सिविल प्रक्रिया संहिता,1908 आदेश भाग 30: आदेश 6 नियम 17 के अंतर्गत संशोधन में परिसीमा का महत्व

Shadab Salim

12 Dec 2023 4:03 PM IST

  • सिविल प्रक्रिया संहिता,1908 आदेश भाग 30: आदेश 6 नियम 17 के अंतर्गत संशोधन में परिसीमा का महत्व

    सिविल प्रक्रिया संहिता,1908(Civil Procedure Code,1908) का आदेश 6 अभिवचन से संबंधित है जहां अभिवचन के साधारण नियम दिए गए हैं। आदेश 6 का नियम 17 के अंतर्गत होने वाले संशोधन न्यायालय की आज्ञा से ही किये जाते हैं। ऐसे संशोधन के लिए क्या परिसीमा होगी। यह जानने का प्रयास इस आलेख के अंतर्गत किया जा रहा है।

    परिसीमा की बाधा-

    परिसीमा से वर्जित होने पर वादपत्र में संशोधन अस्वीकार किया गया- एक मामले में वाद 1964 में फाइल किया गया, जिसमें पेन्शन के अधिकार के लिए क्षति सम्बन्धी संसोधन के लिए 1970 में आवेदन किया गया था। कोई संशोधन यदि मंजूर किया जाता है, तो वह वाद संस्थित किये जाने को तारीख से प्रवर्तित (लागू) माना जायेगा। प्रत्यर्थी ने विचारण न्यायालय में एक दलील यह भी दी कि अभिकधिक दावा 1970 में परिसीमा द्वारा वर्जित हो गया था। इस मामले में अपील न्यायालय ने संशोधन करने के आदेश को उलट दिया।

    संशोधन आदेश शुद्ध रूप से वैवेकिक नहीं है। यहां तक कि वैवेकिक आदेश के बारे में अपील न्यायालय केवल वहां हस्तक्षेप कर सकता है, जहां आदेश के लिये विधि में कोई समर्थन नहीं है अथवा जो अन्यायपूर्ण है। असाधारण मामलों में संशोधन वहां मंजूर किया गया है, जहां उसका प्रभाव किसी प्रतिवादी से वह विधिक अधिकार छीनता है, जो समय के व्यपगत हो जाने के कारण उसे प्रोदभूत हो गया है, क्योंकि न्यायालय का यह निष्कर्ष है कि, मामले को विशेष परिस्थितियां समय के व्यपगत हो जाने की बात से अधिक महत्वपूर्ण है। यह दावा करने का अधिकार कि संशोधन द्वारा यादहेतुक जोड़ना परिसीमा द्वारा वर्जित है, दायित्व को उन्मुक्ति पर आधारित है। अधिकार विधिक नियमों से उत्पन्न होने वाले का प्रकथन है। किसी विधिक अधिकार को विधि के नियमों द्वारा किसी व्यक्ति को प्रदत्त लाभ के रूप में परिभाषित किया जा सकता है। उन्मक्ति को संकेत में दायित्व कह सकते हैं। यह किसी अन्य व्यक्ति की विधिक शक्ति से उन्मुक्ति होती है। असर्थता उन्मुक्ति को सहसम्बन्धिनी है। असमर्थता से अभिप्रेत है, शक्ति का अभाव। वादहेतुक को परिसीमा के कारण प्रस्तुत मामले में अपीलार्थी को ऐसी कोई शक्ति प्राप्त नहीं है, जिससे कि वह अभिकथित दावे के लिए प्रत्यर्थी को दायित्वाधीन बना सके। प्रत्यर्थी ने परिसीमा के कारण दायित्व से उन्मुक्ति अर्जित कर ली है। उच्च न्यायालय का यह निष्कर्ष ठीक ही था कि ऐसी कोई विशेष परिस्थितियाँ नहीं है जो अपीलार्थी को संशोधनों द्वारा नया दावा प्रस्तुत करने के लिये हकदार बनाये।

    अवधि बीत जाने पर विपक्षी को उत्पन्न अधिकार को छीनने वाला संशोधन सभी संशोधन जो निम्नांकित दो शर्तें पूरी करते हो, स्वीकार किये जाने चाहिए (1) कि वे संशोधन दूसरे पक्षकार पर कोई अन्याय नहीं करते हों, और (2) कि वे उन दोनों पक्षों के बीच संविवाद के वास्तविक प्रश्न को तय करने के प्रयोजन से आवश्यक हों।

    संशोधन केवल तभी अस्वीकार कर दिया जाना चाहिए- (1) जहां दूसरा पक्षकार समान स्थिति में नहीं रखा जा सके मानो वह अभिवचन मूलरूप से सही था, परन्तु वह (2) संशोधन उसको ऐसी क्षति कारित करेगा जो खर्चे दिलवाने से पूरी नहीं हो सकेगी।

    जब परिसीमा समाप्त हो चुकी थी, परन्तु फिर भी संशोधन द्वारा कोई नया मामला नहीं उठाया गया था। इससे विपक्षी को अचम्भित भी नहीं होना पड़ा। अतः संशोधन स्वीकार किया गया।

    न्यायालय द्वारा वादपत्र में ऐसे दावे (Claim) के बारे में संशोधन करने की अनुमति नहीं देगा जो परिसीमा से वर्जित हो गये है।

    विधि की मंशा यह है कि पक्षकारों के अभिवचन संक्षिप्त हो एवं तात्विक तथ्यों का ही कथन हो, प्रतिवादी को संशोधन करने के माध्यम से लिखित कथन को विस्तार करने की अनुमति सकती नहीं दी जाए।

    परिसीमा में बाधा का प्रभाव जब किसी भी संसोधन द्वारा किसी कालबाधित दावे का वादपत्र में जोड़ा जाना चाहा गया हो, जिसके कारण उस वादहेतुक पर नया वाद लाना संभव न हो, तो संसोधन को स्वीकृति देने के लिए यह एक विचारणीय बात होगी, परन्तु केवल परिसीमा का प्रश्न हो ऐसा निर्णायक या मार्गदर्शक कारण नहीं होगा। जब समय बीत जाने पर कोई नया वाद लाने पर उपचार बाधित हो जाता है, तो ऐसा नये वादहेतुक को लाने के लिए किया जाने वाला संशोधन स्वधारणतया अस्वीकार किया जाना चाहिये। परिसीमा के कारण उत्पन्न अधिकार का लोपित करने वाला संशोधन साधारणतया स्वीकार नहीं किया जा सकता। जब विशिष्ट राशि को प्राप्त करने का वाद परिसीमा से बाधित हो गया, तो प्रतिवादी को एक बहुमूल्य अधिकार मिल जाता है और ऐसे अधिकार से उसे वंचित नहीं किया जा सकता, जब कि प्रतिवादी को उस अधिकार से वंचित करने के लिये कोई परिस्थिति दर्शित नहीं की गई। यदि ऐसा संशोधन करने दिया जाता है, तो उससे प्रतिवादी को ऐसी क्षति होती है जिसे खर्च दिलाकर या अन्य प्रकार से पूरा नहीं किया जा सकता। अत: ऐसा संशोधन अस्वीकार किया गया।

    यदि विशेष परिस्थितियां हों, तो अभिवचन में संशोधन केवल इस आधार पर अस्वीकार नहीं किया जा सकता कि उसके लिए प्रार्थना परिसीमा अवधि की समाप्ति पर की गई थी। सभी विवादों को एक वाद द्वारा सुलझाने की दृष्टि से संशोधन की अनुमति दी गई। परिसीमा के कारण अभिवचन में संशोधन करने से मना करने का तर्क स्वीकार नहीं किया गया। एक आवेदन में नुकसानी का दावा किया गया था, जिसमें टाइपिंग की गलती रह गई। उसे सही करने का आवेदन को नामंजूर करने का कोई आधार नहीं है, जबकि वादहेतुक में कोई परिवर्तन नहीं है और न ही कोई नये तथ्य जोड़े गये हैं। वास्तविक विवाद पूरे परिसर के आधिपत्य (कब्जे) के बारे में था, न कि उस परिसर के केवल एक भाग के बारे में। अतः वादपत्र में से शब्द " उसका भाग" को लोपित करने के लिए संशोधन चाहा गया था, जिसके लिए अनुमति दी गई और यह वाद फाइल करने के दिनांक से सम्बद्ध माना गया। अभिवचन के संशोधन के आवेदन पर विचार करते समय हरेक संशोधन का अलग से निपटारा करना चाहिये और उनमें से किसी एक तक सीमित नहीं करना चाहिये। यदि संशोधन कोई नया वादहेतुक नहीं जोड़ता है और केवल उन्हीं समान तथ्यों को भिन्न व अतिरिक्त पहुँच प्रस्तुत करता है, तो परिसीमा की समाप्ति के बाद भी ऐसा संशोधन प्रदान करना चाहिये।

    विलम्ब या देरी का प्रभाव - केवल विलम्ब (देरी) के कारण संशोधन के लिए मना नहीं किया जा सकता, जब तक कि ऐसा सोचने के लिए कोई ठोस कारण न हों कि संशोधन मामले को लम्बा करने को दुर्भावना से चाहा गया है। परन्तु जब 14 वर्ष बाद एक नया मामला बनाने के लिए वाद-पत्र में संशोधन चाहा गया, तो इस देरी को दुर्भावनापूर्ण मानकर स्वीकृति नहीं दी गई। विलम्ब पर विचार करने का प्रश्न प्रत्येक मामले के तथ्यों पर निर्भर करता है। परन्तु जहां दूसरे पक्षकार को खर्चे देकर क्षतिपूर्ति की जा सके, तो संशोधन से मना नहीं करना चाहिये। केवल विलम्ब या उपेक्षा (लापरवाही) के कारण संशोधन से मना करना उचित नहीं है।

    वापसी (Remand) के बाद संशोधन जब चाहा गया संशोधन वापसी आदेश के क्षेत्र से बाहर न हो या जब अपील नयायालय ने संशोधन करने से मना न किया हो, तो संशोधन की अनुमति दे दी जानी चाहिए।

    अपील में संशोधन और विलम्ब का प्रभाव एक मामले में पिता ने इच्छापत्र के द्वारा माता को सम्पति का निवर्तन कर दिया। इस पर पुत्री ने उस इच्छापत्र के अधीन लाभ प्रापकों से उस सम्पत्ति को वापस प्राप्त करने का वाद प्रस्तुत किया, जिसमें उसने अपने भाइयों को पक्षकार नहीं बनाया, जो कि उसके साथ उस सम्पत्ति को उत्तराधिकार में प्राप्त करने वाले आवश्यक पक्षकार थे। हालांकि यह आपत्ति विचारण-न्यायालय में उठाई गई और विषाद्यक बनाया गया, परन्तु फिर भी वादिनी ने उच्च न्यायालय में अपील के समय संशोधन करने का कोई प्रयास नहीं किया और न ऐसा प्रयास उच्चतम न्यायालय में ही किया गया। सुनवाई के समाप्त होने पर दिये गये संशोधन के आवेदन को ऐसी परिस्थितियों में स्वीकार नहीं किया गया।

    अभिवचन और संशोधन बोल का परिणाम-नए तथ्यों पर आधारित परिसीमा वर्जित नया दावा जोड़ने के लिए आवेदन किया जाना- ऐसे आवेदन को केवल ऐसी असाधारण परिस्थितियों में ही मंजूर किया जा सकता है जो समय के बीत जाने से अधिक महत्वपूर्ण हो। वाद संस्थित किये जाने के 1 वर्ष के पश्चात् और वह भी अपील प्रक्रम पर लिखित कथन में संशोधन को इजाजत नहीं दी जा सकती है। अपील के आधारों में संशोधन के निमित्त आवेदन विलम्ब से दिए जाने के कारण खारिज नहीं किया जाना चाहिए यदि प्रस्तावित संशोधन पक्षकारों के बीच के वास्तविक विवाद को निपटाने के लिए आवश्यक हो तो उसको अनुमति दे देनो चाहिए। अपीलार्थी द्वारा उच्चतम न्यायालय तक एक ही वाद-हेतुक को, जो असफल हो चुका था, चलाना असाधारण विलम्ब के आधार पर उच्चतम न्यायालय के समक्ष वादपत्र को संशोधित करने को इजाजत को नामंजूर किया जा सकता है।

    देरी-केवल देरी के कारण संशोधन के आवेदन को अस्वीकार करना वैध नहीं था।

    संशोधन तथा वादहेतुक-विलम्ब का प्रभाव-यह ध्यान देने योग्य है कि आदेश 6 नियम 17 में यह समविष्ट किया गया है कि पक्षकारों के मध्य विवाद के वास्तविक प्रश्नों का निश्चय करने के प्रयोजन के लिए आवश्यक संशोधन स्वीकार किया जाना चाहिये।

    वाद हेतुक"आदेश 6, नियम 17 के संदर्भ में केवल ऐसा नया दावा अभिप्रेत है, जो कि नए तथ्यों द्वारा गठित नये आधारों पर किया गया हो। यह तथ्य कि संशोधन के लिए आवेदन सम्यक् विलम्ब (काफी देर) के बाद किया गया है, यह कारण स्वत: खारिजी के लिए पर्याप्त नहीं है। हालांकि जबकि असद्भावपूर्ण हो या इससे दूसरे पक्ष के लिए अन्याय हो रहा हो, जिसका प्रतिकर खचों के रूप में नहीं दिया जा सकता तो उसे खारिज करना हो समुचित वैवेकिक शक्ति का प्रयोग करना है।

    संशोधन का कार्य एवं विलम्ब न्यायालय ने वादपत्र में संशोधन स्वीकार किये, परन्तु वे संशोधन वास्तव में वादपत्र में अंकित नहीं किये गये। प्रतिवादी ने आवेदन किया कि वादी ने निश्चित समय में संशोधन नहीं किये, अतः वह अब नहीं कर सकता, विबंधित हो गया। न्यायालय ने संशोधन अंकित कराना, कार्यालय का काम बताया। उच्च न्यायालय ने पुनरीक्षण में निर्धारित किया कि (1) संशोधन को सम्मिलित अंकित करना वादी का काम था, न कि कार्यालय का, (2) न्यायालय द्वारा वादी को खर्चे देने पर अधिक समय दे देना चाहिये और (3) केवल देरी के कारण से वादी को विबंधित करना उचित नहीं होगा।

    देरी के कारण उचित अनुतोष से वचित नहीं- वादी गण ने वादग्रस्त सम्पत्ति को वादी को घोषित करने के लिए वाद किया और उनके कब्जे में प्रतिवादियों द्वारा हस्तक्षेप करने से रोकने के लिए व्यादेश की माँग की। मौखिक साक्ष्य के आरंभ से पहले वादीगण ने वाद-पत्र में संशोधन के लिए आवेदन किया कि वाद में पूर्वजों की सम्पत्ति है, जिसमें उनके पिता का आधा हिस्सा था। अभिनिर्धारित कि खर्च के संदाय के अध्यधीन इस संशोधन की अनुमति दी जाए। यदि अभिवचन के प्रारूपण में स्वयं पक्षकार या उसके वकील द्वारा गलती को जाती है, तो इसे वाद के विचारण को किसी स्टेज पर सही किया जा सकता है। केवल इसलिए कि इसमें देरी हो गई, पक्षकार को उचित अनुतोष से वंचित नहीं किया जा सकता।

    भूल सुधार एवं परिसीमा का प्रश्न- सद्भाव से की गई भूल (गलती) के सुधार के लिए कोई विशेष समय सीमा (परिसीमा) को आवश्यकता नहीं होती। यह तो संशोधन (करेक्शन/सुधार) को अनुमति देने वाले न्यायाधीश को उस चरण या किसी अन्य चरण पर यह तय करना होता है कि परिसीमा अधिनियम को धारा 21 को दृष्टि में सद्भाव से की गई गलती को सही करने की अनुमति दी जाय या नहीं? अतः जब आरंभ में वाद फाइल करने की दिनांक को कोई भूल सद्भाव से हो गई और उसे सही करना है, तो न्यायालय उस सुधार की अनुमति दे सकता है और कोई दिनांक रख सकता है। यह दिनांक आवश्यक रूप से संशोधन की अनुमति देने को दिनांक या तामील को दिनांक या वाद फाइल करने की दिनांक होना आवश्यक नहीं है, परन्तु यह कोई भी दिनांक हो सकती है, जो उस मामले के विशेष तथ्यों और परिस्थितियों में न्यायालय उचित समझे।

    संशोधन का सिद्धान्त यह है कि संशोधन अनुमति के बाद पीछे की तारीख से लागू होता है। मोटरयान बेच देने पर उसके क्रेता को पक्षकार बनाने की अनुमति दी गई।

    संशोधन में विलम्व एवं डील (उपेक्षा) जब मामला बहस सुनने के लिए तय किया, उस समय 16 वर्ष के अन्तराल के बाद वादपत्र में संशोधन चाहा गया, तो ऐसा संशोधन न्यायालय स्वीकार नहीं करेगा, क्योंकि प्रतिवादीगण के अधिकारों पर गंभीर प्रभाव पड़ेगा। प्रतिवादी ने अपने जवाब दावे में जिन तथ्यों बावत् स्वीकारोक्ति दी थी। उसे वापस लेने हेतु संशोधन चाहा। इससे पूर्व उसने न्यायालय से इन तथ्यों को हटाने बाबत भी प्रार्थना पत्र प्रस्तुत किया, जो कि खारिज हुआ। इस तरह के संशोधन की अनुमति नहीं दी जा सकती है। यह प्रक्रिया का दुरुपयोग है एवं 13 वर्षों बाद प्रस्तुत व अन्विक्षा शुरू होने के पश्चात् प्रार्थना- पत्र प्रस्तुत किया गया है।

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