

    आवश्यक पक्षकार नहीं होने के कुछ उदाहरण

    1. मुख्य पट्टे की समाप्ति के वाद में उप-पट्टेदार आवश्यक पक्षकार नहीं माना गया।

    2. दुकानदार के विरुद्ध विक्रयकर की राशि की वापसी के लिए किए गये वाद में राज्य सरकार एक आवश्यक पक्षकार नहीं है।

    3. बेदखली का वाद में मृत किरायेदार की विधवा और पुत्रों के विरुद्ध लाया गया, जिसमें उसकी विवाहिता पुत्री को सम्मिलित नहीं किया गया था। उस पुत्री ने अपना किरायेदारी का हक छोड़ दिया था। अतः ऐसी पुत्री को आवश्यक पक्षकार नहीं माना गया।

    4.वादी के स्वामित्व को स्वीकार करने वाला व्यक्ति आवश्यक पक्षकार नहीं है।

    5. प्रत्याभूतिदाता का यह तर्क नहीं चलेगा कि मूल ऋणी को आवश्यक या उचित पक्षकार बनाया जाय।

    6. जिनका वादग्रस्त सम्पत्ति में न तो हिस्सा (शेयर) है और हितबद्ध व्यक्ति हैं, तो वे आवश्यक पक्षकार नहीं

    7. सहस्वामी द्वारा किए गए वाद में दूसरे सहस्वामियों को संयोजित नहीं किया जा सकता, जो मकान के मालिक नहीं है।

    8. विभाजन के वाद में आवश्यक पक्षकार इस वाद में प्रतिवादी सं.1 और 2 के विरुद्ध अनुतोष नांगा गया था, जबकि प्रतिवादी सं. 3 व 4 प्रतिवादियों के पक्ष का समर्थन करने वाले थे। प्रतिवादी सं. 4 की मृत्यु हो जाने पर विचाराधीन अपील का उपशमन नहीं होगा, क्योंकि प्रतिवादी सं. 4 के विधिक प्रतिनिधियों को प्रतिस्थापित नहीं करने से प्रतिवादी सं. 1 च 2 के विरुद्ध वाद पर कोई प्रतिकूल प्रभाव नहीं पड़ता है अर्थात् प्रतिवादी सं. 3 व 4 आवश्यक पक्षकार नहीं थे।

    9. भाटक (किराया) नियन्त्रण के मामलों में पक्षकार एक उप-पट्टेदार आवश्यक पक्षकार नहीं है और उस पर बेदखली की आज्ञा या डिक्री बाध्यकर होती है। अतः उसके असंयोजन का कोई प्रभाव नहीं पड़ता। वादी ने 'ख' से रजिस्टर्ड विक्रय पत्र के अधीन परिसर (भवन) खरीदा और किरायेदारों की बेदखली के लिए तथा बकाया किराये की वसूली के लिए उसने वाद किया 'ख' ने उस विक्रय पत्र को अवैध बताकर उस वाद में पक्षकार बनाने के लिए आवेदन किया। अभिनिर्धारित कि 'ख' न तो आवश्यक पक्षकार है और न उचित पक्षकार है।

    10.हक की घोषणा और शुफाधिकार की डिक्री के लिए किये गये वाद में विक्रेता एक आवश्यक पक्षकार नहीं है लेकिन एक उचित पक्षकार अवश्य है।

    11. बन्धक- विलेख पर आधारित डिक्री के निष्पादन के आवेदन पर प्रत्यर्थी ने निष्पादन का विरोध किया कि जब वाद संस्थित किया गया था वह उस समय वयस्क था पर उसे अवयस्क के रूप में पक्षकार बनाया गया। उक्त वाद के प्रतिवादियों में से किसी ने भी प्रत्यर्थी की ओर से प्रतिनिधि की हैसियत से कार्य नहीं किया। ऐसी डिकी ऐसे व्यक्ति पर आबद्धकर नहीं होगी।

    12. आदेश के नियम 10 (2) के अधीन केवल वही व्यक्ति न्यायालय से प्रतिवादी के रूप में अपने संयोजन के लिए आवेदन कर सकता है, जिसका विवादग्रस्त सम्पत्ति में विद्यमान या प्रत्यक्ष हित हो।

    13. भाटक नियंत्रण के मामले में पक्षकार किराया की बकाया तथा बेदखली का वाद दो व्यक्तियों ने आदेश 1 नियम 10 के अधीन इस वाद में पक्षकार बनाने का आवेदन किया कि विवादग्रस्त सम्पति को उनके पिता ने पट्टे पर दी थी। अतः वे आवश्यक पक्षकार हैं। इस प्रकार इन बाहरी व्यक्तियों ने विवादग्रस्त परिसर के स्वामी होने का दावा किया। इस आवेदन को विचारण-न्यायालय ने स्वीकार कर लिया। पुनरीक्षण में उच्च न्यायालय ने उक्त आदेश को अपास्त कर दिया।

    रजिया बेगम व. शाहजादी अनवर बेगम, एआईआर 1956 सुप्रीम कोर्ट 886 के मामले में अभिनिर्धारित किया गया है कि आदेश के नियम 10 के अधीन किसी पक्षकार को जोड़ने का प्रश्न न्यायालय की प्रारंभिक अधिकारिता का प्रश्न नहीं है, वरन् न्यायिक विवेक का है, जिसे किसी विशेष मामले के तथ्य और परिस्थिति का ध्यान रखते हुए प्रयोग में लेना होता है।

    इस मामले में प्रार्थियों को पक्षकार बनाने से वाद में जांच का क्षेत्र बढ़ जाता है और न्यायालय को परिसर के स्वामित्व का निर्णय देना होता है। एक मकान मालिक द्वारा किरायेदार के बेदखली और बकाया किराये की वसूली के वाद में इस प्रकार की जांच की आवश्यकता नहीं होती है। अतः विचारण-न्यायालय द्वारा पारित आदेश स्वच्छन्द (मनमाना) है, जिसे रक्षित करने से न्याय की विफलता होगी और उलझनें बढ़ेगी। आदेश अपास्त किया गया।

    (घ) उचित पक्षकार (Proper Parties)

    यह एक साधारण नियम है कि उचित पक्षकारों को पक्षकार बनाया जाए, किन्तु इसका अपवाद है कि इससे प्रतिपक्षी के अधिकारों पर प्रतिकूल प्रभाव नहीं पड़े। एक व्यक्ति को अतिक्रमी घोषित कर उसके विरुद्ध कब्जा देने की डिक्री पारित की गई थी। उसका भाई अपील में पक्षकार बनने की प्रार्थना करता है। निर्णय हुआ कि उसे पक्षकार नहीं बनाया जा सकता, क्योंकि उसने अलग से एक घोषणार्थं वाद किया था कि वह मृत किरायेदार के एक उत्तराधिकारी के रूप में विवादग्रस्त भूमि पर कब्जा रखता है।

    एक भूस्वामी ने कई लोगों को संयुक्त रूप से एक सामान्य पट्टे के लिखत के अधीन भवन निर्माण के लिए भूमि दे दी। एक पट्टेदार 'क' के साथ भू-स्वामी ने एक नया करार किया कि उसके द्वारा धारित अलग भूखण्ड के लिये वह अलग दर से किराया देगा। इस आपसी करार से पट्टे की एकता टूट गई। भू स्वामी ने 'क' के विरुद्ध बकाया किराये की वसूली और कब्जा वापस देने के लिए वाद किया, जिसे अन्य सह-पट्टेदारों को पक्षकार बनाये बिना भी संधारणीय माना गया है।

    कुछ अवयस्क बच्चियों का संरक्षक नियुक्त किये जाने के लिए एक विदेशी व्यक्ति ने वाद में उनको गोद लेने के आवश्वासन सहित आवेदन किया। एक दायित्वपूर्ण सामाजिक संस्थान के सचिव ने आवेदन देकर इसका विरोध किया। उसने भी अपने को संरक्षक नियुक्त करने की प्रार्थना की ताकि उन बच्चियों को भारतीय तरीके से पाला जा सके। ऐसा व्यक्ति 'हितबद्ध व्यक्ति' है, जो आदेश 1 के नियम 10 के अधीन उचित पक्षकार के रूप में स्वयं पक्षकार बन सकता है।

    सह प्रतिवादी द्वारा अन्य प्रतिवादी के कुसंयोजन के आधार पर नाम हटाये जाने का प्रार्थना पत्र पोषणीय नहीं है, विशेषकर जब वादी या स्वयं ऐसे प्रतिवादी ने कोई आपत्ति नहीं की हो। किसी प्रतिवादी के विरुद्ध अनुतोष नहीं चाहा जाने मात्र से वह अनुचित पक्षकार नहीं हो सकता है।

    उचित पक्षकार नहीं इच्छा पत्र पर आधारित प्रतिलिप्याधिकार (कापीराइट) का दावा-

    एक व्यक्ति जो एक इच्छा-पत्र के अधीन का प्रोबेट का दावा करता है, उस इच्छा-पत्र के सबूत के अभाव में पक्षकार नहीं बनाया जा सकता। ऐसा व्यक्ति एक उचित पक्षकार भी नहीं है। धारा 99 के अनुसार पक्षकारों के असंयोजन के कारण, जिससे किसी मामले के गुणागुण पर कोई प्रभाव न पड़ता हो, तो अपील में उस डिक्री को उलटा नहीं जायेगा।

    3. पक्षकारों का संयोजन

    वादियों के संयोजन (नियम) और प्रतिवादियों के संयोजन (नियम 3) के लिए आवश्यक शर्ते

    (1) संयुक्तवादी जहां सभी व्यक्तियों का एक ही समान अधिकार या हित हो, जिसका एक ही शत्रु (विरोधी) द्वारा उल्लंघन या हनन किया गया हो, तो ये सब व्यक्ति उस समान हित की रक्षा के लिए वादियों के रूप में एक संयुक्त वाद ला सकते हैं, हालांकि उनके पारस्परिक हितों या अधिकारों में कितना भी अन्तर क्यों न हो। इसका एक कारण यह भी है कि उन सबको वादी बनाये बिना ऐसे वाद में प्रभावपूर्ण डिक्री नहीं दी जा सकती।

    संयुक्त प्रतिवादी इसी प्रकार यदि वादी के हित या अधिकार का हनन करने वाले विरोधी क व्यक्ति है, तो उन सबको प्रतिवादियों के रूप में संयोजित किया जा सकता है। उपरोक्त संयोजन के लिए नियम 3 में जो दो खण्ड (क) तथा (ख) में बताई गई हैं, ये समान शब्दों में हैं।

    इन शर्तों को इस प्रकार समझा जा सकता है-

    तीन शर्तें (क)- (i) एक समान अधिकार एक हो कार्य या संव्यवहार के बारे में या उनसे पैदा हुए अनुतोष (सहायता) पाने का अधिकार रखने वाले सभी व्यक्ति पक्षकारों (वादी या प्रतिवादी) के रूप में किसी एक वाद में सम्मिलित किये जा सकते हैं। इस प्रकार "एक समान अधिकार" होना पहली शर्त है। (ii) अधिकार का स्वरूप यह अनुतोष पाने का अधिकार उन व्यक्तियों में संयुक्तः अर्थात् सब में एक समान हो सकता है। यह पृथकृतः अर्थात् सब में अलग-अलग भी हो सकता है या यह अनुकल्पतः अर्थात् एक के बदले दूसरे रूप में भी हो सकता है। इस प्रकार उस अधिकार का अलग-अलग व्यक्तियों में अलग- अलग रूप हो सकता है, अर्थात् उन व्यक्तियों का पारस्परिक अधिकार भिन्न हो सकता है।

    (ख) सामान्य (कॉमन) प्रश्न- उन व्यक्तियों द्वारा पृथक् पृथक् वाद लाने पर भी विधि या तथ्य का सामान्य (कॉमन) (एक सा) प्रश्न पैदा होता हो-

    "विधि या तथ्य का सामान्य (कॉमन) प्रश्न "दो व्यक्तियों के बीच एक भूखण्ड का विभाजन किया गया, जिस पर अतिक्रमण करने वाले (सामान्य) पड़ौसी के विरुद्ध उन दोनों ने एक संयुक्त वाद पेश किया। उक्त वाद को विधिमान्य माना गया, क्योंकि यदि अलग-अलग वाद किये जाते, तो उनमें भूखण्ड की सीमा का प्रश्न समान होता और जब विधि या तथ्य का समान प्रश्न अन्तर्वलित होता है, तो वादहेतुक या हित को समानता आवश्यक नहीं होती है।

    सभी वादीगण संयुक्त रूप से एक पहले के वाद में दी गई एकपक्षीय डिक्री को अपास्त कराने में हितबद्ध थे। इसमें विचारार्थ विधि व तथ्यों के सामान्य प्रश्न थे और वादीगण को समान वाद हेतुक के साथ एक ही समान प्रतिवादी के विरुद्ध संयुक्त रूप से हितबद्ध होकर एक डिक्री प्राप्त करनी थी। अभिनिर्धारित कि वादीगण एक वाद में अपने वादहेतुकों को सही और वैधरूप से सम्मिलित कर सकते हैं। अतः याद संधारणीय है

    विधि या तथ्य का सामान्य प्रश्न जब अन्तर्वलित नहीं भिन्न-भिन्न व्यक्तियों ने प्रतिवादी को आलू सप्लाई किये, जो भिन्न-भिन्न मात्रा में भिन्न-भिन्न तारीखों को भिन्न-भिन्न भुगतान प्राप्त कर दिये गये थे। इनमें विधि या तथ्य का कोई सामान्य (Common) प्रश्न नहीं उठता है, समान (Similar) प्रश्न उठ सकता है ?

    "कार्य या संव्यवहार" (act or transaction) का अर्थ व्यापक इन नियमों में शब्दावली "कार्य या संव्यवहार" बहुत व्यापक है और यह शब्द "वाद हेतुक" से भी विशाल है। एक ही कार्य या संव्यवहार से अनेक वाद हेतुक उत्पन्न हो सकते हैं। अब अनेक वाद हेतुक होते हुए भी उस समान कार्य या संव्यवहार से प्रभावित व्यक्ति वादी के रूप में एक वाद ला सकते हैं। जब उपरोना दोनों शर्तें पूरी हो जाती है, तो दो या अधिक व्यक्ति वादियों के रूप में सम्मिलित किये जा सकते हैं।

    (ग) रिट याचिका - समान अनुतोष हेतु अनुच्छेद 226 भारतीय संविधान के तहत एक से अधिक व्यक्तियों ने एक ही अनुतोष हेतु रिट याचिका प्रस्तुत की है। प्रस्तुत करने में प्रतिबन्धता नहीं है, प्रस्तुत को जा सकती है।'

    (3) वादियों के संयोजन के उदाहरण- (संयुक्तवाद)

    (1) जब रेलवे प्रशासन की उपेक्षा (लापरवाही) से अनेक व्यक्ति घायल हो गये, तो वे व्यक्ति मिलकर रेलवे प्रशासन के विरुद्ध एक वाद ला सकते हैं। इस प्रकार वादियों को संयोजन किया जा सकता है।

    (2) एक प्रकाशक ने ऑक्सफोर्ड एण्ड केम्ब्रिज पब्लिकेशन्स के शीर्षक के अधीन एक पुस्तकमाला प्रकाशित की, ताकि लोग यह समझे कि ये पुस्तकें प्रसिद्ध ऑक्सफोर्ड एण्ड केम्ब्रिज विश्वविद्यालयों के प्रकाशन हैं। इस मामले में दोनों विश्वविद्यालय वादियों के रूप में मिलकर उस प्रकाशक को उक्त शोषक का प्रयोग करने से मना करने के लिए एक वाद संस्थित कर सकते हैं, क्योंकि प्रकाशक और उनके द्वारा दिया गया विश्वास तथ्यों के सामान्य प्रश्न हैं, जो संव्यवहार को उसी श्रृंखला (आवली) से उत्पन्न होते हैं।

    (3) जहाँ कोई सम्पत्ति अनेक सह-स्वामियों को है, तो उससे सम्बन्धित वाद में सभी सह-स्वामियों को वादियों के रूप में संयोजित करना होगा।

    (4) जहाँ किसी संविदा में अनेक वचनग्रहीता हो, तो उन सबको सह-वादियों के रूप में पक्षकार बनाना होगा। इस प्रकार इस नियम के अधीन कई वादीगण मिलकर एक संयुक्तवाद ला सकते हैं।

    प्रतिवादियों के संयोजन के कुछ उदाहरण

    1. वादी 'क' संविदा के भंग के लिए नुकसानी (प्रतिकर) प्राप्त करने हेतु 'ख' के विरुद्ध वाद लाता है। इस संविदा को भंग करने के षड्यन्त्र में 'ग' और 'घ' भी सम्मिलित थे। संविदा का भंग एक कार्य या संव्यवहार है, उसमें अन्य प्रश्न जैसे षड्यन्त्र, मारपीट, कपट आदि भी सम्मिलित हो सकते हैं। अतः 'क' तीनों व्यक्तियों 'ख' 'ग' और 'घ' के विरुद्ध एक वाद में अनुतोष प्राप्त कर सकता है।

    2. 'क' एक बस में यात्रा कर रहा था। रास्ते में उस बस और एक ट्रक के बीच भिड़ंत होने से दुर्घटना हो गई और 'क' को चोट आई उपेक्षा (लापरवाही) के लिए 'क' ने अपने वाद में बस के ड्राइवर 'ख' ट्रक के ड्राइवर 'ग' तथा उनके मालिकों 'घ' और 'ड' चार व्यक्तियों को प्रतिवादी बनाया, क्योंकि यह क्षति (चोट) उस उपेक्षा के कारण आई, जिसके लिए 'ख' से 'ड' तक चारों व्यक्ति "एक ही कार्य या संव्यवहार" के कारण दायी हैं।

    (5) न्यायालय निर्णय-

    प्रतिवादी बनाने के लिए आवेदन केवल इसी आधार पर कि वादी और प्रतिवादी दोनों मिली - भगत से वाद का निर्णय करवा लेंगे, किसी अन्य व्यक्ति को प्रतिवादी के रूप में पक्षकार बनाने के लिए पर्याप्त कारण नहीं है।

    प्रतिवादियों के रूप में कौन संयोजित किए जा सकेंगे प्रत्येक ऐसा व्यक्ति जो मामले में उठाए गए प्रश्न में अप्रत्यक्षतः और दूरस्थ रूप से हितबद्ध हो सकता है, प्रतिवादी के रूप में सम्मिलित किए जाने के लिए एक आवश्यक पक्षकार नहीं है।

    प्रतिवादियों का संयोजन एक बैंक ने ओवरड्राफ्ट खाते को बकाया रकम को वसूली के लिए - ऋणी के साथ बैंक की शाखा के व्यवस्थापक को पक्षकार बनाया, जिसने उपेक्षा करते हुए अपने अधिकार का उल्लंघन कर राशि दी थी। अभिनिर्धारित कि ऐसा वाद पक्षकारों या वाद कारणों के कुसंयोजन के कारण अवैध नहीं है। सभी प्रतिवादी ओवर ड्राफ्ट से सम्बद्ध थे, जो सबके लिए समान प्रश्न व समान सम्बन्ध से सम्बन्धित था।

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