सिविल प्रक्रिया संहिता,1908 आदेश भाग 5: आदेश 2 नियम 1 के प्रावधान

Shadab Salim

26 Sep 2023 1:50 PM GMT

  • सिविल प्रक्रिया संहिता,1908 आदेश भाग 5: आदेश 2 नियम 1 के प्रावधान

    सिविल प्रक्रिया संहिता,1908(Civil Procedure Code,1908) का आदेश 2 वादों की विरचना से संबंधित है। इस आदेश में एक वाद किस प्रकार से रचित किया जाएगा। यह आदेश सिविल प्रक्रिया का आधारभूत आदेश है जो उन कानूनों की उत्पत्ति करता है एक वाद किस प्रकार से होना चाहिए। इस आलेख के अंतर्गत आदेश 2 के नियम 1 पर विस्तृत विवेचन प्रस्तुत किया जा रहा है।

    यह आदेश 2 के नियम 1 के संहिता में दिए गए शब्द हैं

    1-वाद की विरचना हर वाद की विरचना यावत्साध्य ऐसे की जाएगी कि विवादग्रस्त विषयों पर अंतिम विनिश्चय करने के लिए आधार प्राप्त हो जाए और उनसे सम्पृक्त अतिरिक्त मुकदमेबाजी का भी निवारण हो जाए।

    आदेश 2, नियम 1 एक आधारभूत नीति को प्रकट करने वाला नियम है, जो वाद के शीघ्र निपटारे और अतिरिक्त मुकदमे बाजी के निवारण की लोकनीति पर आधारित है।

    वाद का स्वरूप - शब्द "वाद" की कहीं कोई परिभाषा नहीं दी गई है, परन्तु जिस सिविल कार्यवाही का आरम्भ "वादपत्र" से होता है और अन्त जयपत्र (डिक्री) के साथ होता है, उसे तकनीकी अर्थ में "वाद" कहा जाता है। वाद की विरचना " यावत्साध्य" अर्थात् जहां तक संभव हो, विवादग्रस्त विषय का अन्तिम विनिश्चय (निर्णय) करने का आधार बनाने के उद्देश्य से की जाती है।

    आदेश 2, नियम 1 के अनुसार वाद की विरचना का उद्देश्य (i) “विवादग्रस्त विषयों" के अन्तिम निर्णय के लिये आधार प्राप्त करना और (ii) अनावश्यक मुकदमे बाजी का निवारण करना है। विवादग्रस्त विषय पद का प्रयोग नीति के एक सामान्य कथन के रूप में किया गया है, जो किसी विवाद की सम्पूर्ण सामग्री को एक वाद में सम्मिलित करने की नीति निर्धारित करता है। विधायिका का यह अभिप्राय है कि पक्षकारों के बीच के समस्त विवादग्रस्त विषयों या प्रश्नों को एक साथ ही निपटा दिया जाए। इस नीति को लागू करने के लिए नियम 2 बनाया गया है। विवादग्रस्त विषय का आधार वादहेतुक (बाद-कारण) कहलाता है।

    वादहेतुक" क्या है-

    यह अत्यंत महत्वपूर्ण शब्द है। किसी वाद का आधार उसका "वादपत्र" होता है, जिसमें उस वाद के विवादग्रस्त विषय का विनिश्चय करने के लिए आधार बनाया जाता है। ऐसे आधार या कारणों को विधि की भाषा में वादहेतुक या वाद कारण कहते हैं। इस वादहेतुक का वर्णन वादपत्र में करना एक तकनीक है, जिसे सीखने के लिए वादहेतुक का विधिक स्वरूप और उससे सम्बन्धित नियमों का अध्ययन आवश्यक है। इस अध्याय में हम उन नियमों पर विचार करेंगे।

    अंग्रेजी के शब्द "Cause of action" को हिन्दी में वादहेतुक नाम दिया गया है। हेतुक का अर्थ कारण होता है। इस प्रकार जिस कारण या जिन कारणों के आधार पर कोई वाद संस्थित किया जा सकता है, वे सभी कारण मिलकर "वादहेतुक" बनाते हैं। आश्चर्य है कि ऐसे महत्वपूर्ण शब्द की कहीं भी कोई प्रामाणिक परिभाषा नहीं दी गई है। सिविल प्रक्रिया संहिता में अनेक स्थानों पर इस शब्द का प्रयोग किया गया है, परन्तु वहां प्रसंग के आधार पर इस शब्द का संकुचित या विशाल अर्थ किया जाता है। संकुचित अर्थ में "वादहेतुक केवल उन तथ्यों का समूह है, जिन के कारण से वाद संस्थित किया गया है और जो वादपत्र में दिये गये हैं। "

    वादहेतुक (वाद कारण) का अर्थ एवं स्वरूप वादहेतुक का अर्थ प्रत्येक तथ्य से है, जिसका यदि उत्खण्डन (अस्वीकृति) किया जाए, तो वादी को न्यायालय से निर्णय प्राप्त करने के अपने अधिकार (वादाधिकार) के समर्थन के लिए उसे साबित करना होगा। यह प्रत्येक तथ्य को साबित करने के लिए आवश्यक साक्ष्य के प्रत्येक अंश में अन्तर्विष्ट नहीं है, परन्तु वादी को डिक्री दिलाने के लिए आवश्यक रूप से प्रमाणित किये जाने वाले तथ्यों में हैं।

    यदि इसको हम पलट कर कहना चाहें, तो वह प्रत्येक वाद (तथ्य) जिसे यदि साबित नहीं किया जाए, तो प्रतिवादी को सफलता मिल जाए, वादहेतुक का भाग होगी। दूसरे शब्दों में, यह उन आवश्यक तथ्यों का बंडल (समूह) है, जिनको अपने वाद में सफलता प्राप्त करने के लिए वादी को आवश्यक रूप से साबित करना होगा। इसका न तो प्रतिवादी की प्रतिरक्षा से कोई सम्बन्ध है और न यह वादी द्वारा वांछित अनुतोष के स्वरूप पर निर्भर करता है, वरन यह वादपत्र में वादी द्वारा बताए गये वाद के कारण या आधारों का निर्देश करता है। यह वह माध्यम है, जिसके आधार पर वादी न्यायालय से अपने पक्ष में निर्णय देने की मांग करता है।

    वादहेतुक पद की परिभाषा सिविल प्रक्रिया संहिता में कहीं भी नहीं दी गई है।

    किंतु समय समय पर निकल कर आए निर्णयों से वादहेतुक का अर्थ यह कहा जा सकता है कि-

    ये सभी तथ्य-समूह, जिनका वादी द्वारा साबित किया जाना इससे पूर्व (पहले) आवश्यक है कि वह वाद में दावाकृत अनुतोष देने के लिए न्यायालय से प्रार्थना करे।

    लार्ड वाटसन के शब्दों में, वाद हेतुक का संबंध उस प्रतिवाद से नहीं है, जो प्रतिवादी द्वारा किया जाता है इसका पूर्णतः संबंध उन आधारों से है, जो वाद पत्र में वादहेतुक के रूप में वर्णित किये गये हैं अथवा दूसरे शब्द में, उस माध्यम से है, जिसके आधार पर वादी न्यायालय में अपने पक्ष में कोई निष्कर्ष विशेष निकालने की प्रार्थना करता है।

    वादहेतुक से ऐसा तथ्य अभिप्रेत है, जिसे यदि ध्यान से देखा जाए, वादी के लिए न्यायालय के निर्णय के अपने अधिकार के संबंध में साबित किया जाना आवश्यक है।

    दूसरे शब्दों में, यह तथ्यों का समूह है, जो लागू विधि का अनुसरण करने पर वादी को प्रतिवादी के विरुद्ध अनुतोष का अधिकार प्रदान करता है।

    वादहेतुक का प्रतिरक्षा से कोई सम्बन्ध नहीं वह हर चीज जो साबित न की जाने की दशा में प्रतिवादी को तत्काल निर्णय प्राप्त करने का अधिकार देती है, वादहेतुक का अंग होनी चाहिए। किन्तु उसका उस प्रतिरक्षा से किसी भी प्रकार का संबंध नहीं है जो प्रतिवादी द्वारा स्थापित की जा सकती है और न ही यह वादी द्वारा प्रार्थित: अनुतोष के स्वरूप पर निर्भर करती है।

    वादहेतुक के स्वरूप को समझने के लिए यह आवश्यक है कि उसे वादाधिकार या कार्यवाही के अधिकार, अनुतोष (relief) तथा उपचार (remedy) के प्रसंग में अन्तर करते हुए समझा जाए।

    वादाधिकार तथा वादहेतुक में अन्तर "वादाधिकार" से तात्पर्य है, अनुतोष चाहने का अधिकार अर्थात्-किसी विधि के अधीन अभियोजन या संविवाद करने का अधिकार या विधिक प्रक्रिया के साधन से अनुतोष प्राप्त करना। दूसरे शब्दों में वादाधिकार तब उत्पन्न होता है, जब कोई बादहेतुक उत्पन्न होता है। इस प्रकार वादहेतुक के साथ-साथ वादाधिकार भी उत्पन्न होता है, जो उससे भिन्न अधिकार है, वादहेतुक उस अधिकार का कारण या आधार है।

    प्रीवि कौंसिल के अनुसार वादाधिकार तब तक नहीं हो सकता, जब तक कि किसी अधिकार का उदय (जन्म) नहीं होता और उसके लिए किसी वाद में जोर नहीं दिया जाता और इस अधिकार का उल्लंघन या कम से कम स्पष्ट तथा संदेह रहित रूप से उस अधिकार के उल्लंघन की धमकी उस प्रतिवादी की ओर से न हो, जिसके विरुद्ध वाद संस्थित किया गया है।

    इस प्रकार वादाधिकार तभी उत्पन्न होता है, जब कि कोई विधिक अधिकार हो और उसका प्रतिवादी द्वारा भंग या उल्लंघन किया गया हो या ऐसा करने की स्पष्ट धमकी हो। प्रीवि कौंसिल के इस निर्णय की उच्चतम न्यायालय ने पुष्टि की है। लाहौर हाईकोर्ट के अनुसार-वादाधिकार केवल तभी प्रोभूत होता है, जब वादहेतुक उत्पन्न होता है।

    वादहेतुक के उत्पन्न होने के लिए यह स्पष्ट होना चाहिये कि - वादपत्र में दिये गये प्रकथन किसी सफल विवाद्यक की ओर ले जाए। इस प्रकार दूसरे शब्दों में यह कहा जा सकता है कि - वादहेतुक तब उत्पन्न होगा, जब एक पक्षकार किसी वास्तविक या काल्पनिक अधिकार को लागू करने की कोशिश करता है और दूसरा उसमें बाधा या अड़चन डालता है। बिना किसी विवाद के कोई वादहेतुक उत्पन्न नहीं हो सकता।

    वादहेतुक का अर्थ - कार्यवाही के अधिकार (वादाधिकार) तथा उपचार (remedy) से उसकी भित्रता आदेश 2 के नियम 2 के प्रयोजन के लिये शब्द वादहेतुक का अर्थ वह वादहेतुक है, जो उस वाद की आधारशिला बनाता है और उसके लिए अवसर प्रदान करता है। येनकेन, वादहेतुक और कार्यवाही के अधिकार (वादापिकार) में भिन्नता है। ये दोनों पद पर्यायवाची तथा परस्पर में परिवर्तनीय नहीं है। कार्यवाही का अधिकार किसी वादहेतुक को इस समय लागू करने का अधिकार है।

    यह एक उपचारात्मक अधिकार है जो किसी निश्चित व्यक्ति के विधिक अधिकार के उल्लंघन के लिये सहायता (redress) प्रदान करता है, जबकि वादहेतुक वे क्रियाशील तथ्य हैं, जो ऐसे कार्यवाही के अधिकार को उत्पन्न करते हैं। कार्यवाही का अधिकार उस समय तक उत्पन्न नहीं होता, जब तक उस कार्यवाही की सभी पुरोभाव्य शर्तों का पालन नहीं हो जाता। इस अधिकार को परिसीमा के कानून के लागू होने से, या विबन्ध के द्वारा या अन्य परिस्थितियों के द्वारा छीना जा सकता है, पर ये वादहेतुक को प्रभावित नहीं करती। एक वादहेतुक है और उसके कई कार्यवाही के अधिकार हो सकते हैं, जो उसी कारण (वादहेतुक) में से भिन्न-भिन्न समयों पर प्रोद्भूत हो सकते हैं।

    वादहेतुक" और उपचार (remedy) में भी अन्तर है। उपचार एक साधन या तरीका है, जिससे वादहेतुक या उसकी सम्बन्धित बाध्यता (कर्तव्य) प्रभावशील होती है और जिसके द्वारा दोष (Wrong) का उपचार होता है और अनुतोष या सहायता प्राप्त होती है। इनमें से एक आगे चलता है और दूसरे का उदय होता है, परन्तु वे एक दूसरे से अलग और सुभिन्न है और वे भिन्न-भिन्न नियमों व सिद्धान्तों से शासित होते हैं।

    वादहेतुक की व्यापकता - जब "वाददहेतुक उत्पन्न होने पर वादाधिकार उत्पन्न हो जाता है और एक वादी उसके उपचार के लिए अपने अभिभाषक की मदद लेता है, जो उसे न्यायालय के माध्यम से उचित अनुतोष दिलवाने का प्रयास करता है। इस प्रकार वादहेतुक का सर्वप्रथम प्रकटीकरण "वादपत्र" में होता है, जो उस वाद या संविवाद की आधारशिला होती है।

    अतः वादपत्र में वादहेतुक को सम्मिलित करना एक कला या तकनीक मानी जाती है। वादपत्र में दिये गये वादहेतुक के तथ्यों के आधार पर ही न्यायालय की अधिकारिता (Forum) का निश्चय किया जाता है। वादहेतुक या वादाधिकार उत्पन्न होने के दिनांक से ही अधिकतर परिसीमा की अवधि की गणना की जाती है।

    अतः किसी वादी को परिसीमा की अवधि में लाने के लिये भी वादहेतुक का महत्व है। वादहेतुक के तथ्यों को प्रमाणित करने पर वाद की सफलता निर्भर करती है। जो तथ्य अभिवचन (वादपत्र) में दिये गये हैं, केवल उन्हीं से सम्बन्धित साक्ष्य विचारण के समय प्रस्तुत की जा सकती है। इस प्रकार वादहेतुक के तथ्यों से विवादकों की रचना होती है और उनके लिये साक्ष्य दी जाती है। इस साक्ष्य के आधार पर न्यायालय निर्णय देता है, उसके आधार पर टिकी पारित की जाती है। इस प्रकार वादहेतुक एक बाद के उदगम (जन्म) का कारण है, जो डिक्रीतक व्याप्त रहता है। यह उस वाद की आधारशिला है।

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