सिविल प्रक्रिया संहिता,1908 आदेश भाग 16: आदेश 6 नियम 3 के प्रावधान

Shadab Salim

3 Dec 2023 9:15 AM IST

  • सिविल प्रक्रिया संहिता,1908 आदेश भाग 16: आदेश 6 नियम 3 के प्रावधान

    सिविल प्रक्रिया संहिता,1908(Civil Procedure Code,1908) का आदेश 6 अभिवचन से संबंधित है। इस आदेश में अभिवचन के साधारण सिद्धांत दिए हैं। प्रस्तुत इस आलेख के अंतर्गत आदेश 6 के नियम 3 पर विवेचना प्रस्तुत की जा रही है।

    नियम-3. अभिवचन का प्रारूप- जब वे लागू होने योग्य हों तब परिशिष्ट क में के प्रारूप और जहाँ वे लागू होने योग्य न हों वहां जहां तक हो सके, लगभग वैसे ही प्रारूप सभी अभिवचनों के लिए प्रयुक्त किए जाएंगे।

    अभिवचन की विधि का यह पहला आधारभूत नियम है कि- अभिवचन में केवल तथ्यों का कथन किया जाए, न कि विधि का। इससे तात्पर्य यह है कि अभिवचन में (1) विधि के उपबन्धों (प्रावधानों) या (i) विधि के परिणामों या (ii) विधि और तथ्य के मिश्रित परिणामों का उल्लेख नहीं करना चाहिए। हालांकि संहिता में कहीं भी इस नियम को स्पष्ट रूप से नहीं बताया गया है, किन्तु यह आदेश 6 के नियम 2(1) का एक अन्तर्निहित नियम है। नियन 2 (1) में कहा गया है कि अभिवचन में केवल तथ्यों का, तात्विक तथ्यों का संक्षित कथन होगा। इसका स्वाभाविक परिणाम यह है कि उसमें तथ्यों के अलावा और कुछ नहीं होगा न विधि (कानून) का कथन होगा, न विधि के परिणामों या प्रभाव का। इस नियम को विभित्र न्यायालयों ने एक स्थापित सिद्धान्त मान लिया है, परन्तु फिर भी सबसे अधिक इसी नियम का अभिवचन में भंग किया जाता है, उसे भुला दिया जाता है।

    विधि पर विचार करना न्यायालय का कर्तव्य-

    अभिवचन के प्रारूपण में पक्षकारों और उनके वकील का यह कर्तव्य है कि वे अपने सम्पूर्ण मामले के मुख्य मुख्य तथ्यों या घटना क्रम, का अपने अभिवचन में कथन करे और अन्य बातों अर्थात् विधि या साक्ष्य का कथन नहीं करें, तो न्यायालयों का भी यह परम कर्तव्य है कि वे उन तथ्यों के आधार पर उस विधि के प्रावधानों का पता लगायें और उनको उन तथ्यों पर लागू कर पक्षकारों को उचित अनुतोष (सहायता) प्रदान करें। पक्षकार केवल अनुतोष की मांग या दावा करता है, पर न्यायालय का कर्तव्य है कि वह उस विधि की खोज करे और पता लगावे जिसके आधार पर किसी पक्षकार का वह मांगा गया अनुतोष दिया जा सके। यदि पक्षकार किसी अधिनियन या नियम का उल्लेख नहीं करता है या यह किसी गलत अधिनियम या गलत नियम का उल्लेख करता है, तो भी इससे न्यायालय को अपने कर्तव्य पालन से छुटकारा नहीं मिल सकता और न्यायालय को सही अधिनियन या नियन का, जैसा उस मामले के तथ्यों के अनुसार उचित हो, प्रयोग करना होगा; पक्षकार को राहत (अनुतोष) देनी होगी।

    यह सोचना भूल है कि एक न्यायाधीश विधि के दृष्टिकोण पर विचार नहीं करेगा। न्यायालय को विधि के उन सभी अभिवाक् या तथ्यों का स्वयं प्रयोग करना होगा, जो उन तथ्यों पर लागू हो सकते हैं। उसे यह प्रतीक्षा नहीं करना चाहिये कि पक्षकार उसे विधि सम्बन्धी सुझाव दे, फिर अभिवचन में उस विधि के उपबन्धों का उल्लेख करने का तो प्रश्न ही नहीं उठता; क्योंकि ऐसा करना संहिता द्वारा वर्जित है। तथ्यों पर लागू होने वाले विधि के प्रश्न की परीक्षा करने के लिये इसलिए मना करना कि पहले उनका अभिवचन नहीं किया गया, यह उस न्यायालय के लिये स्वयं की भर्त्सना करना होगा क्योंकि उसे इस बात को पहले ही देखना चाहिये था। परन्तु, जैसे तैसे, उसे अपने स्वयं के अज्ञान के इस परिणाम को तुरन्त ठीक कर लेना चाहिये, जब कि पक्षकार उसे इसकी याद दिलाता है।

    न्यायालय सभी प्रकाशित अधिनियनितियों (कानून) पर न्यायिक ध्यान देने के लिये बाध्य है, चाहे उनका अभिवचन में उल्लेख नहीं किया गया हो। भारतीय साक्ष्य अधिनियम, 1972 की धारा 36 के अनुसार न्यायिक रूप से अवेक्षणीय (ध्यान देने योग्य) तथ्य साबित करना आवश्यक नहीं है, जिनका धारा 51 में उल्लेख किया गया है। धारा 57 के सविस्तार से अनेक बातें बताई गयी हैं, जिसका खण्ड (1) इस प्रकार है-

    (1) भारत के राज्य क्षेत्र में प्रवृत समस्त विधियां,

    अतः न्यायालय भारत के राज्य क्षेत्र में प्रवृत (लागू) समस्त विधियों की न्यायिक अपेक्षा (Judicial notice) करेगा। इस प्रकार विधियों का अभिवचन में उल्लेख करना आवश्यक नहीं है।

    विशुद्ध विधि-प्रश्न उठाने के लिये संशोधन आवश्यक नहीं परिसीमा का अभिवचन जो बिना किसी साक्ष्य के साबित किया जा सकता है और वादपत्र को देखने से ही स्पष्ट हो जाता है, वाद के किसी प्रक्रम पर उठाने दिया जा सकता है। इसी प्रकार धारा 82 (ख) लोकप्रतिनिधित्व अधिनियम की अपेक्षा के अनुपालन सम्बन्धी आपत्ति इसी कोटि का अभिवचन है; जो पिटीशन में किये गये आरोपों के अर्यान्वयन पर निर्भर किसी किशुद्ध विधि प्रसन से पैदा होता है और उसे तय करने के लिये साक्ष्य की अपेक्षा नहीं होती। अतः ऐसा अभिवचन लिखित-कथन के औपचारिक संशोधन के बिना किसी भी समय उठाया जा सकता है।

    वाद प्रश्न बनाना- विवाद्यक (वाद प्रश्न) बनाते समय यह न्यायालय का कर्तव्य है कि वह तथ्यों पर प्रश्न बनावे। क्योंकि पक्षकार विधि का अभिवचन करने के लिये बाध्य नहीं है।

    प्रतिकूल आधिपत्य (कब्जा) के द्वारा स्वत्व (टाइटल) के कथन का विशेष रूप से अभिवचन करने की आवश्यकता नहीं हैं। यह विधि का प्रश्न है। वादपत्र में प्रतिवादी पर सर्वस्व आदाता के रूप में दायित्व को आधारित किया गया है, तो यह नहीं कहा जा सकता कि अभिवचन में सम्पत्ति अन्तरण अधिनियम की धारा 125 के अधीन कोई कथन नहीं उठाया गया और इसलिये प्रतिवादी पर धारा 128 के अधीन दायित्व नहीं बांधा जा सकता।

    अभिवचन में नहीं उठाये गये शुद्ध विधि के प्रश्न पर अपील में विचार किया जा सकता है, परन्तु तथ्य के प्रश्न पर नहीं, जिसके निर्णय के लिये अन्वेषण आवश्यक होता है।

    एक दान पत्र के उद्देश्य की अवैधता का प्रश्न अभिवचन में नहीं दिया गया, परन्तु उस दानपत्र को चुनौती देने वाले पक्षकार को अवैधता के आधार पर निर्भर करने से प्रवारित (विलग) नहीं किया जा सकता, जब कि अभिलेख पर आये हुए तथ्य उस अवैधता को स्पष्ट रूप से प्रकट करते हो।

    अभिश्चन में विधि का अभिवाक् (तर्क) आवश्यक नहीं दूसरे पक्षकार के मामले के समर्थन में साक्ष्य विश्वसनीय नहीं है -ऐसा कथन किसी भी समय उठाया जा सकता है। इसके लिये अभिवचन में संशोधन करने की आवश्यकता नहीं है, अन्यथा बाद का विचारण इतना असुविधाजनक हो जायेगा, क्योंकि ऐसा कथन करने के लिये पक्षकार को कदम-कदम पर अपने अभिवचन में संशोधन कर अपने मामले को सुस्थिर करना होगा। सिविल प्रक्रिया अनुध्यात नहीं करती और व्यवहार में यदि ऐसा किया गया, तो यह अत्यन्त भारी पड़ेगा और अत्यधिक विलम्ब ही नहीं, कई मामलों में गम्भीर अन्याय भी होगा।

    अभिवचन के नियम -(1) अभिवचन में विधि-प्रश्न का व्यवहार (deal) करने की आवश्यकता नहीं है।

    (2) अभिवचन में कानून की सही भाषा का प्रयोग करने की आवश्यकता नहीं है, जिस पर अभिवाक् (कथन/श्री) या प्रतिरक्षा आधारित है।

    वाद के संधारणीय (चलने योग्य) नहीं होने का कथन- यह एक विधिक-कथन है, जिसे स्वीकार किया जा सकता है; चाहे ऐसा विशिष्ट कथन नहीं किया गया हो और न ही कोई स्पष्ट विवाद्यक (वाद प्रश्न) ही बनाया गया हो।

    स्थापित तथ्यों के आधार पर न्यायालयों को पक्षकारों के अधिकारों का विनिश्चय करना होता है। इस मामले में अभिवचन में कोई सारवान् भिन्नता नहीं है। जो कुछ अभिवचन करना है, वे तथ्य हैं, विधि नहीं। यदि विधि के प्रभाव को सम्मिलित कर दिया है, तो कोई हानि नहीं है; परन्तु कोई शिकायत नहीं की जा सकती कि विधि के किसी विशेष उपबन्ध को प्रसंग नहीं दिया गया है। जहां अभिवचन में दिये गये तथ्य किसी विशेष विधि से आवृत हो जाते हैं, तो उस विधि का उल्लेख करने की आवश्यकता नहीं है। प्रतिकूल कब्जे का कथन हालांकि विशेष रूप से अभिकथित नहीं किया गया, परन्तु वह एक विवाद्यक से आवृत हो जाता है, अतः उस पर विचार किया जा सकता है। जब एक विवाद्यक बन कर उस पर साक्ष्य ले लिया गया, तो पक्षकारों को उस बारे में पूरी जानकारी थी। अतः विशिष्ट अभिवचन के अभाव में भी उनको कोई प्रतिकूलता नहीं मानी गई।

    बुरा अभिवचन-वादी को कोई अधिकार प्राप्त है, जिसके कारण प्रतिवादी का कर्तव्य उत्पन्न होता है और उस अधिकार के हनन या उस कर्तव्य के पालन नहीं करने से ही विवाद उत्पन्न होता है और वादी अनुतोष पाने के लिये न्यायालय के द्वार खटखटाता है। इसलिये यह वादी का कर्तव्य है कि वह उन सब तथ्यों या घटनाओं का अभिवचन करे, जिनसे वह अधिकार प्राप्त हुआ और किस प्रकार प्रतिवादी ने उसका हनन किया या प्रतिवादी ने उस अधिकार से सम्बन्धित कर्त्तव्य का पालन नहीं किया। इस प्रकार के तथ्य तात्विक या सारवान तथ्य कहलाते हैं, जिनका अभिवचन नहीं करने से अभिवचन बुरा हो जाता है। इन तथ्यों से ही विधि के उपबन्ध आकर्षित होते हैं, जिनको विधि सम्बन्धी परिणाम ढूंढकर न्यायालय पक्षकारों को अनुतोष प्रदान करता है। अतः तथ्यों का अभिवचन करना चाहिये, विधि के परिणामों व उपबन्धों का नहीं।

    (3) तथ्य और विधि का मिश्रित प्रश्न-अभिवचन आवश्यक निस्संदेह विधि का शुद्ध प्रश्न बिना किसी अभिवचन के किसी भी प्रक्रम पर उठाया जा सकता है, परन्तु एक तथ्य और विधि के मिश्रित प्रश्न को स्वीकार करना उचित नहीं होगा; जबकि विधि का प्रश्न आवश्यक रूप से कुछ तथ्यों पर निर्भर करता है जिनको उचित रूप से अधिकथित करना आवश्यक है।

    विधि और तथ्य का मिश्रित प्रश्न- एक विक्रय पत्र के निष्पादन के बारे में यह प्रश्न उठाया गया कि वह विक्रयपत्र मिथ्या व्यपदेशन द्वारा प्राप्त किया गया था। परन्तु ऐसे अभिवचन के अभाव में विधि और तथ्य का यह प्रश्न अपीलार्थी द्वारा नहीं उठाया जा सकता है।

    विधि के वे उपबन्ध (प्रावधान) जिनके अधीन कोई वाद संस्थित किया गया है, उनको दर्शित करने की आवश्यकता है। वाद के शीर्षक में विधि के उपबन्ध का उल्लेख करने में हुई भूल या त्रुटि के कारण से ही उस आवेदन-पत्र को खारिज नहीं किया जा सकता।

    सुप्रीम कोर्ट ने अभिनिधर्धारित किया है कि पुनर्वास के बारे में कोई स्पष्ट अभिवचन नहीं किया गया, परन्तु जब तथ्यों से पुनर्वास का अनुमान लगाया जा सकता है तो इससे प्रतिपक्षी को हानि नहीं हुई। अतः इसे उचित माना गया।

    विधिक कथन तथा विधि के प्रश्न या विवाद्यक-विधिक आपत्तियों-

    इस नियम द्वारा एक वाद में उठाये जाने वाले विधिक कथनों या तकों को वर्जित (मना) नहीं किया गया है। प्रतिपक्षी द्वारा मांगे गये विधिक अधिकार का प्रत्याख्यान (अस्वीकार) करने के लिये उठाये गये कथनों को अभिवचन में सम्मिलित करने की अनुमति है।

    जैसे- (1) वादो सम्बन्ध बताते हुए तथ्यों के द्वारा उत्तराधिकारी होने की मांग करें, तो प्रतिवादी सम्बन्ध को स्वीकार करते हुए भी कह सकता है कि वादों मृतक का उत्तराधिकारी नहीं है।

    (2) यदि बेदखली के एक वाद में प्रतिवादी मकान मालिक के स्वामित्व को स्वीकार नहीं करता है, तो वादी साक्ष्य अधिनियम की धारा 116 के अधीन विबन्ध का अभिवचन कर सकता है।

    (3) वाद संधारणीय नहीं है, इसके लिये पूर्वन्याय, वाद को रोकना (स्थगन) या परिसीमा, अधिकारिता आदि विधिक प्रश्न उठाये जा सकते हैं।

    इस प्रकार उठाये गये प्रश्नों को 'विधि आपत्तियों' कहा जाता है, जिनके आधार पर 'विधि के विवाद्यक' बनकर निर्णय किया जाता है। इस प्रकार के विधि सम्बन्धी कथन अभिवचन में अनुज्ञेय हैं, सम्मिलित किये जा सकते हैं। इनके लिये 'तथ्य हो, विधि नहीं' का नियम लागू नहीं होता है।

    अधिकारिता सम्बन्धी तथ्य-

    विवाद का निर्णय करने के लिए कुछ तथ्य ऐसे होते हैं, जिन पर न्यायालय या प्राधिकारी को अधिकारिता निर्भर करती हैं, ऐसे तथ्यों को 'अधिकारिता सम्बन्धी तथ्य' या 'सांपारिवंक तथ्य' कहते हैं। ऐसे तथ्यों का अभिवचन करना होगा।

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