सिविल प्रक्रिया संहिता, 1908 आदेश भाग 170: आदेश 30 नियम 8 के प्रावधान

Shadab Salim

18 April 2024 5:33 AM GMT

  • सिविल प्रक्रिया संहिता, 1908 आदेश भाग 170: आदेश 30 नियम 8 के प्रावधान

    सिविल प्रक्रिया संहिता,1908(Civil Procedure Code,1908) का आदेश 30 फर्मों के अपने नामों से भिन्न नामों में कारबार चलाने वाले व्यक्तियों द्वारा या उनके विरूद्ध वाद है। जैसा कि आदेश 29 निगमों के संबंध में वाद की प्रक्रिया निर्धारित करता है इस ही प्रकार यह आदेश 30 फर्मों के संबंध में वाद की प्रक्रिया निर्धारित करता है। इस आलेख के अंतर्गत आदेश 30 के नियम 8 पर टिप्पणी प्रस्तुत की जा रही है।

    नियम-8 अभ्यापत्तिपूर्वक उपसंजाति (1) वह व्यक्ति, जिस पर समन की तामील भागीदार की हैसियत में नियम 3 के अधीन की गई है, यह प्रत्याख्यान करते हुए कि किसी तात्विक समय पर भागीदार था, अभ्यापत्तिपूर्वक उपसंजात हो सकेगा।

    (2) ऐसी उपसंजाति की जाने पर या तो वादी या उपसंजात होने वाला व्यक्ति वाद की सुनवाई और अन्तिम निपटारे के लिए नियत तारीख के पूर्व किसी भी समय न्यायालय से इस बात का अवधारण करने के लिए आवेदन कर सकेगा कि क्या वह व्यक्ति फर्म का भागीदार था और उस हैसियत में दायित्वधीन था।

    (3) यदि ऐसे आवेदन पर न्यायालय यह अभिनिर्धारित करता है कि वह तात्विक समय पर भागीदार था तो यह बात उस व्यक्ति को प्रतिवादी के विरुद्ध दावे के रूप में फर्म के दायित्व का प्रत्याख्यान करते हुए प्रतिरक्षा फाईल करने से प्रवारित नहीं करेगी।

    (4) किन्तु यदि न्यायालय यह अभिनिर्धारित करता है कि ऐसा व्यक्ति फर्म का भागीदार नहीं था और उस हैसियत में दायित्वाधीन नहीं था तो यह बात वादी को फर्म पर समन की अन्यथा तामील करने से और वाद आगे चलाने से प्रवारित नहीं करेगी, किन्तु उस दशा में वादी किसी ऐसी डिक्री के निष्पादन में जो फर्म के विरुद्ध पारित की जाए, फर्म के भागीदार की हैसियत में उस व्यक्ति के दायित्व का अभिकथन करने से प्रवारित हो जाएगा।

    नियम 8 आपत्ति करते हुए उपस्थित हुए पक्षकारों के दायित्व का निर्धारण करता है।

    नियम 8 को 1976 में प्रतिस्थापित कर नया नियम बनाया गया हैं। अभ्यापत्ति (एतराज) के साथ उपसंजात होने वाले भागीदार को उसकी भागीदारी होने या न होने के प्रश्न का निर्णय करवाने का अधिकार होना चाहिये। इसके बाद यदि उसे भागीदार होना निर्णीत किया जाता है, तो उसे फर्म का दायित्व इन्कार करने से नहीं रोका जाना चाहिये और दूसरी ओर यदि वह भागीदार नहीं पाया जाता है, तो वादी को प्रतिवादी फर्म पर उचित तरीके से समन तामील करने का अवसर मिलना चाहिये। इसी उद्देश्य से यह नया नियम बनाया गया है।

    इस नियम की महत्वपूर्ण बातें-

    जब समन तामील हो गये, तो वह व्यक्ति यह अभ्यापत्ति (प्रोटेस्ट) करते हुए उपस्थित होकर कहता है कि वह उस फर्म का उस समय भागीदार नहीं था, जब इस वाद का वाद हेतुक उत्पन्न हुआ।

    (2) पक्षकार वाद के निपटारे के पहले किसी भी समय न्यायालय में उस व्यक्ति के भागीदार होने व दायित्वाधीन होने या न होने का निश्चय करने के लिए आवेदन कर सकेगा।

    (3) यदि न्यायालय उसे भागीदार तय करता है, तो वह फर्म के दायित्व को अस्वीकार करते हुए प्रतिरक्षा (लिखित-कथन) फाइल कर सकेगा, और

    (4) यदि उसे न्यायालय भागीदार तय नहीं करता है, तो वादी फर्म पर समन की तामील करवा सकेगा, परन्तु उस वाद में पारित डिक्री के निष्पादन में वह उस व्यक्ति को भागीदार नहीं कह सकेगा।

    बिना अभ्यापत्ति के उपस्थिति का प्रभाव - एक व्यक्ति पर भागीदार के रूप में समन तामील हुए और वह उपस्थित हुआ और उसने स्थगन की मांग की। सुनवाई के समय उसने कथन किया कि वह भागीदार नहीं था। इस पर निर्धारित कि-उसकी बिना अभ्यापत्ति (प्रोटेस्ट) के उपस्थिति फर्म की ओर से उपस्थिति के रूप में जारी रही और पारित की गई डिक्री भी फर्म के नाम से उस फर्म के ही विरुद्ध है।

    एक फर्म के विरुद्ध बेदखली और किराये की बकाया के लिए वाद - कुछ व्यक्तियों को फर्म के तथा कथित भागीदारों के रूप में पक्षकार बनाया गया। उन्होंने उपस्थित होकर एतराज किया और अस्वीकार किया कि जब यह वाद हेतुक उत्पन्न हुआ, उस समय वे उस फर्म के भागीदार नहीं थे।

    उस संगत समय पर उनकी प्रास्थिति के बारे में न्यायालय ने कोई निर्णय नहीं दिया। इस पर निर्णय दिया गया कि एतराज करने वाले प्रतिवादियों के लिखित कथनों को ऐसी परिस्थिति में अभिलेख पर से हटा देना चाहिये। आदेश 30, नियम 6 यह अनुज्ञात करता है कि-वाद फर्म के नाम से आगे बढ़े क्योंकि इन एतराजकर्ता प्रतिवादियों ने अपने लिखित-कथन व्यक्तिगत प्रास्थिति (हैसियत) में दिये थे, अतः वाद एकपक्षीय चलेगा।

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