सिविल प्रक्रिया संहिता, 1908 आदेश भाग 167: आदेश 30 नियम 4 के प्रावधान

Shadab Salim

15 April 2024 4:40 AM GMT

  • सिविल प्रक्रिया संहिता, 1908 आदेश भाग 167: आदेश 30 नियम 4 के प्रावधान

    सिविल प्रक्रिया संहिता,1908(Civil Procedure Code,1908) का आदेश 30 फर्मों के अपने नामों से भिन्न नामों में कारबार चलाने वाले व्यक्तियों द्वारा या उनके विरूद्ध वाद है। जैसा कि आदेश 29 निगमों के संबंध में वाद की प्रक्रिया निर्धारित करता है इस ही प्रकार यह आदेश 30 फर्मों के संबंध में वाद की प्रक्रिया निर्धारित करता है। इस आलेख के अंतर्गत आदेश 30 के नियम 4 पर टिप्पणी प्रस्तुत की जा रही है।

    नियम-4 भागीदार की मृत्यु पर वाद का अधिकार (1) भारतीय संविदा अधिनियम, 1872 (1872 का 9) की धारा 45 में किसी बात के होते हुए भी, जहां फर्म के नाम में वाद पूर्वगामी उपबन्धों के अधीन दो या अधिक व्यक्ति लाते हैं या उन पर लाया जाता है और चाहे किसी वाद के संस्थित किए जाने के पूर्व या उसके लम्बित रहने के दौरान ऐसे व्यक्तियों में से किसी की मृत्यु हो जाती है वहां यह आवश्यक नहीं होगा कि मृतक के विधिक प्रतिनिधि को किसी वाद के पक्षकार की हैसियत में संयोजित किया जाए। (2) उपनियम (1) की कोई भी बात ऐसे मृतक के विधिक प्रतिनिधि के किसी भी ऐसे अधिकार को परिसीमित या अन्यथा प्रभावित नहीं करेगी जो उसका -

    (क) उस वाद का पक्षकार बनाए जाने के लिए आवेदन करने के लिए हो, अथवा (ख) किसी दावे को उत्तरजीवी या उत्तरजीवियों के विरुद्ध प्रवृत्त करने के लिए हो।

    किसी भागीदार की मृत्यु हो जाने पर भी फर्मनाम से लाया गया वाद बिना उसके विधिक प्रतिनिधियों को संयोजित किये चालू रहेगा। यह व्यवस्था आदेश 30 के नियम 4 में की गई है।

    विधिक-प्रतिनिधि का संयोजन आवश्यक नहीं आवश्यक शर्तें (उपनियम-1) -

    (1) भारतीय संविदा अधिनियम, 1872 की पारा 45 में विधिक प्रतिनिधियों का संयोजन करने के बारे में साधारण नियम दिया गया है, उसका यह नियम एक अपवाद है।

    (2) दो या अधिक व्यत्तित्यों द्वारा फर्म के नाम से वाद पिछले नियमों के अनुसार लाया गया हो, या किया गया हो, और (3) ऐसी स्थिति में (1) चाहे वाद संस्थित करने के पहले या (ii) उस वाद के विचाराधीन लम्बित रहते समय किसी भागीदार की मृत्यु हो जाती है, तो उसके विधिक प्रतिनिधियों का पक्षकार के रूप में संयोजित (सम्मिलित) करना आवश्यक नहीं होगा।

    विधिक-प्रतिनिधियों के अधिकारों की सुरक्षा (उपनियम-2) इस नियम की उपरोक्त बातों के अनुसार उस मृतक भागीदार के विधिक प्रतिनिधियों को पक्षकार नहीं बनाना उनके दो प्रकार के अधिकारों पर कोई सीमा नहीं लगाता (क) उस बाद में पक्षकार बनाने के लिए आवेदन करने के लिए, या (ख) दावे को उत्तरजीवी /उत्तरजीवियों के विरुद्ध लागू कराने के लिए।

    इस प्रकार मृतक-भागीदार के विधिक प्रतिनिधि को आवेदन द्वारा उस वाद के पक्षकार बनकर लाभ उठाने का अवसर भी दिया गया है।

    नियम 4 का लागू होना नियम केवल तभी लागू होता है, जब कि वाद फर्म-नाम से फाइल किया गया हो न कि जब भागीदारों द्वारा अपने व्यक्तिगत नाम से समझौता कर्ताओं के रूप में। दूसरी स्थिति में जब व्यक्तिगत नाम से वाद लाया गया हो और उन भागीदारों में से एक की मृत्यु हो जाने पर, इस प्रश्न पर न्यायालयों में मतभेद रहा कि- क्या जीवित भागीदारों द्वारा उस वाद को जारी (चालू) रखा जा सकता है।

    राजस्थान उच्च न्यायालय 64 ने इस प्रश्न का सकारात्मक उत्तर दिया है, जब कि मध्यप्रदेश उच्च न्यायालय ने नकारात्मक । आदेश 30 एक समर्थकारी उपबंध है। बिना आदेश 30 का सहारा लिए भागीदार सभी भागीदारों के नाम से वाद ला सकते हैं। ऐसी स्थिति में यदि उनमें से एक की मृत्यु हो जाती है, तो शेष भागीदार उस वाद को जारी रख सकते हैं और उसके विधिक प्रतिनिधियों को अभिलेख पर लाने की आवश्यकता नहीं है। भागीदारी अधिनियम की धारा 27 से यह निष्कर्ष निकाला जा सकता है।

    विधिक प्रतिनिधियों का संयोजन संविदा अधिनियम की धारा 45 के अनुसार तीन भागीदारों में से एक की मृत्यु हो जाने पर मृतक के विधिक प्रतिनिधियों के साथ मिलकर दोनों शेष भागीदार वाद ला सकते हैं, परन्तु इस नियम का प्रभाव यह है कि जहां वाद फर्म के नाम में लाया जाता है तो मृतक के विधिक प्रतिनिधियों को वादी के रूप में सम्मिलित किए जाने की कोई आवश्यकता नहीं है। 67 धारा 107 के प्रभाव से यह नियम अपील को भी लागू होता है।

    अतः विधिक प्रतिनिधि वादी-पक्षकार बनाये जाने के लिए आवेदन कर सकते हैं। केवल यही तथ्य कि उसने आवेदन नहीं किया, उसके अधिकार का प्रभावित नहीं करेगी और वह दोनों भागीदारों के पक्ष में पारित डिक्री के लाभों का मांगने के अधिकार से वंचित नहीं होंगे। यदि कोई वाद किसी फर्म के विरुद्ध है और वाद के पहले या उसके दोहरान कोई एक भागीदार मर जाता है, तो उस मृतक की भागीदारी की सम्पत्ति के भाग (अंश/शेयर) के विरुद्ध उस डिक्री को लागू किया जा सकता है।

    परन्तु यदि विधिक प्रतिनिधियों को सम्मिलित नहीं किया गया है, तो वह डिक्री उस मृतक भागीदार की व्यक्तिगत सम्पदा के विरुद्ध लागू नहीं की जा सकेगी। भागीदारों की मृत्यु से अपील का उपशमन नहीं प्रस्तुत वाद में फर्म को किरायेदार माना गया है और उसकी बेदखली चाही गई है। इसमें भागीदारों को पक्षकार बनाना आवश्यक नहीं था। वे केवल उचित और प्रारूपिक (formal) पक्षकार हैं। यह भी प्रकट नहीं होता कि मृत भागीदारों का कोई उत्तराधिकारी फर्म में शामिल हुआ।

    सिविल प्रक्रिया संहिता के आदेश 30 नियम 4 में यह बताया गया है कि जब दो या अधिक व्यक्तियों के विरुद्ध वाद फर्म के नाम से किया जाए और उन व्यक्तियों में से किसी की मृत्यु हो जाए तो उसके वारिसों को पक्षकार बनाना आवश्यक नहीं होगा। जिन भागीदारों की मृत्यु हो गई है, जिनके विरुद्ध कोई अनुतोष (रिलीफ) नहीं चाहा गया है। इस दशा में दो भागीदारों की मृत्यु से फर्म की अपील उपशमित नहीं होती।

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