सिविल प्रक्रिया संहिता, 1908 आदेश भाग 180: आदेश 32 नियम 14 व 15 के प्रावधान
Shadab Salim
17 Jun 2024 9:25 AM GMT
सिविल प्रक्रिया संहिता,1908(Civil Procedure Code,1908) का आदेश 32 का नाम 'अवयस्कों और विकृतचित्त व्यक्तियों द्वारा या उनके विरुद्ध वाद है। इस आदेश का संबंध ऐसे वादों से है जो अवयस्क और मानसिक रूप से कमज़ोर लोगों के विरुद्ध लाए जाते हैं या फिर उन लोगों द्वारा लाए जाते हैं। इस वर्ग के लोग अपना भला बुरा समझ नहीं पाते हैं इसलिए सिविल कानून में इनके लिए अलग व्यवस्था की गयी है। इस आलेख के अंतर्गत आदेश 32 के नियम 14 एवं 15 पर टिप्पणी प्रस्तुत की जा रही है।
नियम-14 अयुक्तियुक्त या अनुचित वाद (1) यदि अवयस्क एक मात्र वादी है तो वह वयस्क होने पर आवेदन कर सकेगा कि उसके नाम में उसके वाद-मित्र द्वारा संस्थित वाद इस आधार पर खारिज कर दिया जाए कि वह अयुक्तियुक्त या अनुचित था।
(2) इस आवेदन की सूचना की तामील संबद्ध सभी पक्षकारों पर की जाएगी और ऐसी अयुक्तियुक्तता या अनौचित्य के बारे में अपना समाधान हो जाने पर न्यायालय आवेदन को मंजूर कर सकेगा और आवेदन के सम्बन्ध में सभी पक्षकारों के खर्चों का और वाद में की गई किसी बात में हुए खर्चों को देने के लिए आदेश वाद-मित्र को दे सकेगा या अन्य आदेश दे सकेगा जो वह ठीक समझे।
नियम-15 नियम 1 से नियम 14 तक का (जिनमें नियम 2 क सम्मिलित नहीं है) विकृतचित्त वाले व्यक्तियों को लागू होना-नियम 1 से नियम 14 तक (जिनमें नियम 2क सम्मिलित नहीं है) ऐसे व्यक्तियों को, जहाँ तक हो सके, लागू होंगे जो वाद के लम्बित रहने जाते हैं और ऐसे व्यक्तियों को भी लागू होंगे के पूर्व या उसके दौरान विकृतचित्त के न्यायनिर्णीत किए जो यद्यपि ऐसे न्यायनिर्णीत नहीं किए जाते हैं, किन्तु जब वे वाद लाते हैं या उनके विरुद्ध वाद लाया जाता है तब वे न्यायालय द्वारा जांच किए जाने पर किसी मानसिक दौर्बल्य के कारण अपने हित की संरक्षा करने में असमर्थ पाए जाते हैं।
नियम 14 अयुक्तियुक्त या अनुचित वाद के बारे में व्यवस्था करता है।
एकमात्र वादी के वयस्क हो जाने पर (उपनियम-1) जब किसी वाद में अवयस्क एकमात्र वादी हो और वह वयस्क हो जाता है, तो वह न्यायालय को आवेदन कर सकेगा कि उसके नाम में उसके वादमित्र द्वारा संस्थित किया गया वाद अयुक्तियुक्त या अनुचित था। अतः उसे खारिज कर दिया जाए।
वाद की खारिजी- (उपनियम-2) - (1) उपरोक्त आवेदन प्राप्त होने पर उस आवेदन की सूचना की तामील सभी पक्षकारों पर की जाएगी।
यदि न्यायालय का ऐसी अयुक्तियुक्तता या अनौचित्य के बारे में समाधान हो जाता है, तो वह (i) उस आवेदन को स्वीकार कर सकेगा, और (ii) आवेदन तथा वाद के सभी पक्षकारों का खर्चों को देने के लिए वादमित्र को आदेश दे सकेगा, या (iii) अन्य कोई ऐसा आदेश दे सकेगा, जो वह ठीक समझे।
अवयस्क द्वारा प्रतिरक्षा यदि किसी वाद का प्रतिवादी या अपील का प्रत्यर्थी उस वाद या अपील के लम्बित रहते वयस्कता प्राप्त कर लेता है, तो यदि वह उचित समझे, अभिलेख पर आकर स्वयं अपनी प्रतिरक्षा का संचालन कर सकता है। परन्तु यदि वह उस मामले को चालू रहने देता है, मानो वह अवयस्क ही है, तो यह मान लिया जावेगाबकि उसने उस निर्णय को मानने का विकल्प स्वीकार कर लिया है। अतः अपीलार्थी को कोई वादाधिकार (locus standi) नहीं था कि वह अपील के लम्बित रहते प्रत्यर्थी को नोटिस जारी करने के लिए आवेदन कर सके।
नियम 15 विकृतचित्त तथा मानसिक दौर्बल्य (दिमागी कमजोरी) वाले व्यक्तियों के मामलों में आदेश 32 के नियम 1 से 14 तक (नियम 2क को छोड़कर) को लागू करता है। इस प्रकार विकृतचित वाले व्यक्तियों को अवयस्क के समान अधिकार दिये गये हैं। विकृत चित्त व्यक्ति के लिए, वसीयती संरक्षक नियुक्त होने के उपरांत भी उसकी नैसर्गिक संरक्षक माता को ऐसे व्यक्ति बाबत अपने अधिकारों का प्रयोग करने से रोक नहीं सकते। वसीयती संरक्षक न्यायालय की अनुमति, जो मौखिक भी हो सकती है, के आधार पर ऐसे व्यक्ति के लिए वाद प्रस्तुत कर सकता है।
दो श्रेणी के व्यक्तियों पर लागू - आदेश 32, नियम 15 व्यक्तियों की दो सुभिन्न श्रेणियों का उल्लेख करता हैं-
(1) वे व्यक्ति, जो विकृतचित अधिनिर्णीत कर दिये गये हैं, और
(2) अन्य व्यक्ति, जो न्यायालय द्वारा की गई जांच में अपनी मानसिक अक्षमता के कारण अपने हितों की रक्षा करने में असमर्थ हैं।
दूसरी श्रेणी के व्यक्तियों के बारे में, यह स्पष्ट दर्शित होता है कि पक्षकारों के विकृतचित्त होने का प्रश्न मुख्य रूप से उस पक्षकार और न्यायालय के बीच में है और यह पक्षकारों स्वयं के बीच एक विवाद नहीं है। विधायिका ने अपनी बुद्धिमता के अन्तर्गत न्यायालय को विशालतर और पैतृक (Paternal) शक्ति प्रदान की है, ताकि वह यह देखे प्रत्येक पक्षकार अपने विधिक हित की रक्षा करने में समर्थ है और किसी भी प्रकार से मानसिक अक्षमता के कारण विकलांग तो नहीं है।
साथ ही यह समान रूप से महत्त्वपूर्ण है कि यह ध्यान दे कि यह विशाल आधार वाली शक्ति किसी मानसिक अक्षमता के मामले तक विस्तृत है और यह आवश्यक रूप से उस व्यक्ति के पूर्णतः विकृतचित्त होने की आत्यंतिक स्थिति से शासित नहीं होती। यह हितकारी (लाभदायक) और वास्तव में पैतृक शक्ति पूर्णतः न्यायालय में निहित है और वह उसके विवेक मात्र में है। जहाँ यह पाया जाये कि कोई एक पक्षकार मानसिक कमजोरी से ग्रसित है, तो वह (शक्ति) ऐसे पक्षकार के हितों की रक्षा के लिए कदम उठाने की कार्यवाही करेगा।
नियम 15 का लागू होना- गूंगे-बहरे भी निर्योग्यताधीन व्यक्ति होते हैं। उनके मामलों में नियम 15 लागू होता है। निर्योग्यताधीन व्यक्तियों में विकृतचित्त एवं पागल व्यक्ति भी सम्मिलित हैं। कमजोर चित्त (mind) वाले व्यक्ति भी इस नियम द्वारा आवृत होते हैं, यदि ये अपने हितों की रक्षा करने में अक्षम हों। अवयस्क, विकृतचित या मानसिक दौर्बल्य प्राप्त व्यक्ति के वादी होने पर यह अपने संरक्षक या वाद-मित्र की नियुक्ति की मांग कर सकता है।
पागलपन अधिनियम (लूनेसी एक्ट) के अधीन व्यवस्थापक (मैनेजर) का स्थान- जब किसी पागल को सम्पत्ति की व्यवस्था करने के लिए उक्त अधिनियम के अधीन एक व्यवस्थापक नियुक्त कर दिया गया, तो उसके अलावा अन्य व्यक्ति को उस पागल (विकृतचित्त) के वाद-मित्र के रूप में काम नहीं करना चाहिये।
पागलपन के लिए जांच किसी वाद या कार्यवाही के किसी पक्षकार के विरुद्ध उसके विकृतचित (पागल) ट्रेने के आरोपों की जांच पागलपन अधिनियम के अधीन जांच के समान नहीं हैं, परन्तु यह एक न्यायिक जांच है, जिसका प्रक्रिया के नियमों का पालन करते हुए संचालन किया जाता है, और न्यायालय को मेडिकल दक्ष व्यक्तियों की सहायता प्राप्त करनी चाहिये।
एक विकृत-चित्त व्यक्ति के वाद-मित्र ने उसकी ओर से वाद प्रस्तुत किया। आदेश 32, नियम 15 के अधीन वादी की प्रास्थिति (स्टेटस) के बारे में बाद फाइल करने के समय जांच नहीं करके न्यायालय ने वाद में जांच की। निर्णय हुआ कि-प्रारम्भिक प्रक्रम पर जांच करने का लोप एक उपचार-योग्य अनियनितता थी, इससे विचारण दूषित नहीं हुआ। किसी पक्षकार के बारे में मूर्ख या कम बुद्धि का होने का अभिकथन किया गया।
न्यायालय का यह कर्तव्य है कि वह इसकी पूरी छानबीन करे और उस व्यक्ति के लिए संरक्षक नियुक्त करके वाद में कार्यवाही करे। न्यायालय वादमित्र या वादार्थ संरक्षक की नियुक्ति के लिए आवेदन को उस दशा में नामंजूर कर सकता है, जहां वह स्पष्टतः अनुचित, तुच्छ या तंग करने वाला हो। किन्तु यदि न्यायालय जांच किए बिना ऐसा आवेदन नामंजूर न करना चाहे तो यह नहीं कहा जा सकता कि उसने ऐसा करके अधिकारिता के बिना कार्यवाही की है अथवा कोई अनियमितता या अवैपता बरती है।
एक मामले में एक विकृत-चित्त व्यक्ति के नाम से उसके वाद-मित्र ने वादपत्र फाइल किया। प्रतिवादी ने तर्क दिया कि वह गूंगा है, न कि मूर्ख (idiot)। ऐसी स्थिति में न्यायालय जांच किये बिना और इस प्रश्न (विवाद्यक) को विशेष रूप से उठाये बिना और फिर उस पर विचारण किये बिना उस वादपत्र को स्वीकार नहीं कर सकता। एक व्यक्ति को विकृतचित्त घोषित करने व उसका संरक्षक नियुक्त करने का आवेदन किया गया। न्यायालय ने आदेश किया कि परीक्षा करने पर पक्षकार विकृतचित्त प्रतीत होता है। अभिनिर्धारित किया-न्यायिक जांच के बिना ऐसा आदेश करना अविधिमान्य है।
जाँच नहीं करने पर आदेश निरस्त स्वत्वाधिकार (टाइटल) के वाद में संरक्षक के रूप में प्रतिनिधित्व - विपक्षी 10 वर्ष की आयु का वृद्ध तथा मानसिक व शारीरिक रूप से अक्षम बताया गया। उसे न्यायालय ने संरक्षक के द्वारा प्रतिनिधित्व करने की स्वीकृति दी, जो उपजिला मेडिकल अधिकारी की रिपोर्ट पर आधारित था। उस मेडिकल रिपोर्ट पर विश्वास किया गया, पर उस मेडिकल अधिकारी की परीक्षा नहीं की गई और इससे उसकी प्रतिरक्षा नहीं की जा सकी। पक्षकार क्या वास्तव में मानसिक रूप से अक्षम था। इस बारे में न्यायालय ने कोई गवाह की परीक्षा या जांच नहीं की। इस प्रकार न्यायालय अपनी अधिकारिता का प्रयोग करने में असफल रहा। आदेश निरस्त किया गया।
पागल के विरुद्ध डिक्री शून्य
यह सुस्थिर सिद्धान्त है कि यदि संरक्षक की नियुक्ति के बिना किसी अवयस्क के विरुद्ध कोई डिक्री पारित की जाती है, तो वह डिक्री अकृत और शून्य होती है, न कि शून्यकरणीय। यह सिद्धान्त पागल व्यक्ति को भी सिविल प्रक्रिया संहिता के आदेश 32 के नियम 15 के आधार पर लागू हो जाता है। ऐसी डिक्री के अधीन निष्पादन में किया गया विक्रय भी आदितः शून्य होता है। पागल (विकृतचित्त) व्यक्ति के विरुद्ध डिक्री जब एक पागल व्यक्ति के विरुद्ध, जिसका उचित प्रतिनिधित्व नहीं किया गया, पारित डिक्री को अपास्त करने के लिए आवेदन यदि नियम 5 के अधीन नहीं, तो धारा 151 के अधीन दिया जा सकता है। बिना उचित प्रतिनिधित्व के दी गई विकृतचित्त व्यक्ति के विरुद्ध डिक्री शून्य होगी।
विकृतचित्त (पागल) व्यक्ति की सम्पत्ति का उसकी पत्नी द्वारा अन्य संक्रामण - एक मामले में एक विकृतचित्त (पागल) व्यक्ति की पत्नी ने उसकी सम्पत्ति बेच दी। इस पर उस पागल ने अपने वाद-मित्र के माध्यम से एक वाद प्रस्तुत किया। पत्नी इस मामले में प्रतिवादी थी, अतः उसे वाद-मित्र (नेक्स्ट फ्रेण्ड) नियुक्त नहीं किया जा सकता और इसलिए उसे नोटिस देना आवश्यक नहीं था। वादमित्र की नियुक्ति का कोई औपचारिक आदेश पारित नहीं किया गया। यह एक अनियमितता मात्र है। ऐसा वाद चलने योग्य है।