सिविल प्रक्रिया संहिता,1908 आदेश भाग 95: आदेश 20 नियम 6, 6(क), 6(ख) के प्रावधान

Shadab Salim

22 Jan 2024 10:28 AM IST

  • सिविल प्रक्रिया संहिता,1908 आदेश भाग 95: आदेश 20 नियम 6, 6(क), 6(ख) के प्रावधान

    सिविल प्रक्रिया संहिता,1908(Civil Procedure Code,1908) का आदेश 20 निर्णय और डिक्री है। इस आदेश के नियम 6 के अंतर्गत डिक्री की अंतर्वस्तु के संबंध में प्रावधान किए गए हैं। न्यायालय अपने अपने निर्णय के साथ डिक्री भी जारी करता है,उक्त डिक्री की अंतर्वस्तु क्या होगी यह नियम 6 के माध्यम से स्पष्ट किया गया है। इस आलेख के अंतर्गत नियम 6, 6क एवं 6ख पर विवेचन प्रस्तुत किया जा रहा है।

    नियम-6 डिक्री की अन्तर्वस्तु (1) डिक्री निर्णय के अनुरूप होगी, उसमें वाद का संख्यांक, [पक्षकारों के नाम और वर्णन, उनके रजिस्ट्रीकृत पते] और दावे की विशिष्टियां अन्तर्विष्ट होंगी और अनुदत्त अनुतोष या वाद का अन्य अवधारण उसमें स्पष्टतया विर्निदिष्ट होगा।

    (2) वाद में उपगत खर्चों की रकम भी और यह बात भी कि ऐसे खर्चे किसके द्वारा या किस सम्पत्ति में से और किस अनुपात में संदत्त किये जानें हैं, डिक्री में कथित होगी।

    (3) न्यायालय निदेश दे सकेगा कि एक पक्षकार को दूसरे पक्षकार द्वारा देय खर्चे किसी ऐसी राशि के विरुद्ध मुजरा किए जाएं जिसके बारे में यह स्वीकार किया गया है या पाया गया है कि वह एक से दूसरे को शोध्य है।

    नियम- 6(क) डिक्री तैयार करना (1) यह सुनिश्चित करने के लिए हर प्रयास किया जाएगा कि डिक्री जहाँ तक सम्भव हो शीघ्रता से और किसी भी दशा में उस तारीख से पन्द्रह दिन के भीतर जिसको निर्णय सुनाया जाता है, तैयार की जाती है।

    (2) डिक्री की प्रति फाइल किए बिना डिक्री के विरुद्ध अपील की जा सकेगी और किसी ऐसी दशा में न्यायालय द्वारा पक्षकार को उपलब्ध कराई गई प्रति आदेश 41 के नियम 1 प्रयोजनों के लिए डिक्री मानी जाएगी। किन्तु जैसे ही डिक्री तैयार हो जाती है, निर्णय निष्पादन के प्रयोजनों के लिए या किसी अन्य प्रयोजन के लिए डिक्री का प्रभाव नहीं रखेगा।

    नियम-6(ख) निर्णय की प्रतियाँ कब उपलब्ध कराई जाएंगी-जहां निर्णय सुना दिया गया है वहां निर्णय की प्रतियां पक्षकारों को निर्णय के सुनाए जाने के ठीक पश्चात् अपील करने के लिए ऐसे प्रभारों के संदाय पर उपलब्ध कराई जाएंगी जो उच्च न्यायालय द्वारा बनाए गए नियमों में विनिर्दिष्ट किए जाएं।

    नियम 6 में डिक्री की अन्तर्वस्तु और नियम 7 में डिक्री की तारीख के बारे में विवेचन किया गया है। नियम 6 के अनुसार एक डिक्री में निम्न बातें हैं-

    डिक्री निर्णय के अनुरूप होगी-जो नियम 4 तथा नियम 6(क) के अनुसार होगी।

    पक्षकारों के नाम और वर्णन, उनके रजिस्ट्रीकृत पते, अनुदत्त अनुतोष या वाद का अन्य अवधारण, उपगत खर्चों की रकम किसके द्वारा या किस सम्पत्ति में से किस अनुपात में दिये जाएँगे तथा उनके मुजरा सम्बन्धी निदेश। विदेशी मुद्रा में भुगतान की दर की तारीख जब राशि विदेशी मुद्रा में देय हो, तो उसके विनिमय की दर के लिए उचित तारीख वही होगी, जो डिक्री की तारीख है।

    डिक्री का स्वरूप-

    डिक्री को इस प्रकार आकारित किया जाना चाहिए कि वह स्वयं में परिपूर्ण हो और बिना किसी अन्य दस्तावेज का निर्देश किए उसका निष्पादन किया जा सके। एक डिक्री को जो केवल इतना उल्लेख करती है कि वाद को भागतः डिक्री किया गया। ऐसी डिक्री इस नियम की अपेक्षाओं की पालना नहीं करती है। जब डिक्री पक्षकारों की सहमति से पारित की जाती है तो यह उस डिक्री के मुख पर स्पष्ट प्रकट होना चाहिए।

    डिक्री का प्ररूप (फार्म) - संहिता की पहली अनुसूची के परिशिष्ट "घ" में अनेक प्रकार के वादों में की डिक्रियों के प्ररूप दिये गये हैं।

    नियम 6(क) 1976 के संशोधन द्वारा जोड़ा गया था, जिसे 1999 में प्रतिस्थापित किया गया है। इसमें डिक्री तैयार करने में होने वाले विलंब की कठनाई को दूर किया गया है, अब डिक्री की प्रति फाइल किये बिना अपील की जा सकेगी। निर्णय की प्रति आदेश 41, नियम 1 के प्रयोजनार्थ डिक्री तैयार न होने तक डिक्री समझी जावेगी और पक्षकार अपील या निष्पादन की कार्यवाही यथाशीघ्र कर सकेंगे। डिक्री पर्चा न बनाये जाने की दशा में डिक्री की प्रमाणित प्रतिलिपि के बिना निष्पादन हेतु प्रस्तुत आवेदन पोषणीय है।

    इस नियम में निम्न प्रावधान स्पष्ट किये गए हैं-

    किसी दशा में, निर्णय की तारीख से पन्द्रह दिनों के भीतर डिक्री तैयार की जावेगी। इससे पहले अपरीत का निष्पादन करने के लिए निर्णय की प्रति को डिक्री समझा जावेगा। जैसे ही डिक्री तैयार की जावेगी निर्णय की प्रति डिक्री नहीं मानी जावेगी।

    यह पुराने नियम का सरल रूप है और सामने आई कठिनाइयों को दूर करने के लिए इसे स्पष्ट किया गयाहै। यह नियम अपील करने के अधिकार को किसी प्रकार से प्रभावित नहीं करता है।

    डिक्री तैयार न हो सकने पर निर्णय का अन्तिम पैरा निष्पादन के लिए डिक्री माना जाएगा-सिविल प्रक्रिया संहिता के आदेश 20 के नियम 6क (2) (क) में यह उपबन्ध है कि डिक्री की प्रति फाइल किए बिना डिक्री के विरुद्ध अपील की जा सकेगी और ऐसे मामले में निर्णय का अन्तिम पैरा, आदेश 41 के नियम 1 के प्रयोजनों के लिए डिक्री माना जाएगा। आदेश 20 का नियम 6क (2) (ख) उस स्थिति से निपटने के लिए अधिनियमित किया गया है जिसमें कोई डिक्री धारक डिक्री का उस दशा में निष्पादन करा सकता है जब नियम 6(क) (2) के अधीन उपबन्ध के अनुसार डिक्री तैयार नहीं की गई हो।

    नियम 6क (2) (ख) में यह कहा गया है कि जब तक डिक्री तैयार नहीं की जाती है तब तक निर्णय का अन्तिम पैरा निष्पादन के प्रयोजनों के लिए डिक्री समझा जाएगा और हितबद्ध पक्षकार केवल उसी पैरा की प्रति के लिए आवेदन करने का हकदार होगा और उससे सम्पूर्ण निर्णय की प्रति के लिए आवेदन करने की अपेक्षा नहीं की जाएगी।

    इस प्रकार इस बाबत कोई संदेह नहीं हो सकता कि डिक्रीदार को निर्णय के अन्तिम पैरा के साथ निष्पादन आवेदन फाइल करने की छूट होगी क्योंकि नियम 6क (2) (ख) में स्पष्ट रूप से यह कहा गया है कि डिक्री के निष्पादन के प्रयोजनार्थ निर्णय का अन्तिम पैरा डिक्री समझा जाएगा। सिविल प्रक्रिया संहिता के आदेश 21 के नियम 11 (3) के अधीन न्यायालय आवेदक से डिक्री की प्रमाणित प्रति पेश करने की अपेक्षा कर सकेगा।

    आदेश 20 का नियम 6क (2) (ख) यह स्पष्ट करता है कि जैसे ही डिक्री तैयार हो जाती है, निर्णय का अन्तिम पैरा निष्पादन के प्रयोजन के लिए या किसी अन्य प्रयोजन के लिए डिक्री के रूप में प्रभावी नहीं रहेगा। इस मामले में मुन्सिफ द्वारा यह अभिनिर्धारित किया जाना न्यायोचित था कि निर्णय के अन्तिम पैरा का उपयोग डिक्री के द्विपादन के लिए किया जा सकता है क्योंकि स्वीकृततः डिक्री तैयार नहीं की गई थी।

    नियम 6-क जब लागू नहीं होगा- जब तक वांछित मुद्रांक-पत्र (स्टाम पेपर) पर अंकित नहीं की जाए

    डिक्री परिसीमा अधिनियम, 1963 के अनुच्छेद 136 के प्रयोजन से प्रवर्तनीय (लागू) नहीं होती है। यह सत्य है कि-आदेश 20, नियम 6-क यह उपबन्धित करता है कि उस अनुतोष का कथन जो ऐसे निर्णय द्वारा दिया गया है, निर्णय के अन्तिम पैरा में प्रमित शब्दों में किया जाएगा और जब तक डिक्री तैयार नहीं की जाती है, तब तक निर्णय का अन्तिम पैरा निष्पादन के प्रयोजनों के लिए डिक्री समझा जाएगा और हितबद्ध पक्षकार केवल उसी पैरा की प्रति के लिए आवेदन करने का हकदार होगा।

    साधारणतया निर्णय सुनाने के तुरन्त बाद एक डिक्री बनाई या पारित की जाती है। आदेश 20, नियम 6-क के उपबन्ध इसलिए अधिनियमित किए गए है कि यह सुनिश्चित किया जाए कि-औपचारिक (प्रारूपिक) डिक्री तैयार करने में होने वाली देरी सफल डिक्रीदार के मार्ग में रोड़ा न बने जो डिक्री का निष्पादन कराना चाहता है, और जब तक कि औपचारिक डिक्री तैयार न की जाए उसे कोई बाधा न हो और निर्णय का अन्तिम पैरा निष्पादन के प्रयोजन से प्रारूपिक डिक्री समझा जाए। आदेश 20, नियम 6-क (2) वहाँ लागू नहीं होता, जहाँ विभाजन-वाद में बिना स्टाम्प के डिक्री तैयार नहीं की जा सकती।

    अपील की संधारणीयता-निर्णय में कथन है कि-एक वाद में कहा गया है कि प्रारम्भिक डिक्री तभी पारित की जावेगी, जब वादी कुछ आवश्यक विशिष्टियाँ पेश कर देगा। वादी इसमें असफल रहा। ऐसे निर्णय के विरुद्ध अपील संधारणीय नहीं है, क्योंकि यह कोई डिक्री नहीं है और आदेश 20, नियम 6क भी यहाँ आकर्षित नहीं होता।

    यह नियम 6(ख) 1976 के संशोधन द्वारा जोड़ा गया था, जिसे 1999 में प्रतिस्थापित करके सरल रूप दिया गया है। इसके अनुसार निर्णय की प्रति पक्षकारों को नियमानुसार आवेदन करने और प्रभार देने पर निर्णय सुनाने के तुरन्त बाद दे दी जावेगी। यह सुविधा देरी को कम करने तथा तुरन्त आगे उपचार के लिए मार्ग प्रशस्त करने के लिए दी गई है।

    डिक्री की तारीख - डिक्री में उस दिन की तारीख होगी जिस दिन निर्णय सुनाया गया था और न्यायाधीश अपना समाधान कर लेने पर कि डिक्री निर्णय के अनुसार तैयार की गई है डिक्री पर हस्ताक्षर करेगा।

    नियम 6(ख) में कहा गया है कि डिक्री की तारीख का परिसीमा के प्रयोजन के लिए बहुत महत्त्व है, क्योंकि परिसीमा काल डिक्री की तारीख से आरम्भ होता है। अतः डिक्री की तारीख वही होगी, जो निर्णय सुनाने की तारीख थी।

    न्यायाधीश का कर्त्तव्य-न्यायाधीश अपना समाधान करेगा कि-डिक्री निर्णय के अनुसार तैयार की गई है। इसके बाद वह डिक्री पर अपने हस्ताक्षर करेगा।

    एक वाद में कहा गया है कि निर्णय एक न्यायिक कार्य है। डिक्री निर्णय का अनुसरण करती है और यह निर्णय की प्ररूपिक अभिव्यक्ति है। अतः डिक्री पर वही दिनांक अंकित किया जावेगा, जिस दिन निर्णय दिया गया था। तब डिक्री निर्णय के अनुसार होगी। इसके लिए न्यायालय को गलतियाँ ठीक करने की अपनी शक्ति का उदारता से प्रयोग करना चाहिये। जब कोई डिक्री या अधिनिर्णय विदेशी मुद्रा में पारित की जाती है, तो उसके विनिमय की दर तय करने की तारीख उस डिक्री की तारीख ही होगी।

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