सिविल प्रक्रिया संहिता, 1908 आदेश भाग 34: आदेश 7 नियम 6 के प्रावधान
Shadab Salim
14 Dec 2023 5:00 PM IST
सिविल प्रक्रिया संहिता,1908(Civil Procedure Code,1908) का आदेश 7 वादपत्र है। आदेश 7 यह स्पष्ट करता है कि एक वादपत्र किस प्रकार से होगा क्या क्या चीज़े वादपत्र का हिस्सा होगी। आदेश 7 के नियम 6 में परिसीमा संबंधी बातों का उल्लेख किया गया है। इस आलेख के अंतर्गत नियम 6 पर टिप्पणी प्रस्तुत की जा रही है।
नियम-6 परिसीमा विधि से छूट के आधार जहां वाद परिसीमा विधि द्वारा विहित अवधि के अवसान के पश्चात् संस्थित किया जाता है वहां वादपत्र में वह आधार दर्शित किया जाएगा जिस पर ऐसी विधि से छूट पाने का दावा किया गया है :
[परन्तु न्यायालय वादी को वाद में न दिए गए किसी आधार पर, यदि ऐसा आधार वाद में उपवर्णित आधारों से असंगत नहीं है तो परिसीमा विधि से छूट का दावा करने की अनुमति दे सकेगा।]
प्रत्येक वाद तभी संस्थित किया जा सकता है, जबकि यह परिसीमा अधिनियम, 1963 की अनुसूची में वर्णित परिसीमा की अवधि के भीतर हो। यदि परिसीमा की विहित अवधि समाप्त हो गई है, तो क्या यह बाद परिसीमा अधिनियम की धारा 12 से 19 में दी गई कोई छूट प्राप्त कर सकता है। यदि हां, तो फिर आपको अपने वादपत्र में वह आधार दर्शित करना होगा, जिस पर आप ऐसी छूट चाहते हैं।
ऐसा नहीं करने पर वादपत्र आदेश 7 के नियम 11 के अधीन नामंजूर कर दिया जायेगा। इस नियम में वादपत्र में यह आधार दर्शित किया जायगा शब्दावली का प्रयोग किया गया है। अनेक मामलों में न्यायलयों द्वारा कहा गया है कि ऐसी छूट की स्पष्ट रूप से मांग न करने पर भी यदि वादपत्र के तथ्यों में उस छूट सम्बन्धी तथ्य दिये गए हैं, तो वादपत्र को अस्वीकार नहीं करना चाहिये।
जिस दिन वादपत्र प्रस्तुत करना चाहिये था, उस दिन यदि न्यायालय बंद था, तो इस तथ्य को वादपत्र में देने की आवश्यकता नहीं मानी गई, क्योंकि न्यायालय इसका न्यायिक संज्ञान ले सकता है। जब अभिस्वीकृति सम्बन्धी तथ्य वादपत्र में दे दिया हो, तो उसको अलग से स्पष्ट रूप से अभिवचनित करना आवश्यक नहीं है। यह सिद्ध करने का भार वादी पर होता है कि उसका वाद परिसीमा की अवधि (काल मर्यादा) के भीतर है।
इस नियम में 1976 के संशोधन द्वारा नया परन्तुक जोड़ दिया गया है, जिसके अनुसार वादी ऐसे नये आधार पर भी परिसीमा की छूट की मांग कर सकता है, जो पहले से दिए गए आधारों से असंगत नहीं हो। इस बारे में पहले न्यायालयों में जो मतभेद था, वह इस संशोधन द्वारा समाप्त कर दिया गया है। अब न्यायालय की अनुमति से वादपत्र में छूट के लिए नहीं दिया गया आधार भी उठाया जा सकता है, परन्तु यह वादपत्र में पहले से वर्णित किसी आधार से असंगत नहीं होना चाहिए।
इस प्रकार वादपत्र के इस चरण में परिसीमा सम्बन्धी छूट के आधार का वर्णन किया जाता है।
प्रारूपण के लिए उदाहरण-
(....) वादी-ऋणी (या उसके प्रतिनिधि श्री) ने दिनांक को रू./- का उक्त क्रम के देरे आंशिक भुगतान किया और बकाया राशि की अभिस्वीकृति करते हुए उसने हस्ताक्षर किये।
(....) उक्त बाद न्यायालय (स्थान) में दिनांक से तक विचाराधीन रहा, जिसकी वादी ने सम्यक् प्रयास और सद्भाव से पैरवी की। अतः परिसीमा अधिनियम की धारा 14 का लाभ वादी को प्रदान करें।
(....) उक्त दस्तावेज प्रतिवादी ने कपटपूर्वक तैयार किया, जैसा कि ऊपर पैरा सं. में दिया गया है। इस कपट का वादी को दि.को पता चला, जब प्रतिवादी ने उक्त दस्तावेज के मामले में पेश किया।
परिसीमा विपि प्रक्रियात्मक विधि है। इसका उद्देश्य अधिकारों का सृजन करना नहीं है, वरन् ऐसी परिसीमा (काल मर्यादा) विहित करना है, जिसके भीतर किसी अधिकार का प्रवर्तन करवाया जा सकता है। जो अधिकार अपवर्जित हो गया है, उसे नये अधिनियम द्वारा संशोधित नहीं किया जा सकता।
परिसीमा विधि का उद्देश्य प्रतिषेपात्मक है, न कि सृजनात्मक। यह किसी विद्यमान अधिकार को किसी विहित अवधि (परिसीमा) के बाद प्रर्वतन (लागू) कराने के मार्ग (उपाय) में विधिक-बाधा आरोपित करती है। इस प्रकार से जो दावे अपवर्जित या नष्ट हो जाते हैं और उनकी मांग पुरानी हो जाती है, उनके लिये विधि का कठोरता से अर्थ करना चाहिये। इसमें संदेह नहीं है कि-परिसीमा अधिनियन के उपबन्धों का अर्थ उसमें प्रयुक्त शब्दों के आधार पर कठोरता से किया जाना चाहिये, परन्तु यह सदैव आवश्यक है कि जो पक्षकार इसको आधार बनाता है, वह अपने मामले को विधि की बातों के चारों कोनों के भीतर ही उसे प्रस्तुत करे।
इस प्रकार वादी का यह कर्तव्य है कि वह अपने वाद को परिसीमा के भीतर संस्थित करे। इसके लिये जो छूट मिल सकती है, उसका अभिवचन करे। अतः परिसीमा-विधि वादी और प्रतिवादी दोनों के लिये महत्वपूर्ण है।
परिसीमा का प्रश्न और उसे साबित करने का भार यह तर्क स्वीकार नहीं किया जा सकता कि-सही नियम यह है कि प्रत्येक मामले में वाद परिसीमा के भीतर है, यह साबित करने का भार सदा वादी पर होता है। यह प्रत्येक मामले की परिस्थितियों पर निर्भर करता है। यह भार उस समय वादी पर होगा, जब कि वादपत्र प्रथम दृष्टि में यह प्रदर्शित करे कि वाद परिसीमा से बाहर है।
ऐसे मामलों में वादी को उन तथ्यों को बताना होगा जिनसे वह परिसीमा की बाधा को पार कर सकता है, अन्यथा उसका वाद असफल हो जायेगा। परन्तु जहां ऐसा कुछ भी नहीं है, जो वाद को परिसीमा से बाधित होने को प्रथन दृष्ट्या दर्शित करता है, तो प्रतिवादी को यह चाहिये कि वह परिसीमा का तर्क उठाये, यदि वह उस पर निर्भर करता है।
परिसीमा से छूट के आधार वादी को वादपत्र में दर्शित करने होंगे। वादी यह आक्षेप नहीं कर सकता कि प्रतिवादी ने परिसीमा का तर्क नहीं उठाया।
परिसीमा अधिनियम, 1963 वादों तथा अन्य कार्यवाहियों सम्बन्धी समेकित व संशोधित विधि है, परन्तु यह धारा 29 के द्वारा सीमित कर दी गई, जो इस प्रकार है-
परिसीमा संबंधी अधिक अध्ययन परिसीमा अधिनियम को पढ़कर ही किया जा सकता है। इस आलेख के अंतर्गत केवल आदेश 7 नियम 6 पर टिप्पणी की गई है जो केवल यह निर्धारित करता है कि वादपत्र में परिसीमा के तथ्यों का उल्लेख आज्ञापक है।