सिविल प्रक्रिया संहिता,1908 आदेश भाग 24: आदेश 6 नियम 10,11 एवं 12 के प्रावधान

Shadab Salim

8 Dec 2023 9:10 AM GMT

  • सिविल प्रक्रिया संहिता,1908 आदेश भाग 24: आदेश 6 नियम 10,11 एवं 12 के प्रावधान

    सिविल प्रक्रिया संहिता,1908(Civil Procedure Code,1908) का आदेश 6 अभिवचन से संबंधित है जहां अभिवचन के साधारण नियम दिए गए हैं। आदेश 6 का नियम 10,11 एवं 12 अभिवचनों के सिद्धांतों से संबंधित है। इस आलेख के अंतर्गत संयुक्त रूप से इन तीनों नियमों पर टिप्पणी प्रस्तुत की जा रही है।

    नियम- 10 विद्वेष, ज्ञान, आदि-जहां कहीं किसी व्यक्ति के विद्वेष, कपटपूर्ण आशय, ज्ञान या चित्त की अन्य दशा का अभिकथन करना तात्विक है, वहां उन परिस्थितियों को उपवर्णित किए बिना जिनसे उसका अनुमान किया जाना है, उसे तथ्य के रूप में अभिकथित करना पर्याप्त होगा।

    कुछ मामलों में विद्वेष, कपटपूर्ण आशय, ज्ञान आदि किसी पक्षकार के मामले के तात्विक तथ्य गठित करते हैं, अतः उनका अभिकथन उस पक्षकार के अभिवचन में किया जाना है। परन्तु उन परिस्थितियों को, जिनसे उनका अनुमान किया जाना है, अभिवचन में कहने की आवश्यकता नहीं है।

    इस नियम को नियम 4 के साथ पढ़ना चाहिये, जो कपट आदि के बारे में आवश्यक विशिष्टयां देने का उपबंध करता है। कपट के मामले में केवल यह कहना पर्याप्त नहीं होगा कि-प्रतिवादी ने कपट किया। इसके लिये उस कपट का स्वरूप, उसके आधार और वह कपट किस प्रकार किया गया, ये तात्विक तथ्य और विशिष्टियां देनी होगी, परन्तु वे साक्ष्य के तथ्य नहीं दिये जायेंगे, जिनसे उस कपट को साबित करना चाहा गया है। कपट, असम्यक् असर और प्रपीड़न के मामले में पूरी विशिष्टियां (विशेष विवरण) देनी होंगी और साक्ष्य उनके आधार पर होगा, भिन्न नहीं। यह स्थापित सिद्धान्त है।

    इन मानसिक तत्वों का विवरण देना है, पर वे परिस्थितियां नहीं बतानी हैं, जिनसे इनका आभास या अनुमान किया जा सकता है। ऐसी परिस्थितियां साक्ष्य में बताई जाती है, न कि अभिवचन में। इस नियम का एक उदाहरण संहिता की पहली अनुसूची के परिशिष्ट "क" के संख्यांक 22 में इस प्रकार दिया गया है कि अन्य व्यक्ति को कपटपूर्वक उधार दिलवाने के लिए किये वाद में यह कहना पर्याप्त होगा कि "उक्त व्यपदेशन मिथ्या थे और उनका ऐसा होना प्रतिवादी को तब ज्ञात था और वे उसके द्वारा वादी से प्रवंचना और कपट करने से आशय (नियत) से किये गये थे।

    नियम-11 सूचना-जहां कहीं यह अभिकथन करना तात्विक है कि किसी तथ्य, बात या वस्तु की सूचना किस व्यक्ति को थी वहां जब तक कि ऐसी सूचना का प्ररूप या उसके यथावत् शब्द या वे परिस्थितियां, जिनसे ऐसी सूचना का अनुमान किया जाना है, तात्विक न हों, ऐसी सूचना को तथ्य के रूप में अभिकथित करना पर्याप्त होगा।

    जब नोटिस वादहेतुक के रूप में हो- यह नियम आदेश 6 के नियम 6 के अध्यधीन है, इसलिए जहां नोटिस देना केवल एक पुरोभाव्य शर्त है, उसे वादी को अभिवचन में देने की आवश्यकता नहीं है। परन्तु जहां यह वादहेतुक (वादकरण) का अंग बन जाता है, तो इसे एक तथ्य की तरह अभिवचनित करना होगा। जैसे सरकार के विरुद्ध वाद लाने के लिए धारा 80 सि. प्र. सं. का नोटिस या रेलवे प्रशासन के विरुद्ध नोटिस। या किसी नगरपालिका के विरुद्ध नोटिस, किसी धनादेश (चेक या हुण्डी) के अनादरण का नोटिस, एक किरायेदार को मकान खाली कराने का नोटिस आदि।

    यह आवश्यक नहीं है कि ऐसे नोटिस को शब्दशः वादपत्र में दिया जावे। जब सूचना (नोटिस) का केवल तथ्य के रूप में कथन दिया जावेगा- किसी संविदा या न्यास की प्रतिवादी को सूचना थी, यह अभिवचनित करना ही पर्याप्त होगा, इसके लिये उन परिस्थितियों का वर्णन करने की आवश्यकता नहीं होती, जिनसे इस सूचना का अनुमान लगाया जाना है। जैसे-प्रतिवादी वादी के इस लिखत (प्रलेख) को सत्यापित करने वाला साक्षी था, या उस संविदा के समय प्रतिवादी स्वयं या उसका मुनीम उपस्थित था। अतः उनको इस मामले की सूचना थी। ये सब साक्ष्य में आते हैं।

    नियम-12 विवक्षित संविदा या संबंध- जब कभी पत्रों की या वार्तालापों की आवली से या अन्यथा कई परिस्थितियों से किन्हीं व्यक्तियों के बीच में की कोई संविदा या अन्य सम्बन्ध विवक्षित किया जाना है, तब ऐसी संविदा या सम्बन्ध को तथ्य के रूप में अभिकथित करना और ऐसे पत्रों, वार्तालापों या परिस्थितियों को ब्यौरेवार उपवर्णित किए बिना उनके प्रति साधारणतया निर्देश करना पर्याप्त होगा। और ऐसी दशा में यदि ऐसे अभिवचन करने वाला व्यक्ति ऐसी परिस्थितियों से विवक्षित की जाने वाली एक संविदा या सम्बन्ध से अधिक संविदाओं या सम्बन्धों पर अनुकल्पतः निर्भर करना चाहता है तो वह उनका कथन अनुकल्पतः कर सकेगा।

    विवक्षित संविदा या सम्बन्ध का अभिवचन- नियम 12 में वर्णित विवक्षित संविदा के मामलों में पत्र या पत्रावली का प्रभाव अभिवचनित करना आवश्यक है, न कि पत्रों का पूरा विवरण। ये पत्र तो साक्ष्य का काम देंगे, जिनको अभिवचनित करना आवश्यक नहीं है। इन पत्रों से जो संविदा या अन्य सम्बन्ध विवक्षित किया जाना है, उसी का उल्लेख करना चाहिए।

    कोई संविदा (i) किसी एक दस्तावेज में प्रकट की जा सकती है या (ii) उसे कई दस्तावेजों या बातचीतों या अनेक परिस्थितियों के समूह (आवली) से विवक्षित किया जा सकता है। इन दोनों में से दूसरी परिस्थिति का सम्बन्ध नियम 12 से है, जबकि पहली परिस्थिति में नियम 1 लागू होता है यह ध्यान देने योग्य है। दो पक्षकारों के आचरण की परिस्थितियां उन दोनों के बीच एक बाध्यकारी संविदा को स्थापित कर सकती है, हालांकि औपचारिक रूप से ऐसी कोई संविदा का लिखित प्ररूप उन पक्षकारों द्वारा तैयार नहीं किया गया हो।

    पत्र व्यवहार (पत्रावली) से विवक्षित (प्रकट) होने वालों संविदा के बारे में यह ध्यान देने योग्य है कि जहाँ न्यायालय को पत्र व्यवहार में संविदा का पता लगाना हो और कोई विशेष टिप्पणी या ज्ञापन जब औपचारिक रूप से हस्ताक्षरित नहीं हो, तो उस सम्पूर्ण पत्रावली या पत्र व्यवहार पर विचार करना होगा, जो पक्षकारों के बीच हुआ है। अधूरे या बिखरे पत्रों से ऐसी संविदा का अनुमान लगाना उचित नहीं होगा।

    विवक्षित संविदा के उदाहरण- वाहक को माल से जाने की संविदा एजेंट या लिपिक द्वारा दी गई माल रसीद में; किरायेदारी को संविदा किराया प्राप्त करने व रसीद देने में अन्तर्हित है। भारतीय संविदा अधिनियम के अध्याय 5 में धारा 68 से 72 में विवक्षित संविदाओं का वर्णन किया गया है।

    जब पक्षकारों के आचरण से अन्तर्हित (विवक्षित) संविदा प्रकट होती है- एक वाद में प्रतिवादियों ने पहले एक 'रा' को तम्बाकू की सप्लाई करने के आदेश दिये, परन्तु 'रा' ने वादी को उधार पर प्रतिवादी को सामान देने के लिए राजी कर लिया। वादी का अपने वाद में मामला यह है कि उसने प्रतिवादियों को 630 बोरे तम्बाकू भेजे, परन्तु उसने आंशिक भुगतान ही प्राप्त किया। शेष रु. 90,000/- बाकी रहे, जिनकी वसूली के लिए यह वाद लाया गया।

    यह सत्य है कि इस मामले में वाद पत्र में कोई प्रकट संविदा का, जैसी कि विधि में समझी जाती है; अभिवचन नहीं किया गया है कि-वादी ने स्वयं माल सप्लाई किया, प्रतिवादियों ने उसे वैसा ही स्वीकार किया, प्राप्त किया, वादी को आंशिक भुगतान हुआ और शेष राशि बकाया रही। अतः जो मामला अभिवचनित किया गया यह एक अन्तर्हित (विवक्षित) संविदा का मामला है जैसा कि उसे विधि में कहा जाता है, जो पक्षकारों के आचरण से उत्पन्न होता है, अर्थात्-वादी द्वारा सामान देना और प्रतिवादियों द्वारा उसे लेना।

    प्रतिवादी द्वारा मूल ऋण को स्वीकार कर लिया गया था, केवल ब्याज का बिन्दु विवादित था। चूंकि प्रतिवादी द्वारा मूल ऋण को स्वीकार कर लिया गया है। अतः वादी उस पर 6 प्रतिशत सालाना की दर से साधारण ब्याज पाने का हकदार है।

    जहाँ वादी का यह दावा है कि-विवादग्रस्त कुएँ से प्रतिवादी सिंचाई कर रहे हैं और प्रतिवादीगण उस कुएँ पर ऐसा करने के लिए सुखाचार का दावा करते हैं, तो प्रतिवाद पत्र में उनके खेतों का, अधिष्ठायी सम्पत्तियों के रूप में सर्वे संख्या (खसरा नम्बर) देने की कोई आवश्यकता नहीं है।

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