सिविल प्रक्रिया संहिता,1908 आदेश भाग 44: आदेश 8 नियम 6 के प्रावधान

Shadab Salim

19 Dec 2023 1:48 PM GMT

  • सिविल प्रक्रिया संहिता,1908 आदेश भाग 44: आदेश 8 नियम 6 के प्रावधान

    सिविल प्रक्रिया संहिता,1908(Civil Procedure Code,1908) का आदेश 8 लिखित कथन से संबंधित है जो प्रतिवादी का प्रतिवाद पत्र होता है। आदेश 8 के नियम 6 में मुजरा संबंधी प्रावधान हैं। मुजरा का अंग्रेजी अर्थ सेट ऑफ होता है अर्थात किसी मामले से किसी मामले को समायोजित करना। इस आलेख के अंतर्गत नियम 6 पर टिप्पणी प्रस्तुत की जा रही है।

    नियम-6 मुजरा की विशिष्टियां लिखित कथन में दी जाएंगी - (1) जहां तक धन की वसूली के वाद में प्रतिवादी न्यायालय की अधिकारिता की धन-संबंधी सीमाओं से अनधिक धन की कोई अभिनिश्चित राशि जो वह वादी से वैध रूप से वसूल कर सकता है वादी की मांग के विरुद्ध मुजरा करने का दावा करता है और दोनों पक्षकार वही हैसियत रखते हैं जो वादी के वाद में उनकी है वहां प्रतिवादी मुजरा के लिए चाही गई ऋण की विशिष्टियां देते हुए लिखित कथन वाद की पहली सुनवाई पर उपस्थित कर सकेगा, किन्तु उसके पश्चात् तब तक उपस्थित नहीं कर सकेगा जब तक कि न्यायालय द्वारा उसे अनुज्ञा न दे दी गई हो।

    (2) मुजरा का प्रभाव- लिखित कथन का प्रभाव प्रतीपवाद में के वादपत्र के प्रभाव के समान ही होगा जिसे न्यायालय मूल दावे और मुजरा दोनों के सम्बन्ध में अन्तिम निर्णय सुनाने के लिए समर्थ हो जाए, किन्तु डिक्रीत रकम पर प्लीडर को डिक्री के अधीन देय खर्चों के बारे में उसके धारणाधिकार पर इससे प्रभाव नहीं पड़ेगा।

    (3) प्रतिवादी द्वारा दिए गए लिखित कथन सम्बन्धी नियम मुजरा के दावे के उत्तर में दिए गए लिखित कथन को भी लागू होते हैं।

    धन सम्बन्धी वाद में यह एक विशेष प्रतिरक्षा है, जिसमें वादी द्वारा दावाकृत राशि के विरुद्ध प्रतिवादी वादी की ओर उसकी बकाया राशि के समायोजन के लिये न्यायालय की सहायता की मांग करता है। संहिता के आदेश के नियम 6 में इसका प्रावधान किया गया है।

    मुजरा के लिए आवश्यक शर्तें- प्रतिवादी द्वारा प्रतिवाद-पत्र में "मुजरा (Set off) का दावा करने के लिए नियम 6 के अधीन निम्नलिखित शर्तें पूरी करना आवश्यक है-

    (1) ध्यान रहे केवल धन की वसूली के वाद में ही मुजरा का दावा किया जा सकता है, अन्य प्रकार के बाद में नहीं।

    (2) जो राशि (रकम) मुजरा की जाने है, उसके बारे में-

    (i) यह धनराशि निश्चित होनी चाहिए (जैसे कि हान्त (ग), (घ) (ड) में बताया गया है) (a) ऐसी राशि विधिक रूप से वसूली योग्य हो।

    (i) ऐसी राशि प्रतिवादी द्वारा या एक से अधिक प्रतिवादी हो, तो सभी प्रतिवादियों द्वारा वसूली योग्य होनी चाहिए।

    (iv) यदि एक से अधिक वादी हो तो सभी वादियों से या वादी से प्रतिवादी द्वारा वसूली योग्य होनी चाहिये।

    (5) यह राशि न्यायालय की आर्थिक अधिकारिता से अधिक नहीं होनी चाहिये, और

    (6) वादी के बाद और प्रतिवादी के मुजरा के दावे दोनों में दोनों पक्षकारों की समान हैसियत होनी चाहिये।

    मुजरा सम्बन्धी अन्य बातें-

    (1) मुजरा चाहे गये ऋण की विशिष्ट्रियां देते हुए लिखित कथन वाद की पहली सुनवाई पर प्रस्तुत किया जायगा,किन्तु न्यायालय की अनुमति से वाद में भी पेश हो सकेगा।

    मुजरा का प्रभाव एक प्रतीपवाद (Cross suit) के वादपत्र के प्रभाव के समान होगा।

    (2) डिक्रीत रकम पर प्लीडर को डिक्री के अधीन खचों के बारे में उसके धारणाधिकार पर इससे प्रभाव नहीं पड़ेगा

    (3) मुजरा के दावे के उत्तर में दिए लिखित कथन पर आदेश के नियम लागू होंगे।

    न्यायालय निर्णयों का सारांश-वैधरूप से वसूली योग्य जब कोई दावा परिसीमा विधि से अपवर्जित हो गया, तो प्रतिवादी मुजरा के रूप में नियम के अधीन उसकी मांग नहीं कर सकता, क्योंकि वह वैधरूप से वसूली योन्य नहीं है। जब मुजरा वादी के दावे के समायोजन तक सीमित हो, तो वादी के द्वारा वाद फाइल करने के दिनांक के प्रसंग से परिसीमा का प्रश्न तय करना होगा, पर यदि मुजरा वादी के दावे से अधिक है (अर्थात् प्रतिदावा है), तो परिसीमा के लिए प्रतिवाद पत्र फाइल करने की दिनांक सुसंगत दिनांक होगी। परन्तु यह नियम केवल विधिक-मुजरा पर ही लागू है। साम्यापूर्ण मुजरा में परिसीमा से वर्जित दावे भी संधारणीय माने गये हैं।

    निश्चित राशि- जब तक न्यायालय द्वारा तय नहीं किया जाय, अनिश्चित नुक्सानी और अन्तःकालीन लाभ दावे अनिस्चित माने जायेंगे और उनका मुजरा सम्भव नहीं होगा। परन्तु उनके लिये प्रतिदावा किया जा सकेगा।

    न्यायालय शुल्क- मुजरा, (चाहे विधिक या साम्यापूर्ण) तथा प्रतिदावा दोनों के लिये "न्यायालय फीस अधिनियम, 1870" की प्रथम अनुसूची के प्रथम अनुच्छेद के अधीन मूल्यांकन के आधार पर न्यायालय शुल्क देना आवश्यक है, जो प्रतिवाद-पत्र के साथ देना होगा। ऐसा न करने पर मुजरा या प्रतिदावा खारिज किया जा सकता है। न्यायालय शुल्क लगाने का प्रावधान 1908 से पहले नहीं था, अतः पुराने विपरीत निर्णय अब लागू नहीं होंगे।

    मुजरा के कथन और संदाय के कधन में अन्तर करने का मापदण्ड संदाय के कथन और मुजरा के कथन के बीच अन्तर बहुत सूक्ष्म (बारीक) है। वाद के पहले किया गया कोई समायोजन मुजरा के रूप में नहीं होगा। यदि, जैसे कैसे, कोई दावा (मांग) किया जाता है और उसका भविष्य में समायोजन बाद के वाद में किया जाना है, तो यह मुजरा होगा। भुगतान और समायोजन का कथन "मुजरा" की श्रेणी में नहीं आता। अतः उस पर न्यायालय शुल्क नहीं लगेगा।"

    एक बैंक द्वारा किसी ऋगी के विरुद्ध लाये गये वाद में बैंक के पास ऋणी द्वारा रहन रखे माल की मात्रा के आधार पर केवल "समायोजन" करने का प्रतिवादी (ऋणी) का दावा और संशोधित वादपत्र में दिखाई गई माल की मात्रा में कमी पर आपत्ति करना "मुजरा" के लिए दावा (मांग) नहीं है। उस पर नियन 6 के अधीन कार्यवाही नहीं की जा सकती। वादी के द्वारा किये गये दोषपूर्ण निर्माण कार्य से उत्पत्र हुई हानि का कथन 'मुजरा' नहीं है, उस पर न्यायालय-शुल्क नहीं लगेगी।

    मुजरा (सेट ऑफ)- वादी के स्वामित्व के अधीन दोनों दुकानों से प्रतिवादी के संव्यवहार (लेन देन) था। इनमें से एक दुकान के लेखाओं में शोध्य रकमों की बाबत वादी द्वारा लाये गये वाद में दूसरी दुकान के लेखाओं पर भी विचार किया जा सकता है और प्रतिवादी किसी विशिष्ट संव्यवहार में अन्तर्वलित अभिनिश्चित राशि के मुजरा का दावा कर सकता है।

    मुजराई और समायोजन-

    मुजराई और समायोजन द्वारा संदाय मुजराई और समायोजन द्वारा संदाय में अन्तर- मुजराई का प्रश्न केवल उन्हीं शोध्यों की बाबत उठाया जा सकता है जो बकाया है और जिनका पहले से ही समायोजन नहीं किया गया है। जिस रकम का वाद संस्थित किए जाने से पूर्व समायोजन कर लिया जाता है वह मुजराई की कोटि में आता है और ऐसे संदाय पर न्यायालय फीस का दिया जाना अनिवार्य है।

    जहां प्रतिवादी कोई दावा करता है, तो वादी को भी छूट है कि वह प्रतिवादी के प्रतिदावे का प्रतिदावा प्रस्तुत करे। यह इसलिए अनुज्ञेय है कि इसकी अनुमति देने पर कोई विधिक बाधा नहीं है। आदेश 8, नियम 6(2) प्रतिवादी के प्रतिदावे को प्रतीपवाद (क्रास केस) के समान प्रभावी बनाती है। फिर आदेश है, नियम 1, जो पश्चात्वर्ती अभिवचन का वर्जन करता है, प्रतिदावों की प्रतिरक्षा के रूप में फाइल किए गए अभिवचनों कर लागू नहीं होता।

    जब वादी ने अपने आपको बम्बई उच्च न्यायालय की नावधिकरण (एडमिरलटी) अधिकारिता को सौंप दिया, तो प्रतिवादी आदेश है, नियम सि. प्र. से. के अधीन प्रतिदावा फाइल कर सकता है।

    मुजरा का अधिकार- बैंक ने एक संविदा के अधीन ऋण दिया, जिसने यह शर्त थी कि शोध्य ऋण की वसूली के लिए बैंक ऋणी चालू खाते में से रकम निकालकर मुजरा (सेट ऑफ) दे सकेगा। बैंक ने यही किया और वर्ष के चालू खाते में से बकाया ऋण की राशि ऋणी के खाते में अन्तरित कर उस रकम का मुजरा दे दिया। बैंक को ऐसा करने का अधिकार था।

    मुजरा के अभिवचन का प्रारूपण मुजरा का दावा विनिर्दिष्ट रूप से प्रतिवाद-पत्र में ही किया जा सकता है। अतः वादपत्र का उत्तर देने के बाद प्रतिवाद-पत्र में अलग से मुजरा का अभिवचन करना चाहिये, जिसमें मुजरा की विशिष्ट्रिया, मांगी गई धन राशि, उस राशि के लिये वादहेतुक, वह राशि किसने किसको क्यों दी, और कब यह राशि देय हुई, का विवरण देना होगा। इसमें सम्पूर्ण राशि सम्मिलित की जानी चाहिये, अन्यथा छोड़ी गई राशि आदेश 2 नियम 2 से वर्जित हो जायेगी।

    मुजरा का पूरा विवरण देने के साथ यह कहना होगा कि इस प्रकार प्रतिवादी वादी के दावे के विरुद्ध उक्त धनराशि के मुजरा करने की मांग करता है और प्रार्थना करता है कि वादी के दावे से अधिक पाये जाने वाली राशि के लिये प्रतिवादी के पक्ष में निर्णय दिया जाय।

    मुजरा और प्रतिदावा में भेद-

    मुजरा और प्रतिदावा के मध्य विधि में एक सुस्थापित अन्तर है। मुजरा प्रतिरक्षा का एक आधार है, वह एक ढाल है, तलवार नहीं जो स्थापित होने पर वादी के दावे को पूर्णतः या भगतः (protanto) समायोजित कर देता है, परन्तु प्रतिदावा वादी के दावे के सिद्ध कोई प्रतिरक्षा नहीं है, वरन् एक आक्रमण का हथियार है, जो प्रतिवादी को बादी के विरुद्ध अपने दावे को एक स्वतंत्र कार्यवाही के रूप में प्रभावशीलता से प्रवर्तित (लागू) करने के लिये योग्य बनाता है।

    प्रतिदावा एक प्रकार का प्रतीप वाद (cross action) है, जो विधिक मुजरा या साम्यापूर्ण मुजरा के समान नहीं है। प्रत्येक मुजरा को एक प्रतिदावे की तरह अभिवचनित किया जा सकता है, प्रत्येक प्रतिदावे को एक मुजरे के रूप में अभिवचनित नहीं किया जा सकता। प्रतिदावा केवल तभी संधारणीय है, जहां प्रतिवादी उसी समान अनुतोष के लिए उसी समान न्यायालय में जिसमें वह प्रतिदावा लाता है, एक स्वतंत्र वाद लाने के लिए हकदार हो।

    यदि प्रतिवादी को देय राशि वादी के दावे में कम या बराबर पायी जाती है, तो बकाया राशि की डिक्री वादी के पक्ष में दी जावेगी और ऐसे मामले में प्रतिवादी का कथन शुद्ध रूप से मुजरा का कथन होगा, परन्तु यदि इसके विपरीत प्रतिवादी को देय राशि वादी के दावे से अधिक पायी जावे, तो इसे प्रतिदावा या प्रतीपवाद मानकर अधिक राशि की डिक्री प्रतिवादी के पक्ष में दी जावेगी।

    प्रतिदावा प्राथमिक रूप से मुजरे के रूप में एक प्रतिरक्षा है। अत: बादी के दावे को साफ करने के बाद जो राशि प्रतिवादी को देय बचती है, वह "प्रतिदावा" बन जाती है।

    जहां खाता के आधार पर किसी राशि की वसूली के लिये किए गए वाद में, प्रतिवादी ने अपने अतिरिक्त लिखित कथन में प्रतिदावा प्रस्तुत किया जो उसके और वादी के बीच हुए एक करार पर आधारित संव्यवहार (लेन-देन) के हिसाब के लिए था। इस लिखित कथन को एक प्रतीपदावा समझा जा सकता है।

    प्रतिदावा विधि में एक ऐसा दावा (मांग) है, जिसमें एक प्रतिवादी या विपक्षी वादी की मांग से अधिक अपनी मांग प्रस्तुत करता है। मुजरा वादी के दावे को या उसके किसी अधिकार को उसके विरुद्ध किसी बकाया या किसी अधिकार के साथ समायोजन करने का अधिकार है।

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