सिविल प्रक्रिया संहिता,1908 आदेश भाग 18: आदेश 6 नियम 4 के प्रावधान
Shadab Salim
4 Dec 2023 2:28 PM IST
सिविल प्रक्रिया संहिता,1908(Civil Procedure Code,1908) का आदेश 6 अभिवचन से संबंधित है जहां अभिवचन के साधारण नियम दिए गए हैं। इस आलेख के अंतर्गत नियम 4 पर विवेचना प्रस्तुत की जा रही है।
नियम-4 जहाँ आवश्यक हो वहाँ विशिष्टियों का दिया जाना- उन सभी मामलों में जिनमें अभिवचन करने वाला पक्षकार किसी दुर्व्यपदेशन, कपट, न्यास-भंग, जानबूझकर किए गए व्यतिक्रम या असम्यक् असर के अभिवाक् पर निर्भर करता है, और अन्य सभी मामलों में, जिनमें उन विशिष्टियों के अलावा विशिष्टियाँ जो पूर्वोक्त प्ररूपों में उदाहरण-स्वरूप दर्शित की गई हैं, आवश्यक हों अभिवचन में वे विशिष्टियाँ (यदि आवश्यक हों तो तारीखों और मदों के सहित) कथित की जाएँगी।
विशिष्टियों का अर्थ, स्वरूप एवं उद्देश्य "विशिष्टियां" किसी मामले का ऐसा विवरण है, जो किसी पक्षकार ने पेश किया है। इससे वे सब विवरण अभिप्रेत हैं, जो उन सारवान् तथ्यों को समझने, स्पष्ट करने तथा विस्तृत रूप से व्यक्त करने के लिये आवश्यक हो। यह अभिवचन की एक पूर्णतः पृथक अपेक्षा (मांग) है, जो आदेश 6 के नियम 4 व 5 में दी गई है। इनका कार्य वाद हेतुक में ऐसी जानकारी भरना है, जो कि जवाब देने व प्रतिरक्षा करने के लिये प्रतिपक्षी को समर्थ बनाती हो।
विशिष्टिया शब्द की कोई परिभाषा किसी भी अधिनियम में नहीं दो गई है। इसे किसी पक्षकार द्वारा संस्थित किये गये मामले का विस्तृत विवरण कहा जा सकता है। ये अभिवचन का ही एक अंग हैं, इसलिये विशिष्टियां देने का उद्देश्य दूसरे पक्षकार को विचारण के समय चक्ति होने से बचाना है। इसलिये उसे विशिष्टियां द्वारा उस मामले की सूचना दी जाती है, जिसका उसे सामना करना है। इसके इप्ता विचारण में लिये जाने बाले विवाद्यकों को परिभाषित और सीमित कर अनावश्यक व्यय बथाना है।
विशिष्टियां अभिवचन की पूरक (सप्लीमेंट) हैं, अन्यथा के अभिवचन अस्पष्ट और सामान्य रह जाते हैं। इनके द्वारा प्रस्तुत किये जाने वाले मामले की सूचना देकर (निष्पक्ष) विचारण को सुनिश्चित किया जाता है। तात्विक तथ्य जो आधारभूत रेखांकन प्रस्तुत करते हैं, उसे पूरा कर मामले का सम्पूर्ण चित्र विशिष्टियां प्रस्तुत करती हैं। विशिष्ट्रियों में रही किसी भूल या त्रुटि का आदेश 6 के नियम 11 के अधीन न्यायालय की अनुज्ञा लेकर संशोधन किया जा सकता।
निर्वाचन में विशिष्टियों का महत्त्व - लोक प्रतिनिधित्व अधिनियम, 1951 की धारा 123 में आचरण के स्वरूप का वर्णन किया गया है। भ्रष्ट आचरण का पूरा आरोप गठित करने के लिये धारा 81 के अनुसार विशिष्टियों निर्वाचन-अर्जी 3 (क) उन तात्विक तथ्यों का संक्षेप कथन अन्तर्विष्ट होगा, जिन पर अर्जीदार निर्भर करता है, (ख) उसमें ऐसी किसी आचरण को पूरी , जिनका अर्जीदार अभिकथन करता है, उन पक्षकारों के नामों के यथा राज्य पूर्व कथन के सहित जिनकी बाबत यह अभिकथन है कि उन्होंने ऐसा भ्रष्ट आचरण किया है और हर एक ऐसा आचरण किये जाने की तारीख और स्थान उपवर्णित होगा।
इस प्रकार उपरोक्त विशेष प्रावधानों के कारण विशिष्टिया देने में कार्य को निर्वाचन याचिकाओं के अत्यधिक महत्त्व दिया जाता है। सुप्रीम कोर्ट ने कहा है कि इसमें कोई युक्तियुक्त संदेह नहीं हो सकता कि पूरी विसंगतिया देने की अपेक्षा एक ऐसी अपेक्षा है, जिसका पालन करना होगा और पूर्णता (पूरा विवरण) और स्पष्टीकरण देना होगा, ताकि विपक्षी उनका निष्पक्षता से सामना कर सकें और वे ऐसी हो जो अधिकरण के सामने की जांच को एक भटकती हुई और डगमगाती हुई खोज-यात्रा में न बदल दे।
सारवान् तथ्य और विशिष्टियों में अन्तर सारवान तथ्यों और सारवान विशिष्ट्रियों के बीच महत्वपूर्ण अन्तर है, क्योंकि अभिवचन में ऐसे तथ्यों और विशिष्ट्रियों के अभाव के अलग अलग परिणाम हो सकते हैं। एक भी सारवान तथ्य का अभिवचन न किये जाने पर वाद हेतुक अपूर्ण रह जाता है और ऐसे आरोप का अपूर्ण अभिकधन सिविल प्रक्रिया संहिता के आदेश 6, नियम 16 के अधीन रद्द किये जाने के योग्य है।
यदि पिटीशन एकल रूप से उन्हीं आरोपों पर आधारित है, जिनमें सारवान तथ्यों का वर्णन नहीं किया गया है, तो वह पिटीशन वाद हेतुक के अभाव के कारण सरसरी तौर से खारिज किये जाने योग्य है। जब पिटीशन में सारवान् तथ्यों का अभाव हो तो न्यायालय को इस बात का विवेकाधिकार प्राप्त है कि वह पिटीशनर को परिसीमा के अवसान के पश्चात् भी अपेक्षित विशिष्टियां देने की इजाजत दे।
जो प्राथमिक तथ्य किसी वाद हेतुक या प्रतिरक्षा के अस्तित्व को साबित करने के लिये किसी पक्षकार द्वारा विचारण में साबित किये जाने हैं, वे सभी सारवान् तथ्य है। भ्रष्ट आचरण के आरोप के संदर्भ में सारवान् तथ्यों का कथित भ्रष्ट आचरण विशेष के संघटक गठित करने वाले वे सभी आधारभूत तथ्य अभिप्रेत हैं जिन्हें साबित किये बिना पिटीशनर उस आरोप के आधार पर सफल नहीं हो सकता। किसी निर्वाचन पिटीशन में कोई तथ्य विशेष सारवान् है या नहीं और इस प्रकार उसका अभिवचन किया जाना अपेक्षित है या नहीं यह ऐसा प्रश्न है जो लगाये गये आरोप की प्रकृति पर, उस आधार पर, जिसका आश्रय लिया गया हो तथा उस मामले की विशेष परिस्थितियों पर निर्भर है।
संक्षेप में जो बात इसलिये आवश्यक है कि पिटीशनर का वाद हेतुक पूरा हो जाए वे सब तथ्य, सारवान् तथ्य हैं जिनका अभिवचन किया जाना आवश्यक है तथा एक भी सारवान् तथ्य का अभिवचन न किया जाना, धारा 83 (1) (क) के आदेश की अवज्ञा की कोटि में आता है जो संहिता के आदेश 6, नियम 2 का तत्स्थानी है।
दूसरी और विशिष्ठियों उस मामले का विवरण है जो किसी पक्षकार ने पेश किया हो। इसलिये धारा 83 (1) के खण्ड (जो संहिता के आदेश 6 के नियम 4 और के समान है) के अनुसार सारवान् विशिष्टियों से सब विवरण अभिप्रेत है, जो उन सारवान् तथ्यों को समझने, स्पष्ट करने तथा विस्तृत रूप से व्यक्त करने के लिये आवश्यक हो, जो खण्ड (क) की अपेक्षाओं का अनुपालन करते हुए पिटीशन में अभिवचन के रूप में रखे गये हो। विशिष्टियों का प्रयोजन यह है कि जो चित्र आधारभूत रेखांकन के रूप में दिया गया है उसे पूरा किया जाए तथा अधिक विस्तृत और अधिक जानकारी देने वाला बनाया जाय।
तात्विक तथ्यों और विशिष्टियों में अन्तर है। तात्विक तथ्यों शब्द से पता चलता है कि पूर्ण वादहेतुक बनाने के लिये आवश्यक तथ्यों का उल्लेख किया जाना चाहिये। यह भी तात्विक तथ्य के लोप से वादहेतुक अपूर्ण हो जाता है और कथन या वादपत्र दोषपूर्ण हो जाता है। लोक प्रतिनिधित्व अधिनियम की धारा 83 में तात्विक तथ्यों में से शब्द तात्विक का अभिप्रायपूर्ण वादहेतुक बनाने के प्रयोजन के लिये आवश्यक तथ्यों से है और यदि कोई तात्विक तथ्य छोड़ दिया जाता है, तो वह कथन या वादपत्र दोषपूर्ण होता है और उसे काटा जा सकता है।
विशिष्टियों का काम बिलकुल भिन्न है। विशिष्टियों के उपयोग का आशय विजयी अभ्यर्थी के प्रति निष्पक्षता और न्याय की दृष्टि से अधिरोपित तथा अभिवचन की एक और तथा नितान्त पृथक् अपेक्षा को पूरा करना है। उनका काम निर्वाचन-अर्ज़ीदर के वादहेतुक की तस्वीर को ऐसी जानकारी से भरना है, जो विजयी अभ्यर्थी को इस बारे में जानकारी देने के लिये पर्याप्त रूप से विस्तृत हो कि उसे किस मामले का जवाब देना है और वह ऐसे मामले में विचारण के लिये अपने आपको तैयार कर किसी भ्रष्ट आचरण के आधार पर चुनौती दी जा सके, जिसमें उसके निर्वाचन को तात्विक शब्द से ज्ञात होता है कि पूर्ण वादहेतुक बनाने के लिये आवश्यक तथ्यों का उल्लेख किया जाना चाहिये।
एक भी तात्विक तथ्य के लोप से वादहेतुक अपूर्ण रह जाता है और दाने का कथन दोषपूर्ण हो जाता है। विशिष्टियों का काम ऐसी और विस्तृत जानकारी से, जो कि विरोधी पक्षकार को उस मामले को समझने में मदद करे जिसका उसे जवाब देना है; वादहेतुक की तस्वीर को पूर्णरूपेण उपस्थित करना है। जो अन्तर तात्विक तथ्यों और विशिष्टियों में किया गया है, उसका उल्लेख लाई जस्टिस स्काट ने ब्रूस बनाम ओडहम्स प्रेस लिमिटेड वाले मामले में निम्नलिखित रूप में किया है-
नियम 4 में समन्वयात्मक उपबन्ध यह है कि दावे के कथन में तात्विक तथ्यों का उल्लेख किया जाना चाहिये। तात्विक शब्द से पूर्ण वादहेतुक बनाने के प्रयोजन के लिये आवश्यक अभिप्रेत है और यदि किसी एक तात्विक तथ्य का लोप कर दिया जाता है तो दावे का कथन दोषपूर्ण होगा। पुरानी पदावली में इसे आपत्तिजनक कहा जाता है और नई शब्दावली में आदेश 25 नियम 4 (= आदेश 6, नियम 16 सिविल प्रक्रिया संहिता) के अधीन इसे निकाल दिया जाना चाहिये।