सिविल प्रक्रिया संहिता, 1908 आदेश भाग 164: आदेश 30 नियम 1 के प्रावधान

Shadab Salim

30 March 2024 11:16 AM GMT

  • सिविल प्रक्रिया संहिता, 1908 आदेश भाग 164: आदेश 30 नियम 1 के प्रावधान

    सिविल प्रक्रिया संहिता,1908(Civil Procedure Code,1908) का आदेश 30 फर्मों के अपने नामों से भिन्न नामों में कारबार चलाने वाले व्यक्तियों द्वारा या उनके विरूद्ध वाद है। जैसा कि आदेश 29 निगमों के संबंध में वाद की प्रक्रिया निर्धारित करता है इस ही प्रकार यह आदेश 30 फर्मों के संबंध में वाद की प्रक्रिया निर्धारित करता है। इस आलेख के अंतर्गत आदेश 30 के नियम 1 पर विवेचना की जा रही है।

    नियम-1 भागीदारों का फर्म के नाम से वाद लाना (1) कोई भी दो या अधिक व्यक्ति, जो भागीदारों की हैसियत में दावा करते हैं या दायी हैं और भारत में कारबार चलाते हैं, या उन पर उस फर्म के नाम से (यदि उसका कोई नाम हो) जिसके कि ऐसे व्यक्ति वाद हेतुक के प्रोद्भूत होने के समय भागीदार थे, वाद ला सकेंगे या उन पर वाद लाया जा सकेगा और वाद का कोई भी पक्षकार ऐसे मामले में न्यायालय से आवेदन कर सकेगा कि उन व्यक्तियों के जो वाद-हेतुक के प्रोद्भूत होने के समय ऐसी फर्म में भागीदार थे, नामों और पतों का कथन ऐसी रीति से किया जाए और सत्यापित किया जाए जो न्यायालय निदिष्ट करे।

    (2) जहां उनकी फर्म के नाम में भागीदारों की हैसियत में वाद उपनियम (1) के अधीन कोई व्यक्ति लाते हैं या उन पर लाया जाता है वहां किसी अभिवचन या अन्य दस्तावेज की दशा में जिसका वादी या प्रतिवादी द्वारा हस्ताक्षरित, सत्यापित या प्रमाणित किया जाना इस संहिता द्वारा या इसके अधीन अपेक्षित है, यह पर्याप्त होगा कि ऐसा अभिवचन या अन्य दस्तावेज ऐसे व्यक्तियों में से किसी भी एक द्वारा हस्ताक्षरित, सत्यापित या प्रमाणित कर दी जाए।

    आदेश 30 का नियम 1 भागीदारों के द्वारा और उनके विरुद्ध फर्म के नाम से वाद लाने की व्यवस्था करता है।

    (क) वाद करने या लाने का अधिकार -

    कोई भी दो या अधिक व्यक्ति, जो भागीदारों की हैसियत में दावा करते हैं या दायी हैं (इस प्रकार कम से कम दो व्यक्ति भागीदारी में होने आवश्यक हैं) और वे भारत में कारबार चलाते हैं, या उन पर उस फर्म-नाम से (यदि कोई हो), जिसके कि वे व्यक्ति वादहेतुक उत्पन्न होने के समय भागीदार थे वाद ला सकेंगे या उन पर वाद लाया जा सकेगा।

    विवरण प्राप्त करने का अधिकार ऐसे वाद का कोई भी पक्षकार ऐसे मामले में न्यायालय में आवेदन कर सकेगा कि - वादहेतुक उत्पन्न होने के समय उस फर्म के कौन-कौन व्यक्ति भागीदार थे और उनके नाम व पतों का विवरण दिया जावे। इसे न्यायालय के निदेशानुसार सत्यापित भी किया जायेगा।

    अभिवचन का सत्यापन का अधिकार - ऐसे मामलों में अभिवचन (वादपत्र और लिखित कथन) या अन्य दस्तावेजों पर हस्ताक्षर, सत्यापन या प्रमाणन ऐसे व्यक्तियों में से किसी एक द्वारा किया जा सकेगा।

    आदेश 30 नियम 1 व 2 की प्रयोज्यता (लागू होना) आदेश 30 के नियम 1 व 2 लागू होने का प्रश्न तभी उठता है, जब भागीदारी अधिनियम, 1932 की धारा 69 (2) के उपबंधों का अनुसार विधिपूर्वक वाद संस्थित किया गया हो, अन्यथा नहीं। अतः धारा 69 (2) के उपबंधों का अर्थान्वयन करने से कोई सहायता नहीं मिल सकती। इस मामले में, वाद संस्थित करने के दिनांक को फर्म के भागीदारों में से एक का नाम फर्मों के रजिस्टर में दर्शित नहीं किया गया था, ऐसी स्थिति में भागीदारी द्वारा संस्थित वाद असफल होगा।

    वादहेतुक के प्रोद्भूत होने के समय यह शब्दावली यह दर्शित करती है कि यद्यपि फर्म का चाहे वाद संस्थित करने की दिनांक के पहले विघटन हो गया हो, तो भी फर्म-नाम से एक फर्म की ओर से या उसके विरुद्ध वाद लाया जा सकता है, परन्तु शर्त यह है कि-वादहेतुक ऐसे विघटन के पहले प्रोद्भुत (उत्पन्न) हो गया हो।

    और भारत में कारबार चलाते हैं यह शब्दावली व्यापक है। शब्दावली कारबार चलाते हैं का कोई विशेष कानूनी महत्व नहीं है। इसे साधारण व्यापारिक अर्थ में समझना चाहिये। एक विदेशी-फर्म जिसके सदस्य न्यायालय की अधिकारिता से बाहर रहते हैं, पर वह फर्म भारत में कारबार चलाती है, तो इस नियम के अधीन उस पर फर्म-नाम से वाद लाया जा सकता है। इस नियम के लागू होने के लिए केवल एक प्रश्न पर विचार करना है कि-क्या वह फर्म भारत में कारबार / व्यापार करती है। 30 यदि वह ऐसा करती है तो उसके भागीदारों के विरुद्ध फर्म-नाम से वाद लाया जा सकता है, अन्यथा नहीं।

    जब एक विदेशी-फर्म के नाम से वाद संस्थित किया, तो उसमें फर्म-नाम को प्रतिस्थापित कर भागीदारों के नाम संशोधित किए जा सकते हैं। ऐसे प्रत्यास्थापन में नये पक्षकारों को जोड़ना अन्तर्वलित नहीं होता। 32 यदि इंग्लैण्ड की एक फर्म ने आर्डर इकट्ठे करने के लिए भारत में एक ऐजेन्ट को लगाया, जिसे आदेश नहीं था, तो यह नहीं कहा जा सकता कि वह फर्म भारत में कारबार करती है। इससे भी कोई अन्तर नहीं पड़ेगा, जब कि फर्म का नाम ऐजेन्ट के कार्यालय पर लगाया गया है।

    निष्पादन कार्यवाही में इस आदेश के अधीन पारित डिक्री का फर्म की सम्पत्ति के विरुद्ध निष्पादन उपलब्ध है, किन्तु भागीदार के शरीर या उसकी निजी सम्पत्ति के विरुद्ध निष्पादन आदेश 21, नियम 50 के अध्यधीन है। 34 आदेश 21, नियम 50 को साथ-साथ पढना होगा और जब फर्म के विरुद्ध डिक्री को उस व्यक्ति के विरुद्ध निष्पादन कराया जाता है, जो कि उस वाद में समन नहीं किया गया था, तो वह यह दर्शित कर सकता है कि वह भागीदार नहीं है, किन्तु यह नहीं कह सकता कि डिक्री गुणागुण पर गलत है।

    35 नियम 1 (2) डिक्री को या डिक्री के निष्पादन की किसी कार्यवाही को लागू नहीं होता। संयुक्त डिक्रीदारों में से एक दूसरे डिक्रीदारों की सहमति के बिना किसी डिक्री की तुष्टि को प्रमाणित नहीं कर सकता। 36 जहां वाद संस्थित करते समय परिवार (कुटुम्ब) के कुछ सदस्य दिवालिये थे और कुछ अवयस्क थे और केवल एक सदस्य उस वादी-फर्म में शेष रहा, तो ऐसी भागीदारी, जो परिवार के नाम से थी, के विघटन के लिए वाद चलने योग्य नहीं है।

    बैंक द्वारा भागीदारी फर्म के विरुद्ध धनीय वाद बैंक द्वारा भागीदारी फर्म के विरुद्ध धन के वाद में फर्म तथा दो भागीदारों के विरुद्ध डिक्री-शेष दो भागीदारों के विरुद्ध वाद खारिज उन दो भागीदारों के विरुद्ध अपील में अन्य भागीदार तथा फर्म आवश्यक की जा सकती। पक्षकार नहीं अतः अपील उन्हें पक्षकार न बनाने के आधार पर खारिज नहीं अपीलार्थी भारतीय स्टेट बैंक ने एक भागीदारी फर्म तथा उसके चार भागीदारों के विरुद्ध घन के लिए वाद किया।

    वाद फर्म, प्रतिवादी सं. 1, तथा दो भागीदारों (प्रतिवादी से 2 व 4) के विरुद्ध डिक्री हो गया तथा शेष दो भागीदारों (प्रतिवादी सं. 3 व 5) के विरुद्ध खारिज हो गया। बैंक ने प्रतिवादी सं. 3 व 5 के विरुद्ध अपील की और उसमें शेष तीन प्रतिवादियों को पक्षकार नहीं बनाया। प्रारम्भिक आपत्ति की जाने पर उच्च न्यायालय ने निर्णय किया कि शेष प्रतिवादी आवश्यक पक्षकार हैं और उनकी अनुपस्थिति के कारण अपील खारिज कर दी गई। अतः यहां अपील की गई।

    उक्त वाद में कहा गया कि हमें मामले के गुणागुण में गए बिना यह देखना है कि अन्य तीन पक्षकार आवश्यक पक्षकार हैं या नहीं। वे स्पष्टताः आवश्यक नहीं हैं। विचारण न्यायालय ने उनके विरुद्ध डिक्री पारित कर दी है और अपील न किए जाने के कारण वह अन्तिम हो गई है। अब यदि अन्य दो प्रतिवादी भी ऋण के देनदार ठहराए जाते हैं तो उससे प्रतिवादी सं. 1, 2 व 4 पर प्रतिकूल प्रभाव नहीं पड़ सकता। यदि प्रस्तुत अपील मंजूर कर ली जाती है तो उससे प्रतिवादी सं. 1, 2 व 4 पर बिल्कुल प्रतिकूल प्रभाव नहीं पड़ेगा, बल्कि वह यह पाएंगे कि अन्य भागीदार भी उनका भार वहन करने में भागीदार हो गए हैं।

    एक अन्य पक्ष भी है। फर्म के विरुद्ध डिक्री कर दी गई है जो प्रतिवादी सं. 3 व 5 के विरुद्ध भी लागू होगी।

    उनके विरुद्ध वाद खारिज करके एक विडम्बनापूर्ण स्थिति उत्पन्न कर दी गई है। किन्तु हम इस विषय में कोई अन्तिम राय व्यक्त नहीं करते। प्रतिवादी सं. 1, 2 व 4 को यदि उच्च न्यायालय उचित पक्षकार समझे तो वह उन्हें प्रतिवादी बना सकता है। किन्तु अपील खारिज करने की इसमें कोई बात नहीं है। भागीदारी सहित सभी (चारों) भागीदारों को पक्षकार बनाते हुए भागीदार के विरुद्ध वाद में फर्म और दो भागीदारों के विरुद्ध डिक्री पारित कर दी गई किन्तु अन्य दो भागीदारों के विरुद्ध वाद खारिज कर दिया गया। दो वादियों को, जिनके विरुद्ध वाद खारिज कर दिया गया था, पक्षकार बनाकर की गई अपील चलने योग्य नहीं है जब तक कि अन्य भागीदारों को पक्षकार न बनाया जाए।

    एक भागीदार के दिवालिया होने का प्रभाव

    एक वाद में फर्म की ओर से भागीदारी सम्पत्ति के विक्रय-विलेख का निष्पादन करने के लिए वाद के लम्बित रहने के दौरान एक भागीदार दिवालिया हो गया। उस वाद में दी गई डिक्री दिवाला न्यायालय को प्रतिवादी बनाए बिना ही आबद्धकर होगी। निष्पादन न्यायालय अथवा शोधक्षम भागीदार सम्पूर्ण भागीदारी सम्पत्ति का विधिमान्य विक्रय-विलेख निष्पादित कर सकते हैं। भागीदारी सम्पत्ति को आबद्ध करने के लिए फर्म के विरुद्ध किसी वाद में सभी या किन्हीं भागीदारों को उनके नाम से पक्षकार बनाना आवश्यक नहीं है। भागीदारों को व्यष्टितः सम्मिलित करना तब आवश्यक है, जब उन्हें व्यक्तिगत रूप से आबद्ध करना हो।

    फर्म के भागीदारों को पक्षकार बनाने की अनुमति फर्म इसका गठन करने वाले भागीदारों का एक संचयित-नाम मात्र है और संहिता के आदेश 30 के उपबन्धों के प्रभाव से ही एक फर्म वाद ला सकती है या उसके विरुद्ध वाद लाया जा सकता है, जिसमें भागीदारों को सह-नामितियों के रूप में पक्षकार न बनाकर फर्म के नाम से ही वाद लाया जाता है।

    अतः जहां विशेष अधिनियम (किराया नियंत्रण अधिनियम) के अधीन किराया और बेदखली की कार्यवाही में संहिता को लागू नहीं किया गया है, वहां फर्म के नाम से उस फर्म के विरुद्ध बेदखली का आवेदन चलने योग्य नहीं है। परन्तु यह बात अपने आप में उस आवेदन की खारिजी का परिणाम नहीं हो सकती। फर्म के भागीदार न्यायालय के सामने हैं, चाहे वे गलत नाम के अधीन हैं। यह आवेदन में गलत वर्णन का मामला मात्र होगा और इस गलत वर्णन को कार्यवाही के किसी भी प्रक्रम पर सही किया जा सकता है।

    वाद के शीर्षक के संशोधन के लिए अनुमति के लिए प्रत्यर्थियों द्वारा दिये गये आवेदन को जिसमें फर्म के भागीदारों के नाम फर्म के साथ जोड़ने के लिए तथा आवेदन में उसी के अनुसार संशोधन करने के लिए प्रार्थना है, स्वीकार किया गया और मामला किराया नियंत्रक को प्रतिप्रेषित किया गया।

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