सिविल प्रक्रिया संहिता,1908 आदेश भाग 37: आदेश 7 नियम 9 से 10(बी) तक प्रावधान

Shadab Salim

16 Dec 2023 9:30 AM GMT

  • सिविल प्रक्रिया संहिता,1908 आदेश भाग 37: आदेश 7 नियम 9 से 10(बी) तक प्रावधान

    सिविल प्रक्रिया संहिता,1908(Civil Procedure Code,1908) का आदेश 7 वादपत्र है। आदेश 7 यह स्पष्ट करता है कि एक वादपत्र किस प्रकार से होगा। आदेश 7 के नियम 9 एवं 10 एवं नियम 10(बी) वादपत्र के ग्रहण करने एवं लौटाए जाने से संबंधित हैं। इस आलेख के अंतर्गत इन्हीं नियमों पर संयुक्त रूप से टिप्पणी प्रस्तुत की जा रही है।

    नियम-9 वादपत्र ग्रहण करने पर प्रक्रिया-जहां न्यायालय यह आदेश करता है कि प्रतिवादियों पर समनों की तामील आदेश 5 के नियम 9 में उपबंधित रीति से की जाए वह, वादी को ऐसे आदेश की तारीख से सात दिन के भीतर सादा कागज पर वाद पत्र की उतनी प्रतियां, जितने कि प्रतिवादी हैं और उन पर तामील करवाने के लिए अपेक्षित फीस के साथ प्रस्तुत करने का निदेश दे सकेगा।

    नियम् 9 के अनुसार, न्यायालय् जब आदेश 5 के नियम 9 में बताये तरीके से प्रतिवादी को समन को तामील करने का आदेश करता है, तो वह निर्देश देगा कि-

    (1) वादी सादे कागज पर वादपत्र की उतनी प्रतियाँ प्रस्तुत करे, जितने प्रतिवादी हैं, और

    (2) तामील के लिए आवश्यक (नियमानुसार) शुल्क (फीस) अर्थात्- तामील फीस देवे। इस प्रकार प्रतिवादियों को वापत्र की प्रति समन के साथ मिल जावेगी और आदेश 5 नियम 2 की अनुपालना हो जायेगी। इससे प्रतिवादी को अपना लिखित कथन तैयार करने और उसे करने सहायता मिलेगी।

    नियम-10 वादपत्र का लौटाया जाना - (1) 2 [नियम 10क के उपबन्धों के अधीन रहते हुए, वादपत्र] वाद के किसी भी प्रक्रम में उस न्यायालय में उपस्थित किए जाने के लिए लौटा दिया जाएगा, जिसमें वाद संस्थित किया जाना चाहिए था। भू स्पष्टीकरण-शंकाओं को दूर करने के लिए इसके द्वारा यह घोषित किया जाता है कि अपील या पुनरीक्षण न्यायालय, वाद में पारित डिकी को अपास्त करने के पश्चात इस उपनियम के अधीन वादपत्र के लौटाए जाने का निदेश दे सकेगा।]

    (2) वादपत्र के लौटाए जाने पर प्रक्रिया- न्यायाधीश वाद पत्र के लौटाए जाने पर, उस पर उसके उपस्थित किए जाने की और लौटाए जाने की तारीख, उपस्थित करने वाले पक्षकार का नाम और उसके लौटाए जाने के कारणों का संक्षिप्त कथन पृष्ठांकित करेगा।

    बिना क्षेत्राधिकार के न्यायालय में वाद दायर करने का प्रभाव - यदि धन वसूली का वाद बिना क्षेत्राधिकार के न्यायालय में प्रस्तुत किया जाता है एवं यह वाद सक्षम अधिकारिता वाले न्यायालय में प्रस्तुत करने हेतु लौटाया जाता है, तब उस न्यायालय में पुनः शुरू से विचारण होगा एवं पक्षकार को नहीं दिया जायेगा।

    क्षेत्राधिकार का प्रश्न का उठाया जाना - क्षेत्राधिकार का प्रश्न, प्रकरण के मूल तक जाता है। यह किसी भी स्तर पर उठाया जा सकता है। इस पर अधित्यजन का सिद्धान्त लागू नहीं होता है।

    वादपत्र का लौटाया जाना- एक मामले में कहीं स्थित भूमि के सम्बन्ध में स्थायी निषेधाज्ञा का वाद दायर किया गया यह भूमि कलकत्ता उच्च न्यायालय के क्षेत्राधिकार के बाहर स्थित है, इस कारण से वादपत्र को लौटाया जाना सही था।

    वाद का वापस नहीं लौटाया जाना-2 एकड़ भूमि के बेचान करार की विनिर्दिष्ट् अनुपालना कराने हेतु प्रस्तुत वाद में 5 एकड़ 30 गुटास भूमि के बाबत् अनुतोष माँगे जाने के आधार पर वाद के पंजीकरण के प्रक्रम पर वाद वापिस नहीं लौटाया जा सकता। इस प्रक्रम पर न्यायालय वाद के गुणावगुणों पर जाँच नहीं कर सकता।

    नियम-10-(क) जहाँ वादपत्र उसके लौटाए जाने के पश्चात फाइल किया जाना है वहाँ न्यायालय में उपसंजाति के लिए तारीख नियत करने की न्यायालय की शक्ति (1) जहाँ किसी वाद में प्रतिवादी के उपसंजात होने के पश्चात न्यायालय की यह राय है कि वादपत्र लौटाया जाना चाहिये वहाँ ऐसा करने के पूर्व वादी को अपने विनिश्चय की सूचना देगा।

    (2) जहाँ वादी को उपनियम (1) के अधीन सूचना दी गई हो वहाँ वादी न्यायालय से- (क) उस न्यायालय को विनिर्दिष्ट करते हुए जिसमें वह वादपत्र के लौटाए जाने के पश्चात वादपत्र प्रस्तुत करने की प्रस्थापना करता है, (ख) यह प्रार्थना करते हुए कि न्यायालय उक्त न्यायालय में पक्षकारों की उपसंजाति के लिए तारीख नियत करे, और (ग) यह अनुरोध करते हुए कि इस प्रकार नियत तारीख की सूचना उसे और प्रतिवादी को दी जाए, आवेदन कर सकेगा। (3) जहाँ वादी द्वारा उपनियम (2) के अधीन आवेदन किया जाता है। वहाँ न्यायालय वादपत्र लौटाए जाने के पूर्व और इस बात के होते हुए भी कि उसके द्वारा वादपत्र के लौटाए जाने का आदेश इस आधार पर किया गया था कि उसे वाद का विचारण करने की अधिकारिता नहीं थी-

    (क) उस न्यायालय में जिसमें वादपत्र के उपस्थित किए जाने की प्रस्थापना है, पक्षकारों की उपसंजाती के लिए तारीख नियत के बाद।

    (ख) उपसंजाति की ऐसी तारीख की सूचना वादी और प्रतिवादी को देगा।

    (4) जहां उपनियम (3) के अधीन उपसंजाति की तारीख की सूचना दी जाती है वहां-

    (क) उस न्यायालय के लिए जिसमें वादपत्र उसके लौटाए जाने के पश्चात उपस्थित किया जाता है, तब तक यह आवश्यक नहीं होगा कि वह वाद में उपसंजाति के लिए समन प्रतिवादी पर तामील करे, जब तक कि वह न्यायालय, अभिलिखित किए जाने वाले कारणों से, अन्यथा निदेश न दे, और

    (ख) उक्त सूचना, उस न्यायालय में जिसमें वादपत्र को लौटाने वाले न्यायालय द्वारा इस प्रकार नियत तारीख को वादपत्र उपस्थित किया जाता है, प्रतिवादी की उपसंजाति के लिए समन समझी जाएगी।

    (5) जहां न्यायालय वादी द्वारा उपनियम (2) के अधीन किए गए आवेदन को मंजूर कर लेता है वहां वादपत्र लौटाए जाने के आदेश के विरुद्ध अपील करने का हकदार नहीं होगा।

    नियम-10(ख) समुचित न्यायालय को वाद अन्तरित करने की अपील न्यायालय की शक्ति - (1) जहां वादपत्र के लौटाए जाने के आदेश के विरुद्ध अपील की सुनवाई करने वाला न्यायालय ऐसे आदेश की पुष्टि करता है वहां अपील न्यायालय, यदि वादी आवेदन द्वारा ऐसी वांछा करे तो वादपत्र लौटाते समय वादी को यह निदेश दे सकेंगा कि वह वादपत्र को उस न्यायालय में जिसमें बाद संस्थित किया जाना चाहिये था (चाहे ऐसा न्यायालय उस राज्य के भीतर हो या बाहर जिसमें अपील की सुनवाई करने वाला न्यायालय स्थित है), परिसीमा अधिनियम, 1963 (1963 का 36) के उपबन्धों के अधीन रहते हुए, फाइल करे और उस न्यायालय में जिसमें वादपत्र फाइल किये जाने का निर्देश दिया जाता है, पक्षकारों की उपसंजाति के लिए तारीख नियत कर सकेगा और जब इस प्रकार तारीख नियत कर दी जाती है तब उस न्यायालय के लिए जिसमें वादपत्र फाइल किया गया है, वाद में उपसंजाति के लिए समन प्रतिवादी पर तामील करना तब तक आवश्यक नहीं होगा जब तक कि यह न्यायालय जिसमें वादपत्र फाइल किया गया है अभिलिखित किए जाने वाले कारणों से, अन्यथा निदेश न दे।

    (2) न्यायालय द्वारा उपनियम (1) के अधीन किए गए किसी निदेश से पक्षकारों के उन अधिकारों पर प्रतिकूल प्रभाव नहीं पड़ेगा जो उस न्यायालय की जिसमें वादपत्र फाइल किया गया है वाद का विचारण करने की अधिकारिता को प्रश्नगत करने के संबंध में है।

    नियम 10 के अनुसार यदि कोई वाद किसी दूसरे न्यायालय में प्रस्तुत करने की बजाय गलत न्यायालय में प्रस्तुत कर दिया गया हो, तो न्यायालय द्वारा उस वाद के किसी भी प्रक्रम पर नियम 10- क के अधीन रहते हुए, उस वादपत्र को वादी को लौटा दिया जावेगा। वादपत्र लौटाने की कार्यवाही अपील-न्यायालय भी नियम 10-ख के अधीन कर सकता है।

    इसके लिये नियम 10 (2) के अधीन न्यायालय उस वादपत्र पर पृष्ठांकन करेगा, जिसमें-

    (i) वादपत्र उपस्थित (पेश) करने की तारीख,

    (ii) वादपत्र लौटाने की तारीख,

    (iii) उपस्थित पक्षकारों के नाम और

    (iv) वादपत्र लौटाए जाने के कारणों का संक्षिप्त कथन दिया जाएगा।

    वादपत्र को दूसरे न्यायालय में प्रस्तुत करने से पहले की विशेष-प्रक्रिया ( नियम 10क) - सन् 1976 में किए गए संशोधन द्वारा यह नया नियम 10(क) जोड़ा गया है, जो एक महत्त्वपूर्ण उपबन्ध है। इससे वाद की निरन्तरता बनी रह सकेगी और प्रतिवादी जो उपस्थित हो गया है, उसे दुबारा समन नहीं करना पड़ेगा। प्रतिवादी के उपस्थित हो जाने के बाद यदि न्यायालय की राय में वादपत्र किसी दूसरे सक्षम न्यायालय में पेश करने के लिए लौटाया जाना चाहिए, तो वह पहले वादी को सूचित करेगा, जो उपनियम (2) के अधीन आवेदन करेगा, और न्यायालय उस पर दूसरे न्यायालय में पक्षकारों के उपस्थित होने की तारीख नियत कर दोनों पक्षकारों को उस तारीख की सूचना देगा।

    परिणामस्वरूप दूसरे न्यायालय द्वारा प्रतिवादी पर दुबारा समन की तामील नहीं करवानी होगी और वादी ऐसे वादपत्र लौटाने के आदेश की कोई अपील नहीं कर सकेगा। वाद पत्र को लौटाया जाकर समुचित न्यायालय में पेश करने का आदेश देने वाला न्यायालय निर्धारित समयावधि को धारा 148 के आवेदन पर बढ़ा सकता है।

    वादपत्र की वापसी - मूल्यांकन का प्रश्न- वादपत्र को वापस तभी किया जा सकता है जब न्यायालय को स्पष्टतः अधिकारिता नहीं- अधिकारिता का सामान्यतः निर्णय वादी द्वारा वादपत्र में किए गए मूल्याँकन के आधार पर सिविल न्यायालय को धनीय अधिकारिता का अवधारण- (तय करना) किरायेदारों के पर्यवसान को पश्चात्वर्ती अवधि के लिए अन्तःकालीन लाभ नुकसानी हेतु उच्च न्यायालय में वाद-यदि उच्च न्यायालय अन्तः कालीन लाभ नुकसानी के अधिकार से सम्बन्धित प्राथमिक विवाद्यक विनिर्णीत करके वादपत्र को समुचित न्यायालय को प्रस्तुत करने हेतु लौटाने का निदेश देता है तो वह गलत होगा।

    (ख) निर्णय-सार-सिविल प्रक्रिया संहिता की धारा 15 के अधीन हर वाद उस निम्नतम श्रेणी के न्यायालय में संस्थित किया जाएगा जो उसका विचारण करने के लिए सक्षम है।

    वे सिद्धान्त, जो सिविल न्यायालयों को धनीय अधिकारिता को विनियमित करते हैं, सुस्थापित हैं। साधारणतः वाद का मूल्याँकन उसमें दावाकृत अनुतोषों पर निर्भर करता है और वादी का उसके वादपत्र में मूल्यांकन उस न्यायालय को अवधारित करता है जिसमें यह प्रस्तुत किया जा सकता है। यह भी सच है कि वादी या तो कुल मूल्याँकन या वाद के कुल मूल्यांकन द्वारा न्यायालय को अधिकारिता लागू नहीं कर सकता।

    न्यायालय को सदैव ही विधि की प्रक्रिया के दुरुपयोग करने को निवारित करने की अधिकारिता होती है। संहिता के आदेश 7 के नियम 10 के अधीन वादपत्र वाद के किसी भी प्रक्रम पर उस न्यायालय को प्रस्तुत करने के लिए लौटाया जा सकता है जिसमें वाद संस्थित किया जाना चाहिए था। इस मामले में विचारार्थ प्रश्न यह है कि क्या प्रस्तुत मामले में वादपत्र का उच्च न्यायालय की अधिकारिता के अन्तर्गत लाने के उद्देश्य से कुल अतिमूल्यांकन किया गया है।

    जब वाद धन की वसूली के लिए फाइल किया जाता है तो दावाकृत राशि वाद के मूल्य को अवधारित करने में सम्मिलित की जानी होती है। एक वाद में अपीलार्थी ने, 1 फरवरी, 1985 और 30 नवम्बर, 1985 की अवधि के लिए इस आधार पर कि प्रत्यर्थी का कब्जा अप्राधिकृत या अवैध था और वह अन्त: कालीन लाभ या नुक्सानी का संदाय करने के दायित्वाधीन था, 78,000 रुपये (7,800 रुपये प्रतिमास की दर पर) के लिए डिक्री का दावा किया है।

    प्रश्न यह है कि क्या अपीलार्थी 7,800 रुपये प्रतिमास की दर पर या किसी अन्य दर पर किराएदारी के पर्यवसान के पश्चात् अंत:कालीन लाभ नुकसानी के लिए हकदार होगा, ऐसा मामला है जिसका वाद में विनिश्चय किया जाना है। अंततः यदि यह पाया जाता है कि अपीलार्थी 1 फरवरी, 1985 की पश्चात्वती अवधि के लिए अन्तःकालीन लाभ या नुकसानी को प्राप्त करने का हकदार नहीं है और वह 1,400 रुपये प्रतिमास प्राप्त करने का ही हकदार है तो 1,400 रुपये प्रतिमास से अधिक और उससे ऊपर दावे की बाबत वाद खारिज किया जाएगा।

    किंतु प्रश्न यह है कि क्या वह 1 फरवरी, 1985 की पश्चात्वतों अवधि की बाबत अंत:कालीन लाभ या नुकसानी का दावा करने का हकदार था, प्राथमिक प्रक्रम पर नहीं निपटाया जा सकता था, भले ही विचारण प्रारंभ हो गया था। यह प्रश्न वाद में उद्‌भूत अन्य विवाद्यकों के साथ विचारण के समाप्त होने पर विनिश्चित किया जाना है। ऐसे कुछ विनिश्चयों को ध्यान में रखते हुए जिनका अपील के अनुक्रम में अपीलार्थी द्वारा अवलंब लिया गया है, न्यायालय का यह मत है कि यह मामला संदेह से मुक्त नहीं है।

    अंत:कालीन लाभ नुक्सानी के लिए दावा न तो सुस्पष्टतया बेतुका है और न ही काल्पनिक इसका न्यायिक विचारण करने की आवश्यकता है। प्रत्यर्थी द्वारा दिए गए मत को स्वीकार करने से ऐसे किराएदार को प्रोत्साहन दिया जा सकेगा जिसने मकान मालिक को बिना उस यथोचित प्रतिकर, जिसके लिए उसको एक लंबी अवधि तक अपने परिसरों के कब्जे से अयुक्तियुक्त रूप से वंचित रखने के कारण उसके द्वारा हुई हानि के लिए उस समय तक विलंबकारी मुकदमे को चलाने हेतु उसने अपने किराएदारी के अधिकार को खो दिया है जब तक कि वह "प्रत्यर्थी न्यायालय के माध्यम से अपने परिसरों का कब्जा प्राप्त करने के लिए योग्य नहीं है।

    अतः इस प्रक्रम पर हम यह नहीं कह सकते हैं कि अंत:कालीन लाभ/नुक्सानी के लिए दावा बिना सद्भाव के किया गया था और कलकत्ता उच्च न्यायालय के समक्ष उक्त वाद को संस्थित करने के एकमात्र उद्देश्य से किया गया था यद्यपि उसको इसका विचारण करने की अधिकारिता नहीं थी। न्यायालय प्रत्यर्थी की ओर से की गई इस दलील से सहमत नहीं है कि अपीलार्थी ने "वाद का मूल्य बेइमानी से और साशय बढ़ाया था ताकि वह उस विशिष्ट न्यायालय की अधिकारिता को लागू करा सके जिसको अन्यचा अधिकारिता नहीं है।

    यदि अंत:कालीन लाभ/नुकसानी संदेय किए जाने के लिए पाए जाते हैं तो प्रश्नगत प्रकृति की उन परिसरों, जो कि कलकत्ता में स्थित है, के लिए 7,800 रुपये प्रतिमास की दर पर किया गया दावा वर्तमान स्थिति को ध्यान में रखते हुए काल्पनिक प्रतीत नहीं होता है। किंतु उच्चतम न्यायालय वास्तविक उस राशि के बारे में कोई राय अभिव्यक्त नहीं करता है जो कि इसका संदाय करने के दायित्व की स्थिति में अंत:कालीन लाभ नुकसानी के रूप में दी जा सकेगी, स्थापित हो जाती है।

    न्यायालय का यह मत है कि मामले के तथ्यों और उसकी परिस्थितियों में उच्च न्यायालय अपीलार्थी के अंत:कालीन लाभ नुकसानी का दावा करने के लिए अपीलार्थी के अधिकार से संबंधित विवाद्यक को पूर्व विनिर्णीत करने में और यह निदेश देने में गलत था कि वादपत्र समुचित न्यायालय को प्रस्तुत करने के लिए लौटा दिया जाए। अतः उच्चतम न्यायालय उच्च न्यायालय द्वारा पारित आदेश को अपास्त करता है और उच्च न्यायालय को वाद की सुनवाई करने में अग्रसर होने के लिए निदेश देता है।

    उच्चतम न्यायालय यह निदेश भी देता है कि उस आदेश के अनुक्रम में विद्वान न्यायाधीश द्वारा की गई मताभिव्यक्तियाँ जिसके विरुद्ध यह अपील अपीलार्थी के अंत:कालीन लाभ नुकसानी को 7,800 रुपये प्रतिमास की दर पर दावा करने के अधिकार के संबंध में फाइल की गई है, पक्षकारों पर आबद्धकर नहीं होगा और यह कि उक्त प्रश्न उच्च न्यायालय द्वारा विचारण के अनुक्रम में नये सिरे से विनिश्चित किया जाएगा किंतु उच्चतम न्यायालय उपर्युक्त प्रश्न पर विद्वान न्यायाधीश द्वारा की गई मताभिव्यक्तियों की यथार्थता पर अन्यथा कोई राय अभिव्यक्त नहीं करते हैं।

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