सिविल प्रक्रिया संहिता, 1908 आदेश भाग 176: आदेश 32 नियम 5 व 6 के प्रावधान

Shadab Salim

27 May 2024 4:28 AM GMT

  • सिविल प्रक्रिया संहिता, 1908 आदेश भाग 176: आदेश 32 नियम 5 व 6 के प्रावधान

    सिविल प्रक्रिया संहिता,1908(Civil Procedure Code,1908) का आदेश 32 का नाम 'अवयस्कों और विकृतचित्त व्यक्तियों द्वारा या उनके विरुद्ध वाद है। इस आदेश का संबंध ऐसे वादों से है जो अवयस्क और मानसिक रूप से कमज़ोर लोगों के विरुद्ध लाए जाते हैं या फिर उन लोगों द्वारा लाए जाते हैं। इस वर्ग के लोग अपना भला बुरा समझ नहीं पाते हैं इसलिए सिविल कानून में इनके लिए अलग व्यवस्था की गयी है। इस आलेख के अंतर्गत आदेश 32 के नियम 5 एवं 6 पर टिप्पणी प्रस्तुत की जा रही है।

    नियम-5 वाद-मित्र या वादार्थ संरक्षक द्वारा अवयस्क का प्रतिनिधित्व (1) अवयस्क की ओर से हर ऐसा आवेदन जो नियम 10 के उपनियम (2) के अधीन आवेदन से भिन्न है, उसके वाद-मित्र या उसके वादार्थ संरक्षक द्वारा किया जाएगा।

    (2) जहां अवयस्क का प्रतिनिधित्व, यथास्थिति, वाद-मित्र या वादार्थ संरक्षक द्वारा नहीं हुआ है वहां हर आदेश जो न्यायालय के समक्ष के वाद में या आवेदन पर किया गया है और जिससे ऐसा अवयस्क किसी प्रकार सम्बन्धित है या जिसके द्वारा उस पर किसी प्रकार प्रभाव पड़ता है, अपास्त किया जा सकेगा और उस दशा में खर्चे सहित अपास्त किया जा सकेगा जिसमें उस पक्षकार का जिसकी प्रेरणा पर ऐसा आदेश अभिप्राप्त किया गया था, प्लीडर ऐसी अवयस्कता के तथ्य को जानता था या युक्तियुक्त रूप से जान सकता था, जो खर्चा उस प्लीडर द्वारा दिया जाएगा।

    नियम-6 अवयस्क की ओर से वाद-मित्र या वादार्थ संरक्षक को डिक्री के अधीन सम्पत्ति की प्राप्ति-(1) वाद-मित्र या वादार्थ संरक्षक न्यायालय की इजाजत के बिना न तो- (क) डिक्री या आदेश के पूर्व समझौते के तौर पर, और न (ख) अवयस्क के पक्ष में डिक्री या आदेश के अधीन, किसी भी धन या अन्य जंगम सम्पत्ति को अवयस्क की ओर से प्राप्त करेगा।

    (2) जहाँ वाद-मित्र या वादार्थ संरक्षक अवयस्क की सम्पत्ति का संरक्षक होने के लिए सक्षम प्राधिकारी द्वारा नियुक्त या घोषित नहीं किया गया है या ऐसे नियुक्त या घोषित किए जाने पर धन या अन्य जंगम सम्पत्ति को प्राप्त करने के लिए ऐसी किसी निर्योग्यता के अधीन है जो न्यायालय को ज्ञात है वहाँ, यदि न्यायालय सम्पत्ति प्राप्त करने के लिए उसे इजाजत देता है तो, वह ऐसी प्रतिभूति अपेक्षित करेगा और ऐसे निदेश देगा जिनसे न्यायालय की राय में सम्पत्ति की दुर्व्यय से पर्याप्त रूप से संरक्षा होगी और उसका उचित उपयोजन सुनिश्चित होगा :

    [परन्तु न्यायालय वाद-मित्र या वादार्थ संरक्षक को डिक्री या आदेश के अधीन धन या अन्य जंगम सम्पत्ति प्राप्त करने की इजाजत देते समय ऐसे कारणों से जो लेखबद्ध किए जाएँगे, ऐसी प्रतिभूति देने से उस दशा में अभिमुक्त कर सकेगा जिसमें ऐसा वाद-मित्र या संरक्षक-

    (क) हिन्दू अविभक्त कुटुम्ब का कर्ता है और डिक्री या आदेश कुटुम्ब की सम्पत्ति या कारबार के सम्बन्ध में है; अथवा

    (ख) अवयस्क का माता या पिता है।]

    इस आदेश का नियम 5 वाद-मित्र या वादार्थ संरक्षक द्वारा अवयस्क के प्रतिनिधित्व करने सम्बन्धी उपबन्ध करता है।

    अवयस्क की ओर से दिया जाने वाला प्रत्येक आवेदन उसके वादमित्र या वादार्थ-संरक्षक द्वारा ही दिया जाएगा, परन्तु यदि नियम 10 (2) के अधीन प्लीडर (वकील) द्वारा उचित समय में कार्यवाही नहीं करने पर न्यायालय में आवेदन किया जाय कि वादमित्र नियुक्त किया जाए, तो ऐसा आवेदन वादमित्र या वादार्थ संरक्षक के माध्यम से देना आवश्यक नहीं है।

    प्रतिनिधित्व या वादार्थ संरक्षक द्वारा नहीं हुआ हो, तो उस वाद या आवेदन की कार्यवाही में दिया गया ऐसा हर एक आदेश अपास्त कर दिया जायेगा, जो अवयस्क से संबंधित है या उस पर कोई प्रभाव डालता है। इसमें खारिजी के साथ खर्चे भी उस पक्षकार या प्लीडर से दिलवाया जावेगा, जिसने जानबूझकर न्यायालय से ऐसा आदेश करवाया।

    नियम 5 का लागू होना - उपनियम (2) तभी लागू होता है, जब कोई संरक्षक नियुक्त नहीं किया गया हो, परन्तु उस मामले में नहीं, जहां संरक्षक की नियुक्ति की गई, पर वाद में अवैध घोषित कर दिया गया हो।

    न्यायालय का विवेक - यह न्यायालय के विवेकाधीन है कि वह उस आदेश को अपास्त करे या न करे, परन्तु यदि वह आदेश उस अवयस्क के लाभ (कल्याण) के लिए हो, तो वह उसे अपास्त नहीं करेगा। संरक्षक नियुक्त किये जाने के औपचारिक आदेश के अभाव में यदि अवयस्क या विकृतचित्त व्यक्ति का बड़ा भाई, जिसके हित उसके प्रतिकूल नहीं है, प्रतिनिधित्व कर रहा था तो ऐसे मामले में पारित डिक्री दूषित नहीं होगी।

    नियम 6 में वाद-मित्र या वादार्थ संरक्षक द्वारा अवयस्क की ओर से डिक्री के अधीन सम्पत्ति प्राप्त करने के बारे में उपबन्ध किये गये हैं।

    न्यायालय की इजाजत लिए बिना वाद- मित्र या वादार्थ संरक्षक को दो कार्य करने से मना किया गया है, अर्थात्

    (क) वह किसी डिक्री या आदेश के पहले समझौता के रूप में अवयस्क की ओर से कोई धन या दूसरी जंगम (चल) सम्पत्ति प्राप्त नहीं करेगा, और

    (ख) अवयस्क के पक्ष में डिक्री या आदेश हो जाने पर उसके अधीन कोई धन या दूसरी जंगम सम्पत्ति प्राप्त नहीं करेगा। ये दोनों आज्ञापक शर्तें हैं, जिनको कठोरता से न्यायालय लागू करेगा।

    वाद-मित्र या वादार्थ संरक्षक द्वारा प्रतिभूति (उपनियम-2) - न्यायालय जब किसी वाद- मित्र या वादार्थ संरक्षक को यदि ऐसी धनराशि या अन्य जंगम सम्पत्ति प्राप्त करने के लिए इजाजत देता है, तो वह दो बातें देखेगा कि- (1) उस वाद-मित्र या वादार्थ संरक्षक को किसी सक्षम प्राधिकारी ने उस अवयस्क की सम्पत्ति का संरक्षक नियुक्त या घोषित नहीं किया है, या

    (2) यदि ऐसी नियुक्ति या घोषणा करने के बाद वह वादमित्र या वादार्थ संरक्षक धन या चल सम्पत्ति प्राप्त करने के लिए निर्योग्य हो गया हो और न्यायालय को इसका पता है, तो ऐसी स्थिति में न्यायालय यदि उसे ऐसी सम्पत्ति प्राप्त करने की इजाजत देता है, तो वह उससे ऐसी प्रतिभूति की मांग करेगा और साथ ही ऐसे निर्देश भी देगा, जिनसे (1) न्यायालय की राय में उस सम्पत्ति का दुर्व्यय होने की पर्याप्त सुरक्षा रहेगी और (2) उसका सही उपयोग किया जा सकेगा।

    अपवाद-प्रतिभूति देने से छूट (परन्तुक) 1976 के संशोधन द्वारा यह नया उपबंध परन्तुक के रूप में जोड़ा गया है।

    इस उपनियम के परन्तुक के अनुसार निम्न दो परिस्थितियों में न्यायालय प्रतिभूति से छूट (अभिमुक्ति) दे सकेगा और इसके लिए कारण लेखबद्ध करेगा-

    (क) जब कि ऐसा वादमित्र या संरक्षक हिन्दू अविभक्त कुटुम्ब का कर्ता है और वह डिक्री या आदेश उस कुटुम्ब की सम्पत्ति या कारबार के बारे में है या (ख) वह वादमित्र या संरक्षक उस अवयस्क के माता या पिता हैं।

    नियम 6 का प्रक्षेत्र - नियम 6 किसी व्यक्ति को अपने स्वयं के अधिकार से घन या अन्य सम्पत्ति की वसूली से वर्जित नहीं करता है। एक संयुक्त हिन्दू कुटुम्ब का कर्ता या अवयस्क का नैसर्गिक संरक्षक जिसने वादमित्र करने के रूप में वाद में भाग लिया है या जिसे वादार्थ संरक्षक नियुक्त किया है, वह न्यायालय के नियंत्रण के अधीन होता है और वह इस नियम के उपबन्धों द्वारा बाध्य है। प्रिवी कौंसिल के निर्णयानुसार वादमित्र या संरक्षक द्वारा पर व्यक्ति को डिक्री या आदेश का समनुदेशन करने के लिए न्यायालय की अनुमति लेना आवश्यक नहीं है।

    Next Story