सिविल प्रक्रिया संहिता,1908 आदेश भाग 33: आदेश 7 नियम 2 से 5 तक के प्रावधान

Shadab Salim

14 Dec 2023 6:20 AM GMT

  • सिविल प्रक्रिया संहिता,1908 आदेश भाग 33: आदेश 7 नियम 2 से 5 तक के प्रावधान

    सिविल प्रक्रिया संहिता,1908(Civil Procedure Code,1908) का आदेश 7 वादपत्र है। आदेश 7 यह स्पष्ट करता है कि एक वादपत्र किस प्रकार से होगा क्या क्या चीज़े वादपत्र का हिस्सा होगी। इस आलेख के अंतर्गत इस ही आदेश 7 के नियम 2 से 5 तक के प्रावधानों पर चर्चा प्रस्तुत की जा रही है।

    नियम-2 धन के वादों में- जहाँ वादी धन की वसूली चाहता है वहाँ दावा की गई ठीक रकम वादपत्र में काबिज़ की जाएगी

    किन्तु जहाँ वादी अन्त कालीन लाभों के लिए या ऐसी रकम के लिए जो उसके और प्रतिवादी के बीच हिसाब किए जाने पर उसको शोध्य पाई जाए, (या प्रतिवादी के कब्जे में की जंगम वस्तुओं के लिए या ऐसे ऋणों के लिए जिनका मूल्य वह युक्तियुक्त तत्परता से भी प्राक्कलित नहीं कर सकता है वाद लाता है यहाँ दावाकृत रकम या मूल्य यादपत्र में लगभग मात्रा में कथित किया जाएगा।

    वाणिज्यिक विवादों के सम्बन्ध में संशोधन

    2016 के अधिनियम संख्यांक 4 द्वारा वाणिज्यिक विवादों के सम्बन्ध में नियम 2 के पश्चात् निम्नलिखित नियम अन्तःस्थापित किया गया एवं दिनांक 23-10-2015 से प्रभावी।

    [एक जहाँ वाद में ब्याज ईप्सित है- (1) जहाँ वादी ब्याज को ईप्सा करता है, वहाँ वादपत्र में उपनियम (2) और उपनियम (3) के अधीन उपवर्णित ब्यौरे के साथ उस प्रभाव का एक कथन अन्तर्विष्ट किया जायेगा।

    (2) जहाँ वादी ब्याज की ईप्सा करता है, यहाँ यादपत्र में यह कथन किया जायेगा कि क्या वादी सिविल प्रक्रिया संहिता, 1908 (1908 का 5) की धारा 34 के अर्थान्तर्गत किसी वाणिज्यिक संव्यवहार के सम्बन्ध में ब्याज़ की ईप्सा कर रहा है और इसके अतिरिक्त, यदि वादी, ऐसा किसी संविदा के निबंधनों के अधीन या किससे अधिनियम के अधीन कर रहा है, तो उस दशा में वाद-पत्र में उस अधिनियम को विनिर्दिष्ट किया जायेगा या यदि वह ऐसा किसी अन्य आधार पर कर रहा है तो उस आधार का कथन किया जायेगा।

    (3) अभिवचनों में निम्नलिखित का भी कथन किया जायेगा-

    (क) ऐसी दर, जिस पर ब्याज का दावा किया गया है;

    (ख) ऐसी तारीख, जिसको उसका दावा किया गया है:

    (ग) ऐसी तारीख, जिसको उसकी संगणना की गयी है:

    (घ) संगणना को तारीख को दावा किये गये ब्याज की कुल रकम; और

    (ङ) दैनिक दर, जिस पर तारीख के पश्चात् ब्याज प्रोद्भूत होगा।]

    नियम-3 जहाँ वाद की विषयवस्तु स्थावर सम्पति है-जहाँ वाद की विषयवस्तु स्थावर सम्पत्ति है वहाँ वादपत्र में सम्पत्ति का ऐसा वर्णन होगा जो उसकी पहचान कराने के लिए पर्याप्त है और उस दशा में जिसमें ऐसी सम्पत्ति की पहचान भू-व्यवस्थापन या सर्वेक्षण सम्बन्धी अभिलेख में की सीमाओं या संख्यांकों द्वारा की जा सकती है. वादपत्र में ऐसी सीमाएँ या संख्यांक विनिर्दिष्ट होंगे।

    नियम-4 जब वादी प्रतिनिधि के रूप में वाद लाता है-जहाँ वादी प्रतिनिधि की हैसियत में वाद लाता है वहाँ वादपत्र में न केवल यह दर्शित होगा कि उसका विषयवस्तु में वास्तविक विद्यमान हित है, वरन् यह भी दर्शित होगा कि उससे सम्पृक्त वाद के संस्थित करने के लिए उसको समर्थ बनाने के लिए आवश्यक कदम (यदि कोई हो) वह उठा चुका है।

    नियम-5 प्रतिवादी के हित और दायित्व का दर्शित किया जाना-वादपत्र में यह दर्शित किया जाएगा कि प्रतिवादी विषयवस्तु में हित रखता है या रखने का दावा करता है और वह वादी की माँग का उत्तर देने के लिए अपेक्षित किए जाने का दायी है।

    नियम 2 के अनुसार धन की वसूली के वाद में सही-सही रकम का कथन करना आवादक है, परन्तु अनन्त कालीन लाभ या अन्य वसूली की राशि की यदि संगणना (प्राक्कलन) करना संभव प्रतीत न हो, तो अनुमानिक/लगभग राशि का उल्लेख किया जा सकेगा।

    जब वाद वचन-पत्र पर आधारित है, तो मूल प्रतिफल के आधार पर डिक्री पारित नहीं की जा सकती। स्थावर (अचाल) सम्पत्ति का वर्णन (नियम-3)- अचल सम्पत्ति का विवरण ऐसा होना चाहिये कि उससे उस प्रश्नगत सम्पत्ति को पहचाना जा सके। जब एक वाद में संपत्ति की सीमाओं का पूरा विवरण दिया गया था, जिससे उसे पहचाना जा सकता था, तो उसने भूल से कठा की बजाय 5 कठा लिख देने से अभिवृति (टिनेन्सी) के विभाजन का कोई प्रश्न नहीं उठता। सम्पति के विवरण के मामले में न्यायालय का यह कर्तव्य है कि वह यह देखे कि उसके द्वारा पारित डिक्री के निष्पादन में कोई संदेह उत्पत्र न हो। इसके लिये उसे सम्पत्ति के विकरण की वादी से मांग करनी चाहिये और आवश्यकता हो, तो वादपत्र में संशोधन की अनुमति देनी चाहिये। इसी करण से न तो वाद-पत्र नामंजूर किया जा सकता है और न वाद को ही खारिज किया जा सकता है।

    नियम-4 के अनुसार जब वादी प्रतिनिधि की हैसियत में वाद लाता है, तो वाद-पत्र में- (i) उस विषय-वस्तु (विवाद ग्रस्त स्थान व वस्तु या अधिकार) के बारे में आदेश 1, नियम 8 का पालन करते हुए वास्तविक हित जो विद्यमान है, उसका विवरण दिया जावेगा, और (ii) ऐसा वाफ संस्थित करने के लिए उस वादी या वादीगण को समर्थ बनाने के लिए आवस्यक कदम उठाने का उल्लेख किया जायगा।

    इस प्रकार के प्रतिनिधि बाद में वाद-पत्र में परिचय का प्रकथन इस प्रकार किया जा सकता है-

    (1) वादी संयुक्क हिन्दू कुटुम्ब का कर्ता है, जिसमें यह स्वयं और उसके पुत्र सम्मिलित हैं और वादी इसी हैसियत से यह वाद सबके हितार्थ संस्थित करता है।

    नियम-5 के अनुसार, प्रतिवादी का दायित्व और अधिकार के वर्णन के साथ प्रतिवादी के हित तथा दायित्व को अभिवचन में दर्शित करना होगा।

    प्रतिवादी का उत्स विषय-वस्तु अर्थात्-वादहेतुक या विवाद में क्या हित है और यह किस प्रकार उत्तरदायी है? यह वाद-पत्र में स्पष्ट करना होगा। प्रतिवादी ने अपने कर्तव्य का पालन नहीं कर वादी के अधिकार का उल्लंघन किया या क्षति पहुंचाई तो इसका भी उल्लेख कीजिये। एक अपंजीकृत फर्म द्वारा उसके व्यवस्थापकीय भागीदार के माध्यम से एक वाद में फर्म के नाम के स्थान पर सभी भागीदारों के नाम केवल शीर्षक में, न कि मुख्य भान (बोडी) में, बदलने के लिए, संशोधन किया गया। मुख्य भाग में जो धन वसूल करना था, यह फर्म के नाम से मांगा गया था, परन्तु व्यक्तियों का कर्म से संबंध नहीं बताया गया था न यह बताया गया कि अब वह गशि भागीदारों द्वारा वसूलनीय है। अभिनिर्धारित कि ऐसा बाद असफल होगा।

    अनुतोष पर आधारिन तथ्य वादहेतुकों या दावा से वादी क्या अनुतोष प्राप्त करना चाहता है? उसका पता लगाकर उन अनुतोषों के लिये अलग-अलग आधारों को वाद-पत्र में अलग-अलग पैराओं में लिखा जाना चाहिए।

    वाद पत्र के कलेवर या मुख्य अंग के औपचारिक भाग में निम्नांकित चरण होते हैं-

    चरण 1- नोटिस तथा अन्य पुरोभाव्य शर्तों के पालन का कथन-

    आदेश 6, नियम 11 के अनुसार जहां वहीं यह अभिकथन करना तात्विक है कि किसी तथ्य, बात या वस्तु की सूचना किसी व्यक्ति को भी, यहां तब तक कि ऐसी सूचना का प्ररूप या उसके विधिवत शब्द या वे परिस्थितियां जिनसे ऐसी सूचना का अनुमान किया जाना है, तात्विक न हो, ऐसी सूचना को तथ्य के रूप में अभिकथित करना पर्याप्त होगा। आदेश 6 के नियम के अनुसार नोटिस देना एक पुरोभाव्य शर्त भी है।

    इस प्रकार साधारणतया नोटिस या अन्य पुरोभाव्य-शर्त का वादी द्वारा अभिवचन करना आवश्यक नहीं है, परन्तु यदि वह प्रतिवादी द्वारा ऐसी शर्त के पालन नहीं करने का आरोप लगाना चाहता है, तो उसे उसका अभिवचन करना होगा। इसी प्रकार नोटिस को केवल तथ्य के रूप में अभिलिखित करना पर्याप्त होगा।

    प्रतिनिधिक वाद में आदेश के उपरोक्त नियम 4 के अनुसार यह तथ्य भी एक पुरोभाव्य-शर्त के रूप में देता होगा कि वादी ने विधि के अनुसार आवश्यक कार्यवाही पूरी कर ली है।

    (क) वादहेतुक का दिनांक [आदेश 7, नियम । (ङ)]- वादपत्र के औपचारिक भाग में वादहेतुक कब पैदा हुआ, इस तथ्य का देना आवश्यक है। अतः उसकी सही दिनांक का उल्लेख करना चाहिये, क्योंकि बाद के परिसीमा के भीतर होने का निर्णय इसी दिनांक पर निर्भर करता है। किन्तु वादहेतुक पैदा होने की दिनांक का निश्चित करना एक कठिन कार्य है। क्योंकि एक वादहेतुक में कई तथ्य हो सकते हैं और उसकी अलग-अलग दिनांक हो सकती है। अतः तात्विक भाग में जब वादहेतुक के तथ्य या पटनाक्रम का विवरण दिया जाय, उसमें निश्चयपूर्वक दिनांक यथास्थान अंकित कर देना चाहिये, ताकि इस चरण पर दी गई दिनांक पर कोई उलझन पैदा हो जाय, तो उसे यू किया जा सके।

    वादी को वादहेतुक की तथाकथित दिनांक विशेष रूप से देनी चाहिये, चाहे वह इसे अलग पैरा में दे दा नहीं। चाहे कोई भी तरीका अपनाया जाये, प्रतिवादी को अभिवचन के पढ़ने से यह पता लग जाना चाहिये कि-वादहेतुकउत्पन होने की दिनांक क्या है। जहां बादहेतुक को गठित करने वाले समस्त तथ्य सही-सही अभिकथित कर दिये गये हो, तो उनसे वादहेतुक उत्पन्न होने की दिनांक के बारे में गलत अनुमान लगाना पातक नहीं माना गया है। सक्दिा भंग के लिये क्षतिपूर्ति के वाद में संविदा करने का दिनांक और संविदा भंग होने का दिनांक दोनों बादहेतुक उत्पन्न होने के दिनांक हैं।

    परन्तु वादाधिकार (right to suc) संविदा भंग होने पर ही उत्पन्न होता है। अतः यदि सक्दिा भंग की दिनांक के स्थान पर संविदा करने की दिनांक वादपत्र में इस पैरा में लिख दी गई हो, तो इससे प्रतिवादी को कोई प्रतिकूलता नहीं होने के कारण पातक नहीं माना गया। 23 ठीक (सही सही) वादहेतुक क्या है, यह बादख में दिये गये समग्र (पूरे) तथ्यों पर निर्भर करता है। अतः ध्यान रखने की आवश्यकता है।4

    वादहेतुक की दिनांक- सम्पूर्ण वादपत्र को पढ़कर ही यह पता लगाया जा सकता है कि वादहेतुक कब उत्पन्न हुआ। वादपत्र में दिनांक का उल्लेख करने से वादी उस दिनांक से बच नहीं जाता है। आदेश 7 के नियम 1 के खण्ड (ङ) की भाषा "वादहेतुक कब पैदा हुआ से स्पष्ट व निश्चित नहीं है। वास्तव में यहां वादहेतुक की दिनांक की बजाय वादाधिकार की दिनांक होनी चाहिये, जिससे परिसीमा की अवधि की गणना की जाती है। इस खण्ड का संभाव्यता यही उद्देश्य भी है। जो कुछ भी है, हमें यह ध्यान रखना है कि इस चरण (पैरा) में हम उस दिनांक का ही उल्लेख करें, जिससे वादाधिकार प्राप्त हुआ है, जो कि वादहेतुक के सम्पूर्ण होने का अंतिम तथ्य है।

    अतः यह सामान्य नियम मानना होगा कि (1) संविदा पर आधारित वाद में वादहेतुक उस संविदा के भंग होने के दिनांक को उत्पन्न होता है, और (2) अपकृत्य के लिये लाये गये वाद में यह उस दिनांक को उत्पन्न होता है, जिस दिन वह अपकृत्य किया गया है। परन्तु जिन मामलों में विशेष रूप से विशेष नुकसानी होने पर ही वादाधिकार प्राप्त होता है, (जैसे- उपताप (Nuisance) तो उनमें विशेष-नुक्सानी उत्पन्न होने की दिनांक वादहेतुक उत्पन्न होने की दिनांक होगी।

    वादी द्वारा मांग करना और उसका अस्वीकार किया जाना- वचन-पत्र और बांड पत्र में जहां मांग पर किसी राशि का संदाय (भुगतान) किया जाना अंकित होता है, वहां ऐसी राशि कभी भी बाद में या तुरन्त देय होती है। यदि कई ऋण दिये जायें, तो उनकी अलग-अलग दिनांक अंकित नहीं करके यह सुविधापूर्वक लिखा जा सकता है कि वादहेतुक दि....... ...और... ......के बीच उत्पन्न हुआ, जब प्रत्येक ऋण लिया गया था। ऐसे वाद के वादपत्र में वास्तविक और सही दिनांक अंकित करना सरल हो जाता है। परन्तु ऐसे मामलों में वादी द्वारा दि. को मांग की गई, जिस पर प्रतिवादी ने दि........ को भुगतान करना अस्वीकार किया।

    इसलिये वादहेतुक (विनाय दावा) दि. को उत्पन्न हुआ। इस प्रकार के कथन की कोई आवश्यकता नहीं है। किसी बंधपत्र या वचन-पत्र आदि में अंकित शब्द मांग पर (On demand) का अर्थ यह नहीं है कि इनका भुगतान मांग करने पर ही किया जावेगा। इसका विधिक अर्थ यही है कि बिना किसी माँग के इस राशि को आगे कभी भी मांगा जा सकता है, जो तुरन्त देय हो जाती है। अतः ऐसे दस्तावेजों पर आधारित वाद संस्थित करने के पहले प्रतिवादी से मांग करना और उसका इंकार करना आवश्यक नहीं है। ऐसे मामलों में परिसीमा की अवधि भी उस वचन पत्र आदि के दिनांक से आरम्भ होती है, न कि मांग या अस्वीकार करने से।

    इसी प्रकार निम्नलिखित मामलों में भी मांग करने की कोई आवश्यकता नहीं है-

    (1) जहां धनराशि किसी निश्चित दिनांक को देव हो,

    (2) संविदा-भंग के लिये क्षतिपूर्ति के वाद में,

    (3) अपकृत्य के लिये क्षतिपूर्ति के वाद में,

    (4) अवैध रूप से कब्जे में ली गई सम्पति की वापसी के वाद में,

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