सिविल प्रक्रिया संहिता,1908 आदेश भाग 28: आदेश 6 नियम 17 के प्रावधान
Shadab Salim
11 Dec 2023 5:00 PM IST
सिविल प्रक्रिया संहिता,1908(Civil Procedure Code,1908) का आदेश 6 अभिवचन से संबंधित है जहां अभिवचन के साधारण नियम दिए गए हैं। आदेश 6 का नियम 17 अभिवचन के संशोधन से संबंधित है। यह नियम इस आदेश का महत्वपूर्ण नियम है। इस आलेख के अंतर्गत इस ही नियम 17 पर विवेचना की जा रही है।
नियम-17 अभिवचन का संशोधन- न्यायालय कार्यवाहियों के किसी भी प्रक्रम पर, किसी भी पक्षकार को ऐसी रीति से और ऐसे निबंधनों पर, जो न्यायसंगत हों, अपने अभिवचनों को परिवर्तित या संशोधित करने के लिए अनुज्ञात कर सकेगा और वे सभी संशोधन किए जाएँगे जो दोनों पक्षकारों के बीच विवाद के वास्तविक प्रश्नों के अवधारण के प्रयोजन के लिए आवश्यक हो:
परन्तु विचारण प्रारंभ होने पश्चात् संशोधन के लिए किसी आवेदन को तब तक अनुज्ञात नहीं किया जाएगा जब तक कि न्यायालय इस निर्णय पर न पहुँचे कि सम्यक् तत्परता बरतने पर भी वह पक्षकार विचारण प्रारम्भ होने से पूर्व वह विषय नहीं उठा सकता था।
एक पक्षकार जिसका स्वयं का अभिवचन दोषपूर्ण या असंगत या अपूर्ण है, वह न्यायालय को आवेदन प्रस्तुत कर निम्नलिखित दो तरीकों से अपने अभिवचनों का संशोधन कर सकता है-
(1) न्यायालय की अनुमति से आदेश 8 के नियम 1 के अधीन वादी 'लिखित कथन' और प्रतिवादी 'अतिरिक्त लिखित कथन' प्रस्तुत कर सकेगा, जो कि " अतिरिक्त या पश्चात्वर्ती अभिवचन होगा।
(2) न्यायालय की अनुमति से आदेश 6 के नियम 17 के अधीन अपने अभिवचन का संशोधन कर सकेगा। किसी वाद के विचारण में निम्नलिखित दो कारणों से ऐसी परिस्थिति उत्पन्न हो जाती है कि अपने दावे या प्रतिरक्षा को परिपूर्ण बनाने के लिये पक्षकारों को उनमें संशोधन करना पड़ता है, ताकि वे अपने पक्ष को सफल बना सके और प्राप्त हुई नयी सूचना को अभिवचन में सम्मिलित कर सकें-
(क) नये तथ्य प्रकाश में आने पर, जैसे-
(1) अपने प्रतिपक्षी के नये कथनों से
(2) प्रतिपक्षी के दस्तावेजों के निरीक्षण से
(3) परिप्रश्नों के उत्तर से प्राप्त सूचनाओं से,
(4) नये दस्तावेजों का पता लगने से,
(5) अभिवचन पेश करने के बाद की किसी नयी घटना के घटित होने से,
(ख) वाद में विधि में कोई नया संशोधन हो जाने पर उपर्युक्त कारणों से उत्पन्न परिस्थितियों का सामना करने के लिये पक्षकारों को अपने अभिवचनों के स्वरूप में परिवर्तन करना होता है। आदेश 6 के नियम 17 के अनुसार ऐसा परिवर्तन करने के लिये या संशोधन करने के लिए न्यायालय से अनुमति प्राप्त करना आवश्यक होगा।
न्यायालय की अनुज्ञा से अभिवचन का संशोधन
संहिता के आदेश 6 के उपरोक्त नियम 17 की निम्नलिखित अपेक्षायें हैं-
1. सभी ऐसे संशोधन, जो पक्षकार के बीच विवादग्रस्त वास्तविक प्रश्नों के अवधारण (निर्णय) के लिये आवश्यक हों, किये जा सकेंगे।
2. इन संशोधनों के लिये न्यायालय अनुज्ञा दे सकेगा,
3. ऐसी अनुज्ञा में अभिवचनों के संशोधनधन के लिये रीति और निबन्धन (शर्ते) न्यायालय तय कर सकेगा, जो न्याय संगत होंगे।
पक्षकारों के बीच संविवाद के वास्तविक प्रश्न को अभिवचन में सम्मिलित करने व निपटाने के लिये न्याय के हित में संशोधन स्वीकार किया जाना चाहिये, और ऐसे संशोधन से विपक्षी को कोई ऐसी अपूरणीय क्षति नहीं होनी चाहिये, जो खर्च दिलवाने पर भी पूरी नहीं हो सके।
आवेदन करने वाला पक्षकार सद्भाव से संशोधन चाहता हो, न कि किसी दुर्भावना या चालाकी से।
संशोधन से वाद का स्वरूप या वादहेतुक नहीं बदलता हो और मूल अभिवचन से असंगत या विरोधी कथन नहीं हो।
संशोधन के लिये अनुमति अस्वीकार करने के नियम
1. जब कोई संशोधन पक्षकारों के बीच "संविवाद" (Controversy) के वास्तविक प्रश्नों के निपटारे के लिये आवश्यक नहीं हो, जैसे- (1) वह संशोधन केवल तकनीकी हो या (1) बेकार हो और उसमें कोई सारतत्व नहीं हो।
2. जब प्रस्तावित संशोधन से वादी का वाद ही पूर्ण रूप से विस्थापित हो जाय, अर्थात् उसका स्वरूप ही बदल जाए।
जब लिखित-कथन में संशोधन असद्भावी पाया गया-अस्वीकार- बेदखली के एक वाद में परिवार की सम्पत्ति के विभाजन के बारे में मध्यस्थ के अधिनिर्णय को चुनौती देने के लिए लिखित-कथन में संशोधन चाहा गया। प्रतिवादी-किरायेदार इस अधिनिर्णय में पक्षकार नहीं है और वह उसे चुनौती नहीं दे सकता। यह सब असद्भावी (मेलाफाइड) है और कार्यवाही में विलम्ब करने के लिए है। अतः संशोधन की अनुमति नहीं दी गई। प्रक्रिया के नियम न्याय की व्यवस्था के लिये किसी भी समय परिवर्तित किये जाने वाले समझे जाते हैं।
किसी पक्षकार को किसी त्रुटिमात्र, लापरवाही, जानबूझकर या प्रक्रिया के नियमों के व्यतिक्रम के कारण, न्यायिक अनुतोष से इन्कार नहीं किया जा सकता। न्यायालय तब तक किसी भाग के अभिवचन में संशोधन करने के लिये इजाजत देता है, जब तक कि उसका यह समाधान न हो जाए कि आवेदन करने वाला पक्षकार असद्भावपूर्ण रूप से कार्य कर रहा था अथवा यह कि अपनी गलती द्वारा उसने विपक्षी को ऐसी क्षति कारित की है कि जिसकी खर्चों के आदेश करके क्षतिपूर्ति नहीं की जा सकेगी।
प्रथम लोप कितना ही लापरवाही अथवा असावधानी से क्यों न किया गया हो, प्रस्थापित संशोधन कितना ही समय के पश्चात् क्यों न हो, फिर भी संशोधन की अनुज्ञा दी जा सकेगी, यदि वह अन्य पक्षकार के प्रति कोई अन्याय किये बिना किया जा सकता है। संशोधन स्वीकार करने का उद्देश्य अनेक वादों की वृद्धि को रोकना है कि संविवाद बढ़ता हो न चला जाए। वादी के संशोधन को अस्वीकार करने से उसे अनुतोष के लिये दूसरा वाद लाना पड़े, तो उस संशोधन को स्वीकार कर लेना न्यायोचित माना गया है।
प्रतिवाद पत्र का कोई संशोधन अनुज्ञेय नहीं है, जो वादी के वाद को विस्थापित करने तथा उसे प्राप्त हए बहुमूल्य अधिकार से उसे वंचित करने का प्रभाव डालता हो वादपत्र में संशोधन के द्वारा नया पक्षकार जोड़ने का अनुतोष चाहा। इसमें कोई संदेह नहीं कि आदेश 6 नियम 17 न्यायालय को विस्तृत शक्ति प्रदान करती है। संशोधन के द्वारा नया पक्षकार जोड़ने के प्रश्न पर आदेश 1 नियम 10 के प्रावधान लागू होंगे एवं परिसीमा का प्रश्न भी उत्पन्न होगा। ऐसे संशोधन की अनुमति नहीं दी जा सकती है
विवेकाधिकार का प्रयोग सावधानी से किया जावेगा - संशोधन की अनुमति देने की शक्ति निस्संदेह विशाल है और परिसीमा की विधि के होते हुए भी, इसे न्याय के हित में किसी प्रक्रम (स्टेज) पर यथोचित रूप से प्रयोग में लिया जा सकता है। परन्तु ऐसे दूरगामी विवेकाधिकार का प्रयोग न्यायिक विचारों द्वारा शासित होगा और जितना विशालत्तर स्वविवेक होता जायेगा, उतनी ही अधिकतर सावधानी और चौकसी न्यायालय को रखनी होगी। तकनीकी आधार का प्रभाव-किसी वाद के संविवाद के वास्तविक प्रश्न से सम्बन्धित संशोधन को केवल तकनीकी आधारों पर अस्वीकार नहीं करना चाहिए।
न्याय के हित में संशोधन - इसमें कोई संदेह नहीं है कि यदि कोई नया दावा उस संशोधित दावे पर संशोधन के आवेदन के दिनांक को परिसीमा से वारित हो जाता है, तो एक नियम के रूप में न्यायालय ऐसे संशोधन करने की अनुमति नहीं देगा; परन्तु यह एक ऐसा तत्व है जिसे विवेकाधिकार का प्रयोग करते समय ध्यान में रखा जावेगा कि ऐसे संशोधन की आज्ञा दी जाय या नहीं और यह न्यायालय द्वारा ऐसी आज्ञा देने की शक्ति पर कोई प्रभाव नहीं डालता, यदि संशोधन न्याय के हित में आवश्यक है।
यदि वादपत्र फाइल करते समय कतिपय आधार उपलब्ध न हो और बाद में आधार उपलब्ध हो जाए तो ऐसे आधार को जोड़ने के लिए वादपत्र में संशोधन किया जा सकता है। ऐसा संशोधन उक्त संहिता के आदेश 6 के नियम 17 के अधीन अनुज्ञेय है।
आदेश 6, नियम 17 के अधीन पक्षकार द्वारा स्वीकृति (Admission) को वापस लेने के कारण संशोधन अस्वीकृत नहीं किया जा सकता। यदि वादी का आशय संशोधन द्वारा अपने दावे में कोई बात जोड़ना नहीं है बल्कि एक विनिर्दिष्ट अभिवाक् देना है तो वादपत्र में संशोधन करने के लिए आवेदन विचारण न्यायालय द्वारा मंजूर किया जाना उचित होगा। अभिवचन में संशोधन की प्रार्थना को मात्र किसी गलती, उपेक्षा, अनत्वधानता या प्रक्रिया के नियमों के व्यतिक्रम के कारण नामंजूर नहीं किया जा सकता बशर्ते कि ऐसे संशोधन को अनुज्ञात करने से विरोधी पक्षकार पर प्रतिकूल प्रभाव न पड़ता हो।
अभिवचनों का संशोधन या परिवर्तन मंजूर करने की न्यायालय की शक्ति- यदि न्यायालय साक्ष्य के गुणदोष विवेचन और दस्तावेजों के परिशीलन के आधार पर तथा मामले के तथ्यों और परिस्थितियों पर विचार करने के पश्चात् शक्ति का प्रयोग करता है तब उस प्रयोग को अतिक्रमणकारी नहीं कहा जा सकता और उसे सिविल प्रक्रिया संहिता, 1908 को धारा 115 के अधीन चुनौती नहीं दी जा सकती है। न्यायालय अभिवचनों में संशोधन करने से केवल इस आधार पर इंकार नहीं कर सकता कि उससे असंगत अभिवाक् या नया वादहेतुक अन्तः स्थपित हो जाएगा।
संशोधन अनुज्ञात करने की वास्तविक कसौटी यह है कि क्या संशोधन वादगत विषय से असम्बद्ध है और यदि नहीं है तो क्या ऐसे संशोधन को मंजूरी देना न्याय के हित में होगा। आदेश 21, नियम 90 के अधीन आवेदन का संशोधन न्यायालय की अनुमति से किया जा सकता है। जब वादपत्र में संशोधन का आवेदन उसी वादहेतुक पर आधारित है, तो ऐसा आवेदन स्योकार किया जाना चाहिये।
अभिवचन का संशोधन की अनुमति नहीं - वादी द्वारा वादपत्र बाबत स्थायी निषेधाज्ञा प्रस्तुत, तत्पश्चात् वादपत्र में संशोधन हेतु चाहा गया कि यह घोषणा की जावे कि अन्तरण प्रलेख अवैध है। यह संशोधन काफी देरी से मांगा गया है तथा सद्भाविक नहीं होकर पूर्वाग्रह के आधार पर प्रस्तुत किया गया है। ऐसे संशोधन की अनुमति नहीं दो जा सकती है।
संशोधन का आवेदन सद्भावपूर्व होना - इलाहाबाद उच्च न्यायालय द्वारा यह विनिर्धारित किया गया है कि-संशोधन का आवेदन पत्र सद्भावपूर्वक होना चाहिये।
दिल्ली उच्च न्यायालय ने वादपत्र और लिखित कथन के संशोधन की स्वीकृति देने के बारे में न्यायालय के दृष्टिकोण को बताते हुए कहा है कि जहां प्रतिवादी अपने लिखित-कथन में संशोधन चाहता है, तो न्यायालय अधिक उदार है, क्योंकि जब वादी अपने वादपत्र में वादहेतुक को बदलने या नया वादहेतुक प्रतिस्थापित करना चाहता है, उसे नहीं दी जा सकी, पर प्रतिवादी का प्रतिरक्षा का नया आधार जोड़ने या प्रतिरक्षा को दी जा सकती है, यहां तक कि यह अपने द्वारा को गई स्वीकृति को भी वापस ले सकता है या उसे स्पष्ट कर सकता है।
संशोधन पर विचार -
अभिवचन के संशोधन पर यह विचार करते समय कि इसके लिए अनुमति दी जानी चाहिये या नहीं, न्यायालय को उस संशोधन में दिए गए मामले को तथाकथित असत्यता (झूठ) पर विचार नहीं करना चाहिये। पहले संशोधन को अनुमति दिये बिना तथा उस पर वादप्रश्न बनाकर दोनों पक्षों से साक्ष्य प्राप्त किये बिना उस संशोधन के गुणागुण पर कोई निष्कर्ष नहीं देना चाहिये।
अभिवचन के संशोधन के प्रश्न पर इस प्रकार विचार करना चाहिये कि न्यायालय पक्षकारों के बीच विवाद के वास्तविक प्रश्न का निपटारा कर सके। संशोधन उस समय स्वीकृत नहीं करना चाहिये- जब (1) मामले का स्वरूप ही बदल जाए या (2) यह सम्बन्धित पक्षकार द्वारा की गई स्वीकृति को वापस से ले या (3) किसी पक्ष को सारभूत प्रतिकूलता (हानि) कारित करे।
दावे का त्याग - एक वाद में वादी ने वाद फाइल किया, जो न्यायालय की आर्थिक अधिकारिता के बाहर था। वादी उसे न्यायालय की अधिकारिता में लाने के लिए कुछ दावे छोड़ देना चाहता है। न्यायालय इस आवेदन को यह कह कर नामंजूर नहीं कर सकता कि यह उसकी अधिकारिता में नहीं है।
ऐसा आवेदन संहिता के आदेश 2, नियम 2(2) के अधीन आता है, जो पक्षकार का वादपत्र को संशोधित किए बिना, अनुतोष के किसी भाग का त्याग करने को सशक्त करता है। वादी का दावे को त्यागने का आवेदन स्वीकार किया गया, जो आदेश 2 नियम 2(2) सपठित आदेश 23,नियम 1(1) के अधीन आवेदन समझा गया।
संशोधन जब न्यायालय की अधिकारिता को प्रभावित करे - यदि वांछित संशोधन की अनुमति देने पर वाद न्यायालय की अधिकारिता के बाहर चला जाता है, तो उचित तरीका यह है कि (1) संशोधन पर विचार किया जाय और (2) यदि उसे स्वीकार किया जाता है, तो उस संशोधित वादपत्र को किसी सक्षम न्यायालय में प्रस्तुत करने के लिए वापस कर दिया जाए। अपूरणीय क्षति संशोधन की अनुमति देने या न देने में देखना।
मापदण्ड - गंभीर अन्याय न हो, - न यह होता है कि क्या प्रस्तावित संशोधन से दूसरे पक्षकार के प्रति कोई गंभीर अन्याय होगा। यह सिद्धान्त सुप्रतिष्ठित है कि अभिवचन के संशोधन की अनुमति देने में न्यायालय को बहुत उदार होना चाहिये, सिवाय उस दशा के जब संशोधन से दूसरे पक्षकार के प्रति गंभीर अन्याय या उसे अपूरणीय हानि हो। कब्जे के प्रस्तावित अनुतोष को जोड़ने से न तो वाद की प्रकृति बदलती है, न उससे परिसीमा के आधार पर उत्पन्न किसी अधिकार की समाप्ति होती है।