घरेलू हिंसा अधिनियम (DV Act) में पीड़ित महिला द्वारा निवास करने के लिए दावा

Shadab Salim

11 Oct 2025 9:58 AM IST

  • घरेलू हिंसा अधिनियम (DV Act) में पीड़ित महिला द्वारा निवास करने के लिए दावा

    इस एक्ट में घरेलू हिंसा से पीड़ित कोई भी महिला घर में निवास करने का दावा भी कर सकती है। श्रीमती विजया वसन्त सावन्त बनाम शुभांगी शिवलिंग परब, 2013 के वाद में आवेदन में लगाये गये विभिन्न आरोप अस्पष्ट हैं एवं अभिकथन में प्रत्यर्थी संख्या-2 से 4 के विरुद्ध प्रताड़ना का कोई स्पष्ट कृत्य अन्तर्विष्ट नहीं है। आरोप प्रत्यर्थी संख्या-1 एवं पति को प्रताड़ित करने के लिए उकसाने और दहेज की मांग तक ही सीमित है। सत्र कोर्ट ने इसे भी इंगित किया कि सभी दृष्टान्त सितम्बर, 2004 को अवधि से सम्बन्धित हैं जब याची ने वैवाहिक गृह छोड़ दिया था।

    इसके बाद किसी प्रकार की कोई घटना का आरोप नहीं है। यह मत है कि यद्यपि वर्ष 2006 में अधिनियम लागू हुआ याची साधारण विधि चाहे वह सिविल हो या आपराधिक कार्यवाही के अधीन किसी का सहारा लेने में स्वतन्त्र था। अग्रेतर, याची द्वारा परिवाद दाखिल करने में तीन वर्षों के विलम्य को स्पष्ट नहीं किया गया था। स्पष्ट रूप से, शिकायत का दाखिल किया जाना पति द्वारा तलाक याचिका का प्रतिशोध है।

    शिकायत का परिशीलन सत्र कोर्ट द्वारा लिये गये मत का समर्थन करता है इसमें किया गया आरोप अस्पष्ट है और किसी आवश्यक विशिष्टियों से विहीन है। इसके अलावा याची शिकायत दाखिल करने से पहले चार वर्ष से अधिक समय से पति से दूर रह रही है जो तथ्य विचारण कोर्ट द्वारा विचारित नहीं किया गया बोरीवली स्थित प्रत्यर्थी सं० 1 के घर के लिए याची द्वारा किये गये दावे के सम्बन्ध में सत्र न्यायाधीश ने यह उचित रूप से धारित किया था कि याची का इसमें कोई हक नहीं है चूँकि उसके पति का इसमें स्वयं कोई विधिक अधिकार नहीं है।

    अधिनियम की धारा 19 के अधीन मजिस्ट्रेट अधिनियम की धारा 12 (1) के अधीन आवेदन को निस्तारित करते समय व्यथित व्यक्ति के पक्ष में निवास का आदेश पारित कर सकता है। अधिनियम की धारा 19 (1) (ग) प्रावधान के अलावा अधिनियम की धारा 19 (1) के अन्य सभी खण्डों के अधीन प्रत्यर्थी के विरुद्ध आदेश पारित किया जा सकता है परन्तु अधिनियम की धारा 19 (1) (ग) के अधीन मजिस्ट्रेट प्रत्यर्थी या उसके किसी नातेदार को साझी गृहस्थी के किसी भाग में जहाँ व्यथित व्यक्ति रहता है, अवरुद्ध करने का आदेश पारित कर सकती है। परन्तु धारा 19 (1) का परन्तुक मजिस्ट्रेट को साझी गृहस्थी से महिला को हटाने के लिए किसी आदेश को पारित करने से निरुद्ध करता है।

    विधानमण्डल ने अनुज्ञप्ति किया कि धारा 19 को उपधारा (1) के अधीन निवास आदेश किसी महिला के विरुद्ध भी पारित किया जा सकता था, जो धारा 2 (थ) के परन्तुक में निर्दिष्ट पति या पुरुष भागोदार की नातेदार है इसलिए, उपधारा (1) के परन्तुक को उपखण्ड (ख) के अधीन पति या पुरुष भागीदार के महिला नातेदार को बेकब्जा करने से निवारित करने के लिए अधिनियमित किया गया है।

    कोर्ट को उनके दृष्टिकोण में, कब्जे के लिए वाद को विचारित और टालते समय, जो वादी पुत्रवधू के विरुद्ध निर्दिष्ट है, जो प्रभाव में हैं, सावधान रहना होगा या साझी गृहस्थी में निवास के अन्य अधिकार, परेशान करने वाले भ्रम होंगे जो विधि गृहत रूप से वचन देती है किन्तु कभी-कभार, यदि कभी, प्रयोज्यनीय होती है। वास्तव में पुत्रों के स्वामित्व को जनसूचना या विज्ञापन द्वारा समाप्त करने को हल्के में नहीं लिया जाता। उदाहरण के लिय, भले पुत्र चाहे माता-पिता में से किसके द्वारा स्वामित्वविहीन किया जाता है तो माता-पिता की मृत्यु यदि निर्वसीयता की स्थिति में हुई है तो सम्पत्ति का स्वामित्व पुत्र की ओर अग्रसरित हो जायेगा। वास्तव में, केवल उद्घोषणा का, सभी विधि पूर्ण संगत पारिवारिक सम्बन्ध को तोड़कर कोई विधिक प्रभाव नहीं होता।

    साझी गृहस्थी का कब्जा धारा 19 की उपधारा (1) के खण्ड (क) के अधीन प्रत्यर्थी को व्यथित व्यक्ति को साझी गृहस्थी में कब्जे को व्यवधानित करने से अवरुद्ध किया जा सकता है भले ही प्रत्यर्थी का साझी गृहस्थी में विधिक या साधारण रूप से हित हो या न हो। ऐसे मामले में जहाँ व्यथित व्यक्ति धारा 2 (थ) के परन्तुक में निर्दिष्ट पत्नी या महिला हो, वहाँ यदि पति या पुरुष भागीदार का मात्र पुरुष नातेदार ही शामिल था तो उपखण्ड (क) के अधीन निवास का आदेश कोई उद्देश्य नहीं पूरा करेगा एवं अर्थहीन हो जायेगा इस प्रकार आदेश पति या पुरुष भागीदार के महिला नातेदार जो साझी गृहस्थी में रह रही है, को आबद्ध नहीं करेगा। यही बाद उपधारा (1) के खण्ड (ग) के अधीन निवास आदेश से सम्बन्धित है।

    जहाँ घरेलू हिंसा के सभी आवश्यक तत्व साबित थे एवं पत्नी किराये के मकान में रह रही थी एवं पति किसी अन्य स्त्री साथ रह रहा था जिससे उसका विवाहेत्तर सम्बन्ध था, पत्नी उस मकान के किराये की हकदार थी जहाँ वह रह रही थी।

    मजिस्ट्रेट द्वारा आवेदन का निस्तारण अधिनियम की धारा 19, मजिस्ट्रेट द्वारा, धारा 12 की उपधारा (1) के अधीन किये गये आवेदनों के निस्तारण को प्रावधानित करती है। धारा 19 की उपधारा (1) के अधीन, मजिस्ट्रेट खण्ड (ख) के अधीन आदेशों के अलावा किसी महिला के विरुद्ध कोई आदेश पारित कर सकता है। जबकि धारा 19 की उपधारा (1) का परन्तुक धारा 19 (1) (ख) के अधीन किसी व्यक्ति जो महिला है, के विरुद्ध आदेश पारित करने से प्रतिबन्धित करती है। अन्य शब्दों में धारा 19 (1) (ख) के अधीन, निवास आदेश के अलावा, मजिस्ट्रेट को, पति के नातेदार जिसमें महिला भी शामिल है, के विरुद्ध धारा 19 (1) (ग) के अधीन अर्थात् प्रत्यर्थी या उसके नातेदार से साझी गृहस्थी जिसमें व्यथित व्यक्ति निवास करता है उसके किसी भाग में प्रवेश करने से प्रतिबन्धित करने के लिए आदेश पारित करने के लिए सक्षम बनाती है।

    उदाहरण के लिए, यदि व्यथित व्यक्ति अपने पति के साथ संयुक्त परिवार द्वारा स्वामित्व के घर में, प्रत्यर्थी के माता-पिता, भाई बहन, यदि हों, को शामिल करते हुए, रहती है चाहे प्रत्यर्थी, कोई विधिक या साम्यापूर्ण हित रखता है या हक रखता है या नहीं, यह व्यथित व्यक्ति को बेकब्जा करने से रोका जा सकता है। यदि सम्पत्ति व्यथित व्यक्ति के ससुराल वालों के नाम की हो, संयुक्त परिवार के बीच बंटवारा हो चुका हो एवं उसका एक भाग प्रत्यर्थी के कब्जे में हो तो जिसके नाम पर, अर्थात् प्रत्यर्थी के नातेदार, यो सम्पत्ति हो, को भी सम्पत्ति से व्यथित व्यक्ति को कब्जा करने या साझी के किसी भाग में जिसमें व्यथित व्यक्ति रहता है प्रवेश करने से अवरुद्ध किया जा सकता है। अग्रेतर धारा 19 की उपधारा (8) के अधीन यदि व्यथित व्यक्ति को उसके स्त्रीधन के रूप में निवास गृह प्रदान किया गया था, जो पति के नातेदारों के अध्यासन में है या मूल्यवान प्रतिभूति नामतः सोने के आभूषण इत्यादि, जो कि पति के महिला नातेदार के कब्जे में हो उसे वापस करने का निर्देश दे सकती है।

    घरेलू हिंसा के बाद के दाखिले की तिथि पर पुरुष एवं स्त्री के बीच व्यथित व्यक्ति एवं प्रत्यर्थी के विधिक सम्बन्ध का अस्तित्व घरेलू हिंसा के बाद की पोषणीयता के लिए अनिवार्य नहीं है न ही यह आवश्यक है कि घरेलू हिंसा का कृत्य अधिनियम के लागू होने के बाद हो।

    किशोर श्रीरामपंत काले बनाम शालिनी किशोर काले, 2010 के वाद में यह विवादित नहीं है कि दोनों प्रत्यर्थी वर्ष 1996 से कई कार्यवाहियों में पारित कोर्ट के आदेश के अनुसार भरण-पोषण प्राप्त कर रहे हैं, एवं इस प्रकार यह कहना कि याची ने किसी भरण-पोषण का भुगतान न करके घरेलू हिंसा कारित किया है, उचित नहीं है। प्रत्यर्थी द्वारा जो चाहा गया है वह यह है कि प्रत्यर्थी जीविका की बढ़ती कीमत के कारण भरण-पोषण की उच्चतर राशि चाहती है परन्तु अभिलेख पर यह शिकायत प्रदर्शित करने के लिए कुछ भी नहीं है कि भरण-पोषण की उच्चतर राशि किसी अच्छे कारण के लिए उनसे मांगी गयी थी एवं ऐसी मांग को मानने से उसने इन्कार या लोप किया था किराये के लिये भी यही मामला है।

    चूंकि यह स्वीकृत तथ्य है कि परिवाद में इस आशय का कोई भी कथन नहीं है कि दोनों के द्वारा याची के घर में जगह की मांग की गयी थी या याची ने कोई ऐसा कृत्य किया था जिससे वे निवास से वंचित हुए हो एवं/या उसमें विफलता के कारण उसके बदले वास स्थान के किराये के पारिणामिक भुगतान के हकदार थे। 2005 के अधिनियम की धारा 3 के उपखण्ड (ग) के स्पष्टीकरण 1 (iv) को देखते हुए यह प्रदर्शित करता है कि संसाधनों जिसका प्रयोग एवं उपयोग करने के लिए व्यथित व्यक्ति हकदार है, उस पर अनवरत रोक या प्रतिबन्ध होना चाहिए।

    याची द्वारा कहीं भी परिवाद में किसी प्रकार का यह कथन नहीं है कि उसने उसके प्रयोग के लिए पूर्णतया या अंशत: कोई प्रतिबन्ध लगाया था न ही परिवाद दाखिल करने के ठीक पहले या परिवाद के ठीक बाद प्रत्ययोगण द्वारा उसकी अनवरतता याची द्वारा खण्डित की गई थी। इसके विपरीत, यह स्वीकृत स्थिति है कि विगत 15 वर्षों से उनके बीच कोई सम्बन्ध या नातेदारी नहीं रही है।

    एक मामले में जहाँ पत्नी नर्संरी विद्यालय में अध्यापिका की तरह कार्य कर रही थी एवं ट्यूशन पढ़ाकर अपनी आय की वृद्धि कर रही थी यदि पति ने पत्नी को ट्यूशन पढ़ाने से रोक दिया हो और परिसर के लिए प्रश्नगत किराया दे रहा हो और वह घर में किसी और व्यक्ति को पसन्द न करता हो, तो पत्नी आय कि हानि के लिए रु० 10,000 पाने की हकदार होगी।

    समीर विद्यासागर भरद्वाज बनाम नन्दिता समीर भरद्वाज के मामले में पत्नी पति के विरुद्ध वैवाहिक घर से बाहर चले जाने और घर का खाली तथा शान्तिपूर्वक कब्जा सौंपने के लिए आज्ञापक व्यादेश जारी करने के लिए प्रार्थना कर रही है। पति घर के सहस्वामी के रूप में पत्नी अपनी माँ के साथ संयुक्त रूप से फ्लैट की स्वामिनी पुत्रियों का शपथ पत्र माँ का समर्थन करता था। पत्नी विमान परिचारिका के रूप में कार्य कर रही थी। व्यथित पक्षकार को अविक्षुब्ध निवास प्रदान किया था। अभिनिर्धारित यह कि, मजिस्ट्रेट, का यह समाधान हो जाने पर कि घरेलू हिंसा घटित हुई है, दम्पत्ति को साझी गृहस्थी से हटा सकता है।

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