सिविल प्रक्रिया संहिता, 1908 आदेश भाग 98: आदेश 20 नियम 12 के प्रावधान
Shadab Salim
23 Jan 2024 2:51 PM IST
सिविल प्रक्रिया संहिता,1908(Civil Procedure Code,1908) का आदेश 20 निर्णय और डिक्री है। इस आदेश का नियम 12 स्थावर संपत्ति के संबंध में डिक्री का उल्लेख कर रहा है। यह नियम उन बातों को स्पष्ट कर रहा है जिनका समावेश एक स्थावर संपत्ति के संबंध डिक्री में होता है।
नियम-12-कब्जा और अन्तःकालीन लाभों के लिए डिक्री- (1) जहां वाद स्थावर सम्पत्ति के कब्जे का प्रत्युद्धरण करने और भाटक या अन्तःकालीन लाभों के लिए है वहां न्यायालय ऐसी डिक्री पारित कर सकेगा जो-
( क) सम्पत्ति के कब्जे के लिए हो;
(ख) ऐसे भाटकों के लिए हो जो वाद के संस्थित किए जाने से पूर्व की किसी अवधि में सम्पत्ति पर प्रोद्भूत हुए हों या ऐसे भाटक के बारे में जांच करने का निदेश देती हो; (खक) अन्तःकालीन लाभों के लिए हो या ऐसे अन्तःकालीन लाभों के बारे में जांच करने का निदेश देती हो;]
(ग) वाद के संस्थित किए जाने से लेकर निम्नलिखित में से, अर्थात्-
(i) डिक्रीदार को कब्जे का परिदान,
(ii) डिक्रीदार को न्यायालय की मार्फत सूचना सहित निर्णीत-ऋणी द्वारा कब्जे का त्याग, अथवा
(iii) डिक्री की तारीख से तीन वर्षों की समाप्ति,
इनमें से जो भी कोई घटना पहले घटित हो या उस तक के भाटक या अन्तःकालीन लाभों के बारे में जांच निदेश देती हो।
(2) जहां खण्ड (ख) या खण्ड (ग) के अधीन जांच का निदेश दिया गया है वहां भाटक या अन्त:कालीन लाभों के संबंध में अन्तिम डिक्री ऐसी जांच के परिणाम के अनुसार पारित की जाएगी।
नियम 12 में कब्जा और अन्त: कालीन (मिड प्रॉफिट) लाभों के लिये डिक्री पारित करने को शतें दो गई हैं।
डिक्री का स्वरूप तथा आवश्यक शर्तें (आदेश 20, नियम 12) - अन्तःकालीन लाभ की परिभाषा धारा 2 में दी गई है, जिसमें ऐसे लाभों पर ब्याज सम्मिलित है। जहाँ वाद में स्थावर (अचल) सम्पत्ति का कब्जा वापस प्राप्त करने के लिए है और उसके साथ-साथ (1) भाटक (किराया) या (2) अन्तःकालीन लाभों का दावा भी किया गया है, तो ऐसी डिक्री के बारे में आदेश 20, नियम 12 लागू होता है, अन्यथा नहीं। इस नियम के अधीन डिक्री उपरोक्त नियम 12 के खण्ड (क) से (ग) तक दिये गये रूप में होगी।
इनमें भाटक या अन्त:कालीन लाभ दो प्रकार को अवधि का दिया गया है-
(1) वाद संस्थित किये जाने से पहले की अवधि का भाटक या लाभ,
(2) वाद संस्थित किये जाने से लेकर निम्न में से कोई एक घटना होने के दिन तक का भाटक या लाभ-
कब्जा दे देने पर या कब्जा छोड़कर सूचना दे देने पर या डिक्री को तारीख से तीन वर्ष बीत जाने पर।
जांच का निदेश - भाटक या अन्तःकालीन लाभों के बारे में न्यायालय जांच का निदेश देने वाली प्रारम्भिक डिक्री देता है। जांच के बाद जब भाटक या अन्तःकालीन लाभ की राशि तय हो जाती है, तो वह उसके लिए अन्तिम डिक्री पारित करता है।
अन्त:कालीन लाभ को जांच के सम्बन्ध में आदेश 20 नियम 12 में किया गया प्रावधान आज्ञापक प्रकृति के है। अन्तःकालीन लाभ के निर्धारण हेतु सामग्री के अभाव में न्यायालय को इस उपाबन्ध नियम 12 (खक) के अन्तर्गत जाँच कर देय अन्त:कालीन लाभ का निर्धारण करना होगा।
नियम का लागू होना-
(क) नियम केवल तभी लागू होता है, जब किसी स्थावर (अचल) सम्पत्ति का कब्जा वापस लेने के दावे में किराया (भाटक/रेन्ट) या अन्तःकालीन लाभ को मांग की गई हो।
(ख) निम्न को लागू नहीं होता- वे इनके परिक्षेत्र में नहीं हैं-
केवल किराया में वृद्धि करने का वाद' या स्थावर सम्पत्ति के उपयोग व अधिभोग के लिए प्रतिकर के लिए वाद
जब वाद केवल कब्जे के लिए हो और उसमें किराया या अन्तः कालीन लाभ नहीं मांगा गया हो, तो।
आधिपत्य और अन्तःकालीन लाभ के लिए डिक्री का स्वरूप-परिशिष्ट (घ) के संख्यांक 23 में भूमि और अन्तःकालीन लाभों को वसूली का प्ररूप (फार्म) दिया गया है। इसमें वर्णित परिस्थितियों में डिक्रो का स्वरूप बताया गया है।
ऐसे वाद में वादी दो प्रकार के अन्तःकालीन लाभ का दावा कर सकता-
(1) वाद पूर्व अन्तःकालीन लाभ-वाद संस्थित करने के पहले की अवधि के लिए
(2) वादोत्तर अन्तःकालीन लाभ-वाद संस्थित करने के बाद की अवधि के लिए, जो उस समय तक दिया जा सकेगा, जो न्यायालय निदेश दे।
परिशिष्ट (घ) के संख्यांक 23 में डिक्री का प्ररूप (नमूना) दिया गया है, जिसमें निर्णय तथा उसकी डिक्री का स्वरूप दिया जा रहा है-
प्रतिवादी इसके साथ उपाबद्ध अनुसूची में विनिर्दिष्ट सम्पत्ति पर वादी का कब्जा करा दे।
प्रतिवादी उन अन्तःकालीन लाभों के मद्धे, जो वाद संस्थित किये जाने के पूर्व शोध्य हो चुके हैं रुपये—---की राशि, वसूलो को तारीख तक—-- प्रतिशत प्रतिवर्ष की दर से उस ब्याज सहित, वादी को संदत्त करे या उक्त सीमा तक यह डिक्री अन्तिम है।
उन अन्तःकालीन लाभों को रकम के बारे में जांच की जाए जो वाद संस्थित किए जाने से पूर्व शोध्य हो चुके हैं। इस सीमा तक यह डिक्री प्रारम्भिक है।
वाद के संस्थित किए जाने की तारीख से (डिक्रीदार को कब्जा परिदत्त (देने) किए जाने तक) डिक्रीदार को न्यायालय के माध्यम से सूचना देकर निर्णीत ऋणी द्वारा कब्जे के त्याग तक डिक्री की तारीख से तीन वर्ष के अवसान (समाप्ति) तक के अन्तःकालीन लाभों को रकम के बारे में जांच को जाए।
इस प्रकार अन्तःकालीन लाभ की रीति तय करने के बाद दी गई डिक्री अन्तिम होती है तथा उसको जांच करने और अन्तःकालीन लाभ तय करने के लिए दी गई डिक्री प्रारम्भिक होती है।
शब्द अन्तःकालीन लाभों की परिभाषा संहिता को धारा 2 (12) में दी गई है, जिसके अनुसार ऐसे लाभों पर ब्याज सहित वे लाभ अभिप्रेत हैं, हों, या (1) जो ऐसी सम्पत्ति पर सदोष कब्जा करने वाले व्यक्ति को उससे वस्तुतः (वास्तव में) प्राप्त हुए जिन्हें वह मामूली तत्परता से उससे प्राप्त कर सकता था।
परन्तु सदोष कब्जा रखने वाले व्यक्ति द्वारा की गई अभिवृद्धियों के कारण हुए लाभ इसके अन्तर्गत नहीं आयेंगे। इस प्रकार मापदण्ड यह नहीं है कि जो कुछ वादी ने खोया उसे इसमें सम्मिलित किया जाए। साधारण रूप से अन्तःकालीन लाभ का मापदण्ड दोषपूर्ण कब्जाधारी व्यक्ति के उपयोग का मूल्य होता है। परन्तु यह नियंत्रित किराये तक सीमित नहीं किया जा सकता, क्योंकि किराया नियंत्रण अधिनियम केवल विधि सम्मत किरायेदारों को संरक्षण देता है। ऐसे मामलों में ब्याज भी दिया जाता है।
ऐसे परिसर का मध्यवर्ती लाभ कम किया गया जो 100 वर्ष पुराना था तथा जो आवासीय प्रयोजन हेतु उपयोग में आ रहा था।
सदोष कब्जे वाले व्यक्ति को उच्चतम हो सकने वाले किराया और प्रीमियम वसूल नहीं करने के लिए दायी नहीं ठहराया जा सकता, जब उसने भूमि से उचित आय प्राप्त कर ली हो। अंतः कालीन लाभ को कानूनी परिभाषा ने यह मापदण्ड नहीं बताया है कि-वादी को दूर रखने से (बेकब्जा होने के कारण से) हुई हानि वसूल को जाए, परन्तु वह यह है कि-सदोष कब्जे के कारण जो प्रतिवादी ने लाभ प्राप्त किया या यह जो उचित रूप से प्राप्त कर सकता था। अन्तःकालीन लाभ को वाद में माँग न करने पर भी यह दिलाया जा सकता है।
ऐसे लाभों पर ब्याज सहित ब्याज अन्तःकालीन लाभ का एक अंग-
परिभाषा से यह स्पष्ट हो जाता है कि अन्तःकालीन लाभ में दो बातें या अंग हैं, अर्थात्-
(1) सम्पत्ति के लाभ और (2) ऐसे लाभ पर ब्याज।
अतः यदि किसी डिक्री में ब्याज का उल्लेख नहीं भी हो, तो उसमें ऐसे लाभों पर ब्याज सम्मिलित है, ऐसा अर्थ करना होगा। इस प्रकार यदि नियम 12(1) के अधीन डिक्री ब्याज के बारे में शान्त है, तो अन्तिम नियम 12(2) के अधीन डिक्री पारित करते समय न्यायालय ब्याज दे सकता है, परन्तु यदि नियम 12(2) के अधीन अन्तिम डिक्री में ब्याज नहीं दिया गया है, तो निष्पादन न्यायालय डिक्री को पृष्ठभूमि में जाकर ब्याज नहीं दे सकता। ऐसी स्थिति में निर्णीत लेनदार का उपचार उस डिक्री को अपील करना है।
जब अन्तःकालीन लाभों की सम्पूर्ण राशि तय हो जाती है, तो वादी न्यायालय को पूरी मय ब्याज के स्वीकृत करने के लिए आवेदन कर सकता है और न्यायालय ऐसी दर पर ब्याज स्वीकार कर सकता है, जो वह उचित समझे। ब्याज़ प्रारंभिक डिक्री के दिनांक से देय होता है, न कि राशि निर्धारित करने के दिनांक से।
पिछले लाभों की मांग-न्यायालय शुल्क (फीस) अधिनियम को धारा 7(1) तथा संहिता के आदेश 7, नियम 1, 2 और 7 को दृष्टि में पिछले लाभों की माँग विशेषरूप से करना आवश्यक है, क्योंकि वादहेतुक पहले ही उत्पन्न हो गया है।
एक वाद में भू-स्वामी द्वारा पूर्व वाद बकाया किराया व अन्तर्वती लाभ हेतु 60,000/- रु. की दर का वाद दायर किया गया, पश्चात्वर्ती वाद 3 लाख रु. की दर हेतु प्रस्तुत किया गया, जो कि कानूनन बाधित है। न्यायालय पूर्व वाद में ही तथ्यों बाबत् विवेचन करके अन्तर्वती लाभ दिलवा सकता है।
जब डिक्री में अन्तःकालीन लाभ का उल्लेख नहीं हो- डिक्री शान्त हो जब एक अन्तिम डिक्री में अन्तःकालीन लाभ का उपबंध नहीं किया गया, तो अन्तःकालीन लाभ के लिए दूसरा आवेदन नहीं किया जा सकता। क्योंकि इस मामले में अन्तःकालीन लाभ अस्वीकार कर दिया माना जाएगा। जहां प्रारम्भिक डिक्री में अन्तःकालीन लाभ की गणना करने का निदेश है, पर अन्तिम डिक्री उसके बारे में शान्त है, तो न्यायालय अन्तःकालीन लाभ को वाद के बाद तय किये जाने पर दूसरी अन्तिम डिक्री पारित कर सकता है।
जब वादपत्र में अन्तःकालीन लाभ की प्रार्थना की गई थी और इसके बारे में डिक्री शान्त थी, तो यह माना जाएगा कि अन्तःकालीन लाभ देने से इन्कार कर दिया गया। जब वादपत्र में अन्तःकालीन लाभ दिलवाने की प्रार्थना नहीं हो और डिक्री भी शान्त हो, तो भी न्यायालय इसे बाद में स्वीकृत कर सकता है।
डिक्री जब शान्त हो, नया वाद लाया जा सकेगा-
एक वाद स्थावर सम्पत्ति के आधिपत्य और अन्तःकालीन लाभ के लिए संस्थित किया था, जिसमें न्यायालय ने आधिपत्य का निदेश दिया, पर वह डिक्री अन्तःकालीन लाभों के बारे में शान्त थी। अभिनिर्धारित किया कि आदेश 20, नियम 12 न्यायालय को आधिपत्य तथा अन्तःकालीन लाभ के लिए वाद में अन्तःकालीन लाभ की डिक्री देने का विवेकाधिकार देता है। अतः अन्तःकालीन लाभों के लिए नया वाद लाने का वर्जन नहीं है।
जांच का निदेश-
जब प्रारंभिक डिक्री से न्यायालय द्वारा अन्तःकालीन लाभ देने का अभिप्राय प्रक्ट होता हो, परन्तु प्रारंभिक डिक्री में यह लोप हो गया कि इसके लिए जांच की जाय, तो यह एक तकनीकी त्रुटि है।
न्यायालय को भविष्य के अन्तःकालीन लाभ के लिए जांच का निदेश देने का विवेकाधिकार है। अतः यह ऐच्छिक है।
अवधि का उल्लेख-
यदि अन्तःकालीन लाभ स्वीकृत करने वाली डिक्री में अवधि का उत्लेख नहीं किया गया हो, तो डिक्रीदार कब्जा वापस मिलने की दिनांक तक के लिए अन्तःकालीन लाभ पाने का हकदार होगा।
जहाँ डिक्री कब्जा देने की है और कब्जा देने की दिनांक तक अन्तःकालीन लाभ देने की है, तो यह अर्थ होगा कि डिक्री की दिनांक से तीन वर्ष से अधिक की अवधि उसमें नहीं है।
विलय का सिद्धान्त लागू होगा- एक वाद में कब्जे और भूत व भविष्य के अन्तःकालीन लाभ की डिक्री पारित की गई। इसके विरुद्ध द्वितीय अपील खारिज कर दी गई तो मूल डिक्री अपीलीय डिक्री में विलीन हो गई। अतः अभिनिर्धारित कि आदेश 20, नियम 12(1) (ग) (i) में आये शब्दों डिक्री की तारीख को द्वितीय अपीलीय डिक्री की तारीख पढ़ा जावेगा।