सिविल प्रक्रिया संहिता,1908 आदेश भाग 73: आदेश 15 नियम 4 एवं 5 के प्रावधान

Shadab Salim

8 Jan 2024 4:39 AM GMT

  • सिविल प्रक्रिया संहिता,1908 आदेश भाग 73: आदेश 15 नियम 4 एवं 5 के प्रावधान

    सिविल प्रक्रिया संहिता,1908(Civil Procedure Code,1908) का आदेश 15 प्रथम सुनवाई में वाद का निपटारा है। यह आदेश उन प्रावधानों को स्पष्ट करता है जो यह बताते हैं कि न्यायालय किन मामलों में प्रथम सुनवाई को वाद का निपटारा कर सकता है और किस प्रक्रिया से कर सकता है। इस आलेख के अंतर्गत आदेश 15 के नियम 4 व 3 पर संयुक्त रूप से टिप्पणी प्रस्तुत की जा रही है।

    नियम-4 साक्ष्य पेश करने में असफलता-जहाँ समन वाद के अन्तिम निपटारे के लिए निकाला गया है और दोनों में से कोई भी पक्षकार वह साक्ष्य पेश करने में पर्याप्त हेतुक के बिना असफल रहता है जिस पर वह निर्भर करता है वहाँ न्यायालय तुरन्त ही निर्णय सुना सकेगा या यदि वह ठीक समझता है तो विवाद्यकों की विरचना और अभिलेखन के पश्चात् वाद को ऐसे साक्ष्य पेश किये जाने के लिए स्थगित कर सकेगा जो ऐसे विवाद्यकों पर उसके विनिश्चय के लिए आवश्यक है।

    नियम-5 स्वीकृत किराया जमा नहीं करने पर प्रतिवाद समाप्त किया जाना

    जब किरायेदार के विरुद्ध मालिक द्वारा किरायेदारी समाप्त करने के पश्चात् स्थावर सम्पत्ति से निष्कासन (बेदखली) हेतु एवं किरायेदारी के दौरान किराये का वाद संस्थित किये जाने पर या सम्पत्ति के उपयोग के प्रतिकर का वाद संस्थित करने पर, उसमें प्रतिवादी वाद की प्रथम सुनवाई के प्रथम दिनांक को अथवा उसके पूर्व, किराया अथवा प्रतिकर का आभार जो वह स्वीकार करता हो, प्रतिमाह 9 प्रतिशत की दर से ब्याज सहित न्यायालय में जमा करवायेगा और आगे भी वह स्वीकार करे अथवा नहीं, किराया वाद की कार्यवाही चालू रहेगी, तब तक न्यायालय में बराबर जमा करवाता रहेगा, जब किराया चढे तो उसके एक सप्ताह में जमा करेगा। ऐसा सम्पूर्ण किराया जमा करने में त्रुटि होने पर इस नियम के उपनियम (दो) के उपबंधों के अनुसार उसका प्रतिवाद समाप्त कर देंगे।

    स्पष्टीकरण (1) प्रथम सुनवाई से लिखित कथन प्रस्तुत की जाने की दिनांक से है या समन में दी गई तारीख से अथवा जब एक से अधिक दिनांक लिखी हो, तो उसमे से सबसे पहली जो भी तारीख हो वह मानी जावेगी।

    (2) "सम्पूर्ण आभार जो उसके द्वारा स्वीकार किया गया" का अर्थ उस सम्पूर्ण आभार से है, चाहे वह किराया हो या सम्पत्ति के उपयोग का प्रतिकर हो एवं वह स्वीकृत काल का हो। इस आभार में से स्थानीय प्राधिकारी के पास मालिक के खाते में उस सम्पत्ति से संबंधित, जो प्रकाशित किया गया हो, मुजरा दिया जावेगा और उत्तरप्रदेश नगर भवन-किराया एवं निष्कासन अधिनियम की धारा 30 के अधीन जो किराया जमा किया गया हो, वह कम किया जावेगा।

    (3) (1) मासिक आभार जो शेष है का अर्थ सम्पत्ति उपयोग करने का मासिक किराया या प्रतिकर जो किरायेदार ने स्वीकार किया हो, स्थानीय प्राधिकारी को मालिक मकान से संबंधित खाते में जमा किया हो, उसे मुजरा देकर शेष हो, माना जाएगा।

    (3) न्यायालय द्वारा प्रतिवाद समाप्त करने के पूर्व प्रतिवादी द्वारा किए गए किसी आवेदन पर यदि वह आवेदन प्रथम सुनवाई के 10 दिन में दिया गया हो अथवा उपनियम (1) में बताए समय से एक माह पश्चात्, जैसी भी स्थिति हो, उस पर विचार किया जा सकता है।

    (2) इस नियम के अधीन जमा कराया आभार वादी किसी भी समय वापिस उठा सकता है

    परन्तु वादी के इस प्रकार आभार प्राप्त करने से उसके हित के विरुद्ध उसके द्वारा ली गई आभार के सही नहीं होने सम्बन्धी आपत्ति प्रभावित नहीं होगी:

    परन्तु यह और कि अगर जो आभार जमा किया गया है उसके किसी भाग पर किसी आधार पर जमाकर्ता का दावा हो, तो उस आभार को वादी जमानत देकर ही उठा सकेंगे।

    नियम 4. साक्ष्य पेश करने में असफलता पर की जाने वाली कार्यवाही का वर्णन करता है।

    इस नियम में निम्न परिस्थितियाँ दी गई है- जब समन वाद के अन्तिम निपटारे के लिए निकाला गया हो और पक्षकार कोई साक्ष्य पेश नहीं करते हैं, न इसके लिए कोई पर्याप्त हेतुक (कारण) ही बताते हैं तो न्यायालय के सामने दो रास्ते रह जाते हैं-

    (1) वह तुरन्त निर्णय सुना सकेगा या (2) यदि वह उचित समझे, तो विवाद्यक बनाने के बाद साक्ष्य पेश करने के लिए कार्यवाही को स्थगित कर अगली तारीख-पेशी तय करेगा।

    नियम 5 में उत्तर प्रदेश राज्य ने किराया नियन्त्रण के मामलों में नियम 5 द्वारा विशेष व्यवस्था की है। नियम 5 विधिमान्य- उत्तर प्रदेश सिविल लॉज (रिफार्म्स एण्ड अमेंडमेट) एक्ट, 1976 द्वारा जोड़ा गया आदेश 15 नियम 5 मुख्य अधिनियम से असंगत नहीं है जैसा कि केन्द्रीय अधिनियम द्वारा संशोधन किया गया है अतः वह निरसित नहीं होगा। इस तथ्य से कि केन्द्रीय संशोधन 1-2-1977 से प्रवृत्त हुआ, आदेश 15 नियम 5 की विधिमान्यता पर कोई प्रभाव नहीं पड़ेगा।

    प्रथम सुनवाई की तारीख-अर्ध- आदेश 15 नियम 5, सपठित उक्त नियम का स्पष्टीकरण बेदखली के वाद में प्रथम सुनवाई की तारीख केवल उस दशा को छोड़कर जबकि पीठासीन अधिकारी अनुपस्थित है या न्यायालय स्वयं ही किन्हीं कारणों से मामले में कार्यवाही करने में असमर्थ है, समन में उल्लिखित तारीख ही वाद की प्रथम सुनवाई की तारीख होती है।

    आदेश 15, नियम 5- अन्तिम सुनवाई के लिए नियत तारीख जो कि स्थगित कर दी गई थी, प्रथम सुनवाई की तारीख नहीं मानी जा सकती, क्योकि उस तारीख को न्यायालय को मामले पर भली-भांति विचार करने का अवसर ही नहीं मिला था, अतः प्रथम सुनवाई से वह तारीख अभिप्रेरित है जब कि न्यायालय ने मामले पर विचार प्रारम्भ किया हो।

    वाद की पहली सुनवाई का अर्थ-

    उच्चतम न्यायालय के निर्णय के अनुसार, इसका अर्थ कभी भी पक्षकारों को प्रारम्भिक परीक्षा और विवाद्यकों के स्थिरीकरण के लिए निश्चित किए गये दिनांक से पहले नहीं हो सकता। जहाँ राज्य के अधिनियमों में इस शब्दावली का प्रयोग किया गया है, वहाँ राज्य के उच्च न्यायालय द्वारा दिये गये निर्णय इस शब्दावली के निर्वचन के लिए सर्वश्रेष्ठ मार्गदर्शक हैं। अतः इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने जब उत्तर प्रदेश नगर भवन (पट्टा, किराया एवं बेदखली अधिनियम, 1972 की धारा 20 (4) में शब्दावली वाद की पहली सुनवाई का अर्थ विवाद्यक बनाने के बाद जब वाद का विचारण करने और साक्ष्य प्रस्तुत करने के लिए दिनांक तय की जाती है, वह पहली सुनवाई की दिनांक स्वीकार किया है तो इसमें कोई गलती नहीं है।

    बेदखली के लिए वाद-स्वीकृत किराया आदि जमा करने में असफल रहने पर और आदेश 15 के नियम 5 के निबन्धनों के अनुसार अभ्यावेदन न करने पर प्रतिरक्षा को नामंजूर करना-यदि न्यायालय यह देखता है कि अभिलेख पर मौजूद तथ्यों और परिस्थितियों के अनुसार प्रतिरक्षा नामंजूर न करने के लिए उसके पास पर्याप्त कारण हैं, तो उसे ऐसा करने का विवेकाधिकार है।

    यदि बेदखली के लिए वाद या अपील के लम्बित रहने के दौरान किराएदार स्वीकृत किराए के संदाय में लगातार व्यतिक्रम करता है तो न्यायालय को इस नियम (1) का अनुपालन करने का विवेकाधिकार मात्र इस आधार पर नहीं है कि निर्णय की तारीख से पूर्व उसने सभी बकाया किराए का भी संदाय कर दिया है। वाद में प्रथम सुनवाई की तारीख को प्रतिवादी के लिखित कथन फाइल करने और रकम जमा करने में असफल रहने पर न्यायालय द्वारा प्रतिरक्षा को नामंजूर करने वाला आदेश पारित किया जाना अविधिमान्य है।

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