सिविल प्रक्रिया संहिता, 1908 आदेश भाग 99: आदेश 20 नियम 13 के प्रावधान

Shadab Salim

24 Jan 2024 4:45 AM GMT

  • सिविल प्रक्रिया संहिता, 1908 आदेश भाग 99: आदेश 20 नियम 13 के प्रावधान

    सिविल प्रक्रिया संहिता,1908(Civil Procedure Code,1908) का आदेश 20 निर्णय और डिक्री है। इस आदेश का नियम 13 प्रशासन वाद में डिक्री से संबंधित है। प्रशासन अर्थात किसी संपत्ति को नियमित करने से है। इस आलेख के अंतर्गत विस्तार से नियम 13 पर चर्चा की जा रही है।

    नियम-13) प्रशासन वाद में डिक्री- (1) जहां वाद किसी सम्पत्ति के लेखा के लिए और न्यायालय की डिक्री के अधीन उसके सम्यक् प्रशासन के लिए है, वहां न्यायालय अन्तिम डिक्री पारित करने के पूर्व ऐसे लेखाओं के लिए जाने और जांचों के किए जाने का आदेश देने वाली और ऐसी अन्य निदेश देने वाली जो न्यायालय ठीक समझे, प्रारम्भिक डिक्री पारित करेगा।

    (2) किसी मृत व्यक्ति की सम्पत्ति का न्यायालय द्वारा प्रशासन किए जाने में, यदि ऐसी सम्पत्ति उसके ऋणों और दायित्वों के पूरे संदाय के लिए अपर्याप्त साबित हो तो, प्रतिभूत और अप्रतिभूत लेनदारों के अपने-अपने अधिकारों के बारे में और ऐसे ऋणों और दायित्वों के बारे में जो साबित किये जा सकते हैं और वार्षिकियों के और भावी और समाश्रित दायित्वों के मूल्यांकन के बारे में क्रमश: उन्हीं नियमों का अनुपालन किया जाएगा, जो न्यायनिर्णीत या घोषित दिवालिया व्यक्तियों की सम्पदाओं के बारे में उस न्यायालय की स्थानीय सीमाओं के भीतर तत्समय प्रवृत्त हो जिनमें प्रशासन वाद लम्बित है और वे सभी व्यक्ति जो ऐसे किसी मामले में ऐसी सम्पत्ति में से संदाय पाने के हकदार होंगे, प्रारम्भिक डिक्री के अधीन आ सकेंगे और उस सम्पत्ति के विरुद्ध ऐसे दावे कर सकेंगे जिनके लिए वे इस संहिता के आधार पर क्रमश: हकदार हैं।

    नियम 13 प्रशासन वाद में डिक्री पारित करने का तरीका बताता है।

    वसीयत (विल) कर्ता जिस व्यक्ति या जिन व्यक्तियों को उसकी मृत्यु के बाद वसीयत में दी गई व्यवस्था के संचालन के लिए नामांकित करता है उसे "निष्पादक एवं व्यवस्थापक" कहते हैं; परन्तु जब ऐसे निष्पादक को वसीयत में नामांकित नहीं किया जाए, तो न्यायालय किसी व्यक्ति की स्वीय विधि के अनुसार उस सम्पत्ति का "प्रशासक" (Administrator) नियुक्त करता है। निर्वसीयतीय (बिना वसीयत किये) मृत्यु के मामले में न्यायालय बाद के दौरान "प्रापक" (Receiver) नियुक्त कर सकता है।

    इस प्रकार किसी मृतक की सम्पत्ति के प्रशासन की व्यवस्था की जाती है, जिसमें निम्नलिखित तीन बातें होती हैं-

    1) उसके अन्तिम संस्कार के व्यय का संदाय करना।

    (2) इसके बाद उसके ऋणों का चुकता, यदि कोई हो,

    (3) फिर उसकी वसीयत (यदि कोई हो) के अनुसार वसीयत सम्पदा (legacies) का संदाय करना और फिर अवशिष्ट संपदा का अवशिष्ट वसीयतदारों में वितरण करना या-वसीयत नहीं होने पर, उसके उत्तराधिकारियों (वारिसों) में उस मृतक की शेष सम्पत्ति का वितरण (बंटवारा) करना।

    प्रशासन वाद कौन संस्थित कर सकता है-

    (1) मृतक व्यक्ति के लेनदार या ऋणदाता (Creditors) द्वारा जब कि उनके दावों का भुगतान उस मृतक के विधिक प्रतिनिधियों द्वारा नहीं किया गया हो,

    (2) एक वसीयतदार द्वारा, (चाहे वह विनिर्दिष्ट हो या धनीय वसीयतदार) जहां उस वसीयतदार को मृतक व्यक्ति विधिक प्रतिनिधियों द्वारा वसीयत सम्पदा का संदाय नहीं किया गया हो;

    (3) मृतक के उत्तरजीवियों द्वारा, मृतक की सम्पत्ति में अपने हिस्से के लिए

    (4) किसी निष्पादक या प्रशासक द्वारा, जहां मृतक द्वारा पीछे छोड़ी गयी सम्पत्ति या धनराशि के बारे में उत्तरजीवियों में उनके अधिकार या हिस्से के बारे में कोई विवाद हो।

    किसी ऋणदाता द्वारा यदि डिक्रीदार के रूप में वाद लाया जाता है, तो यह डिक्री निष्पादन के योग्य होनी चाहिये। परिसीमाकाल से बाधित डिक्री के आधार पर ऐसा वाद संधारणीय नहीं होगा। प्रशासन बाद में, चाहे वह ऋणदाता द्वारा किया जाए या उत्तराधिकारी द्वारा, उसमें यह दावा करना आवश्यक है-

    (1) मृतक की सम्पत्ति जहां कहीं भी हो, उसे एकत्रित किया जाए।

    (2) मृतक के विरुद्ध बकाया ऋणों का भुगतान किया जावे।

    (3) उन क्रमों के चुकारे के बाद शेष सम्पत्ति में विभिन्न पक्षकारों के हिस्से निर्धारित किये जावें और उसके अनुसार उस शेष सम्पत्ति का पूरा लेखा किया जावे। यह केवल तभी हो सकता है, जब कि उस सम्पत्ति का पूरा लेखा किया जावे। एक मुसलमान मृतक व्यक्ति के मामले में भी ऐसा करना होगा।

    एक प्रशासन वाद को संधारित करने की शक्तियां न्यायालय को सिविल प्रक्रिया संहिता की धारा 1 के अधीन प्राप्त हैं, क्योंकि ऐसे वाद का संज्ञान लेना स्पष्टतः या परोक्षतः वर्जित नहीं किया गया है। आदेश 20 के नियम 13 के उपबंध केवल प्रक्रियात्मक हैं, जो ऐसे बाद में डिक्री तैयार करने की प्रक्रिया बताते हैं, वे न तो अंशतः सारभूत हैं और न अंशतः प्रक्रियात्मक।

    परिशिष्ट 'क' में दिये गये अभिवचन के प्रपत्र संख्यांक 41, 42 और 43 केवल नमूने के प्ररूप हैं और विधिक पत्र नहीं हैं, जैसा कि आदेश 6, नियम 3 से प्रकट होता है। ऐसे प्रशासन वाद में सम्पत्ति के स्वामित्व के तत्सम्बंधी प्रश्न पर विचार करना और विभाजन के लिए उस सम्पत्ति का वितरण करना उसके प्रक्षेत्र में आता है।

    एक प्रशासन बाद में न्यायालय मृतक की सम्पत्ति की आस्तियों का पता लगा सकता है, परन्तु उसे किसी अन्य संक्रामण की वैधता का निर्धारण करने और उन अन्यसंक्रमित सम्पत्तियों को वापस लेने की शक्तियां नहीं हैं। ऐसे वाद में सभी ऋणदाता (लेनदार) आवश्यक पक्षकार नहीं होते, पर वे उचित पक्षकार अवश्य हैं। जब किसी मृतक हिन्दू की सम्पत्ति उसके पुत्र के साथ संयुक्त है और उसकी अलग से कोई सम्पत्ति नहीं है, तो उस सम्पत्ति के बारे में ऐसा वाद नहीं लाया जा सकता।

    इसी प्रकार हिन्दू उत्तरजीवी किसी विधवा के विरुद्ध प्रशासन वाद नहीं ला सकता। यदि एक हिन्दू विधवा किसी प्रशासन बाद में पक्षकार है, तो वह भविष्य के भरण पोषण की मांग कर सकती है, पर ऐसे वाद में पीछे की बकाया भरण-पोषण की राशि के लिए आदेश नहीं दिया जा सकता।

    इस मामले में परिसीमा अधिनियम 1963 का अनुच्छेद 113 लागू होगा, वसीयत सम्पत्ति के मामले में अनुच्छेद 106 लागू होगा। एक मुसलमान वारिस के द्वारा अपने सह-वारिसों के विरुद्ध किये गये वाद में अंचल सम्पत्ति के लिए अनुच्छेद 65 व चल सम्पत्ति के लिए अनुच्छेद 111 लागू होगा। जब ऋणदाताओं को पक्षकार बनाया गया तब उनके दावे कालबाधित नहीं थे, तो उसके बाद वे कालबाधित नहीं हो जाते हैं।

    अपरिपक्व वाद- प्रारम्भिक प्रक्रम पर वाद को केवल इस आधार पर खारिज किया जा सकता है कि-वादपत्र में कोई वाद-हेतुक प्रकट नहीं होता या वाद अपरिपक है।

    प्रारम्भिक डिक्री-

    इस नियम के अनुसार एक प्रशासन वाद में न्यायालय अन्तिम डिक्री पारित करने के पहले एक प्रारम्भिक डिक्री पारित करेगा, जिसमें लेखा लेने व जांच करने का निदेश होगा। ऐसी प्रारम्भिक डिक्री कल्पनात्मक रूप में नहीं होगी, वरन् उसमें दायित्व आदि का निर्धारण करना होगी।

    प्रशासन वाद की डिक्री और पूर्ववर्ती कुर्कियाँ- प्रशासन वाद की डिक्री मृतक के सभी लेनदारों के पक्ष में होती है और सभी उसी एक डिक्री में सम्मिलित किये जाते हैं, अतः यह साम्यपूर्ण नहीं होगा कि उस डिक्री में कोई एक व्यक्ति दूसरे से अच्छी स्थिति में होना चाहिए। ऐसी स्थिति में आस्तियों को सभी लेनदारों में अनुपात से विभाजित किया जाएगा।

    प्रशासन वाद में की डिक्री के पहले भी यदि कोई लेनदार ने उस सम्पदा पर कुर्की प्राप्त कर ली हो, तो भी वह दूसरे लेनदारों पर अधिमानता (प्राथमिकता) प्राप्त नहीं कर सकेगा। कुर्क की गई सम्पत्ति पर कुर्की कोई भार का सृजन (निर्माण) नहीं करती है और न्यायालय प्रशासन वाद में डिक्री पारित होने के बाद निष्पादन की सभी कार्यवाहियों को स्थगित कर देगा।

    वसीयतदार द्वारा वाद- जब वसीयतदार अपनी ओर से तथा दूसरों की ओर से भी किसी सम्पदा के प्रशासन के लिए वाद लाता है, तो प्रारम्भिक डिक्री पारित की जाने से पहले अपने वसीयती-अधिकार (लिगेसी) का भुगतान कर किसी समय उस वाद को वापस ले सकता है, परन्तु जब प्रारम्भिक डिक्री पारित कर दी गई है, तो वह उस वाद को वापस नहीं ले सकता और फिर भी वह ऐसा करना चाहता है, तो न्यायालय समुचित मामलों में आदेश 1, नियम 10 के अधीन कार्यवाही कर सकता है।

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