सिविल प्रक्रिया संहिता, 1908 आदेश भाग 165: आदेश 30 नियम 2 के प्रावधान

Shadab Salim

30 March 2024 11:19 AM GMT

  • सिविल प्रक्रिया संहिता, 1908 आदेश भाग 165: आदेश 30 नियम 2 के प्रावधान

    सिविल प्रक्रिया संहिता,1908(Civil Procedure Code,1908) का आदेश 30 फर्मों के अपने नामों से भिन्न नामों में कारबार चलाने वाले व्यक्तियों द्वारा या उनके विरूद्ध वाद है। जैसा कि आदेश 29 निगमों के संबंध में वाद की प्रक्रिया निर्धारित करता है इस ही प्रकार यह आदेश 30 फर्मों के संबंध में वाद की प्रक्रिया निर्धारित करता है। इस आलेख के अंतर्गत आदेश 30 के नियम 2 पर विवेचना की जा रही है।

    नियम-2 भागीदारों के नामों का प्रकट किया जाना - (1) जहां कोई वाद भागीदारों द्वारा अपनी फर्म के नाम में संस्थित किया जाता है वहां वादी या उनका प्लीडर किसी भी प्रतिवादी द्वारा या उसकी ओर से लिखित मांग की जाने पर उस फर्म को गठित करने वाले सभी व्यक्तियों के नामों और निवास के स्थानों की लिखित घोषणा तत्क्षण करेगा जिनकी ओर से वाद संस्थित किया गया है। (2) जहां वादी या उनका प्लीडर उपनियम (1) के अधीन की गई किसी मांग को पूरा करने में असफल रहता है वहां वाद की सारी कार्यवाहियां उस प्रयोजन के लिए किए गए आवेदन पर ऐसे निबन्धनों पर रोकी जा सकेंगी जो न्यायालय निदिष्ट करे।

    (3) जहां भागीदारों के नाम उपनियम (1) में निदिष्ट रीति से घोषित कर दिए जाते हैं वहां वाद उसी प्रकार अग्रसर होगा और सभी दृष्टियों से वे ही परिणाम होंगे मानो वे वादियों के रूप में वादपत्र में नामित थे:

    [परन्तु सारी कार्यवाहियां तब भी फर्म के नामों में चालू रहेंगी किन्तु उपनियम (1) में विनिर्दिष्ट रीति से प्रकट किए गए भागीदारों के नाम डिक्री में प्रविष्ट किए जाएंगे।]

    आदेश 30 का नियम 2 भागीदारों के नाम प्रकट करने के तरीके व प्रभाव का वर्णन करता है।

    नियम 1 के अनुसार कोई भी पक्षकार न्यायालय में यह आवेदन कर सकता है कि- वाद हेतुक उत्पन्न होने के समय कौन-कौन व्यक्ति उस फर्म के भागीदार थे? ऐसी सूची को न्यायालय के निर्देशानुसार सत्यापित किया जाएगा।

    नाम व पते की घोषणा नियम 2 (1) के अनुसार जब भागीदारी फर्म के नाम से कोई वाद संस्थित किया जाता है और प्रतिवादी की ओर से लिखित मांग की जाती है, तो वादी की ओर से तत्क्षण तुरन्त सभी भागीदारों के नामों व पतों की घोषणा की जावेगी, जिनकी ओर से फर्म-नाम से दावा किया गया है।

    असफलता का प्रभाव [उपनियम (2)] - यदि ऐसी मांग को पूरा नहीं किया जाता है, तो प्रतिवादी के आवेदन करने पर सारी कार्यवाहियां न्यायालय द्वारा लगाई गई शर्तों पर रोकी जा सकेंगी।

    घोषणा के बाद वाद फर्म-नाम से ही चलेगा [उपनियम (3)] - उपनियम (1) में बताये तरीके से वादी द्वारा घोषणा कर देने पर वाद उसी प्रकार फर्म-नाम से चलेगा, मानो सभी दृष्टियों से घोषित भागीदार वादपत्र में नामित किये गये थे। परन्तु सारी कार्यवाही फर्म नाम से ही चलेगी और उन भागीदारों के नाम डिक्री में अंकित किए जावेंगे।

    इस प्रकार पक्षकारों के हितों का संरक्षण कर वादकरण की वृद्धि को रोकने के लिए यह नियम बनाया गया है।

    फर्म के भागीदारों के अभिलेख का विषय-क्षेत्र वादी द्वारा भागीदारों के नामों की घोषणा किया जाना-इस प्रश्न का निर्धारण कि पर्म के भागीदार कौन हैं? प्रतिवादी इस बात के लिए दावा नहीं कर सकते कि विपरीत घोषणा के बावजूद भी कोई विशिष्ट व्यक्ति वास्तव में फर्म का भागीदार था।

    एक वाद में प्रस्तुत वाद के फाइल किए जाने के तुरन्त बाद सिविल प्रक्रिया संहिता के आदेश 30, नियम के अधीन प्रतिवादियों की ओर से आवेदन फाइल किए जाने पर वादी फर्म के भागीदारों के नाम बादी फर्म की ओर से घोषित कर दिए गए थे। घोषणा में सत्यवती के नाम का उल्लेख वादी फर्म की एक भागीदार के रूप में नहीं किया गया था। जहां तक इस प्रश्न का सम्बन्ध है कि वादी फर्म के लाभों के अंश का हकदार कौन होगा और उसकी आस्तियों के अन्य हकदार कौन होना चाहिए, वादी फर्म के भागीदारों के लिए एक मुख्य विषय है।

    इस मामले के तथ्यों से यह प्रकट होता है कि वादी फर्म के भागीदार आपस में इस बात के लिए सहमत हो गए थे कि जहां तक वादी फर्म के लाभों और आस्तियों के चार आने के अंश का सम्बन्ध है, फर्म का भागीदार ही उसके लिए हकदार होगा। इस बात को भी आयकर प्राधिकारियों को किये गये फर्म के रजिस्ट्रीकरण के सम्बन्ध में, आवेदनों में सत्यवती के द्वारा स्वीकार कर लिया गया था। हमारी राय में उन प्रतिवादियों द्वारा, जिनसे धन का दावा किया गया है यह दलील दी जाना पूर्ण रूप से अमान्य होगी।

    हालांकि सत्यवती और साथ ही साथ दूसरे भागीदार इस बात का दावा करते हैं कि वह व्यक्ति (सत्यवती) नहीं थी बल्कि उसका पुत्र शशि कुमार था जो कि भागीदारी में चार आने के अंश का हकदार है तो भी इस विषय में न्यायालय को यह अभिनिर्धारित करना चाहिये कि सत्यवती उस अंश के लिए हकदार थी। वादी फर्म और प्रतिवादी फर्म के बीच उपर्युक्त संदर्भ में जो अन्तर है उसकी अवहेलना नहीं की जानी चाहिए। जहां तक प्रतिवादी फर्म का, जिसके विरुद्ध धन की वसूली के लिए वाद फाइल किया गया था।

    सम्बन्ध में वादी इस बात के लिए स्वतन्त्र होगा कि वह उस व्यक्ति के तथा प्रतिवादी फर्म के अन्य भागीदारों के द्वारा इनकार किए जाने के तथ्य के बावजूद भी यह साबित करे कि कोई व्यक्ति प्रतिवादी फर्म का भागीदार है। इसका कारण यह है कि कुछ मामलों के अतिरिक्त जिन के प्रति निर्देश करना आवश्यक नहीं है, प्रतिवादी फर्म का कोई लेनदार भी प्रत्येक भागीदार की व्यक्तिगत आस्तियों के विरुद्ध कार्यवाही करने का हकदार होता है। इस प्रकार से विचार किया जाना उस स्थिति में समुचित नहीं होगा जब कि विवाद ऐसे प्रश्न से सम्बन्धित है कि वादी फर्म के कौन भागीदार हैं।

    ऊपर यह उल्लेख किया गया है कि शिवरतन ने साक्ष्य देते हुए यह कथन किया है कि तारीख 24 अक्तूबर, 1949 के भागीदारी विलेख के आधार पर कार्य नहीं किया गया है। यह कथन शिवरतन के धन से सम्बन्धित हित के विरुद्ध है। समस्त तथ्यों को ध्यान में रखते हुए हमारी यह राय है कि विचारण न्यायालय ने उस सीमा तक सही दृष्टिकोण अपनाया है जहां तक कि उसने यह अभिनिर्धारित किया है कि सत्यवती वादी फर्म की भागीदार नहीं बनी थी और यह कि तारीख 24 अक्तूबर, 1949 के भागीदारी विलेख के आधार पर कार्य नहीं किया गया था।

    एक अवसर और देने का प्रभाव नियम 2 के अधीन फर्म द्वारा यदि पूरे नाम प्रकट नहीं किये जाते हैं और उसे एक अवसर और दिया जाता है, तो यह नया प्रकटीकरण नये पक्षकारों को जोड़ना होगा और यदि परिसीमा की अवधि समाप्त हो गई है, तो ऐसी घोषणा या प्रकटीकरण निष्फल हो जाएगा। इस निर्णय से मध्यप्रदेश 48 और राजस्थान 49 ने असहमति व्यक्त की है कि उच्चतम न्यायालय के पुरुषोत्तम एण्ड कम्पनी के निर्णय की दृष्टि में यह सही विधि का कथन नहीं करता है।

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