सिविल प्रक्रिया संहिता, 1908 आदेश भाग 83: आदेश 18 नियम 4 के प्रावधान
Shadab Salim
15 Jan 2024 10:57 AM IST
सिविल प्रक्रिया संहिता,1908(Civil Procedure Code,1908) का आदेश 18 वाद की सुनवाई और साक्षियों की परीक्षा है। इस आलेख के अंतर्गत आदेश 18 के नियम 4 पर टिप्पणी प्रस्तुत की जा रही है।
नियम-4 साक्ष्य का अभिलेखन (1) प्रत्येक मामले में किसी साक्षी की मुख्य परीक्षा शपथ-पत्र पर होगी और उसकी प्रतियां उस पक्षकार द्वारा, जो उसे साक्ष्य देने के लिए बुलाता है, विरोधी पक्षकार को दी जायेगी :
परन्तु जहां दस्तावेज फाइल किए गए हों और पक्षकार उन दस्तावेजों पर निर्भर करते हों, वहाँ शपथ-पत्र के साथ फाइल किए गए ऐसे दस्तावेजों का सबूत और ग्राह्यता न्यायालयों के आदेश के अधीन रहते हुए होगी।
नियम 4 खुले न्यायालय में साक्षियों को परीक्षा करने के सिद्धान्त को प्रकट करता है, तो उस मूल सिद्धान्त का एक भाग है, कि न्याय किया ही नहीं जाना चाहिये, वरन् ऐसा किया जाना प्रकट या दर्शित भी होना चाहिये। यह नियम संहिता की धारा 153-1 इस नियम का संशोधन इस आशय से किया गया है कि साक्ष्य लेखबद्ध करने में लगने वाले समय एवं लंबी प्रक्रिया को लघु किया जा सके। मोटरयान अधिनियम की धारा 169(2) व मोटरयान नियम के नियम 208 व 221 को इस नियम के साथ देखने से यह स्पष्ट है कि दुर्घटना दावा अधिकरण के समक्ष भी साक्ष्य शपथ पत्र पर दी जा सकती है।
साक्ष्य लेखबद्ध करना (आदेश 18, नियम 4) - आदेश 18 के नियम 4 में साक्ष्य लेखबद्ध करने का तरीका दिया गया है, जिसका सारांश इस प्रकार है-
(क) प्रत्येक मुख्य परीक्षा केवल शपथ-पत्र पर-
(1) प्रत्येक मामले में, किसी साक्षी को मुख्य परीक्षा शपथ-पत्र पर होगी, यह आज्ञापक है।
(2) ऐसे शपथ पत्र को एक प्रति विपक्षी को दी जावेगी।
(3) दस्तावेजों के प्रमाण और ग्राह्यता का निर्णय न्यायालय के आदेश द्वारा होगा।
(ख) प्रति-परीक्षा और पुनः परीक्षा न्यायालय या आयुक्त द्वारा-
सुसंगत बातों व परिस्थितियों पर विचार करते हुए आयुक्त की नियुक्ति न्यायालय द्वारा की जावेगी, जिसके लिए आयुक्तों को सूची (पैनल) उच्च न्यायालय या जिला न्यायाधीश द्वारा तैयार को जावेगी।
आयुक्त शपथ-पत्र पर प्रतिपरीक्षा और पुनः परीक्षा लेखबद्ध करेगा और न्यायालय को वापस भेजेगा। यह साक्ष्य वाद के अभिलेख का अंग बन जावेगा। आयुक्त की रिपोर्ट को समय सीमा 60 दिन रखी गई है, जिसे न्यायालय लिखित में कारण देकर बढ़ा सकेगा।
परीक्षा करते समय आयुक्त साक्षी को भवभंगिमा (डिमेनर) के बारे में उचित टिप्पणी लिख सकेगा, परन्तु उठाये गये किसी एतराज को लेखबद्ध करेगा, जिसका निर्णय बहस के समय न्यायालय करेगा। आयुक्त का पारिश्रमिक सामान्य या विशिष्ट आदेश द्वारा न्यायालय तय करेगा।
आदेश 26 के नियम 16, 16क, 17 और 18 के उपबंध, यथासम्भव, यहां लागू होंगे।
धारा 75 में कमीशन जारी करने को शक्ति न्यायालय को दो गई है। आदेश 26 में नियम 4-क जोड़ा गया है, जिसमें न्यायालय के अधिकारिता को स्थानीय सीमा के भीतर के निवासी व्यक्ति को परीक्षा करने और साक्ष्य लेखबद्ध करने के लिए न्यायालय को सशक्त किया गया है। ऐसी लेखबद्ध की गई साक्ष्य को साक्ष्य में पढ़ा जायेगा।
आदेश 18 में नियम 19 नया जोड़ा गया है, जो खुले न्यायालय में साक्षी को परीक्षा करने के बजाय, न्यायालय को आदेश 26 के नियम 4-क के अधीन कमीशन पर बयान लेखबद्ध करने के निर्देश देने के लिए अधिकृत करता है। प्रतिवादी से मुख्य परीक्षा हेतु शपथ पत्र वादी की प्रति परीक्षा होने के बाद हो लिये जा सकते है, यदि न्यायालय दोनों पक्षकारों को मुख्य परीक्षा हेतु शपथ-पत्र प्रस्तुत करने का निर्देश देता है, तो उचित नहीं।
साक्ष्य अधिनियम, 1872 में साक्षियों की परीक्षा- साक्षी को परीक्षा के बारे में साक्ष्य अधिनियम, 1872 के अध्याय 10 में धाराएँ 135 से 166 तक में साक्ष्य के सिद्धान्त व नियम बताये गये हैं।
(क) साक्षियों की परीक्षा का क्रम - सिविल प्रक्रिया संहिता (आदेश 18) में दिये गये नियमों के अनुसार साक्षियों को परीक्षा का क्रम विनियमित होगा। (धारा 135)
(ख) न्यायाधीश साक्ष्य को ग्राह्यता (ग्रहण करने) के बारे में निश्चय करेगा। (धारा-136)
(ग) साक्षी को परीक्षा में तीन प्रकार को परीक्षाएं सम्मिलित होंगी। (धारा 137 तथा 138) मुख्य परीक्षा-साक्षी परीक्षा को बुलाने वाले पक्षकार द्वारा की गई परीक्षा उसकी "मुख्य परीक्षा"
(1) (एक्जामिनेशन-इन-चीफ) कहलाएगी, जो प्रथमतः (सबसे पहले) होगी। (अब यह केवल शपथ-पत्र द्वारा होगी)
(2) प्रतिपरीक्षा- (क्रास-एग्जामिनेशन) - किसी साक्षी को प्रतिपक्षी द्वारा की गई परीक्षा उसकी प्रतिपरीक्षा कहलाएगी, जो मुख्य परीक्षा के पश्चात् होगी।
(3) पुनःपरीक्षा (री-एग्जामिनेशन) - किसी साक्षी की प्रतिपरीक्षा के पश्चात् उस पक्षकार द्वारा, जिसने उसे बुलाया था, परीक्षा उसकी पुनः परीक्षा कहलाएगी। परीक्षा और प्रतिपरीक्षा सुसंगत तथ्यों से संबंधित होगी, किन्तु प्रतिपरीक्षा उन तथ्यों तक सौमित रहना आवश्यक नहीं है, जिनके बारे में साक्षी ने अपनी मुख्य परीक्षा में साक्ष्य दिया है। प्रतिपरीक्षा में प्रकट हुई बातों के स्पष्टीकरण के लिए पुनः परीक्षा होगी, परन्तु न्यायालय को अनुज्ञा (अनुमति) से तो प्रतिवादी उस बात के अनुमति से यदि पुनः बारे में अतिरिका प्रतिपरीक्षा कर सकेगा।
प्रतिपरीक्षा (क्रॉस एग्जामिनेशन) का प्रयोजन (उद्देश्य)-
विशाल अर्थ में, प्रतिरक्षा (बचाव) का अधिकार अपने चित्रपट पर उन सभी पहलुओं को लेता है, जिनमें वादी के गवाहों की प्रतिपरीक्षा द्वारा वादी के मामले को ध्वस्त (नष्ट) करना सम्मिलित है। यह कहना उतना ही सही है कि वादी के गवाहों की प्रतिपरीक्षा यह अन्तिम स्पर्श है, जो वादी के मामले को पूरा करता है। यह सुस्थापित सिद्धांत है कि कोई मौखिक परीक्षा (बयान) तब तक संतोषजनक नहीं मानी जा सकती, जब तक उसकी प्रतिपरीक्षा द्वारा जाँच न कर ली जाए।
बादी के गवाह के केवल बयान (कथन) तब तक यादी के साक्ष्य नहीं बनते, जब तक उनको प्रतिपरीक्षा द्वारा जाँच न कर ली जाए। वादो के गवाहों को प्रतिपरीक्षा करने का प्रतिरक्षा का अधिकार उसको (प्रतिवादो को) प्रतिरक्षा को अपनी स्वयं को रणनीति का भाग नहीं है, वरन् एक अपेक्षा (शर्त माँग) है, जिसके बिना वादी को साक्ष्य पर कार्यवाही नहीं की जा सकती।
इस दृष्टिकोण से यह विचार लेना संभव है कि यद्यपि किरायेदार को प्रतिरक्षा काट दो गई, परन्तु विधि में ऐसा कुछ नहीं है जो उसे यह दिखाने से मना करें कि-वादो के गवाह सत्य नहीं कह रहे हैं या वादी द्वारा प्रस्तुत साक्ष्य कानून की शर्तों को पूरा करने के लिए पर्याप्त नहीं है। इस प्रकार किरायेदार प्रतिवादी को उसकी प्रतिरक्षा अभिखण्डित कर दिये जाने पर मकान-मालिक वादी को साक्षियों की प्रतिरक्षा करने का सीमित अधिकार है। इस प्रकार प्रतिवादी का दोहरा उद्देश्य है-
(1) (वादी की) कहानी को बारीकी से जांच की जाए, या छिपाये गये तथ्यों को प्रकट करवाया जाए, और
(2) उसके गवाह की विश्वसनीयता को चुनौती दी जाए।
(3) प्रतिपरीक्षण, प्राकृतिक न्याय का मूल है। यदि यह अवसर नहीं दिया जाता है तो यह नहीं कहा जा सकता है कि प्रकरण नियमानुसार निस्तारित किया गया है। इन दोनों प्रयोजनों को सदा अलग-अलग नहीं रखा जा सकता।