सिविल प्रक्रिया संहिता, 1908 आदेश भाग 6: आदेश 2 नियम 2 के प्रावधान

Shadab Salim

16 Oct 2023 4:13 AM GMT

  • सिविल प्रक्रिया संहिता, 1908 आदेश भाग 6: आदेश 2 नियम 2 के प्रावधान

    सिविल प्रक्रिया संहिता,1908(Civil Procedure Code,1908) का आदेश 2 वादों की विरचना से संबंधित है। इस आदेश में यह बताया गया है एक वाद किस प्रकार से रचित किया जाएगा। यह आदेश सिविल प्रक्रिया का आधारभूत आदेश है जो उन कानूनों की उत्पत्ति करता है जो स्पष्ट करते हैं कि एक वाद किस प्रकार से होना चाहिए। इस आलेख के अंतर्गत आदेश 2 के नियम 2 पर टिप्पणी प्रस्तुत की जा रही है।

    यह संहिता में नियम-2 के शब्द हैं

    नियम 2 वाद के अन्तर्गत सम्पूर्ण दावा होगा

    (1) हर वाद के अन्तर्गत वह पूरा दावा होगा जिसे उस वादहेतुक के विषय में करने का वादी हकदार है, किन्तु वादी वाद को किसी न्यायालय की अधिकारिता के भीतर लाने की दृष्टि से अपने दावे के किसी भाग का त्याग कर सकेगा।

    (2) दावे के भाग का त्याग जहां वादी अपने दावे के किसी भाग के बारे में वाद लाने का लोप करता है या उसे त्याग देता है यहां उसके पश्चात् वह इस प्रकार शो किए या व्यक्त भाग के बारे में वाद नहीं लाएगा।

    (3) कई अनुतोषों में से एक के लिए वाद लाने का लोप एक ही वादहेतुक के बारे में एक से अधिक अनुतोष पाने का हकदार व्यक्ति ऐसे अनुतोषों या उनमें से किसी के लिए वाद ला सकेगा, किन्तु यदि वह ऐसे सभी अनुतोष के लिए वाद लाने का लोप न्यायालय की इजाजत के बिना करता है तो उसके पश्चात् वह इस प्रकार लोप किए गए किसी भी अनुतोष के लिए वाद नहीं लाएगा।

    स्पष्टीकरण- इस नियम के प्रयोजनों के लिए और उसके पालन के लिए सांपारिक प्रतिभूति और उसी बाध्यता के अधीन उदभूत उत्तरोत्तर दावों के बारे में यह समझा जाएगा कि वे क्रमश एक ही वाद हेतु गठित करते हैं।

    वाद का स्वरूप/विरचना - नियम के अनुसार सामान्य नियम यह है कि एक वाद को इस प्रकार तैयार किया जायेगा कि उसमें "विवादग्रस्त प्रश्न" के पूरे निपटारे के लिए "सम्पूर्ण दावा" (उसका वादहेतुक और दावाकृत अनुतोष सहित) प्रस्तुत किया जायेगा, परन्तु नियम 2 उक्त सामान्य नियम का अनुसरण करते हुए दावे या वादहेतुक के विखण्डीकरण द्वारा (टुकड़े-टुकड़े कर) अनेक दावे करने का वर्जन करता है।

    आदेश 2 नियम 1 के प्रावधान आज्ञापक (Mandatory) है, वादी आबद्ध है कि एक वाद कारण से उत्पन सभी अनुतोष के लिए दावा करें यदि वादी अपने किसी भाग के बारे में वाद लाने का लोप करता है या त्याग देता है तो वह लोप किए गए या त्याग किए गए भाग के लिए पुनः दावा नहीं कर सकता।

    इलाहाबाद हाई कोर्ट द्वारा यह अभिनिर्धारित किया गया है कि-वादी द्वारा अपने वाद पत्र में किसी वाद पत्र से सम्बन्धित सभी दावे (claims) एक साथ सम्मिलित कर दिये जाने चाहिए।

    (2) वादहेतुक का विखण्डीकरण अमान्य- आदेश 2 नियम 2 इस सिद्धान्त पर आधारित है कि किसी व्यक्ति को एक ही वादहेतुक के लिये दो बार न्यायालय में खड़ा नहीं किया जाए। अतः वाद बाहुल्य से बचने के लिये नियम 2 में निषेधात्मक उपबन्ध किए गए हैं, जो इस प्रकार हैं- (i) वाद के अन्तर्गत सम्पूर्ण दावा होगा। दावे के किसी भाग का त्याग या लोप करने पर वाद में कोई नया वाद या दावा नहीं लाया जा सकेगा।

    (ii) एक ही वादहेतुक से सम्बन्धित अनुतोषों में से किसी अन्वेष की मांग का लोप न्यायालय की इजाजत के बिना नहीं किया जायेगा।

    उद्देश्य व क्षेत्र

    आदेश 2 का नियम 2 प्रतिवादियों को उसी समान वादहेतुक के लिए दो बार होने वाली - मुकदमेबाजी से बचाने के लिए है। इसका उद्देश्य दावों और उपचारों को विभाजित करने से रोकना है। यह नियम केवल तभी लागू होता है, जब दूसरे वाद में वादकरण और पक्षकार दोनों पहले वाद के समान हो। यह नियम पहले वाद में लोप किये गये दावे के लिये केवल दूसरा वाद लाना वर्जित करता है, परन्तु ऐसे दावे को उसी (पहले) वाद में सम्मिलित करने के लिये मना नहीं करता। आदेश 2 के नियम 2 अधीन बाधा का प्रश्न केवल पर (दूसरे) वाद में उठता है, न कि जब वादी अपना वाद वापस लेकर दूसरा नया वाद संस्थित करता है।

    (4) नियम 2 की अनिवार्य शर्तों निम्न शर्तें पूरी होना आवश्यक है- (क) उपनियम (1) के अनुसार- (1) वादहेतुक के बारे में वादी को जो अधिकार प्राप्त है, उसका "पूरा दावा" उस वाद में सम्मिलित किया जावेगा। -

    (2) वाद को किसी न्यायालय को अधिकारिता में लाने के लिए, वादी अपने "दावे के किसी भाग का त्याग कर सकेगा (छोड़ सकेगा)

    (ख) उपनियम (2) के अनुसार यदि वादी अपने दावे के किसी भाग का लोप करता है, या साशय त्याग देता है, अर्थात दावे के किसी भाग को जानबूझ कर छोड़ देने पर वह उस भाग में बारे में कोई वाद नहीं लाएगा। जहां वादी अपने पूर्ववर्ती वाद में सभी अनुतोष के लिए निवेदन नहीं करता है या असफल रहता है तो ऐसे छोड़े गये अनुतोष के लिए पुनः वाद नहीं ला सकता है

    (ग) उपनियम (3) के अनुसार-

    वादी एक ही वादहेतुक के बारे में अनेक अनुतोष पाने का हकदार है, तो वह उन सब अनुतोष या उनमें से किसी के लिए वाद ला सकेगा, वह (वादी) ऐसे सभी अनुतोषों में से किसी का लोप करता है, तो उसे इसके लिए न्यायालय की इजाजत लेनी होगी, और न्यायालय की इजाजत के बिना वह इस प्रकार के लोपित अनुतोष के लिए वाद नहीं लाएगा।

    वादी अपना सम्पूर्ण दावा उस वादहेतुक के बारे में और उसमें प्राप्त अनुतोषों के बारे में करेगा।

    यदि वह अपने दावे दावे के किसी भाग या अनुतोषों में से किसी का त्याग या लोप, न्यायालय की इजाजत के बिना करता है, तो वह उसके बारे में वाद नहीं लायेगा। यह एक वर्जन है, प्रतिबन्ध है, जो आदेश 2. नियम 2 के अधीन मुकदमेबाजी को कम करने के उद्देश्य से लगाया गया है। विक्रय पत्र को निरस्त करने का वाद खारिज होने के बाद उसी विक्रय पत्र के सम्बन्ध में द्वितीय वाद कुछ अन्य अनुतोषों के साथ प्रस्तुत किया। द्वितीय वाद आदेश 2 नियम 2 के अधीन वर्जित है।

    आदेश 2 नियम 2 तथा पूर्वन्याय (धारा 11- स्पष्टीकरण 4) के अधीन वर्जन-

    जो विषय या बिन्दु किसी दावे में प्रतिरक्षा या आक्रमण का आधार बनाया जा सकता था और बनाया जाना चाहिए था और उसे नहीं बनाया गया, तो उसे विवाद का विषय मानकर उस वाद (दावे) में तय किया गया समझ लिया जाता है।

    यह धारा 11 के स्पष्टीकरण 4 में वर्णित "आन्वयिक पूर्वन्याय का सिद्धान्त" है, जो ऐसे छोड़े गये वादहेतुक के विषय को निर्णीत मानकर दूसरे वाद में उठाने का वर्जन या निषेध करता है। यह आदेश 2 के नियम 2 के वर्जन से मिलता-जुलता है। परन्तु नियम 2 का वर्जन उस समय लागू नहीं होता, जब ऐसे त्यजन या लोप के लिए न्यायालय से इजाजत ले लो गई हो। पूर्व न्याय में उसे छोड़े गये विषय को निर्णीत मान लिया जाता है, पर आदेश 2 नियम 2 इसे अभित्यजन मानता है। यह अन्तर ध्यान देने योग्य है।

    अपील को लागू नहीं होता-

    वादहेतुक भिन्न- आदेश 2 नियम 2 का प्रावधान अपीलार्थी के दूसरी अपील दाखिल करने में बाधक नहीं है। इसके अन्तर्गत व्यवस्था है कि वादी हर वाद में एक वादहेतुक से सम्बन्धित अपना पूरा दावा प्रस्तुत करेगा, वह अपने दावे का कोई अंश छोड़ सकता है, तो फिर बाद में उसे शेष अंश के लिए दूसरा वाद नहीं ला सकता। यह प्रावधान वाद तक ही सीमित है और अपील को लागू नहीं होता। यदि इस प्रावधान का सिद्धान्त अपील को भी लागू समझा जाए, तो भी अपील की पोषणीयता (संधारणीयता) पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता क्योंकि इस अपील का वादहेतुक पहली अपील के वादहेतुक से बिल्कुल भिन्न है।

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